मध्य प्रदेश: महामारी से श्रमिक नौकरी और मज़दूरी के नुकसान से गंभीर संकट में
जून 2021 में हजारों की संख्या में मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कर्मी (आशा) कार्यकर्ता अपने मासिक मानदेय में बढ़ोत्तरी किये जाने और अपने लिए स्थाई कर्मियों की स्थिति की मांग को लेकर 35 दिनों के लिए हड़ताल पर चले गए थे। 7 जुलाई को करीब 70,000 स्वास्थ्य कर्मियों की आठ दिनों तक चली यह लंबी हड़ताल तब जाकर खत्म हुई, जब मध्य प्रदेश (एमपी) उच्च न्यायालय के द्वारा उन्हें अगले दिन से काम पर वापस आने का आदेश दिया गया और राज्य सरकार को निर्देशित किया गया कि वह मुख्य सचिव की अध्यक्षता में चार लोगों की एक कमेटी गठित कर दो महीने के भीतर इस मुद्दे को हल करें। हड़ताल करने वालों में 40,000 स्थायी, 20,000 संविदा स्वास्थ्य कर्मी और 10,000 नर्सें शामिल थीं जिन्हें राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन द्वारा कोविड-19 महामारी के दौरान काम पर रखा गया था।
मार्च 2020 में कोरोनावायरस महामारी के फैलने के बाद से ही मध्य प्रदेश में श्रमिकों की स्थिति सोचने वाली बात है। विभिन्न क्षेत्रों के श्रमिक– वे चाहे स्वास्थ्य, शिक्षा, परिवहन, कोयला, या सीमेंट के क्षेत्र से जुड़े हों, महामारी की चपेट में आने से पहले ही संकटग्रस्त स्थिति में चल रहे थे। मार्च 2021 में लोकसभा में रखे गए आंकड़ों से पता चला कि राज्य पिछले तीन वर्षों में सबसे बड़ी संख्या में प्रभावित श्रमिकों एवं तालाबंदी से प्रभावित रहा है। यह बताया गया कि मध्य प्रदेश में कुल 3,738 नौकरियां चली गईं, जो प्रभावित श्रमिकों के 75% हिस्से का प्रतिनिधित्व करता है।
इस मुद्दे पर अपनी टिप्पणी में सेंटर ऑफ़ इंडियन ट्रेड यूनियंस (सीटू), मध्यप्रदेश के पूर्व महासचिव, बादल सरोज का कहना था, “श्रमिकों की आबादी का कोई तबका ऐसा नहीं है जो महामारी से प्रभावित न हुआ हो। मध्यप्रदेश में आबादी के बहुसंख्यक हिस्से को लॉकडाउन के दौरान मजदूरी और बड़े पैमाने पर नौकरियों से हाथ धोने का नुकसान उठाना पड़ा है। स्व-रोजगार से जुड़े श्रमिकों जैसे लुहार, बढ़ई, इलेक्ट्रीशियन, प्लम्बर, ड्राईवर इत्यादि अभी भी अपनी पूरी क्षमता से काम कर पाने की स्थिति में नहीं पहुँच पाए हैं। उन्हें अन्य शारीरिक श्रम वाले कामों को करने के लिए बाध्य होना पड़ा जिसमें उन्हें अपने पिछले काम से कम भुगतान प्राप्त हो रही था। इनमें से कई लोग कुशल श्रम से अकुशल श्रम में स्थानांतरित हो चुके हैं, जहाँ प्रतिस्पर्धा पहले से ही काफी अधिक थी। इसने उनकी आर्थिक स्थिति और उनकी स्थिरता को स्थायी तौर पर नुकसान पहुंचाया है।”
सीटू मध्यप्रदेश के महासचिव, प्रमोद प्रधान ने बताया कि पहले लॉकडाउन के दौरान, कुछ सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों को छोड़कर उत्पादन गतिविधियाँ पूरी तरह से ठप थीं। उन्होंने आगे बताया “इस पूरी अवधि के दौरान, सार्वजनिक क्षेत्र के भीतर सिर्फ स्थायी श्रमिकों को ही उनका वेतन मिल पाया था। उदहारण के लिए, भेल (भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड) में तकरीबन 3,500 स्थाई श्रमिकों को उनकी मजदूरी मिली, जबकि ठेका श्रमिकों को अपनी नौकरियों से हाथ धोना पड़ा था। यहाँ तक कि अनलॉक की प्रक्रिया शुरू होने के बाद भी उन्हें उनकी नौकरियों पर बहाल नहीं किया गया क्योंकि उत्पादन गतिविधि अभी भी पूरी तरह से चालू नहीं हो सकी है। चाहे संगठित क्षेत्र हो या असंगठित क्षेत्र, श्रमिकों को केंद्र सरकार या राज्य सरकार की तरफ से कोई मुआवजा नहीं प्राप्त हुआ है।”
