भारत में धर्म और नवउदारवादी व्यक्तिवाद का संयुक्त प्रभाव
आज, भारतीय जनता पार्टी की आक्रामक लामबंदी की दो अचूक किस्में हैं। एक धर्म को औजार बना रहा है और दूसरा मुक्त बाजार को अपना हथियार बना रहा है। आक्रामक नवउदारवाद धार्मिक शख्सियतों की उग्रवादी परिकल्पनाओं से गहराई से जुड़ा हुआ है। मुद्रीकरण और सार्वजनिक आस्तियों का निजीकरण धर्म के निजीकरण से जुड़ा है और इसे गलियों-सड़कों तक खींच ले जा रहा है। "मुक्त बाजार" का मतलब मुक्त होना नहीं हैं बल्कि मध्य वर्ग के लिए "प्रतिपूरक उपभोग" और समाजा के वंचित लोगों के लिए गुजर-बसर की व्यवस्था करना है। इसी तरह, धर्म का संबंध आध्यात्मिकता से नहीं है, बल्कि बहुसंख्यकवादी प्रभुत्व को सही ठहराने से है।
उत्तर-औपनिवेशिक विद्वानों ने काफी दमदार से तरीके से तर्क दिया था कि पवित्रता सहायक बाजार मूल्य को चुनौती देगी। अपरिष्कृत भौतिकवाद से बचाव के लिए आध्यात्मिक क्षेत्र को अन्य सांसारिक गतिविधियों में सामूहिक निवेश करना चाहिए। बाजार को कठोर पदानुक्रमों का पालन करने की बजाए मुक्त विनिमय और संविदात्मकता पर आधारित संबंधों को साकार करना चाहिए था। जैसा कि अमर्त्य सेन ने तर्क दिया है, बाजार एक भाषा की तरह है, जो बिना कोई निर्णय दिए विकल्प को बढ़ावा देने का एक माध्यम है।
व्यक्त किए गए अधिकांश पूर्वानुमानों के बरअक्स धार्मिक नैतिकता और बाजार मूल्य बहुसंख्यकवादी अलंकारिकता को मजबूत करने के लिए एक साथ आए हैं। इसलिए धर्म और बाजार दोनों ही सत्ता के अधिनायकवादी रूपों का विरोध नहीं करते। धर्म और बाजार के भीतर अव्यक्त प्रथाओं को एक साथ हिंदुत्व की राजनीति द्वारा संयोजित और संगठित किया जा रहा है। नजदीक से गौर करें तो हम पाते हैं कि धर्म का मतलब व्यक्तिगत आत्म-साक्षात्कार है। यह एक व्यक्ति को अंतिम सत्य को अनुभूत करने का एक मार्ग देता है। आस्था-विश्वास पर आधारित यह अभ्यास गहन अनुभवात्मक होते हैं, लेकिन एक तात्विक अर्थ में: किसी को भी विश्वास का अनुभव करने के लिए पहले उसे विश्वास करने की आवश्यकता होती है यानी और सत्य/ईश्वर का अनुभव करने के लिए पहले इनके प्रति उनके मन में अटूट विश्वास होना जरूरी है। इसलिए परमात्मा की सत्ता या अस्तित्व को महसूस न करने का सीधा मतलब है कि आपमें उसके लायक विश्वास की कमी है या अपने संदेह से छुटकारा पाने में आपकी असमर्थता है, जिसके चलते ईश्वर का बोध नहीं हो रहा है।
दूसरे शब्दों में, विश्वास का बोध न होने का सीधा मतलब है कि आपको खुद में भरोसे की कमी है। परमात्मा के प्रति विश्वास का अनुभव करने के लिए, किसी को भी उसके अस्त्तित्व के बारे में कोई सवाल किए बिना ही या इस मार्ग में चलने के परिणाम पर विचार किए बिना ही इसका अनुसरण करना चाहिए। फल पाने के नजरिए से विश्वास को देखना आस्था-विश्वास के प्रति भ्रष्ट आचरण है, एक अपराध है। दूसरे शब्दों में, विश्वास का अनुभव करने में असफलता अपने आप में विश्वास की कमी है। विश्वास की इस कमी की वजह से नुकसान यह होता है कि हमें मनचाहे नतीजे नहीं मिलते हैं।
