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भारत को लेकर भला-बुरा कहते  जो बिडेन

क्या यह अजीब-ओ-ग़रीब बात नहीं है कि डेमोक्रेटिक उम्मीदवार मोदी का कोई संदर्भ दिये बिना भी अमेरिका-भारत रिश्तों पर चर्चा कर सकते हैं ?
भारत को लेकर भला-बुरा कहते  जो बिडेन
अमेरिकी राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार जो बिडेन और उनकी साथी कमला हैरिस। (फ़ाइल फ़ोटो)

डेमोक्रेटिक उम्मीदवार,जो बिडेन की अमेरिका-भारत रिश्ते पर बुधवार की टिप्पणी में भले-बुरे सभी तरह के तत्व हैं। एक मझे हुए राजनीतिज्ञ,बिडेन विदेशी पर्यवेक्षकों को एक बौद्धिक चुनौती देते हैं। 3 नवंबर को होने वाला असरदार अमेरिकी चुनाव उनके व्यापक अनुभव,उनके हर रुख़ और हर शब्द में बयां होता है।

यह चुनाव आख़िरी पल तक दिलचस्प होने जा रहा है। इसके अलावे,मशहूर राष्ट्रपतीय बहस शुरू होने में अभी चार दिन बाक़ी हैं। यह सच्चाई है कि इसके लिए बिडेन ने अपने विचारों को रखने के लिए भारतीय अमेरिकियों को लेकर एक 'वर्चुअल' फ़ंड जुटाने वाले की पोडियम को चुना है।इसमें आश्चर्य की बात इसलिए नहीं है, क्योंकि अमेरिका का भारतीय प्रवासी उन छोटी मोटी समस्या के उस शिकन को दुरुस्त करते हुए ट्रम्प के लिए संघ परिवार के कार्यकर्ताओं के समर्थन के राग को नज़रअंदाज़ करके एक ऐतिहासिक भूमिका निभा रहा है,जिसे हाउडी मोदी और नमस्ते ट्रम्प ने अनावश्यक रूप से पैदा कर दिया था।

बिडेन की टिप्पणियों में ऐसी बारीकियां हैं, जिस पर ध्यान दिये बिना रहा नहीं जा सकता, क्योंकि बिडेन के राष्ट्रपति बनने के दावे को अब महज़ एक संभावना नहीं माना जाता है। सबसे पहले अपने भाषण के 'बेढंगे' हिस्से की शुरुआत करते हुए बिडेन ने कथित तौर पर कहा है कि उनका मानना है कि अमेरिका-भारत रिश्ता "फ़ोटो खिंचवाना या हाथ मिलाना भर नहीं है, बल्कि यह चीज़ों को हासिल करने को लेकर की जाने वाली एक कोशिश है।"

जो बिडेन की यह टिप्पणी पिछले 3-4 वर्षों में हाउडी मोदी, नमस्ते ट्रम्प जैसे ‘गले लगने-लगाने वाली डिप्लोमेसी’ और दो लोगों के बीच के याराने और उनके बेहिसाब प्रदर्शन के किसी दोहराव से तौबा करना है। इसके अलावे, इसमें अपनी ख़ुद की ख़ातिर उस बहुत शक्तिशाली कूटनीति से पीछा छुड़ाना भी है,जिसकी अहमियत अनर्गल प्रलाप से ज़्यादा कुछ भी नहीं है।

क्या यह अजीब-ओ-ग़रीब बात नहीं है कि बिडेन मोदी के संदर्भ के बिना भी अमेरिका-भारत रिश्ते पर चर्चा कर सकते हैं ? बिडेन को मोदी की शोर-शराबे और नुमाइश वाली अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति के ज़ोर-शोर से प्रचार-प्रसार करने वाले तौर-तरीक़ों से कोई लेना-देना नहीं है।

बिडेन का सम्मान वास्तव में एक ऐसे शख़्स के तौर पर है,जो भावनाओं से नहीं,बल्कि व्यावहारिक मेलमिलाप से काम लेते हैं, अक्सर दूसरों का आदर करते हैं, तारीफ़ करते हैं, या सद्भावना दिखाते हुए दूसरों को नज़रअदाज़ नहीं करते हैं, और जब असहमति होती है, तो वह स्वभाव से चीज़ों को कभी-कभी मान जाने की क़ीमत पर भी आसानी से अंजाम तक ले जाने की कोशिश करते हैं।

