एनईपी 2020: नए प्रतिमान स्थापित करने वाली नीति या विनाश के रास्ते की ओर जाने वाली नीति?
इतिहास इस बात की तस्दीक करता है कि भारत में किसी भी नीतिगत दस्तावेजों को उसके मौखिक स्वरुप के स्तर पर नहीं स्वीकार किया गया है । इस प्रकार के दस्तावेजों में हमेशा एक अंतर्वस्तु छिपी होती है- जोकि उसकी उसके परिचालन में नजर आती है, और वही इसके वास्तविक परिणामों को निर्धारित करने का काम करती है। और जिसे बुलंद आदर्श वाक्यों और आसानी से लुभाने वाले नारों के बीच से निकाल बाहर करने की आवश्यकता है। हाल ही में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने जिस नई शिक्षा नीति 2020 को अपनाया है, वह भी इससे अछूता नहीं है।
खासतौर पर जब हम इसे पैदा करने वाले वर्तमान शासन की प्रकृति को लेकर विचार करते हैं। एनईपी न तो कोई आसमान से एकाएक टपकी वस्तु है और ना ही यह कोई अपने आप में अलग से बनाई गई कोई नीति है। पिछले कुछ वर्षों से भारतीय शिक्षा व्यवस्था की सोच के स्तर पर एकमात्र विशिष्टता यदि किसी एक चीज को देखें तो वह, इस क्षेत्र के ताबड़तोड़ निजीकरण की प्रक्रिया को लागू कराने, और साथ ही इसके सार्वजनिक क्षेत्र की शिक्षा के हिस्से में बेतरह गिरावट की प्रक्रिया में देखने को मिली है। भारत में ज्यादा नहीं तो कम से कम 45% स्कूली शिक्षा में भर्ती की प्रक्रिया पहले से ही निजी स्कूलों के हाथ में जा चुकी है। जहाँ तक उच्च शिक्षा के क्षेत्र का प्रश्न है तो यहाँ पर निजी शिक्षा का प्रभुत्व कहीं अधिक है और इसमें लगातार बढ़ोत्तरी होती जा रही है। भारत में तकरीबन 45.2% कालेज दाखिले अब निजी गैर-सहायता प्राप्त कालेजों से हो रहे हैं, और इसके साथ ही 21.2% निजी सहायता प्राप्त संस्थानों में इसे होते देख सकते हैं।
इसे जब हम प्रोफेशनल कोर्स में देखते हैं तो यह हकीकत और भी भयावह नजर आती है। यहाँ पूरी तरह से निजी क्षेत्र में स्नातक के लिए 72.5% और स्नातकोत्तर में 60.6% दाखिले हो रहे हैं। विश्वविद्यालयों में यदि देखें जहाँ सार्वजनिक संस्थानों का प्रभुत्व सबसे अधिक है और सबसे लंबे समय से बना हुआ है तो यहाँ भी हालात तेजी से परिवर्तित होते नजर आ रहे हैं। 2014-15 से लेकर 2018-19 के बीच में विश्वविद्यालयों में दाखिले के मामले में निजी विश्वविद्यालयों में दाखिले में 55% की भारी बढ़ोतरी दर्ज की गई है। इसके अतिरिक्त जो 33% दाखिले बढे हैं, वे नियमित शिक्षा के बजाय सार्वजनिक ओपन विश्वविद्यालयों में दाखिले से सम्बद्ध हैं। अकेले शिक्षा के क्षेत्र में प्रति परिवार का औसत खर्च भी इस दौरान 50% से अधिक का बढ़ चुका है, जोकि इस दौरान से पहले भी बढ़ रहा था। यहाँ तक कि फीस वृद्धि के मामले इस दौरान सार्वजनिक शिक्षण संस्थानों में भी बढ़े हैं।