2021 में दूसरे लॉकडाउन के दौरान श्रमिकों की स्थिति के बारे में विस्तार से बताते हुए प्रधान का कहना था “इस बार, उत्पादन गतिविधियों को स्थगित नहीं किया गया। लेकिन श्रमिकों की सुरक्षा और बचाव को लेकर कोई व्यवस्था सुनिश्चित नहीं की गई थी। इसका नतीजा यह हुआ कि भेल जैसे आधुनिक उद्योग तक में 34 से अधिक की संख्या में स्थाई कर्मचारियों ने कोविड-19 की चपेट में आने के कारण दम तोड़ दिया।”
साउथ ईस्टर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड (एसईसीएल) में वेलफेयर बोर्ड द्वारा इकट्ठा किये गए आंकड़े दर्शाते हैं कि कोविड-19 के कारण एसईसीएल के कुल 145 कर्मचारियों और दो ठेका श्रमिकों ने दम तोड़ दिया है। इस आंकड़े से यह भी पता चलता है कि एसईसीएल में कार्यरत कर्मचारियों एवं श्रमिकों के लगभग 13 आश्रितों की मृत्यु भी कोविड-19 की चपेट में आने के बाद हुई है। वेलफेयर बोर्ड के एक सदस्य और कोयला श्रमिक संघ (सीटू) के अध्यक्ष महेश श्रीवास्तव ने स्पष्ट किया कि जैसा कि आंकड़े सुझाते हैं की तुलना में आश्रितों की मृत्यु की संख्या के कहीं अधिक हो सकती है।
एसईसीएल भारत में कोयला उत्पादन के क्षेत्र में सबसे बड़ी कंपनी है और बेहद लाभकारी स्थिति में है। कंपनी के पास छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में कुल 92 खदानें हैं। वित्तीय वर्ष 2019-20 में कोल इंडिया लिमिटेड (सीआईएल) के बीच अपने शीर्षस्थ स्थान को बरकरार रखते हुए एसईसीएल ने सीआईएल के कुल कोयला उत्पादन में 25% हिस्से का योगदान दिया था।
श्रीवास्तव ने कहा, “पूरे लॉकडाउन की अवधि के दौरान एसईसीएल के 67,000 स्थाई कर्मचारियों ने काम किया और उन्हें पूरा वेतन दिया गय। इस अवधि के दौरान अनुबंध पर काम करने वाली श्रमशक्ति का लगभग 50% हिस्सा काम से पूरी तरह बाहर रहा।” उन्होंने बताया कि ट्रेड यूनियनों के संघर्ष के परिणामस्वरूप प्रबंधन ने उन श्रमिकों के परिवारों को 15 लाख रूपये के मुआवजे और मृतक के एक आश्रित को नौकरी पर रखने की घोषणा की, जो कोरोनावायरस के शिकार हो गए थे। उनका आगे कहना था “यूनियनों के दबाव के तहत, प्रबंधन कोविड केन्द्रों की स्थापना के लिए बाध्य हुआ जहाँ श्रमिकों का मुफ्त इलाज संभव हो सका। इन केन्द्रों के लिए वित्तपोषण की व्यवस्था को श्रमिकों के लिए निर्धारित कंपनी के कल्याण कोष से किया गया था।”
जबकि सार्वजनिक क्षेत्र में कार्यरत स्थाई श्रमिकों को कुछ राहत हासिल हो गई, वहीँ दूसरी तरफ अनुबंधित श्रमिकों, असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले श्रमिकों और प्रवासी मजदूरों को मार्च 2020 के बाद से गंभीर रूप से नुकसान पहुंचा है। जेनिथ सोसाइटी फॉर सोशियो-लीगल एम्पावरमेंट से सम्बद्ध कुछ शोधकर्ताओं की एक रिपोर्ट में पाया गया है कि लॉकडाउन के दौरान जो प्रवासी कामगार लौटकर मध्यप्रदेश आये थे उनमें से 90% लोगों को सरकार की तरफ से किसी भी प्रकार की आर्थिक सहायता प्राप्त नहीं हुई थी। दिसंबर 2020 में जारी की गई इस रिपोर्ट में यह भी पाया गया कि राज्य में मौजूद प्रवासी मजदूरों में से 56.5% को राज्य में वापस लौटने के कई महीनों के बाद भी बेरोजगार रहना पड़ा और उनमें से 67% उत्तरदाताओं का कहना था कि उनके पास अपने परिवारों का गुजारा चलाने के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं हैं।
