कोविड-19 की दूसरी लहर और मोदी सरकार की विफलता
देश में कोविड-19 महामारी के थमने के कोई आसार दिखाई ही नहीं दे रहे हैं। अप्रैल के तीसरे हफ्ते के आखिर में चौबीस घंटे में नये केसों का आंकड़ा तीन लाख से ऊपर जा चुका था। अस्पतालों में बेड नहीं मिल रहे हैं। आईसीयू की कमी है। यहां तक कि ऑक्सीजन की भी कमी हो गयी है। नतीजा यह कि मौतों का आंकड़ा भी बढ़ रहा है। मुर्दाघर, श्मशान और कब्रिस्तान लाशों से पटे पड़े हैं।
Source: covid19india.org, Chart: https://viz.newsclick.in/covid19-cases-graphs-maps-india-world
भारत के संक्रमण के आंकड़ों ने अब अमरीका तथा ब्राजील जैसे देशों को भी पीछे छोड़ दिया है, जिनका इस महामारी के निपटने के मामले में प्रदर्शन अब तक सबसे खराब माना जाता था। इससे भी बदतर यह कि संक्रमण के चाप का समतल होना अभी भी काफी दूर है और नये-नये राज्य तथा शहर चपेट में आते जा रहे हैं। इससे भी ज्यादा चिंताजनक बात यह है कि अब टेस्ट किए जाने वाले हरेक पांच लोगों में से एक व्यक्ति बल्कि उससे भी ज्यादा संक्रमित निकल रहा है। यह चंद महीने पहले के अनुपात से चार गुने से भी ज्यादा है। यह इसका इशारा करता है कि वास्तव में संक्रमितों की संख्या, आंकड़ों में जो दिखाई दे रहा है उससे कहीं ज्यादा होगी।
इस महामारी से निपटने में केंद्र सरकार ने कहां गलती की है? यह सरकार उस दूसरी लहर के लिए तैयार ही नहीं थी, जिसने अब से करीब एक महीने पहले तेजी से उठना शुरू कर दिया था। केंद्र सरकार और उसके विशेषज्ञ तो यह माने बैठे थे कि 2021 के फरवरी तक, कोविड-19 की महामारी खत्म हो जाएगी और उसके बाद देश सामान्य हालात पर लौट आएगा। मोदी सरकार, डीएसटी (विज्ञान व प्रौद्योगिकी विभाग) के तथाकथित सुपरमॉडल के अपने प्रचार को ही सच मान बैठी थी और महामारी से लड़ने में अपनी भारी कामयाबी पर अपनी पीठ ठोकने में लगी हुई थी। वह जब अपनी इस ‘कामयाबी’ को विधानसभा चुनाव के ताजा चक्र में अपनी चुनावी जीत में तब्दील करने की तैयारियों में लगी हुई थी, तभी दूसरी लहर ने देश को अपनी चपेट में ले लिया।
बहरहाल, जैसे ही संक्रमणों की संख्याएं बढने लगीं, महामारी का मुकाबला करने के लिए, देशव्यापी आधार पर कोई सहकारितापूर्ण योजना तैयार करने की कोशिश करने के बजाए, भाजपा ने हमले का रास्ता अख्तियार किया। केंद्रीय मंत्रियों ने राज्य सरकारों को पर्याप्त प्रयास न करने के लिए दोष देना शुरू कर दिया और जनता को मास्क लगाने तथा सामाजिक दूरी का पालन करने जैसे बचाव उपायों की उपेक्षा करने का दोषी बताना शुरू कर दिया। यह इसके बावजूद था कि केंद्र सरकार तो खुद ही सार्वजनिक सभाओं, चुनाव अभियानों और कुंभ मेला जैसे विराट धार्मिक समागमों के जरिए, सामान्य हालात लौट आने के संकेत दे रही थी। इसलिए, अगर जनता ने कोविड-19 की पाबंदियों के पालन में ढील दे दी थी, तो भी वह तो नरेंद्र मोदी और अमित शाह समेत, सत्तापक्ष के तमाम नेता मंचों पर जो कुछ कर रहे थे, उसका अनुकरण ही कर रही थी।
