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राष्ट्रीय शिक्षा नीति : फ़ीस ज़्यादा, स्कॉलर्शिप कम

नई शिक्षा नीति ने यूजीसी के ज़रिये विश्वविद्यालयों को दिए जाने वाले केंद्रीय अनुदान की व्यवस्था को एक केंद्रीकृत वित्त पोषण निकाय के रूप में बदल दिया है जिसे उच्च शिक्षा अनुदान प्राधिकरण (HEFA) कहा जाता है, जो सार्वजनिक विश्वविद्यालयों को क़र्ज़ देता है।
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जब साउथ एशियन यूनिवर्सिटी (एसएयू) के छात्र प्रतिनिधिमंडल ने पांच छात्रों के निष्कासन को रद्द करने की मांग को लेकर कार्यवाहक उपाध्यक्ष से मुलाकात की तो जवाब मिला कि अभी छात्रों के खिलाफ “ऐसा ही कदम उठाया जाएगा।” सनद रहे कि एसएयू के छात्र आर्थिक रूप से वंचित समुदायों के छात्रों के लिए मास्टर कोर्स और छात्रवृत्ति के लिए वज़ीफ़ा बढ़ाने की मांग कर रहे थे।

एसएयू के छात्र एक महीने से अधिक समय से वज़ीफ़े और छात्रवृत्ति में बढ़ोतरी की मांग कर रहे थे, जो चाहते हैं उनका वजीफा जेआरएफ वाले पीएचडी के समान हो, छात्रों की यह भी मांग थी कि उन्हे शिकायतों और शिकायत निवारण समितियों में प्रतिनिधित्व दिया जाए  साथ ही इन पैनलों और प्रशासनिक पदों पर सामाजिक विज्ञान संकाय के सदस्यों की मांग को अधिक जगह दी जाए। 

3 नवंबर को, तत्कालीन प्रॉक्टर को प्रदर्शनकारी छात्रों के खिलाफ पुलिस कार्रवाई शुरू करने को कहा गया था, लेकिन छात्रों के साथ एकजुटता दिखाते हुए उन्होने इस्तीफा दे दिया था। नए प्रॉक्टर ने दो छात्रों को निष्कासित किया, अन्य दो को एक वर्ष के लिए निष्कासित किया और एक को अगले दिन के सेमेस्टर से निलंबित कर दिया था।

पीएचडी समाजशास्त्र के छात्र उमेश जोशी, जो निष्कासित हैं, ने बताय कि, “किसी भी प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया है; प्रॉक्टर ने हमारे खिलाफ शिकायत का उल्लेख किए बिना सिर्फ यह कहते हुए एक नोटिस भेजा कि हमें निष्कासित कर दिया गया है।

जोशी ने कहा, 5 नवंबर को छात्रों ने सामूहिक भूख हड़ताल शुरू की। फिर सोमवार को, आठ छात्रों ने अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल शुरू की थी। हमारे ब्लड शुगर में भारी गिरावट आ गई है। विश्वविद्यालय प्रशासन हमारे मुद्दों के प्रति उदासीन है और हमसे बात करने को भी तैयार नहीं है,” जोशी खुद अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर बैठे हैं। 

14 नवंबर तक, तीन छात्रों का शुगर लेवल गंभीर रूप से नीचे आ गया था और लगभग कार्डियक अरेस्ट की स्थिति में एक छात्र की हालत गंभीर थी।

एसएयू में जो हो रहा है, वह सरकारी विश्वविद्यालय के छात्रों के लिए पिछले दो वर्षों में छात्रवृत्ति को रद्द करने और बढ़ती फीस का भुगतान करने की प्रवृत्ति का हिस्सा है- इन बिगड़ते हालत के लिए राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी), 2020 को धन्यवाद।

नई शिक्षा नीति ने यूजीसी के ज़रिए विश्वविद्यालयों को केंद्रीय अनुदान देने की बेहतरीन व्यवस्था को एक केंद्रीकृत वित्त पोषण निकाय के रूप में बदल दिया है जिसे उच्च शिक्षा अनुदान प्राधिकरण (हेफा) कहा जाता है, जो सार्वजनिक विश्वविद्यालयों को कर्ज़ देता है। संस्थानों को तथाकथित "वित्तीय स्वायत्तता" का मतलब, छात्रों पर कर्ज़ का बोझ का लादना है जिसे कर्ज़ को छात्रों को खुद चुकाना है। 

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान दिल्ली और बॉम्बे, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू), दिल्ली स्कूल ऑफ जर्नलिज्म और इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र फीस वृद्धि और छात्रवृत्ति को कम करने के खिलाफ पहले से ही विरोध कर रहे हैं।

इलाहाबाद विश्वविद्यालय जिसकी स्नातक फीस मात्र 975 रुपये प्रति वर्ष थी, सबसे किफायती विश्वविद्यालयों में से एक था, जिसे अब 400 प्रतिशत बढ़ाढ़कर 4,151 रुपये प्रति वर्ष कर दिया गया है। जबकि केवल 10 प्रतिशत भारतीय ही प्रति माह 25,000 रुपये से अधिक कमा पाते हैं।

