राज्य लोगों को स्वास्थ्य देखभाल सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए संविधान से बाध्य है
दुनिया में टीके का सबसे बड़ा उत्पादक देश होने के बावजूद, भारत आज कोविड-19 के टीके की भयंकर कमी से जूझ रहा है। यह टीके के आवंटन एवं चिकित्सा आपूर्ति की खरीद के लिए कार्यनीतिक क्रियान्वयन में देश के वर्तमान नेतृत्व की विफलता को दर्शाता है। किंतु स्वास्थ्य का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत एक ऐसा आवश्यक उपादान है, जो व्यक्ति को उसके जीने का हक और निजी आजादी की गारंटी देता है। इसी विषय पर प्रस्तुत है, महक तंवर का आलेख-
मानवीय विकास का अहम संकेतक है- स्वास्थ्य, क्योंकि यह एक देश के सामाजिक-आर्थिक विकास को निर्धारित करने वाला एक अत्यावश्यक मानदंड है। भारत में स्वास्थ्य देखभाल क्षेत्र में आई हालिया गिरावट से न केवल पूरी दुनिया में थू-थू हुई है बल्कि इसने स्वास्थ्य देखभाल सुविधाओं तक लोगों की पहुंच पर भी सवाल खड़ा कर दिया है।
विश्व के अनेक नेताओं ने महामारी की दूसरी लहर को संभालने में भारतीय नेतृत्व की नाकामयाबी के लिए उसकी लानत-मलामत की है और इसका दोष उसके सिर मंढा है। इन नेताओं में जर्मनी की चांसलर ऐंजिला मर्केल भी शामिल हैं, जिन्होंने भारत से मेडिकल आपूर्ति किए जाने पर अपनी चिंताएं जाहिर की हैं। उन्होंने हाल ही में कहा है कि यूरोपीयन यूनियन ने विश्व में दवाओं के निर्माण का सबसे बड़ा क्षेत्र बनने के लिए “भारत को अनुमति” दी है।
अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी, और इटली जैसे देश जो महामारी की पहली लहर से बुरी तरह पीड़ित हुए थे, वे सब के सब अपनी आबादी के बड़े हिस्से का टीका लगवाने में कामयाब हो गए और उनके यहां पिछले वर्ष की तुलना में कोविड-19 के मामलों में बड़े पैमाने पर गिरावट आई है।
हालांकि, भारत टीके का आवंटन करने और मेडिकल आपूर्ति की खरीद के लिए कार्यनीतिक क्रियान्वयन में विफल हो गया है।
न्यायपालिका की भूमिका
संविधान में स्वास्थ्य के अधिकार का स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं किया गया है। हालांकि, न्यायपालिका ने बीते कुछ सालों में इस अधिकार को संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत एक अपरिहार्य अवयव के रूप में पहचाने जाने में एक बाध्यकारी भूमिका निभाई है, जो व्यक्ति को जीवन जीने तथा उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता की गारंटी देता है।
भारतीय कानून के अंतर्गत, स्वास्थ्य का अधिकार व्यक्ति की स्वतंत्रता और सम्मान के साथ जीवन जीने के अधिकार में अंतर्निहित है।
यह सिद्धांत पंजाब राज्य बनाम एम.एस. चावला मामले में स्थापित किया गया था, जिसमें अदालत ने यह स्पष्ट किया था कि अनुच्छेद 21 के तहत दिए गए जीवन के अधिकार में ही स्वास्थ्य की देखभाल और नैदानिक विचार का अधिकार सन्निहित है।
स्वास्थ्य के अधिकार का एक प्रभावी कार्यान्वयन सुनिश्चित करने के क्रम में राज्य की बाध्यता की प्रकृति को समझने के लिए, संविधान के अनुच्छेद 21 को अवश्य ही अनुच्छेद 38,42, 43 और 47 के साथ पढ़ा जाना चाहिए।