कोविड-19 की पहली लहर, करीब 1 लाख दैनिक नये संक्रमणों के साथ, सितंबर के मध्य के करीब अपने शीर्ष पर पहुंची थी। इसके बाद एक महीने में ही संक्रमणों की संख्या इससे आधी रह गयी और अक्टूबर के मध्य से संख्या घटती रही और फरवरी के आखिर तक और नीचे चली गयी। करीब चार महीने की इस राहत का इस्तेमाल, देश में सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था को मजबूत करने के लिए यानी अस्पतालों में बेडों की संख्या, आईसीयू सुविधाएं बढ़ाने के लिए, ऑक्सीजन की आपूर्ति श्रृंखला को ताकतवर बनाने और इसके नियम-कायदे तैयार करने के लिए किया जाना चाहिए था कि अगली लहर जब आएगी, उसे कैसे संभाला जाएगा। सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली का मजबूत किया जाना, स्पष्ट दिशा-निर्देश लागू किया जाना, राज्य व स्थानीय शासनों को एकजुट प्रयत्न के लिए तैयार करना; महामारी से बचाव के पहले मोर्चे का काम करते हैं। त्रासदी यह है कि केंद्र सरकार ने, जिसने आपदा प्रबंधन कानून के अंतर्गत सारी की सारी शक्तियां अपने हाथों में केंद्रित कर रखी हैं, इस दूसरी लहर के लिए न तो खुद कोई तैयारी की और न राज्यों से कोई तैयारी करायी। वह तो यही माने बैठी थी कि महामारी खत्म हो गयी है।
वर्तमान संकट में सरकार की सबसे भयानक नाकामी, अस्पतालों में ऑक्सीजन की कमी हो जाना है। जब कोविड-19 का संक्रमण मरीज के फेफड़ों पर वार करता है, ऑक्सीजन ही ऐसे रोगी के लिए सबसे महत्वपूर्ण ‘दवा’ होती है। खबरों के अनुसार, अस्पतालों में ऑक्सीजन खत्म हो जाने से मरीज दम तोड़ रहे हैं। खबरें बताती हैं कि कई अस्पतालों के मुताबिक उनके पास कुछ ही घंटे की ऑक्सीजन बची है। अगर देश की राजधानी में और उसके भी अभिजात अस्पतालों में ऐसे हालात हैं, तो बाकी हर जगह पर अस्पतालों की क्या स्थिति होगी, इसका अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है।
कोविड-19 की पहली लहर का प्रभाव कुछ राज्यों तक और उनमें भी कुछ खासतौर पर घनी आबादी वाले इलाकों तक ही सीमित था। इस बार की लहर करीब-करीब पूरे देश में फैल गयी है और समाज का बहुत बड़ा दायरा इसकी चपेट में आया है। देश भर में अस्पताल क्षमताओं का चुनौती के सामने बौना पड़ जाना, वर्तमान संकट की रीढ़ है। किसी भी महामारी में ज्यादा मौतों का कारण यही होता है कि एक स्थिति के बाद गंभीर रूप से बीमार होने वालों की संख्या, अस्पतालों में बेड तथा ऑक्सीजन की आपूर्ति जैसी बुनियादी जरूरतों की उपलब्धता से ऊपर निकल जाती है। इसी स्थिति में मौतें तेजी से बढ़ने लगती हैं।
ऐसे हालात के लिए हमने अब से महीना भर पहले तक भी तैयार क्यों नहीं की थी? आखिरकार, तब तो केसों की संख्या के बढ़ने की रफ्तार से केंद्र सरकार को आने वाले संकट की चेतावनी मिल जानी चाहिए थी। करीब महीने भर पहले जब ये खतरे के संकेत मिलने शुरू हुए थे, उसके बाद से कम से कम आक्सीजन का उत्पादन बढ़ाने और उसे राज्यों तथा अस्पतालों तक पहुंचाने पर योजनाबद्ध तरीके से काम किया ही जा सकता था। और तभी से ऑक्सीजन के औद्योगिक उपयोग के मुकाबले, उसे चिकित्सकीय उपयोग के लिए तैयार करने को प्राथमिकता दी जा सकती थी, जो काम अब देर हो जाने के बाद किया जा रहा है।
