रूस-यूक्रेन विवाद : जब दुनिया सॉफ्ट पावर का इस्तेमाल कर रही है, तब सामने आया खेल संस्थाओं का पाखंड
इतिहास को अच्छी तरह से समझने के लिए हमें इतिहासकारों द्वारा लिखे गए इतिहास के परे देखना होता है, जिन्होंने भविष्य की पीढ़ी को चीजें बताने के लिए इसे लिखा है। यह भविष्य की पीढ़ियों के लिए एक सबक है। निश्चित तौर पर अवधारणाएं तोड़ी-मरोड़ी गई होंगी, उनके ऊपर इसे लिखने वाले और बहुमत की मंशा का प्रभाव होगा, मतलब जो राजा होगा, जिसके अंतर्गत इतिहासकारों को प्रश्रय मिलेगा, उसका इतिहास पर असर होगा। मौजूदा वक़्त में गुजर रहा इतिहास किसी सौंदर्य की तरह होता है। सौंदर्य और अहम घटनाएं दोनों ही इंसानों के लिए विषय विशेष, व्याख्या के लिए खुली होती हैं, जैसा कहा गया है- सौंदर्य देखने वाले की आंखों में होता है।
तो रूस द्वारा यूक्रेन पर हमला करने को हम क्या समझें, जहां प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष वैश्विक परिणामों वाले एक घिनौने युद्ध की परछाईं दुनिया पर छा गई है? खैर, युद्ध में कोई सौंदर्य नहीं होता।
रूस द्वारा यूक्रेन की सीमा को पार कर पूरी ताकत से हमला करना कहीं से भी न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता। आखिर किसी भी देश द्वारा, दूसरे देश पर हमला किया जाना गलत है। युद्ध, हिंसा, मौत, विनाश और दर्द- मतलब जंग को कहीं से भी सही नहीं ठहराया जा सकता। लेकिन यहां वह पूर्वाग्रह भी अन्याय है जिसके साथ कोई इस पूरी घटना को समझता, प्रतिबंधित या किसी को बताता है।
जब बड़े खेल व्लादिमीर पुतिन के खिलाफ़ अपनी बात बताने के लिए शक्ति का इस्तेमाल करते हैं, उन्हें उनके ही देश में संभावित ज़्यादा खतरनाक नतीज़े भुगतने की याद दिलाते हैं, तो हमें इसे याद रखते हैं। हम इसके नैतिक साहस की प्रशंसा करते हैं। लेकिन ठीक इसी दौरान हमें इसके पाखंड पर भी ध्यान देना होगा।
हमें इतिहास में उन घटनओं को याद करने के लिए ज़्यादा जोर देने की जरूरत नहीं है, जब खेल की इस ताकत का इस्तेमाल किया गया, या प्रोपगेंडा के तौर पर इसका गलत इस्तेमाल किया गया। यह इतना सामान्य है कि हम प्रोपगेंडा को आगे बढ़ाए जाने पर भी ध्यान नहीं दे पाते। जैसे बर्लिन ओलंपिक और जैसी ओवेन्स बनाम् एडॉल्फ हिटलर का विमर्श। हम जानते हैं कि 1936 के ओलंपिक में क्या दांव पर था। हम जो अपनी किताबों में समझ पाते हैं, ओवेन्स की कहानी में उससे भी और ज़्यादा चीजें छुपी हैं। लेकिन एक अच्छी कहानी में कभी एक अश्वेत का अपने आज़ाद देश में किया जाने वाला संघर्ष हिस्सा नहीं बनता। क्या यह बना था? आखिर युद्ध तो यूरोप में भी था।
यहां जो संदेश दिया जा रहा है वह साफ़ और ऊंची आवाज़ में है। खेल के पास मौजूद ताकत नरम नहीं, बल्कि कठोर होती है। पुतिन और रूस ने खेल का इस्तेमाल वैधानिकता हासिल करने के लिया था, जैसा अतीत में कई देशों ने किया है। बीजिंग शीतकालीन ओलंपिक का अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, यहां तक कि भारत द्वारा कूटनीतिक बॉयकॉट किसी देश की खेल की ताकत की समझ बताती है और यह दिखाता है कि इसका कितने धड़ल्ले से उपयोग करते हैं।