संविधान के खंड 4 के अंतर्गत राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धांत स्वास्थ्य के अधिकार का प्रावधान करता है, जो राज्य को अपने आम जन को स्वास्थ्य देखभाल की अनुकूल सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए बाध्य करता है। इसके अलावा, पंजाब राज्य बनाम एम.एस.चावला और पंजाब राज्य नाम ओआरएस बनाम राम लुभाया बग्गा मामले में, न्यायालय ने कहा कि अपने नागरिकों के लिए स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराना और उनको बहाल रखना राज्य का उत्तरदायित्व और अनिवार्य कर्तव्य है।
योजना का अभाव
भारत विश्व भर में सबसे कम दाम वाले टीकों, जैसे पुन-संयोजक (recombinant) हेपेटाइटिस बी समेत सभी तरह के टीकों सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता देश है। इसके अलावा, यूनिसेफ और विभिन्न देशों के स्वास्थ्य मंत्रालय के लिए भी टीकों का अग्रणी आपूर्तिकर्ता रहा है। कोविड-19 ने भारत में स्वास्थ्य देखभाल उद्योग को बुरी तरह तबाह कर दिया है। टीका निर्माता देशों में अग्रणी होने के बावजूद भारत कोविड-19 के टीके की भारी कमी से जूझ रहा है। महामारी की इस दूसरी लहर में देश की हालत बहुत खराब हो गई है।
देश में 1.36 बिलियन आबादी के लिए टीके की आपूर्ति पर्याप्त नहीं है। दूसरे देशों की तुलना में भारत ने अभी तक अपनी कुल आबादी के 10 फीसदी से भी कम हिस्से का टीकाकरण किया है।
यह स्पष्ट है कि सरकार की टीकाकरण-नीति पूरी तरह दिशाहीन है, विफल है और संकट से निपटने में नेतृत्व की असफलता का भी एक प्रतिबिंब है।
इसके अतिरिक्त, विभिन्न आयु वर्गों में टीके का आवंटन भी असमानता का कारण रहा है और यह अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है। सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार की टीकाकरण-नीति, जिसके तहत 18 से 44 साल के नागरिकों को टीके लगाए जाते हैं, उसको प्रथमदृष्टया लोगों के स्वास्थ्य के अधिकार और समानता के अधिकार के लिए अहितकर बताया है, क्योंकि यह नीति जनसंख्या के एक वर्ग-समूह के विकल्प को अमान्य कर देती है और उन्हें रजिस्ट्रेशन के लिए फोर्स करती है, जिसकी इंटरनेट तक पहुंच ही कम है।
अध्ययन से पता चलता है भारत में ब्रॉडबैंड की राष्ट्रीय औसत 51 फ़ीसदी है, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों और दूरदराज के इलाकों में यह पहुंच केवल 29.1 फीसदी ही है। इससे कई समस्याएं उत्पन्न होती हैं। Co-WIN एप्प ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन के लिए अपरिहार्य है, जिस पर सर्वोच्च न्यायालय ने In Re: Distribution of Essential Supplies and Services during pandemic में सवाल उठाया है।
अनुच्छेद 21 का उल्लंघन
सरकार की टीकाकरण-नीति संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है, जो कानून के समक्ष नागरिकों की समानता के अधिकार की गारंटी देता है। इसलिए कि यह सामाजिक वास्तविकता पर गौर करने और इस तरह के नियम-कायदों के नागरिकों के जीवन पर पड़ने वाले अच्छे-बुरे प्रभावों के आकलन में विफल हो गई है। इस नीति के तहत टीके के रजिस्ट्रेशन के लिए नागरिकों को अवश्य ही ऑनलाइन और ऑफलाइन दोनों ही सुविधाएं मुहैया करानी चाहिए, जो कि अनुच्छेद 14 का अभीष्ट है। इसके अलावा, यह नीति टीके को लोगों के लिए अगम्य बना कर और उसका असमान वितरण कर स्वास्थ्य के उनके अधिकार का उल्लंघन करती है, जो अनुच्छेद 21 का भी उल्लंघन है।
एक अग्रणी दवा निर्माता देश होने के बावजूद, कोविड-19 ने भारत को इस हद तक गहराई से दुष्प्रभावित किया है कि बड़ी संख्या में इसके नागरिक दवाओं और ऑक्सीजन आपूर्ति के अभाव में मर गए हैं।