भारत में शिक्षा व्यवस्था की गति उत्तरोत्तर निजीकरण की दिशा में बढती जा रही है जोकि बेहद खर्चीली है, जिसके सुबूत बेहद साफ़ तौर पर देखे जा सकते हैं। यदि ऐसी पृष्ठभूमि में कोई शिक्षा नीति की दशा दिशा तैयार हो रही हो, लेकिन यदि वह इसे नकारात्मक ट्रेंड के तौर पर चिन्हित नहीं करती, जिसे कि हतोत्साहित किये जाने की आवश्यकता है तो इसका साफ़ मतलब है कि इसमें कुछ तो है, जिसकी पर्देदारी है। तब आप समझ जाते हैं कि असल में एनईपी 2020 में जिन बीस ‘बुनियादी सिद्धांतों’ को उद्धृत किया गया है उसमें जो बोल्ड में लिखे के बजाय वास्तविक जोर वाक्य के दूसरे भाग में लिखे पर है, और असल में वही इस शिक्षा नीति का सार तत्व है।
“...एक मजबूत, जीवंत सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली में पर्याप्त निवेश के साथ-साथ सच्चे परोपकारी निजी और सामुदायिक हिस्सेदारी के प्रोत्साहन और उपलब्धता की व्यवस्था।” (एनईपी 2020. पीपी. 6)।
एनईपी 2020 को स्कूल और उच्च शिक्षण संस्थाओं में बड़े पैमाने पर व्यवसायीकरण की अनमने ढंग से स्वीकार करना पड़ा है। समाधान के तौर पर जहाँ इसने रेगुलेटरी शासन को इसे हतोत्साहित करने के सुझाव देने का काम किया है, लेकिन वहीँ साथ में इसने “जन-सहयोग द्वारा निजी/परोपकारी” संस्थानों को सक्रिय समर्थन की वकालत भी की है! वास्तव में देखें तो यह बारम्बार सार्वजनिक और निजी दोनों ही व्यवस्था के अंगों को बराबरी के साथ बर्ताव करने के लिए आग्रह करता नजर आता है। गोया दोनों का ही लक्ष्य गुणवत्तायुक्त शिक्षा प्रदान करने का है। इस प्रक्रिया में यह उस हकीकत पर चमकीली चादर ओढ़ाने का काम करता है, जिसमें शिक्षा के क्षेत्र में सभी निजी और व्यावसायिक हितों का विस्तार पूरी तरह से ‘अलाभकारी’ संस्थानों की आड़ में किया जाता है।
भारतीय शिक्षा के निजीकरण के पीछे ‘उदारीकरण’ और ‘वैश्वीकरण’ की एक वृहत्तर आर्थिक प्रक्रिया की भूमिका इसके अभिन्न अंग के तौर पर रही है, जो समय के साथ-साथ आय और संपत्ति के वितरण में असमानता के साथ बढती जा रही है। इसने शीर्ष पर काबिज चोटी के दस प्रतिशत आबादी और शेष भारतीय नागरिकों के बीच की दूरी को बढ़ा डाला है। जहाँ पहले तबके ने शेष आबादी के श्रम से उपजे विकास के सभी लाभों पर एकाधिकार जमाने का काम किया है, वहीँ दूसरी तरफ अधिकांश भारतीय जन भारी पैमाने पर अंतहीन बेरोजगारी, अर्ध-बेरोजगारी और जड़ होती या काम पर वापस लौटने वाली स्थितियों के खात्मे जैसी अनिश्चित समस्याओं से जूझ रहे हैं।
इसके साथ ही महंगी शिक्षा के बढ़ते जाने ने गैर-बराबरी को दो तरीकों से बढ़ा दिया है। जो लोग भुगतान कर पाने में असमर्थ हैं, उनके लिए इसने पहुँच बना सकने के सभी रास्तों को बंद कर दिया है। इसके साथ ही इसने कराधान की एक प्रतिगामी प्रणाली के समकक्ष भूमिका निभाने का भी काम किया है। उत्तरार्द्ध वाला पहलू इसलिए है क्योंकि भारत में और विदेशों में उपलब्ध ऊँचे दाम मुहैय्या कराने वाली व्हाईट-कालर नौकरियों की अपेक्षाकृत कम