रूसी राष्ट्रपति को भूराजनीति में हमेशा खेल की ताकत की समझ रही है। यह उनके बारे मे बनाई जाने वाली धारणा और रणनीति के हमेशा केंद्र में रही है। अक्सर खेलों के दौरान उनकी मौजूदगी के आगे यह चीज जाती है, वह मौजूदगी जो उनकी मजबूत छवि बनाने के लिए होती है। उन्होंने वैश्विक खेलों में रूस को आगे बढ़ाने की कोशिश भी की है। हम यहां सिर्फ़ पदकों की बात नहीं कर रहे हैं। खेलों में रूस का योगदान सीमाओं के परे जाता है, जबकि इसके कई शहरों में बड़े-बड़े खेल कार्यक्रम हुए हैं।
बिल्कुल, खेल के मैदान में जीत मायने रखती है। भले ही रूस पर गलत तरीके अपनाए जाने के आरोप लगाए जाते रहे हैं, हर बड़ी प्रतिस्पर्धा के पहले उसके खिलाड़ियों पर राज्य प्रायोजित डोपिंग का आरोप लगाया गया। पदकों की संख्या के ज़रिए राजनीतिक संदेशा देना प्रतलन रहा है। यह प्रतिस्पर्धा शीत युद्ध में अपने चरम पर पहुंची। संचार क्रांति और अक्सर सोशल मीडिया पर होने वाले विमर्श द्वारा इसका प्रभाव बढ़ाया गया। इन प्लेटफॉर्म की विमर्श बदलने या फैलान की ताकत आज रिपोर्ताज से ज़्यादा है।
20वीं सदी में खेल का नया आधुनिक राष्ट्रवादी किरदार बना, जहां देश की सफलता, इसकी विचारधारा और आर्थिक बढ़त को खेलों द्वारा दिखाया गया, मतलब खेल खुद में राष्ट्र से बड़े हो गए, जिनमें सांस्कृतिक, व्यापारिक और सामाजिक परिणाम मौजूद थे, जहां पृष्ठभूमि में राजनीतिक वज़हें हमेशा मौजूद रहती थीं।
रूस-यूक्रेन संकट के बीच प्रीमियर लीग क्लब चेल्सिया एफसी के मालिक रोमन एब्राहमोविच ने खुद को रूस से दूर दिखाने की कोशिश की, ताकि उनके फुटबॉल में निहित हितों को बरकरार रखा जा सके। मैनचेस्टर यूनाइटेड ने अपने आधिकारिक वाहन, रूसी एयरलाइन एयरोफ्लॉट की उड़ान भरने से इंकार कर दिया। हास एफ-1 टीम ने अपनी नई कारों से रूसी झंडे और इसके मालिक की ब्रॉन्डिंग को हटा दिया। कठोर राजनीतिक का हिस्सा बने आर्थिक प्रतिबंधों के साथ-साथ यह प्रतीकात्मक "प्रतिबंध" हैं। आगे और भी ज़्यादा प्रतिबंधों की संभावना है। खेल की शक्ति पैसे के साथ-साथ राजनीतिक बनावट के आसपास भी बराबर तरीके से केंद्रित रहती है। हमें जितना समझते की इच्छा रखते हैं, उससे ज़्यादा ऐसा रहता है, यह भाषा राजनीतिज्ञ अच्छे तरीके से समझते हैं। तयशुदा तौर पर पुतिन इसे सुन रहे होंगे।
इस बीच वैश्विक खेल तंत्र, जो आमतौर पर धीमा रहता है, उसने तेजी से कठोरता दिखाई है। यूएफा चैंपियन्स लीग के फाइनल का स्थानल बदलने से लेकर, चेस ओलंपियाड और फॉर्मूला वन प्रिक्स को रूस हटा दिया गया। कई दूसरे देशों ने रूस के साथ अपने फीफा वर्ल्ड कप क्वालिफायर मैचों को रद्द कर दिया। अब यूक्रेन पर हमला एक वैश्विक खेल मुद्दा बन चुका है, जिसके पुतिन के लिए भी निजी परिणाम हैं। अंतरराष्ट्रीय जूडो फेडरेशन ने रूसी राष्ट्रपति को अपने मानद अध्यक्ष और राजदूत के पद से हटा दिया है।
