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बिहार में लड़खड़ाती मंडल राजनीति को संयुक्त वामपंथी विकल्प की ज़रूरत है 

महामारी और लॉकडाउन की वजह से इस साल बिहार लौटने वाले लाखों मजबूर प्रवासी श्रमिकों के बीच वामपंथियों में ठोस राजनीतिक आधार बनाने की क्षमता है।
वामपंथी
प्रतीकात्मक तस्वीर

भारतीय राजनीति एक मुकाम पर पहुँच गई है। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सभी मोर्चों पर विफल रही है। इतनी विफलताओं के बावजूद, वह संसद में बहस की अनुमति न देकर लोकतंत्र को अंगूठा दिखाने की हिम्मत कर रही है, निर्वाचित सांसदों को निलंबित कर रही है और बहस और चर्चा के सभी संभावित साधनों को प्रतिबंधित कर रही है।

फिर भी, इसे मरने वाली पार्टी के रूप में नहीं मानना चाहिए जो हिंसक रास्ते अखितियार कर रही है। भाजपा अब भी भारतीय राजनीति में अपनी बड़ी उपस्थिति दर्ज़ कर रही है, मीडिया पर उसका नियंत्रण है, "नागरिक समाज" का सफलता से सांप्रदायिकरण करना और विपक्ष को पूरी तरह से विफल करना, खासकर बुर्जुआ-उदारवादी विपक्ष को। वामपंथी ताक़तें पहले की तुलना में अधिक चुनौती देने के लिए खड़ी है। पश्चिम बंगाल के मौजूदा रुझान, केरल में प्रशासनिक सफलता और अखिल भारतीय किसान सभा और अन्य वाम किसान संगठनों के तहत मजबूत किसान आंदोलन वामपंथियों के पुनरुत्थान की ओर इशारा कर रहे हैं।

इस संदर्भ में, बिहार में अक्टूबर-नवंबर में होने वाला विधानसभा चुनाव वामदलों के लिए बहुत बड़ा अवसर है। मुख्य चुनावी दंगल राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) और विपक्ष के महागठबंधन के बीच होने की संभावना है। वामपंथियों ने धर्मनिरपेक्षता के प्रति प्रतिबद्धता को दोहराते हुए और भाजपा विरोधी रुख को कडा करते हुए फैसला किया है।

लेकिन इस बार के चुनावों में सिर्फ भाजपा विरोधी रुख काम नहीं आएगा। यह चुनाव मंडलवाद (जाति-आधारित आरक्षण) पर आधारित होने वाला अंतिम चुनाव है। तेजी से सिकुड़ते सार्वजनिक क्षेत्र और सार्वजनिक उपक्रमों को बेचने से आरक्षण की संभावनाओं को धक्का लगा है। बीजेपी पर वापसी हमला न हो इसलिए वह आरक्षण के मुद्दे को छूकर मूर्खता नहीं करेगी, और फिलहाल सार्वजनिक उपक्रमों को बेचकर काम चला लेगी।

जबकि दूसरी तरफ मंडलवाद के दिग्गजों को अपने राजनीतिक और भौतिक रूप से विलुप्त होने का इंतजार है। इसलिए, राज्य के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इन चुनावों के बाद पीछे हटने वाले हैं और उनके पूर्ववर्ती लालू प्रसाद यादव का स्वास्थ्य ठीक नहीं है। भाजपा ये बात जानती है कि नीतीश के बाद ऐसा कोई दूसरा नेता नहीं है जो जनता दल (युनाइटेड) को अपने करिश्मे से ज़िंदा रख सके और बिहारियों के सामने चुनावी तौर पर खुद को बेहतर पेश कर सके। ऐसा  अनुमान लगाया जा सकता है कि बीजेपी के पास भगोड़े सांसदों और विधायकों की लाईन लग जाएगी, और इससे भी बदतर तो ये होगा कि शायद जद (यू) का बीजेपी में पूर्ण विलय हो जाए।