पिछले महीनों में मध्य प्रदेश में स्वास्थ्यसेवा कर्मियों, आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं, आशा और उषा (शहरी सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्त्ता) कर्मियों, डाक्टरों और नर्सों द्वारा आयोजित की गई विभिन्न हड़तालें उनकी दुर्दशा और शोषण को दर्शाती हैं। सीटू मध्यप्रदेश के सहायक महासचिव, एटी पद्मनाभन के अनुसार “आशा कर्मियों ने कोविड-19 के विरुद्ध लड़ाई में अपना अमूल्य योगदान दिया है। महामारी के दौरान जहाँ लोगों को अपने घरों में बने रहने और बाहर न निकलने की सलाह दी जाती थी। यह आशा कार्यकर्ता थीं जो झुग्गियों और गाँवों में जा-जाकर सर्वेक्षण कर रही थीं, आंकड़े जुटा रही थीं और जागरूकता अभियान चला रही थीं। इस बात को सुनिश्चित करने में उनका महती योगदान रहा कि लॉकडाउन के दौरान लोग अपने घर पर ही बने रहें। इसके साथ ही उन्होंने कोविड-19 रोगियों की पहचान कराने और उनके उपचार के दौरान मदद करने में अपनी भूमिका का निर्वहन किया। यहाँ तक कि जब अधिकारीगण मैदान पर आने में ना-नुकुर कर रहे थे, तब भी आशा कर्मियों ने इस पूरे महामारी की अवधि के दौरान ‘पारिश्रमिक’ के नाम पर मामूली पैसों पर इन कर्तव्यों पूर्ण रूप से पालन किया।”
आशा कर्मियों को नियमित रूप से मिलने वाले 2000 रूपये के मासिक पारिश्रमिक के अलावा महामारी के दौरान उनकी स्पेशल ड्यूटी के बदले में 1000 रूपये की मामूली राशि का भुगतान किया गया है।
एमपी में आंगनबाड़ी कर्मियों के संघ [आंगनबाड़ी कार्यकर्ता एवं सहायिका एकता यूनियन (सीटू)] की प्रदेश अध्यक्षा विद्या खंगार के अनुसार “प्रत्येक जिले में कम से कम दो से तीन आंगनबाड़ी कार्यकर्त्ताओं ने कोविड-19 की चपेट में आने के कारण दम तोड़ दिया है। लेकिन सिर्फ दो मृतकों के परिवारों को ही मुआवजा मिल सका है। जबकि हमें इस पूरी अवधि के दौरान सर्वेक्षण करने, सूचना इकट्ठा करने, जागरूकता अभियान चलाने, गांवों से लोगों को टीकाकरण करने के लिए टीकाकरण केन्द्रों तक ले जाने के काम पर लगाया गया, किन्तु हमें मास्क और सैनेटाइजर जैसे बुनियादी सुरक्षा उपकरण तक नहीं मुहैय्या कराये गए। हमें बंधुआ मजदूरों की तरह काम करने के लिए मजबूर किया गया।”
विभिन्न क्षेत्रों से श्रमिकों के निकल कर आ रहे आंकड़े, रिपोर्ट और आख्यानों से संकेत मिलता है कि सार्वजनिक क्षेत्र के स्थाई श्रमिकों को उपलब्ध कुछ राहत उपायों के अलावा, मध्यप्रदेश में कामकाजी आबादी को महामारी और उसके बाद के प्रभावों ने भारी नुकसान पहुंचाया है। श्रमिकों, विशेष रूप से स्वास्थ्य कर्मियों द्वारा चलाए जा रहे निरंतर संघर्षों ने इस तथ्य को ठोस रूप से स्थापित करने का काम किया है। यहाँ तक कि गंभीर आर्थिक विपदा और स्वास्थ्य संकट के समय में भी उन्हें सरकार की तरफ से बेहद मामूली या कोई राहत नहीं मिली है।
स्तंभकार एक लेखिका होने के साथ-साथ न्यूज़क्लिक के साथ रिसर्च एसोसिएट के तौर पर सम्बद्ध हैं। व्यक्त किये गए विचार व्यक्तिगत हैं। ट्विटर पर @ShinzaniJain से संपर्क किया जा सकता है।
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें।
https://www.newsclick.in/with-job-wage-loss-workers-MP-severe-distress-pandemic
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