संख्या के चलते मध्यवर्ग के बीच पलने वाली आकांक्षाओं के साथ-साथ भारतीय समाज में मौजूद कहीं ज्यादा वंचित तबकों के बीच भी इस दौरान सामाजिक और आर्थिक गतिशीलता के लिए बढ़ती आकांक्षा पनपी है। इन दोनों ही वर्गों में शिक्षा के लिए बढ़ते सामाजिक मांग ने निजी क्षेत्र के लिए एक अवसर को पैदा करने का काम किया है जिससे कि वह इस क्षेत्र में पर्याप्त सार्वजनिक निवेश के अभाव की स्थिति को अपने पक्ष में अधिकाधिक भुना सके।
हालाँकि एनईपी 2020 के तहत दशकों पुराने सकल घरेलू उत्पाद के छह प्रतिशत हिस्से को सार्वजनिक शिक्षा पर खर्च करने की प्रतिबद्धता को दोहराया गया है। लेकिन इसको लेकर कहीं से भी कोई भी ठोस प्रस्ताव नहीं सुझाए गये हैं, कि इतने दशकों की विफलता को अब कैसे ठीक किया जाने वाला है। विशेषकर यह देखते हुए कि कर-जीडीपी अनुपात काफी निचले स्तर पर बना हुआ है। यह इस बात को सुझाने से इंकार करता है कि जिन लोगों ने शिक्षा सेवाओं सहित अन्य निवेश की प्रक्रिया के तहत संसाधनों को अधिकतम स्तर तक निचोड़ने में महारत हासिल कर रखी है, उनपर शिक्षा में सार्वजनिक निवेश को बढ़ाने के लिए पर्याप्त रूप से वित्त पोषण के लिए कराधान लगाये जाएँ। इसके बजाय इसने अपनी सारी उम्मीद इस बात पर लगा रखी है कि ये मुनाफाखोर स्वेच्छा से उन लोगों को परोपकारी निवेश के जरिये मदद पहुँचाने का काम करेंगे, जिनसे उन्होंने यह सब वसूला है। इसीलिए कोई आश्चर्य की बात नहीं कि इसी के मद्देनजर कुछ समय पूर्व एक अस्तित्वहीन संस्था को 'श्रेष्ठ संस्था' के टैग से इसी प्रत्याशा में नवाजा गया।
इसके साथ ही एनईपी 2020 ऐसी ‘पहलकदमियों’ से भरी पड़ी है जिसमें उन तरीकों से शिक्षा में ‘विस्तार’ के जरिये पहुँच बनाने के बारे में विचार किया गया है जिसमें सरकारी खजाने के लिए काफी सस्ता माध्यम साबित होंगे। इसके कुछ उदहारण इस प्रकार से हैं: प्री-स्कूली शिक्षा का सारा बोझ "अर्ली चाइल्ड केयर एंड एजुकेशन" के नामपर आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं पर डाल देना, जिन्हें ऑनलाइन पाठ्यक्रमों के माध्यम से इस उद्देश्य के लिए प्रशिक्षित किया जाएगा जिससे कि वे "अपने वर्तमान कार्य में न्यूनतम व्यवधान के साथ-साथ ईसीसीई योग्यता हासिल कर सकें"। ‘आर्थिक तौर पर उप इष्टतम’ स्कूलों के तौर पर चिन्हित स्कूलों के ‘विवेकीकरण’ और ‘सुदृढ़ीकरण’ के जरिये इन कमियों को दूर करने या डिजिटल प्रौद्योगिकियों के उपयोग और दूरस्थ शिक्षा के माध्यम से उच्च शिक्षा में सकल नामांकन के अनुपात को 50% तक बढाने का लक्ष्य शामिल है।