बिडेन शांत और दिमाग़ से काम लेने वाले बराक ओबामा के मुक़ाबले उस बिल क्लिंटन से ज़्यादा मिलते-जुलते हैं, जो एक बहुत ही भावुक, बहुत ही जोशीले और ज़्यादा बोलने वाले इंसान और एक दिलेर राजनीतिज्ञ हैं। मोदी ने अमेरिका में संघ परिवार के कार्यकर्ताओं द्वारा ख़ुद को निर्देशित करने की अनुमति देकर यह मानते हुए गंभीर ग़लती कर दी थी कि ट्रम्प का फिर से चुना जाना मानो पहले से पता कोई परिणाम हो। ट्रम्प अच्छी तरह जीत सकते हैं, लेकिन वह हार भी सकते हैं। यह चुनावों की पहेली है और मोदी को इसे समझना चाहिए था।

मेरे हिसाब से यह तीसरी बार है,जब भारत की विदेश नीति के क्षेत्र में भाजपा की लापरवाह कोशिश एक झटका दे रही है,ये झटके पाकिस्तान और श्रीलंका के साथ भारत के रिश्ते को लेकर दो बार पहले भी मिल चुके हैं।

भारत कोई एक पार्टी वाला देश तो है नहीं और ऐसे में राष्ट्रीय हितों के हिसाब से ही देश की विदेश नीति और कूटनीति संचालित होनी चाहिए। उम्मीद की जानी चाहिए कि भारत वन-चाइना पॉलिसी के सिलसिले में इस तरह की बेतमलब की उस मूढ़ता को नहीं दोहरायेगा, जो इस समय अपरंपरागत विचारों के बावजूद है।

बिडेन कोई उदारवादी नहीं है और उन्होंने ख़ुद को उस नव-समाजवादी के तौर पर लोगों के सामने रखने की तत्परता दिखायी है, जिसे वे अपना राष्ट्रपतीय नियति मानते हैं। यही वजह है कि अलेक्जेंड्रिया ओकासियो कॉर्टेज़ डेमोक्रेटिक प्लेटफ़ॉर्म में अपनी ग्रीन न्यू डील का ज़िक़्र करने में सक्षम थीं; बिडेन ने इस बात की शपथ ली है कि वह अमेरिका के हथियारों को क़ाबू करने पर नज़र रखेंगे और वह नस्लवाद का अंत करना चाहते हैं, मुफ़्त चिकित्सा और कॉलेज की शिक्षा मुफ़्त करना चाहते हैं; और, बर्नी सैंडर्स ने विश्वास के साथ यह वादा किया है कि बिडेन फ़्रैंकलिन डी.रूज़वेल्ट(FDR) के बाद सबसे प्रगतिशील राष्ट्रपति साबित होंगे।”

वास्तव में 2020 के संसदीय चुनावों में हर जगह डेमोक्रेट इसी रुख़ पर चल रहे हैं। और एक बार चुने जाने के बाद वे इस रुख़ को नहीं छोड़ेंगे। ट्रम्प के चार साल के मामले में उनके पास कोई विकल्प भी नहीं है। यह डेमोक्रेट के लिए एक अस्तित्व बनाये रखने वाला विकल्प है। इसके अलावे,बिडेन ने डेमोक्रेटिक पार्टी के नये प्रगतिशील सांचे को फ़िट करने के लिए कई तरह के बदलाव लाये हैं।

कहा जा सकता है कि मोदी सरकार और बिडेन के राष्ट्रपतित्व के बीच किसी ‘मूल्य-आधारित’ अमेरिका-भारत एजेंडे की कोई संभावना नहीं बनती है। भारत में हो रहे मानवाधिकारों के उल्लंघन, हमारे देश में लगातार बढ़ते दक्षिणपंथी लोकलुभावन राजनीति, या लोकतांत्रिक मूल्यों और बहुलतावाद का लगातार होते क्षरण,ये तमाम गड़बड़ियां जिसका इस समय हम गवाह बन रहे हैं,बिडन को ये तमाम चीज़ें पसंद नहीं हैं।

मोदी सरकार दिखाने के लिए ही सही,मगर उस समय ख़ुद ही उस शख़्सियत की प्रशंसा करने का नैतिक साहस भी नहीं जुटा सकी, जब अमेरिका की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी और मौजूदा दुनिया की सबसे पुरानी मतदाता-आधारित राजनीतिक पार्टी ने अपने उप-राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के रूप में चुने जाने के तौर पर एक भारतीय-अमेरिकी को इतने ज़बरदस्त सम्मान से सम्मानित किया। इसके बजाय, मोदी और ट्रम्प कोविड-19 महामारी के अपने प्रबंधन को लेकर एक दूसरे की तारीफ़ करते नहीं थकते !