सरकार ने ये सभी तत्काल जरूरी कदम क्यों नहीं उठाए और संक्रमणों की संख्या में इतनी भारी बढ़ोतरी को संभालने की तैयारी क्यों नहीं की? दुर्भाग्य से यह सरकार पूरी तरह से केंद्रीकृत है और सारे के सारे फैसले प्रधानमंत्री तथा गृहमंत्री ही लेते हैं। अन्य मंत्रियों को तो सिर्फ इस सरकार की आलोचनाओं को खारिज करने के लिए मैदान में लाया जाता है, फिर भले ही ये मनमोहन सिंह जैसी रचनात्मक आलोचनाएं ही क्यों नहीं हों। ऐसा लगता है कि मोदी और अमित शाह की नजरें पूर्व में तथा खासतौर पर बंगाल में चुनावी जीत पर ही गढ़ी रही हैं। दूसरी सभी राजनीतिक पार्टियों द्वारा अपनी चुनावी रैलियां रोके जाने के बाद ही, भाजपा को इसका एहसास हुआ कि भारी महामारी के बीचो-बीच प्रधानमंत्री के चुनावी रैलियां करते रहने से कैसी नकारात्मक छवि बन सकती है। लेकिन, तब तक तो बहुत देर हो चुकी थी और हालात बहुत बिगड़ चुके थे।
टीकाकरण
सरकार लगातार टीकाकरण के संबंध में ऐसे एलान करना जारी रखे हुए है, जो वास्तव में जो हासिल हुआ है, उससे बहुत बढ़-चढक़र दावे करते हैं। पहला दावा तो यही है कि हमने 12.7 करोड़ लोगों को टीका लगा दिया है। यह सच नहीं है। 12.7 करोड़ टीके की खुराकें जरूर लगायी जा चुकी हैं, लेकिन ऐसे लोगों की संख्या 2 करोड़ भी नहीं है, जिन्हें दोनों खुराकें लगायी जा चुकी हैं, जो कि जरूरी हैं।
अप्रैल की शुरूआत से ही महाराष्ट्र, दिल्ली तथा पंजाब जैसे राज्यों ने टीके की आपूर्तियां बहुत कम रह जाने की शिकायत करना शुरू कर दिया था। लेकिन, स्वास्थ्य मंत्री, हर्षवर्धन ने उनकी शिकायतों को यह कहकर खारिज कर दिया कि वे तो इस मामले में राजनीति कर रहे हैं ताकि ‘कोविड-19 महामारी पर अंकुश लगाने में अपनी विफलता’ पर पर्दा डाल सकें। मंत्री जी के दावों के दुर्भाग्य से, टीकाकरण के आंकड़े दिखाते हैं कि हर रोज लगाए जाने वाली टीकों की खुराकों की संख्या सचमुच, अप्रैल के आरंभ में जिस स्तर पर थी, उससे आधी ही रह गयी है। इससे, उक्त राज्य जो कह रहे थे, उसी की पुष्टि होती है।
राज्यों को भेजे अपने पत्र में स्वास्थ्य मंत्री ने यह भी कहा था कि, ‘जब तक टीकों की आपूर्ति सीमित बनी हुई है, इसके सिवा दूसरा विकल्प ही नहीं है कि टीका पाने के लिए प्राथमिकता क्रम तय किया जाए। यह दुनिया भर में भी स्वीकृत तरीका है और सभी राज्य सरकारें इससे अच्छी तरह से परिचित हैं।’ लेकिन, अगर एक पखवाड़े पहले यह नीति वाकई सही थी, तो क्या मोदी सरकार बताएगी कि वह अब 18 साल से ज्यादा के सभी लोगों के टीकाकरण का दरवाजा क्यों खोल रही है? नीति में इस बदलाव का कोई स्पष्टीकरण दिया ही नहीं गया है, जबकि न सिर्फ टीकों की आपूर्ति अब भी सीमित ही बनी हुई है बल्कि दो-तीन हफ्ते पहले जिस स्तर पर थी उससे आधी ही रह गयी है।