शिक्षा के क्षेत्र को मुनाफा कमाने की गतिविधि में बदलकर रख देने और सार्वजनिक वित्त पोषण में कटौती से बढ़ती असमानता के उपजने से उसके लाभार्थियों द्वारा नीति-निर्धारण के बढ़ते कब्जे के पारस्परिक सम्बंधों के नतीजे के तौर पर देख सकते हैं। राजकोषीय खर्चों में संयम से काम लेकर, जिसमें न तो अत्यधिक कराधान और न ही बेहद खर्च का प्रावधान है- के चलते इस प्रक्रिया के कारण और प्रभाव दोनों से सम्बन्धित हैं। इन सबका वर्तमान में जारी भारतीय धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र को कमतर आंकने को लेकर दोतरफा रिश्ता है - इस तरह के कब्जे से न सिर्फ लोकतंत्र को ही कमतर किया जाता है, उल्टा यह लोकतंत्र को खोखला करके खुद को मजबूत तक करता जाता है। आखिरकार बढ़ती गैर-बराबरी और कब्जे की प्रवत्ति भी एक बड़ी चुनौती के लिए उद्देश्य का आधार निर्मित करता है जोकि चुनावी मतपत्र के जरिये खुद को प्रतिबिंबित कर सकता था, जोकि नाममात्र की संवैधानिक स्वतंत्रता और अधिकारों की गारंटी को सुनिश्चित कर सकता था। इस प्रकार के किसी भी चुनौती को नाकाम करने के लिए भारतीय समाज के जहरीले साम्प्रदायिकीकरण और भारतीय राष्ट्रवाद के पुनर्निर्माण और तेजी से आक्रामक निरंकुशता के लिए आवरण तैयार करने का वैचारिक औजार सिद्ध हुआ है।
भारत की राजनीतिक प्रणाली में इन रुझानों के शिखर पर विद्यमान होने के चलते वर्तमान शासन की रूचि इस बात को सुनिश्चित करने में है कि मौजूदा शिक्षा प्रणाली इसे खुद के हित साधन के तौर पर इस्तेमाल में ला सके। इसकी मंशा देश में किसी भी सार्वजनिक-वित्त पोषित सामूहिक शिक्षा प्रणाली की संभावना को समाप्त करने में है जो समानता, स्वतंत्रता और न्याय जैसे 'खतरनाक विचारों' को बढ़ावा देने वाली साबित हो सकती है। आंशिक तौर पर शिक्षा के निजीकरण की यह प्रक्रिया ही अपनेआप में हितों और मुनाफाखोरी के बीच के मेल का प्रतिनिधित्व करती है। एक अतिरिक्त महत्वपूर्ण तत्व यह है कि यह विशेषतौर पर सार्वजनिक उच्च शिक्षा पर हमलावर रुख अख्तियार करता है, जिसमें विश्वविद्यालयों, छात्रों, शिक्षकों और फैकल्टी के खिलाफ राज्यसत्ता की ताकत को झोंकने और उनके विरोध प्रदर्शनों को कलंकित करने का काम कर रही है। यह पृष्ठभूमि एक अलग ही अर्थ प्रदान करता है - इसमें भारतीय इतिहास के सैकड़ों वर्षों के ध्यान देने योग्य तथ्यों को सिरे से गायब कर देने के जरिये एनईपी 2020 के निम्नलिखित अतिरिक्त मूलभूत मार्गदर्शक सिद्धांत के पीछे छिपे इरादों और उन्हें अमल में लाने के उपायों के बारे में व्याख्यायित किया गया है:
"भारतीय जड़ों से जुड़े होने और गर्व की अनुभूति, और इसकी समृद्ध, विविध, प्राचीन और आधुनिक संस्कृति और ज्ञान प्रणाली और परंपराएं।"
(एनईपी 2020, पीपी 6)