फीफा ने शुरुआत में रूस की हिस्सेदारी को बनाने के लिए अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक संघ का जाना-पहचाना रास्ता अख्तियार किया और कहा कि रूस वर्ल्डकप में खेल सकता है, लेकिन अपने झंडे के तले नहीं। बल्कि इसके बजाए उनकी टीम का नाम रशियन फुटबॉल यूनियन होगा। लेकिन फीफा और यूएफा की कार्यकारी समिति द्वारा शुरुआती फ़ैसले के बाद फिर से अपना रुख बदला और रूस की सभी टीमों, नागरिकों और क्लबों को फीफा और यूएफा की प्रतिस्पर्धा में अगले नोटिस तक हिस्सा लेने से रोक दिया गया।
यह सबकुछ अच्छा है, लेकिन फिर भी एक सवाल खड़ा होता है। क्या कुछ जिंदगियां दूसरी जिंदगियों से ज़्यादा कीमती होती हैं? क्या दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में जिंदगी की कीमत भी अलग-अलग है?
आज सिर्फ़ यूक्रेन ही विवादास्पद क्षेत्र नहीं है, जहां जिंदगियां जा रही हैं, रॉकेट चलाए जा रहे हैं, लोग बेघर हो रहे हैं। लेकिन खेलों ने अभी अपनी कार्रवाई करना पसंद किया। इन खेलों ने तब कार्रवाई नहीं की जब सऊदी अरब ने यमन में बमबारी की या अमेरिका सोमालिया में बम गिराए। दोनों ही घटनाएं तब हुईं, जब रूस और यूक्रेन का तनाव बढ़ रहा था। खेल संस्थाओं ने तब कोई कार्रवाई नहीं की, जब अमेरिका और ब्रिटेन ने इराक पर हमला किया था। या लगातार सीरिया पर बमबारी होती रही। यह खेल संस्थाएं तब भी चुप रहीं, जब इज़रायल ने बेघर फिलिस्तीनी लोगों पर बम गिराए और उन्हें अपने मनमाफ़िक ढंग से एक जगह घेर दिया। हमें अफ़गानिस्तान को नहीं भूलना चाहिए। यह हाल का इतिहास है। अरे रुकिए, यह तो सूचनाओं के मलबे में इतना भीतर तक दबा हुआ है कि सच्चाई द्वारा हमारी अंतरात्मा को झकझोरने का मौका ही नहीं आया। सूचनाओं का यह प्रवाह ख़तरनाक और घिनौना है।
इस तरह की वैश्विक कोशिशें तब कभी नहीं हुईं, जब अमेरिका ने अलग-अलग वज़हों को बताकर कई महाद्वीपों में हस्तक्षेप किया। नागरिक जिंदगियों के नुकसान को बड़े लक्ष्य की प्राप्ति में सह-नुकसान बताया गया। दरअसल सबकुछ वक़्त के बारे में है। आपको पता होना चाहिए कि कब, कहां और कैसे, क्या किया जाना है। एक बार फिर यहां व्यापक तौर पर सही-गलत का सवाल नहीं उबरता। इंटरनेट भले ही दोहरा रवैया अपनाता हो। लेकिन रूस गलत है। तो अमेरिका और इज़रायल भी गलत थे। सभी अपराधी हैं। यहां खेल का नाम ताकत की राजनीति है।
जब अमेरिका ने दुनियाभर में हमले किए, तब किसी ने अमेरिकी या अंग्रेज फुटबॉल क्लब मालिक का नाम नहीं पूछा। किसी ने यह नहीं पूछा कि जब मैनेचेस्टर यूनाइटेड के मालिक पर विदेशी ज़मीन पर एक पत्रकार जमाल खाशोगी की हत्या के आरोप लग रहे थे, तब उसे कैसे एक दानार्थ न्यास द्वारा प्रबंधित किया जा रहा था। दरअसल वैश्विक राजनीति और आर्थिक विभाजन के एक तरफ हमेशा से इस तरीके से विमर्श चलता रहा है।