जद (यू) के महागठबंधन से (पहले वाले महागठबंधन) रिश्ता तोड़ने के खिलाफ विरोध करने वाले  शरद यादव के साथ जो हुआ, वह एक उदाहरण के रूप में आगे भी काम करेगा। और लालू यादव के बाद भी राष्ट्रीय जनता दल (राजद) में ऐसा ही कुछ हो सकता है जब संपन्न "यादव" और अन्य नेता भाजपा में शामिल होना चाहेंगे। इस सब को प्रभावित करने की बीजेपी की क्षमता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि उसने उत्तर प्रदेश में दुर्जेय मुलायम सिंह यादव के परिवार में तोड़-फोड़ कर दी, जिसमें मुलायम के छोटे भाई शिवपाल यादव ने पार्टी की चुनावी संभावनाओं पर पाने फेर दिया था।  

राज्य में यादवों की 16 प्रतिशत आबादी है लेकिन अब वे अंध भक्तों की तरह लालू प्रसाद के वफादार नहीं हैं। मधेपुरा में, एक कहावत चलती है, कि रोम पोप का, मधेपुरा गोप का’। पिछले लोकसभा चुनावों में, जेडी (यू) के काफी हल्के नेता दिनेश चंद्र यादव ने वजनदार उम्मीदवार शरद यादव को चार लाख से अधिक वोटों के अंतर से हरा दिया था। इसी प्रकार, पाटलिपुत्र में, एक अन्य बड़ी यादव आबादी वाला क्षेत्र, लालू की बेटी, मीसा भारती को लंबे समय से सहयोगी राम कृपाल यादव, ने बीजेपी में जाकर मात दे दी थी। 

यह फिर से धर्मनिरपेक्ष वोटों और धर्मनिरपेक्ष उम्मीदवारों की फिजिबिलिटी की ओर इशारा करता है। उजियारपुर में फिर से उपेंद्र कुशवाहा 2.77 लाख वोटों के अंतर से हार गए थे। एक मजबूत कुशवाहा आबादी की हाजिरी के बावजूद, यादवों ने भाजपा-जदयू गठबंधन को वोट  किया और सीट जिताई। हालांकि पुलवामा ’आतंकी’ हमले ने 2019 के लोकसभा चुनावों को विशेष रूप से हिंदी बेल्ट में बदल कर रख दिया, वोटिंग पैटर्न में बड़े उलटफेर हुए हैं।

लोकनीति द्वारा 2019 में बाद में किए गए सर्वेक्षण के अनुसार, राजग-कांग्रेस गठबंधन को  55 प्रतिशत यादवों ने वोट किया और 21 प्रतिशत ने एनडीए को वोट दिया था। एनडीए के पक्ष में यह प्रवृत्ति बढ़ने के लिए बाध्य है। क्योंकि इस काम पर संदिग्ध ताकतें लगी हैं जिस बात को इसके चारों ओर के नए अनुसंधान और नई राजनीति साबित करती है।

सान 1989 के भागलपुर दंगों के बाद राज्य की आबादी का लगभग 16.87 प्रतिशत मुसलमानों का हिस्सा मजबूती से राजद के पीछे खड़ा रहा है। स्वर्गीय रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी), जो कि एक छोटी पार्टी है, ने भी इस ठोस समर्थन का फायदा एक बार उठाया था। 2005 के विधानसभा चुनावों में एलजेपी का सबसे बेहतरीन प्रदर्शन देखा गया जब उसे कुल मतों का 12.6 प्रतिशत हासिल हुआ और उसने 29 सीटें जीतीं थी। और तब राजद और जद (यू) से बने भाजपा गठबंधन को बहुमत नहीं मिला, तो पासवान ने मुस्लिम मुख्यमंत्री की नियुक्ति पर अपना समर्थन देने की बात कही। राजद और जद (यू) दोनों ने इस शर्त को खारिज कर दिया और अक्टूबर में हुए पुन: चुनावों में, लोजपा को सिर्फ 10 सीटें मिली। उनकी मंसा को देखा जाए तो यह बात दिलचस्प है कि राम विलास एक उचित मांग कर रहे थे, क्योंकि इससे 2002 के गुजरात दंगों पर मरहम तो लगता साथ ही पराजित राजग शासन के तहत सांप्रदायिकता को शांत किया जा सकता था। 