कोरोना वायरस के विभिन्न म्यूटेंट के तहत देश की स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली चरमरा रही है इसके अलावा, ब्लैक फंगस और एलो फंगस के बढ़ते मामले दवा-निर्माता कंपनियों के लिए गहरी चिंता के विषय हो गए हैं। कोविड-19 से संबंधित दवाओं और चिकित्सा उपकरणों जैसे ऑक्सीमीटर, ऑक्सीजन कंसंट्रेटर और वेंटीलेटर्स की मांग काफी बढ़ गई है। हालांकि उनकी आपूर्ति सीमित है। इसने भारत में राष्ट्रीय आपातकाल की स्थिति पैदा कर दी है।
इसके अलावा, भारत ने कोविड-19 के मरीजों के इलाज में काम आने वाली दवाओं की आवश्यक लाइसेंस निर्गत नहीं किया है। यह स्थिति को और भी बिगाड़ दे रही है क्योंकि दवाओं की आपूर्ति अब भी बहुत सीमित और अपर्याप्त बनी हुई है। सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यीय खंडपीठ ने स्वत: संज्ञान लेते हुए महामारी के दौरान आवश्यक आपूर्तियों एवं सेवाओं का पुनर्वितरण को लेकर हाल ही में एक फैसला दिया है। इसमें न्यायालय ने सरकार को सुझाव दिया कि वह टोसिलीज़ुमाब (Tocilizumab), रेमडेसिवीर (Remdesivir) और फेवीपिराविर (Favipiravir) जैसी दवाओं की अनिवार्य लाइसेंसिंग की संभावनाओं की तलाश करे।
कालाबाज़ारी
अंतरराष्ट्रीय कारोबार पर कुछ पाबंदियां लगाई गई हैं, जिनसे निजी कंपनियों को चिकित्सा उपकरणों और दवाओं के आयात में कठिनाई उत्पन्न हो गई है। इसके अलावा, कालाबाजारी के कई उदाहरण मिलते रहे हैं (हाल ही में नवनीत कालरा का मामला), जिसमें कोविड-19 के इलाज में इस्तेमाल किए जाने वाले चिकित्सा उपकरणों और दवाओं को अत्यधिक ऊंचे दाम पर बेचा जा रहा है, जिसे एक आम और लाचार आदमी के लिए उनको हासिल करना अति दुष्कर हो गया है।
इन कुरीतियों पर काबू पाने का एकमात्र उपाय है कि अत्यावश्यक वस्तुएं अधिनियम 1955 के अंतर्गत ऑक्सीमीटर और ऑक्सीजन कंसंट्रेटर के दाम को फिक्स कर देना। हालांकि सरकार, इस कमी को स्वीकार करने में फेल हो गई है, जिस वजह से आज देश में चिकित्सा उपकरणों और दवाओं की जबरदस्त कालाबाजारी बढ़ गई है।
भारत में स्वास्थ्य देखभाल सुविधाओं से व्यापक स्तर पर समझौता किया गया है क्योंकि लोग ज्यादातर बुनियादी चिकित्सा सुविधाओं तक का लाभ उठाने में सक्षम नहीं हैं। न केवल अस्पतालों में मरीजों की लंबी-लंबी कतारें हैं, बल्कि श्मशान एवं कब्रगाहों में भी लाइनें लंबी हैं। लोग दवाओं की दुकानों से बुनियादी दवाओं एवं मल्टी-विटामिन खरीदने में सक्षम नहीं हैं। इसके अलावा, भारत के सभी राज्यों में ऑक्सीजन की आपूर्ति बड़ी कमी है, देश में क्वारंटाइन सेंटर का अभाव है और कोरोना की जांच करने वाले किट्स की भी किल्लत है। भले ही, वर्तमान में स्वास्थ्य देखभाल सुविधाएं भौतिक रूप से पहुंच में है, लेकिन वहां कई बार वे गुणवत्तापूर्ण नहीं होती हैं।
(महक तंवर एक अधिवक्ता हैं। वह ओ.पी. जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी से विधि-स्नातक हैं। उनकी गहरी अभिरुचि मुकदमे और अल्टरनेटिव डिस्प्यूट रिज़ॉल्यूशन (एडीआर) में है। आलेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं।)
यह आलेख पहली बार दि लिफ्लेट में प्रकाशित हुआ था।
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल ख़बर पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें-
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