रूस के खिलाफ़ वैश्विक गुस्सा अहम है। यहां हमारी कोशिश इसे गलत बताने की नहीं है। बल्कि यह दबाव संकट का जल्द निदान करने में योगदान दे सकता है। खेल, संस्कृति, आर्थिक, राजनीतिक, नस्लीय और क्षेत्रीय रुकावटों के परे जाता है। इसलिए जब एक रूसी खिलाड़ी एंड्रे रुबलेव ने टेलीविज़न कैमरा पर "नो वॉर, प्लीज़" लिखा, तो वह संदेश वायरल हो गया और उसे आम रूसी की मंशा समझा गया। कीव के मेयर और पुराने बॉक्सर खिलाड़ी रहे विटाली क्लिच्स्को के संदेश में भी यूक्रेन की आवाज़ को दुनिया के सामने पहुंचाने की यही ताकत मौजूद है।
आगे खेल की ताकत की और वैधानिकता बताने की जरूरत नहीं है। लेकिन खास मौकों पर ही इसका इस्तेमाल खेल की भावना को प्रदर्शित नहीं करता। यहां खेल में सभी पक्षों के लिए बराबरी नहीं है, जो खेल का मुख्य तत्व होता है। यहां खेल एक व्यापक साम्राज्यवादी एजेंडे के तहत खेला जा रहा है। ऐसा हमेशा से ही रहा है।
हाल में रूस के ऊपर दबाव बनाने के लिए दुनियाभर में कई कदम उठाए गए हैं. यूरोपीय संघ ने "सेंट्रल बैंक ऑफ़ रशिया" की संपत्तियों के प्रबंधन से जुड़े क्रियाकलापों पर रोक लगाई है. ऐसे में रूस और खेलों के एक-दूसरे पर प्रभाव को देखते हुए कहा जा सकता है कि खेलों पर प्रतिबंध से कूटनीतिक समाधान के लिए दबाव बनेगा, जो सभी पक्षों को मान्य हो सकता है.
अगर ऐसा होता है तो सबसे बड़ा सवाल उन दावेदारों की मंशा पर होगा, जिन्होंने इस कदम के लिए दबाव बनाया. इतिहास की किताबें पढ़ते हुए हम सोचेंगे कि क्या अलग-अलग पक्षों ने सही वक़्त पर कार्रवाई की होती, तो क्या इससे विवाद, मौतें और तबाही कम होती? शायद इस सवाल का जवाब हमें कभी नहीं मिल पाए. दरअसल सक्रिय सामाजिक भागीदारी और सामाजिक खपत के लिए जो धारणाएं चलाई जा रही हैं, हम सब उसका हिस्सा बन गए हैं. इंटरनेट पर बाइनरी कोड की भाषा में यह खेल जारी है.
यूरोप जल रहा है. यूरोप में कोई भी युद्ध दूसरे महाद्वीपों से ज़्यादा विभीषक होता है. आखिर वह कोई "तीसरी" दुनिया तो है नहीं, जहां दिन-रात जारी हत्याओं को व्यापक दुनिया ने सामान्य मान लिया है. शायद यूरोपीय शहरों के सिटाडेल, दमिश्क के गुंबदों और गाज़ा के घरों से अलग जलते हों! शायद अफ्रीका या एशिया में जान की कीमत यूक्रेन में गंवाई जाने वाली जान से कम है! जिंदगी की असमतावादी प्रवृत्ति एक बार फिर उभर कर सामने आई है!
स्वाभाविक तौर पर खेल भेदभाव नहीं करता. लेकिन जो लोग इसे खेलते हैं, वे भेदभाव करते हैं. क्या किसी ने कहा कि हम एक हैं, एक जैसे हैं? हम इंसान हैं! क्या वाकई हैं?
इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।
Russia-Ukraine War: Big Sport’s Hard Hypocrisy as the World Uses its Soft Power
अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।