इसके बावजूद सच्चाई का अच्छा पहलू यही है कि बिडेन अमेरिका-भारतीय रिश्तों को महत्व देते हैं। उनकी टिप्पणी का समग्र अभिप्राय बहुत सकारात्मक है। बिडेन अमेरिका-भारतीय रिश्तों के बने रहने के मक़सद में एक पक्का यक़ीन करने वाले शख़्स हैं।

इस बात का क़यास लगाया जा रहा है कि विदेश मंत्री,एस जयशंकर, बिडेन के राष्ट्रपति काल में मोदी के एक अपरिहार्य सहयोगी होंगे। ऐसे में यह बात समझ से बाहर दिखती है कि वाशिंगटन में ख़ुद के राजदूत वाले कार्यकाल के दौरान जयशंकर बिडेन के साथ अपने रिश्ते बनाने में चूक कैसे कर गये। आख़िर इस बात को जयशंकर पर कैसे छोड़ा जा जा सकता है कि वे बिडेन की सहानुभूति, गर्मजोशी, हर इंसान की गरिमा के प्रति समर्पण, कर्मचारियों के प्रति करुणा और व्यक्तिगत त्रासदियों को लेकर परिवार के साथ निकटता जैसी उनकी शालीनता को वे तय करें।

बिडेन अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों पर जीत दर्ज करने,न कि उन्हें कुचल देने में यक़ीन करते हैं। इस तरह, बिडेन  के राष्ट्रपति काल में भारत को दूसरा मौक़ा मिलेगा। फिर भी कह जा सकता है कि भारत को एक बड़े बदलाव के लिए भी अनुकूल होना होगा। इस बात की सबसे ज़्यादा संभवाना है कि एक भावी राष्ट्रपति के तौर पर बिडेन की विदेश नीति की दिशा एक सुलझे हुए नेता की होगी।

बिडेन राष्ट्रपती,हैरी ट्रूमैन और ड्वाइट आइजनहावर जैसे होंगे-उनका झुकाव किसी विशाल नज़रिये के मुताबिक़ दुनिया को फिर से नया आकार देने का नहीं है और इस बात की ज़्यादा संभावना है कि वे सहानुभूति की उम्मीद के साथ परिस्थितियों के हिसाब से हल निकालने वाली गुज़ाइश पर आगे बढ़ें।

वह एक ऐसे लचीले, आशावादी राजनेता है, जिनका दिमाग़ बदलाव को लेकर पूरी तरह खुला है, लेकिन इसमें स्थिरता की कमी हो सकती है और उन्हें अपने नीतिगत उद्देश्यों को पूरा करना होगा। यह कहना पर्याप्त होगा कि, 'हिंद-प्रशांत व्यवस्था' वाली उनकी अवधारणा बहुत हद तक माइक पोम्पेओ की अवधारणा जैसी नहीं है।

इसलिए, जयशंकर को चीन के एकदम नज़दीक टोक्यो में अगले महीने होने वाली क्वाड मीटिंग के दौरान अमेरिकी विदेशमंत्री,पोम्पेओ के साथ अपनी अंतिम वार्ता को लेकर हल्की फुल्की बातें करनी चाहिए। (सबसे विवेकपूर्ण क़दम तो यही होता कि वे इस असामयिक दौरे से पूरी तरह से बचते।) बिडेन का राष्ट्रपति काल इस 'नियम-आधारित हिंद-प्रशांत प्रणाली' के विरोध के साथ आयेगा। इसे लेकर यही निष्कर्ष हो सकता है कि भावी राष्ट्रपति बिडेन का सामान्य कार्यकाल मेल-मिलाप का होगा।

पूर्व राष्ट्रपति,जॉर्ज डब्ल्यू.बुश के शब्दों में, बिडेन एक सर्वोत्कृष्ट "जोड़ने वाले, न कि एक तोड़ने वाले" शख़्स है। अंतत: यही कहा जा सकता बिडेन किसी भी प्रभाव को लेकर बेहद खुले शख़्स है, जो बाहरी विरोधियों के साथ बातचीत में अपने नेतृत्व की प्रभावशीलता का असर छोड़े बिना नहीं रह सकते।

साभार: इंडियन पंचलाइन

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Joe Biden Speaks on India – the Good, Bad and Ugly

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