यही नहीं इसकी कोई योजना भी नहीं बतायी गयी है कि 18 वर्ष से अधिक आयु के सभी लोगों के टीकाकरण के विस्तारित लक्ष्य को हासिल करने के लिए, हमारा देश टीके के उत्पादन तथा वितरण के पैमाने को कैसे बढ़ाने जा रहा है? उल्टे केंद्र सरकार ने स्वास्थ्यकर्मियों आदि फ्रंटलाइन वर्करों तथा 45 साल से अधिक आयु के लोगों को छोडक़र, बाकी सब के लिए टीके लाने या वितरित करने की पूरी की पूरी जिम्मेदारी से ही हाथ खींच लिए हैं। वह देश के टीका उत्पादन के 50 फीसद में से ही इस जरूरत की आपूर्ति करेगी। शेष 50 फीसद उत्पादन, राज्य सरकारों और खुले बाजार के लिए रहेगा। राज्य सरकारों पर सीधे अपनी जरूरत के टीके खरीदने की जिम्मेदारी होगी, जबकि ऐसा करने का कोई तंत्र उनके पास नहीं होगा। केंद्र सरकार ने टीकों की कीमतों का नियंत्रण भी खत्म कर दिया है और टीका निर्माताओं को अब खुले बाजार में अपने टीके बेचने का मौका दिया जाएगा।
टीका उत्पादन बढ़ाने तथा समूची जनता का टीकाकरण करने की कोई सुविचारित योजना तैयार करने के बजाए, जनता का टीकाकरण करने की जिम्मेदारी से हाथ खींचने के और सबका टीकाकरण करने में विफलता का भांडा राज्य सरकारों के सिर पर फोड़ने के, सनकभरे मंसूबे पर ही चला जा रहा है।
केंद्र सरकार अब टीका निर्माताओं के साथ बैठक कर रही है, ताकि इस पर चर्चा कर सके कि टीका उत्पादन कैसे बढ़ाया जाएगा। यह तो ऐसा काम है जो अब से चार-छ: महीने पहले ही कर लिया जाना चाहिए था। मोदी सरकार निजी क्षेत्र और टीका उत्पादन के क्षेत्र में उसके योगदान के गुणगान करने में लगी हुई है। वह इसे भुला ही देते हैं कि हॉफकीन इंस्टीट्यूट जैसी संस्थाओं के जरिए, सार्वजनिक क्षेत्र ने ही इस देश में टीकों के उत्पादन की नींव रखी थी। आईसीएमआर तथा नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी (एनआइवी) ने ही कोवैक्सीन का विकास किया है, जिस पर भारत बायोटेक को लाइसेंस के अंतर्गत उत्पादन की इजारेदारी सौंप दी गयी है। आईसीएमआर-एनआइवी इसके उत्पादन का लाइसेंस आराम से अन्य टीका निर्माताओं को भी दे सकते थे और इनमें आधा दर्जन तो सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयां ही हैं, जो आज ठाली बैठी हैं। इसने हमारी टीका उत्पादन की क्षमता को बढ़ा दिया होता और टीके की आपूर्तियों के मामले में हम कहीं बेहतर स्थिति में होते।
मोदी सरकार, सारी राजनीतिक सत्ता अपने हाथों में केंद्रित करने और बड़े इजारेदार घरानों की अगुआई में ‘मुक्त बाजार’ को देश की तमाम समस्याएं हल करने के लिए छोड़ देने में ही यकीन करती है। और ऐसी नीति जब फेल हो जाए तो वह इसके लिए राज्य सरकारों पर, राष्ट्रविरोधी शक्तियों पर और आखिरकार विपक्ष पर दोष मढ़ने के लिए भी तैयार है।
पर वे कब तक ऐसी नीति चलाते रहेंगे और जनता की आंखों में धूल झोंकते रह सकते हैं? माना कि जनता की याददाश्त थोड़ी होती है, लेकिन शायद जनता की याददाश्त उतनी छोटी भी नहीं होती है, जितनी मोदी सरकार और भाजपा की प्रचार मशीनरी समझती है।
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें।
Modi Government Abdicates Responsibility During Second Covid-19 Wave
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