गणेश शंकर विद्यार्थी : वह क़लम अब खो गया है… छिन गया, गिरवी पड़ा है
पुनर्प्रकाशन: आज आज़ादी के दीवाने और क़लम के निर्भीक सिपाही पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी की पुण्यतिथि है। 25 मार्च, 1931 को कानपुर में सांप्रदायिकता के ख़िलाफ़ लड़ते हुए उन्होंने अपनी शहादत दे दी थी। उन्हीं को याद करते हुए मुकुल सरल की एक लंबी कविता ‘साथ हो न!’ का एक विशेष अंश...
एक क़लम था मेरा
और एक था तुम्हारा
फावड़े सा, बेलचे सा, हल सरीख़ा
रस्ते-रस्ते सब्ज़ा बोता
रौशनी के पुल बनाता
लांघता सारी दिशाएं
नेह का मेह बन बरसता
सींचता मन मरुथलों को
प्यार की देता सदाएं
और ज़रूरत पड़ गई तलवार के भी काम आता
वह क़लम अब खो गया है
छिन गया, गिरवी पड़ा है
दुश्मनों के हाथ में है
बन गया है टैंक मानवद्रोहियों का
रौंदता फिरता है जल-जंगल-ज़मीनें
रच रहा संविधान की कुछ नयी ऋचाएं
हुक्मनामे और सज़ाएं
और ऐसे दौर में भी
मानवद्रोहियों के साथ दिखते
हाट में बिकते
हमारे कुछ कवि, लेखक, सहाफ़ी
और कुछ उनके सहोदर
गा रहे जयगान
आवाज़ें बदलकर
रच रहे हैं शब्द
नये शब्दकोश
ध्वस्त करके बोल-बोली
काटकर जन की ज़बां
रच रहे भाषा संहिता
बुन रहे हैं मौन
चुप्पी का अंधेरा
चक्रव्यू एक
है समय कितना विकट !
...
मैं निहत्था, बेक़लम
लेकिन अभी बाज़ू बराबर
उंगलियों में भी है जुंबिश
और रगों में दौड़ता है रौशनाई सा लहू
और फिर तुम साथ हो तो
क्या कमी है
साथ हो न…!
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