लालू प्रसाद खुद कम से कम किसी मुस्लिम को उपमुख्यमंत्री का पद दे सकते थे या फिर  बारी-बारी से किसी को पद संभालने के लिए कह सकते थे, खासकर तब जब उनकी पार्टी में वरिष्ठ मुस्लिम नेताओं की कोई कमी नहीं थी। इसने भारतीय राजनीति में राजद नेता के धर्मनिरपेक्षता संस्करण को बढ़ावा दिया होता। और इसने उन्हें और उनके समर्थकों को एक रास्ता दिया होता जो केंद्र और राज्य में बीजेपी के साथ किसी भी औपचारिक या अनौपचारिक गठबंधन के सवाल को धूल चटाता और लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा के दौरान गिरफ्तारी को तरोताजा किया होता। 

इस दौरान अपने परिवार के प्रत्येक सदस्य को एक सक्रिय राजनेता बनाने का काम लालू प्रसाद ने किया। इस सबके चलते पासवान ने भाजपा में अपना राजनीतिक अस्तित्व देखा, जो उनकी  मुख्य जाति दुसाध के लिए ठीक नहीं था, जो अनुसूचित जाति का दूसरा सबसे बड़े समूह हैं, कुल 6 प्रतिशत एससी आबादी का लगभग 30 प्रतिशत है और चमार जिनका आबादी में  31.3 प्रतिशत हिस्सा है।

बिहार में असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम का चुनाव में प्रवेश करना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। मुस्लिम हितों के इस नकली योद्धा ने लंबे समय से बनी धारणा की ही पुष्टि की है कि वह बीजेपी की बी टीम के अलावा कुछ नहीं है। ओवैसी ने, असम के बदरुद्दीन अजमल (एआईडीयूएफ) और केरल में मुस्लिम लीग के विपरीत, कभी भी बीजेपी के खिलाफ ठोस काम करने के लिए नहीं जाने जाते हैं। हाल ही में, अजमल ने असम में भाजपा को हराने के लिए कांग्रेस के साथ गठबंधन किया था। अपनी बोलने की शैली से ओवैसी ने संसद में एक छाप छोड़ी है, लेकिन अपनी इस ओजस्वी बोली का लाभ कभी भी किसी भी धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दल को नहीं दिया, तब भी जब भाजपा के खिलाफ सीधी लड़ाई थी। उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और बिहार के पिछले चुनाव इसके गवाह हैं।

बिहार में, एआईएमआईएम के उम्मीदवार तीसरे स्थान पर रहे और किशनगंज में कुल 27 प्रतिशत वोट हासिल किए थे। 2019 में हुए किशनगंज विधानसभा उपचुनाव में उन्हें जीत मिली, और एआईएमआईएम के उम्मीदवार क़मरुल होदा ने कुल वोटों में से 41.46 प्रतिशत हासिल किए थे। संयुक्त लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष गठबंधन के गठन के मामले में ओवैसी को “धर्मनिरपेक्ष वोटों को नुकसान” पहुंचाने वाला माना जाता है, और वे ऐसा करते भी है, लेकिन राजनीतिक परिदृश्य पर उनकी हाजिरी किसी अन्य खतरे की निशानी है।

मंडल के बाद के बिहार में एआईएमआईएम को राजनीतिक "अन्य" बनाना भाजपा की लंबी योजना का हिस्सा है। जैसा कि लगता है, लालू यादव का जाना मुस्लिमों को अनिश्चित स्थिति में छोड़ देगा। मुस्लिम-यादव गठजोड़, जिसने भगवा ज्वार के खिलाफ सबसे व्यापक खाई के रूप में काम किया था, उसका उल्लंघन होना तय है। और कांग्रेस अपने कथित धर्मनिरपेक्ष रुख में मुसलमानों को अपने नज़दीक लाने की स्थिति में नहीं है। अल्पसंख्यकों का राजनीतिक विश्वास हासिल जीतने के लिए जीत के फैक्टर की कमी से कांग्रेस बुरी तरह पिछड़ जाएगी।

इन हालात में, ओवैसी बंधुओं, विशेष रूप से छोटे वाले के भाषणों के प्रति गंभीर उकसावे की कोशिश इस दायरे में सही बैठती है। बीजेपी इस अवसर को हासिल करने और एआईएमआईएम को बिहार की राजनीति का नया "बिजूका" बनाने की उत्सुक है, जिसके खिलाफ सभी हिंदुओं को वे अपने नीचे एकजुट होने की बात कहेंगे। इस तरह की रणनीति उनके उद्देश्य की पूर्ति करेगी।