दूसरी ओर, बाजार का अभिकरणीय तर्क 'आत्मनिर्भर' होने के बारे में है। एक व्यक्ति पहले से ऊंचे पायदान पर काफी प्रयास ("सबका प्रयास") के बाद पहुंचता है। असफलता एक व्यक्ति की जिम्मेदारी है या अवसर, भाग्य का परिणाम है, जिस पता चलता है कि कोई व्यक्ति सही समय पर सही जगह पर मौजूद नहीं था, या उसे नहीं रखा गया था। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी सफलता की जिम्मेदारी लेनी चाहिए, इसलिए कि यह व्यक्तिगत प्रतिबद्धता, प्रतिभा और प्रयास का सुपरिणाम होती है। इस तरह के फ्रेम में जो मूल्यवान है, वह स्वतंत्रता नहीं बल्कि सुरक्षा है-व्यक्तिगत प्रयास के जरिए सुरक्षा की खोज। आश्चर्यजनक तरीके से तब आजादी वह सामूहिक कीमत हो जाती है, जिसका भुगतान व्यक्तिगत सुरक्षा के लिए किया जाता है। राज्य, भगवान या नेता की तरह, केवल निगरानी रखता है। परमेश्वर को किसी व्यक्ति की असफलताओं के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता है, ठीक उसी तरह जैसे एक नेता को उसमें प्रेरणा की कमी के लिए उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता है, और बाजार को उसकी योग्यता की कमी के लिए जवाबदेह नहीं करार दिया जा सकता है।
धर्म और बाजार की व्यक्तिगत नैतिकता का यह अभिसरण नवउदारवाद के साथ धार्मिक लामबंदी को संयोजित कर वर्तमान अभियान को निर्देशित कर रहा है। दोनों हमें आत्म-साक्षात्कार और आत्मोन्मुख सफलता की ओर ले जाते हैं। पिछले पांच दशकों में, निजीकरण और नव उदारवादी सुधारों ने एक साझा लोकाचार की वैधता को तोड़ दिया है। सभी कल्याणकारी काम तुष्टिकरण हैं या संरक्षणवादी हैं, जो घृणास्पद बहिष्करण या फिर विश्वसनीय निष्ठा की मांग कर रहे हैं। बाहर रखना या वफादारी का दावा करना आज सुरक्षा की नई गारंटियां हैं। किसी को 'अन्य' मुस्लिम को बाहर करना होगा, और ऐसा करने के लिए, आपको अपनी ओर से उसके प्रति वफादार रहना होगा, जो इस काम को कर रहा है। इस खांचे के बाहर संयोग, भाग्य और लालच के आते-जाते संवेगों का सामना करता एक निरा व्यक्ति खड़ा है।
यह उस व्यापक हिंदू एकजुटता के पीछे का परिदृश्य है, जिसे आज हम देखते हैं। हम इसके साथ जो यह लामबंदी देखते हैं, वह उलझे हुए व्यक्तिवाद के साथ मौजूद है। ‘समुदाय' तो धर्म को हथियार बनाने और एक सहायक बाजार की तलाश का औचित्य साबित करने का केवल एक मुखौटा है। आलंकारिक धार्मिक एकता और सामुदायिक एकजुटता के दायरे में कोई व्यक्ति आक्रामकता तरीके से संचित कर सकता है, शोषण या उसका फायदा उठा सकता है, और उपयुक्त हो सकता है।
राज्य, पूंजी और बाजार की तरह, शिकारी है, और यह कानून के हस्तक्षेप के बिना अपने कामकाज का आक्रामक तरीके से बचाव करता है। वास्तव में, राज्य की नई भूमिका कानून के दखल से बचने की हो गई है, जो बार-बार उसके कामकाज से परलक्षित हो रहा है। जहांगीरपुरी में निर्माणों के ध्वंस किए जाने और दिल्ली दंगों के दौरान दर्ज किए गए अनेकानेक झूठे मामले इसके उदाहरण हैं।
यहां तक कि न्यायिक निर्णयों का स्पष्ट रूप से उल्लंघन किया जा रहा है-यह प्रदर्शित करने के लिए कि कानून धार्मिक एकता को बाधित करके एक तरह से बाजार और विकास को अवरुद्ध करता है। आज, कानून को बहुमत की सुरक्षा के लिए एक खतरे के रूप में पेश किया गया है और इसी रूप में इसे देखा-समझा जाता है।