इलाहाबाद विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर की पढ़ाई कर रहे देवेंद्र आजाद ने कहा कि विश्वविद्यालय प्रशासन ने भूख हड़ताल पर बैठे छात्रों की पूरी तरह अनदेखी की है। छह दिनों तक अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल जारी रही लेकिन प्रशासन ने हमसे बात करने की भी जहमत नहीं उठाई। सातवें दिन प्रॉक्टर ने हमारी मांगों को सिरे से खारिज कर दिया। छात्रों को लात मारी गई और विश्वविद्यालय में पुलिस हमेशा मौजूद रहती है।

एनईपी को लागू किया जा रहा है और इसके प्रभाव पहले से ही महसूस किए जा रहे हैं। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर रोहित आजाद ने समझाया, "जैसे ही आप सार्वजनिक रूप से वित्त पोषित शिक्षा से स्विच करते हैं, फीस संरचना स्पष्ट रूप से प्रभावित होगी।"

आज़ाद ने आगे बताया, किसी भी विश्वविद्यालय को कार्यक्रम शुरू करने के लिए कर्ज़ लेना पड़ता है, लेकिन ब्याज सहित भुगतान करने के लिए खुद धन का जुगाड़ करना होगा। फंड कैसे जुगाड़ होगा? बेशक, छात्रों की फीस बढ़ाने से, जिन्हें प्रोफेसरों के वेतन और कर्ज़ दोनों का भुगतान करना होगा।

आज़ाद ने कहा कि, "यह किसी भी निजी विश्वविद्यालय द्वारा उन छात्रों को बाहर का रास्ता दिखाएगा जो बड़ी फीस नहीं भर सकते हैं।" निजी विश्वविद्यालयों की व्यावस्था "अभिजात वर्ग और उच्च-मध्यम वर्ग के पक्ष में है, जबकि गरीब छात्रों की यहां कोई जगह नहीं है। जिन लोगों को शिक्षा की सबसे अधिक जरूरत है, उनके लिए विश्वविद्यालय प्रणाली में प्रवेश करना कठिन होता जा रहा है।”

आज़ाद के अनुसार, एनईपी जवाबदेही और अनुसंधान की गुणवत्ता को भी प्रभावित करेगी, क्योंकि कई शिक्षाविदों और शोधकर्ताओं को धन के विभिन्न स्रोतों जैसे कर्ज़ और कॉर्पोरेट सामाजिक जिम्मेदारी कार्यक्रमों को देखना होगा।

आज़ाद के मुताबिक, धन पर निर्भरता शौध/अनुसंधान को प्रभावित करेगी। यदि आप एक कॉर्पोरेट इकाई द्वारा वित्त पोषित हैं, तो आप जिस तरह का शोध करेंगे, वह स्पष्ट रूप से उनके हितों से तय होगा। सार्वजनिक रूप से वित्त पोषित विश्वविद्यालय में, जवाबदेही जनता के प्रति होती है न कि किसी व्यक्ति या निगम के प्रति। इसलिए सार्वजनिक रूप से वित्त पोषित विश्वविद्यालयों में अनुसंधान बहुत अधिक फलता-फूलता है। 

कई छात्र महसूस करते हैं कि एनईपी का मुकाबला आंदोलन और प्रतिरोध से ही किया जा सकता है। छात्र संगठन कलेक्टिव की सदस्य और आईआईटी दिल्ली में पीएचडी की छात्रा शांभवी शर्मा दिल्ली और बॉम्बे में आईआईटी का उदाहरण देती हैं। इस साल आईआईटी बॉम्बे और दिल्ली की फीस में बड़े पैमाने पर बढ़ोतरी की गई थी। लंबे समय तक छात्रों के विरोध के बाद ही फीस को आंशिक रूप से वापस लिया गया था," उन्होंने बड़े आंदोलन और  प्रतिरोध का आह्वान किया क्योंकि "फीस वृद्धि लगातार होगी"।

आलोचकों और पर्यवेक्षकों के अनुसार, शिक्षा प्रणाली में अचानक हुए बदलाव बिड़ला-अंबानी रिपोर्ट पर आधारित हैं, जिसमें फीस वृद्धि और आंतरिक स्रोतों से धन जुटाने की सिफारिश की गई थी। सार्वजनिक शिक्षा का मक़सद जनता को सस्ती शिक्षा मुहैया कराना था। एनईपी छात्रों को एक ऐसे संसाधन में बदल देगा जिससे धन उगाया जाएगा और सार्वजनिक शिक्षा, सामाजिक हित के मुक़ाबले निगमित उद्यम या व्यापार में बदल जाएगी, और अंतत सरकार अपनी सभी जिम्मेदारियों से हाथ धो लेगी। 

लेखक एजेके मास कम्युनिकेशन रिसर्च सेंटर, जामिया मिलिया इस्लामिया में कन्वर्जेंट जर्नलिज़्म के छात्र हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिये गए लिंक पर क्लिक करें।

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