उदाहरण के लिए, शहाबुद्दीन जैसे धर्मनिरपेक्ष अपराधी “मुस्लिम अपराधी” बन जाएंगे। सीवान में उयांके आतंकी शासनकाल में, वामपंथियों के करिश्माई कामरेड चंद्रशेखर प्रसाद, जिसे चंदू कहा जाता था का कत्ल कर दिया था, ये ऐसा अपराध था जिसे एक धर्मनिरपेक्ष सरकार द्वारा संरक्षित गुंडों के माध्यम से किया गया था।   

किसी भी तर्कसंगत अल्पसंख्यक समुदाय पर आधारित राजनीतिक दल या राजनीतिज्ञ का बहुमतवाद से मुकाबला करना असंभव है। यह पाकिस्तान में एक हिंदू पार्टी की तरह ही होगा, जो सभी पक्षों की निंदा करेगी और राज्य के इस्लामिक आधार की आलोचना करेगी। यह राजनीतिक रूप से आत्मघाती होगा। फिर सोचो ओवैसी ऐसा क्यों कर रहे हैं जबकि यह स्पष्ट है कि उनकी पार्टी कभी भी राष्ट्रीय या उस मामले के लिए क्षेत्रीय स्तर शासक पार्टी नहीं हो सकती है। हमारी राजनीति की तरह, उनकी वर्गीय राजनीति नहीं है बल्कि सामंती विरासत वाली सांप्रदायिक राजनीति है।

अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या और बिहार में इसके आसपास की राजनीतिक एकजुटता इस तरह की संभावना की ओर इशारा करती है। बदनामी असहनीय थी, फिर भी जिस तरह बिहार पुलिस के तत्कालीन डीजीपी गुप्तेश्वर पांडे और आरके सिंह जैसे बिहार के अन्य  केंद्रीय मंत्रियों ने प्रतिक्रिया व्यक्त की, वह बताता है कि भाजपा संभवतः कितना नीचे गिर  सकती है। सोचो फिर क्या होता अगर सुशांत सिंह राजपूत की प्रेमिका रिया चक्रवर्ती एक मुस्लिम होती। 

मंडल आयोग की रिपोर्ट के क्रिलागू होने से पिछड़ी जातियों के जातिगत दावों को तबाह करने के लिए भाजपा ने घेरा डाला है। इससे अधिक दुखद बात नहीं हो सकती कि इसे अनुसूचित जातियों का मुख बंद नेतृत्व, पूर्व-अछूतों का समर्थन हासिल है। कुल आबादी के 16 प्रतिशत में से 93.3 प्रतिशत हिस्सा ग्रामीण क्षेत्रों में रहता है। उनमें से अधिकांश, 67 प्रतिशत जीवन जीने के लिए खेती योग्य भूमि से वंचित हैं। राज्य में शुरू किए गए किसी भी भूमि सुधार से उन्हें कोई लाभ नहीं हुआ है। ज़मींदारी के उन्मूलन ने मध्यम किसान और संरक्षित किरायेदारों को लाभ पहुंचाया, लेकिन भूमिहीन मजदूरों को नहीं, जिसमें सबसे बड़ा हिस्सा दलित समुदाय का है। 

यादव, कोइरी और कुरमी (ऊपर से पिछड़ी जातियां) हैं जिन्होंने इन सुधारों का सबसे अधिक लाभ हासिल किया, जिसने उन्हें राजनीतिक शक्ति में एक बड़ा हिस्सा मांगने के लिए प्रेरित किया था। समाजशास्त्री आनंद चक्रवर्ती ने 2018 में दक्षिण-पश्चिम बिहार के एक गाँव मुक्तिडीह में दलितों का अध्ययन किया था, और क्या यह आज़ादी है? - बिहार के गाँव में दलित खेतिहर मजदूरों की रोज़मर्रा की ज़िंदगी ग़रीबी का दंश झेलती है, पर लिखा था। गाँव नहर-सिंचित उपजाऊ भूमि पर स्थित होने के बावजूद, लगभग 30 प्रतिशत दलित आबादी के पास लगभग कोई भूमि नहीं है। त्रासदी पोषण की भारी कमी के कारण कई गुना बढ़ जाती है, और भ्रष्ट सार्वजनिक वितरण प्रणाली के कारण दाल (मसूर) का मिलना भी एक लक्जरी बन जाता है!