अपने मार्गदर्शक सिद्धांतों में एनईपी 2020 निश्चित तौर पर "वैचारिक समझ पर जोर", "रचनात्मकता और आलोचनात्मक सोच" को बढ़ावा देने और सहानुभूति, दूसरों के लिए सम्मान, स्वच्छता, शिष्टाचार के पालन, लोकतांत्रिक भावना, सेवा भावना, सार्वजनिक संपत्ति के प्रति सम्मान का भाव, वैज्ञानिक प्रवत्ति, स्वतंत्रता, जिम्मेदारी, बहुलतावाद, समानता और न्याय” जैसे नैतिक और मानवीय एवं संवैधानिक मूल्यों को बढ़ावा देने वाले नीति निर्देशक तत्वों को शामिल किया है। इनमें से कुछ तो सीधे-सीधे इन आदर्शों के प्रति एक जबानी जमा-खर्च से अधिक नहीं है, और इसमें जो पाखंड है उसे सरकार के इन आदर्शों के प्रति सम्मान के वास्तविक आंकड़ों में से परखा जा सकता है। हालाँकि जब हिस्सों में इसे देखते हैं तो यह अंतर्निहित ढांचे को भी दर्शाता है, जोकि लाभ पर आधारित आर्थिक प्रक्षेपवक्र के साथ गहराई से गुंथा हुआ है।
इन हितों की साझेदारी में देश के आधुनिकीकरण का कुल मतलब ही प्रौद्योगिकी और इसके विकास के सवाल पर आकर सिमट जाता है। एनईपी 2020 की समूची अवधारण ही इस बात पर अवलम्बित है कि "दुनिया ज्ञान के परिदृश्य में बेहद द्रुत गति से बदलाव के दौर से गुजर रही है" जिसमें "दुनिया भर में कई अकुशल नौकरियों को अब मशीनों द्वारा स्थानापन्न किया जा सकता है" और यह कि जल्द ही दुनिया को "बहु-विषयक क्षमताओं वाले कुशल कार्यबल की आवश्यकता" पड़ने वाली है। इसके दृष्टिकोण में फिर चुनौती "भारत में शिक्षा को देश को 21वीं सदी और चौथी औद्योगिक क्रांति में नेतृत्व प्रदान करने लायक बनाने" और "जिससे कि भारत एक वैश्विक ज्ञान महाशक्ति बन सके" से सम्बन्धित है। हकीकत में ये तथाकथित अत्यंत ‘रचनात्मक’ नौकरियां कुछ चुनिंदा लोगों को छोड़कर ज्यादातर लोगों को उपलब्ध नहीं होने जा रही हैं, इसलिए बाकियों के लिए एनईपी 2020 में इसके प्रतिउत्तर के तौर पर व्यावसायिक प्रशिक्षण की बैशाखी पकड़ा दी गई है।
’प्राचीन’ भारतीय ज्ञान और परंपरा से प्रेरणा लेकर गौरवशाली भविष्य की शानदार महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए भारत को जहाँ एक वैश्विक तकनीक के क्षेत्र में अग्रणी नेतृत्व की भूमिका में आना होगा, वहीँ ऐसे में एनईपी 2020 विरोधाभासों से भरी एक कहानी पेश करता है जो कुछ लोगों को भा सकती है। यह शिक्षा के एक खास चरित्र को संरक्षित करने के उद्देश्य के तौर पर कार्य करता है – जोकि स्पष्ट दृष्टिगोचर हो जाता है कि समाज के कौन से समूह इसे हथियाने जा रहे हैं और यह किन समूहों की जरूरतों की पूर्ति करने जा रहा है। हालांकि यह वास्तविक शैक्षणिक चुनौतियों को धुंधला करने का काम करता है, जोकि कई मायनों में और विशेषकर वर्तमान भारतीय परिद्रश्य में कूदकर सामने आ जा रहे हैं। ‘भारतीय शिक्षा के अंतर्राष्ट्रीयकरण’ को प्रोत्साहित करने का विचार भी उसी विचार का प्रतिनिधित्व करता है - यह भारतीय शिक्षा प्रणाली में निजी क्षेत्र के लिए बाजार को व्यापक स्वरुप देने और भारतीय समाज के एक छोटे से तबके के लिए ‘वैश्विक’ शिक्षा की संभावनाओं के द्वार को खोलने की उम्मीद को लेकर है।