संदर्भ की शर्तें बदल गई हैं, इसलिए संवैधानिकता, कानून, धर्मनिरपेक्षता, अधिकारों और लोकतंत्र पर लगातार बात करने असल मुद्दों पर में बात करना नहीं है। आज, कानून और संविधान को अल्पसंख्यकों को खुश करने वाला और स्वतंत्रता का दुरुपयोग करने वाले मुखर वाम-उदारवादी के रूप में देखा जाता है।
हिंदुत्व और हिंदू धर्म, प्रेम और नफरत, सद्भाव और हिंसा के बीच भेद करके विद्रोही को चुनौती देने के असफल प्रयास किए गए हैं। लेकिन बहुसंख्यक समुदाय के लिए, इन युग्मकों के दोनों पक्ष समेकित रूप से घुलमिल गए हैं। उन्हें लगता है कि आपकी शांति के लिए हिंसा एक जरूरत है, हिंदू धर्म के आध्यात्मिक पक्ष को अधिकाधिक महसूस कराने के लिए उग्रवादी हिंदुत्व की आवश्यकता है और खुद को प्यार करने के लिए दूसरे के प्रति खालिस नफरत और बिना किसी अपराधबोध के अपने धर्म की आवश्यकता है। केवल हिंदुत्व और हिंदू धर्म के बीच पच्चर फंसाने से इस वास्तविकता पर कोई फर्क नहीं पड़ रहा है। यह बहुमत को मौजूदा वर्तमान सरकार के प्रति दी गई उसके स्वैच्छिक समर्थन या सहमति के मुद्दे पर फिर से विचार करने के लिए प्रेरित नहीं कर रहा है। धर्म और राजनीति से निरपेक्ष धर्मनिरपेक्षता एकदम अस्वीकार्य हो गई है, लेकिन आध्यात्मिक आत्म-बोध के लिए धर्म और राजनीति का किया गया संयोजन भी आज तनाव में है। हमारे पास विश्वास का एक सहायक संस्करण है, जिसकी जड़ें सामाजिक जीवन के नव-उदारवादी विपणन में निहित हैं।
बाजार की "जिंदादिली" ने धार्मिक प्रकार के सामाजिक डार्विनवाद के साथ अभिसरण किया है। त्योहार अब केवल उत्सव के बारे में नहीं बल्कि हिंसा के अभिकथन हैं, क्योंकि वस्तुओं का उपभोग अब व्यक्ति के जीवित रहने या उसकी जीवन-स्थितियों तक ही सीमित नहीं रह गया है बल्कि उसकी इयत्ता अब जीवन को नए अर्थ देने के लिए है। महामारी के वर्षों ने केवल शून्यवादी दृष्टिकोण को जन्म दिया है। इसने हमें रुकने और पुनर्विचार करने के लिए मजबूर नहीं किया है। इस तरह की वास्तविकता का प्रतिरोध अंदर से ही होना चाहिए, बाहर से नहीं। कम से कम, इसका मतलब हिंसा को सही ठहराए बिना प्रमुख समुदाय की सुरक्षा चिंताओं को गंभीरता से लेना होगा, संरचनात्मक कल्याणवाद के साथ बाजार उन्मुख स्वैच्छिकता को वापस लाना होगा, और धर्मों में पैठी हुई धार्मिक विषाक्तता की बिना किसी रियायत के आलोचना करना होगा या अल्पसंख्यक एवं बहुमत के बीच अंतर करना होगा।
(लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर पॉलिटिकल स्टडीज में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। उनकी आने वाली किताब पॉलिटिक्स, एथिक्स एंड इमोशन इन 'न्यू इंडिया' इसी साल रूटलेज, लंदन से छप रही है। आलेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं।)
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें
In India, Religion and Neoliberal Individualism Have Converged
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