फर्जी निजी राशन की दुकानों और दलित की तरह गरीबी रेखा की सूची में उच्च जातियों की मनमानी प्रविष्टि के मामलों को बढ़ा दिया है। फिर भी 76 प्रतिशत दलितों ने पिछले चुनावों में एनडीए को वोट दिया। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन या यूपीए के प्रयास उन्हें ग्रामीण संकट, महंगाई, और बड़े पैमाने पर बेरोजगारी के मुद्दों के आसपास जुटाने में विफल रहे है।

आयुष्मान भारत, प्रधानमंत्री आवास योजना और अटल पेंशन योजना जैसी प्रधानमंत्री योजनाओं से किसी भी तरह का कोई लाभ नहीं मिला ऐसा ग्रामीण मतदाताओं के तीन चौथाई हिस्से ने कहा है। भ्रामक उज्ज्वला योजना योजना का लाभ केवल 32 प्रतिशत यानी एक तिहाई मतदाताओं को मिला। इसके बावजूद, केंद्र और राज्य सरकारों के लिए अनुमोदन रेटिंग क्रमशः 75 प्रतिशत और 76 प्रतिशत है। 

बिहार में जो राजनीतिक खालीपन को केवल वामपंथी ही दूर कर सकते हैं, जो दलितों के लिए मुखरता में सबसे आगे हैं, उन्होंने क्रांतिकारी भूमि सुधारों का आह्वान किया है और सभी स्तरों पर सार्वजनिक प्रशासन पर भारी भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी आवाज उठाई है। यह वह समय जब वामपंथ को तेजी से लड़खड़ाते हुए मंडल का विकल्प बनना चाहिए। 

हिंदुत्व की बाजीगरी के खिलाफ जीतने के लिए जातिगत अंकगणित के इस्तेमाल से दो बुनियादी समस्याएं हैं। सबसे पहले, यह वर्ग के प्रश्न को हमेशा के लिए कालीन के नीचे धकेल देता है। इस रणनीति की शतप्रतिशत ताकत है कि यथास्थिति को बनाए रखा जाए। कोई आश्चर्य की बात नहीं कि लालू यादव ने कहा था कि "संतुलन बिगड़ जाएगा" और भूमि सुधार की संभावना पर तीखी बर्बरता के साथ टिप्पणी की! 

दूसरा, जातिगत नेताओं को अपनी पार्टियों के भीतर नेतृत्व को लोकतांत्रिक ढंग से बदलने के लिए नहीं जाना जाता है। लगभग सभी जाति-आधारित राजनीतिक दल परिवार की जागीर बन गई या व्यक्तिगत जागीर हैं। मायावती की अगुवाई वाली बहुजन समाज पार्टी एक ऐसा ही मामला है। इससे मुक्तिवादी राजनीति का बड़ा पतन हुआ है क्योंकि सामाजिक रूप से पिछड़ी जातियों की लोकप्रिय भागीदारी या बढ़ रहे सामाजिक आंदोलनों को जाती या संबंधित विषयों के विनाश की ओर की तरफ सुनिश्चित नहीं किया जाता है। इसके बजाय, जन्मदिन की धूम, पर्व त्योहारों और व्यक्ति को बड़ा बनाने के काम आदर्श बन गए हैं। और ये भ्रामक घटनाएं अक्सर एक खूनी मामला बन जाती हैं। उदाहरण के लिए, 2009 में मायावती के जन्मदिन पर किए गए फंड में योगदान की मांग को पूरा करने में नाकाम रहने के लिए लोक निर्माण विभाग के अभियंता मनोज कुमार गुप्ता, जिन्हे औरैया में बीएसपी विधायक ने क्रूरता से मार दिया था। 