कई मौकों पर शिक्षा के निजीकरण के परस्पर विरोधाभाषी उद्देश्यों को देखते हुए एक हिंदू राष्ट्रवादी विश्व दृष्टिकोण को बढ़ावा देना, भारतीय समाज के प्रगतिशील परिवर्तन को बढ़ावा देने में शिक्षा की भूमिका की किसी भी गुंजाइश को समाप्त करने के मकसद में दृष्टिगोचर होता है। लेकिन इसके बावजूद एक ऐसे कुशल कार्यबल को पैदा करने के तौर पर इसकी भूमिका, जोकि निजी पूंजी की जरूरतों के चलते असमान विकास के मार्ग को प्रशस्त करता है- जिस तरह के नियामक और शासन ढांचे ने एनईपी 2020 के लिए एक मामला बनाया है, एक विचारणीय प्रश्न है। यह एक ऐसी संरचना है जो प्रक्रिया के केंद्र में शिक्षकों को रखने की सभी जुबानी जमाखर्च के बावजूद भारतीय शिक्षा के लिए ज्यादा केंद्रीकृत, पहले से अधिक शीर्ष से नीचे के रवैये और ‘नेतृत्व’ द्वारा संचालित और कॉर्पोरेट-शैली के शासन और नियमन को बढ़ावा देता है।
इस ढांचे में ‘स्वायत्तता’ का पहलू अंततः शिक्षा में लाभ के उद्देश्य को ज्यादा खुली छूट देने के लिए उकसाता है, जबकि वहीँ दूसरी तरफ शिक्षा, अनुसंधान और उसकी विषय-वस्तु पर सरकार का नियंत्रण पहले से अधिक होता जा रहा है। छात्रों के लिए पहले से ज्यादा 'लचीलेपन' को पेश करने का विचार हो सकता है कि कुशल कार्यबल के बहु-अनुशासनात्मक कौशल के साथ को विकसित करने के आईडिया से जुड़ा हो। लेकिन यह उद्येश्य भी शिक्षा की गुणवत्ता हेतु मेनू-आधारित विकल्प के मॉडल के निहितार्थ के चलते असफल साबित हो सकता है। इससे भी महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि यह निजी संस्थानों को पहले से विभेदित बाजार को कहीं ज्यादा प्रभावी ढंग से कब्जाने की अनुमति देता है। यह उन लोगों को भ्रमित करने का काम करता है जो एक बार में पूर्ण शिक्षा ग्रहण कर पाने की स्थिति में नहीं रहते, उन्हें यह विश्वास दिलाया जाता है कि वे बाद में वे इसे किश्तों में पूरा कर सकते हैं।
एनईपी 2020 का तात्कालिक संदर्भ उदारीकरण और वैश्वीकरण और एक निजी पूंजी पर आधारित विकास प्रक्षेपवक्र के गहराते संकट के पर्याय के तौर पर है। इसमें महामारी के संकट ने सिर्फ अर्थव्यवस्था में पहले से ही गिरावट की प्रवृत्ति को और मजबूती प्रदान करने की भूमिका निभाई है। ऐसे सन्दर्भों के बीच में निजी निवेश हेतु नए क्षेत्रों की तलाश पहले से कहीं ज्यादा तीव्र होती जा रही है। नतीजे के तौर पर जहाँ एक तरफ करों में कटौती और कॉर्पोरेट क्षेत्र के लिए अन्य उपहारों की झड़ी को लगते देखा जा सकता है, वहीँ दूसरी ओर राज्य का वित्तीय संकट लगातार गंभीर होता जा रहा है, और लोगों में असंतोष अपने तीव्रतम स्तर पर पहुँच रहा है। एनईपी 2020 की यह तात्कालिक पृष्ठभूमि है। सरकार की ओर से “21 वीं सदी की पहली शिक्षा नीति” को लागू करने को लेकर जिस प्रकार की हड़बड़ी दिखाई जा रही है, उससे अब किसी भी भ्रम में बने रहने की कोई गुंजाइश नहीं बचती कि एनईपी 2020 के पीछे सरकार का असली मकसद क्या है।
लेखक जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर हैं।
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