न तो उच्च स्तरीय नौकरशाही में नीतियों और उनके सही कार्यान्वयन के मामले में उच्च मंत्रिस्तरीय कार्यालयों में टोकन दलित प्रतिनिधित्व काम का हैं। यहां तक कि कांग्रेस ने भी दलित कार्ड खेला- दामोदरम संजीवय्या को आंध्र प्रदेश का मुख्यमंत्री (1960-62) चुना था और  नीलम संजीव रेड्डी को इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया था।

वाम दलों को एक साथ आना चाहिए और वाम लोकतांत्रिक मोर्चा बनाना चाहिए और 50 से 60 सीटों से अधिक पर चुनाव नहीं लड़ना चाहिए। उन्हें अपने वर्तमान और तत्कालीन गढ़ों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, साथ ही साथ बिहार के आम लोगों से अपील करनी चाहिए कि वे भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की हार सुनिश्चित करें। यह दलित और अल्पसंख्यकों की नज़र में वाम की भाजपा विरोधी राजनीति के बेदाग ट्रैक रिकॉर्ड को बरकरार रखेगा।

इसी के साथ एक नया राजनीतिक समीकरण आएगा, जिसे कन्हैया कुमार और अन्य वामपंथी दलों के कई अन्य गुमनाम कार्यकर्ताओं द्वारा आगे बढ़ाया जा सकता है। कन्हैया कुमार और असभ्य सांप्रदायिक, गिरिराज सिंह के बीच बेगूसराय चुनाव हार में समाप्त हो गया, लेकिन बिहार में अभियान परंपरा से अलग और प्रभावी था। सभी जातियों और धर्मों के युवाओं ने रोड शो में भाग लिया और वामपंथ के लिए जोरदार अभियान चलाया।

बिहार का वर्तमान संकट अद्वितीय है। तीस लाख परवासी मजदूरों को क्रूर स्थिति में वापस  घर (बिहार) लौटने के लिए मजबूर किया गया। इन्हे आम तौर पर निष्क्रिय राजनीतिक समूह माना जाता हैं क्योंकि वे दूर के शहरों में एक टूटे हुए घर को  पीछे छोड़ दो वक़्त की रोटी कमाने जाते हैं। इस बार वामपंथियों के पास उन्हे अपना ठोस राजनीतिक आधार बनाने की क्षमता है यदि वे अपनी शिकायतों के निवारण के लिए वामपंथ से संपर्क करते हैं। पंजाब जैसे अमीर राज्य, निजी बसों में बिहार के दूर-दराज के गांवों से पंजाब लाकर पहले से तीन गुना मजदूरी पर काम दे रहे हैं।

टूटे हुए प्रवासी श्रमिक अचानक उनके दिहाड़ी में हुई इस वृद्धि से  भड़के और उग्र हैं। वाम दल अपनी राजनीतिक भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए कई रचनात्मक उपाय कर सकते हैं। यह इन श्रमिकों की दूसरे राज्यों में काम करने लिए मालिकों के सामने सौदेबाजी की शक्ति को बेहतर बनाने के विचार को पिच कर सकता है। आम तौर पर बहुत से श्रमिक बिहार छोड़ने से पहले एक ऐसी यूनियन बनाने के लिए आगे बढ़ेंगे, जो वह यूनियन तब राज्य द्वारा राजनीतिक पर्यवेक्षण के अधीन होगी। यह विभिन्न राज्यों के श्रमिकों के बीच दोस्ताना रिश्ते को बढ़ाएगा।

एक और महत्वपूर्ण बात कि वामपंथी सरकार से बिहार के भीतर इस तबके को नौकरी और आय बढ़ाने के अवसर उपलब्ध कराने की मांग करे। चूंकि सभी सरकारें ऐसा करने में पूरी तरह से विफल रही हैं, इसलिए यह मांग ग्रामीण गरीबों की सबसे अधिक अपील करने वाली मांग बनेगी। 

बिहार के संकटग्रस्त और निराश्रितों को नई उम्मीद देने के लिए वामपंथियों को वर्तमान संकट का उपयोग करना चाहिए। हमें खुद से दो सवाल करने चाहिए- अगर हम नहीं तो कौन? अभी नहीं तो कभी नहीं?

लेखक कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के विश्व इतिहास विभाग में एक छात्र हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Needed, a United Left Alternative to Faltering Mandal Predicates in Bihar

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