भारत में सामाजिक सुधार और महिलाओं का बौद्धिक विद्रोह
अप्रैल 2022 भारत के लिए ऐतिहासिक महीना था। ऐसा सिर्फ इसलिए नहीं है कि बीते सालों की तुलना में इस बार ज्योतिराव फुले और बीआर अंबेडकर की जयंती के आयोजन ज्यादा देखने को मिले। 5 अप्रैल को ब्रह्मण समाज से भारत की पहली आधुनिक महिला समाज सुधारक पण्डिता रमाबाई की बरसी का शताब्दी वर्ष था।
अगर फुले की गुलामगिरी शूद्रों पर पहला बौद्धिक काम था, जिसने उन्हें और अति शूद्रों या दलितों के उद्धार की प्रक्रिया शुरू की, तो दूसरी तरफ रमाबाई की 1887 में प्रकाशित किताब "द हाईकास्ट हिन्दू वूमेन" ने हजारों साल की ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के खिलाफ महिलाओं के आधुनिक विद्रोह की शुरुआत की। सबसे अहम कि महात्मा फुले और सावित्रीबाई फुले ने रमाबाई के लैंगिक समानता के संघर्ष का समर्थन किया।
तत्कालीन शूद्र, दलित और आदिवासी बुद्धिजीवी और सामाजिक कार्यकर्ताओं के हासिल का श्रेय रमाबाई द्वारा शुरू किए गए सुधार आंदोलन को भी जाता है।
जब देश के कई हिस्सों में रमाबाई की बरसी मनाई जा रही थी, तब आरएसएस और बीजेपी ने अपना ध्यान दूसरी तरफ लगा लिया, क्योंकि रमाबाई ने ईसाई धर्म अपना लिया था और हिन्दू धर्म को चुनौती दी थी, जिसके बारे में विवेकानंद ने अमेरिका में सिर्फ अच्छी अच्छी बातें बताई थीं। लेकिन महाराष्ट्र में शिवसेना के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार ने जोर शोर से इस दिन का जश्न मनाया।
हाल के दिनों में दो ब्राह्मण महिलोओं ने आलोचनात्मक किताबें लिखीं है, जो रमाबाई की विरासत और परंपरा का अनुसरण करती हैं। वंदना सोनालकर ने "व्हाई आई एम नॉट हिन्दू वूमेन (वूमेन अनलिमिटेड, अक्टूबर, 2020) व गीता रामस्वामी ने "लैंड, गंस, कास्ट, वूमेन" नाम से अपनी किताबिखी है, जो अप्रैल 2022 में नवान्या से प्रकाशित हुई है।
पहले भी कई अंग्रेजी में शिक्षित ब्राह्मण महिला लेखक भी रही हैं, खासकर आज़ादी और बाद में 1970 के महिलावादी आंदोलन के दौर में। कई महिलाएं ख्यात विचारक और लेखक बनीं, जैसे सरोजिनी नायडू और अमेरिका में रहने वाली सिद्धांतकार गायत्री चक्रवर्ती स्पिवक। लेकिन यह सभी समाज में ब्राह्मण जीवन, धार्मिक तंत्र और खासतौर पर परिवार के बारे में चुप रहीं।
1996 में जब मैंने "व्हाई आई एम नॉट ए हिन्दू" लिखी थी, तो तब कई ब्राह्मणवादी बुद्धिजीवियों ने इसे एक बेमतलब की किताब बताया था, जो एक ऐसे शूद्र द्वारा लिखी गई थी, जिसे लिखना नहीं आता। इसी वजह से हिंदूवादी बुद्धिजीवियों ने इसे दिल्ली यूनिवर्सिटी के पाठ्यक्रम से बाहर करने की अपील की थी। लेकिन आज सोनालकर और रामास्वामी बदलाव लाने वालों के लिए बौद्धिक संसाधनों को मजबूत कर रही हैं।
महिलावादी तबके से कई ऐसी ब्राह्मण महिलाएं निकली हैं जिन्होंने पश्चिमी नरीवादियों के "व्यक्तिगत ही राजनीतिक है" के तरीके को अपनाया है। लेकिन इन लोगों ने ब्राह्मणवाद की गंदगी के डिब्बे को नहीं खोला, जो जाती को बनाती और उसे जीवित रखती है, यह भारत के उत्पादकता विरोधी संस्कृति और सभ्यता का भी स्त्रोत है।
यहां यह गौर करना जरूरी है कि ब्राह्मण महिलाओं की आधुनिक भारत में बौद्धिक उपस्थिति उनकी अंग्रेजी में शिक्षा के कारण हुई, ना कि संस्कृत में, ना ही किसी भारतीय भाषा में। हालांकि रमाबाई संस्कृति पंडित थीं, लेकिन अगर वे इंग्लैंड नहीं गई होती और वहां से उनका अमेरिका जाना नहीं होता तो वे कभी आज़ादी और समता के विचारों को समाहित नहीं कर पातीं और ना ही उन्होंने अपनी किताब लिखी होती।
अंग्रेजी भाषा तक पहुंच से उन्हें दुनिया के अलग अलग विचारों को समझने का मौका मिला, जिससे उन्हें भारतीय ब्राह्मणवाद से महिलाओं को आज़ाद मरवाने के अपने लक्ष्य के लिए प्रतिबद्धता हासिल हुई। इसी तरह अंग्रेजी भाषा के ज्ञान के बिना सरोजिनी नायडू और गायत्री स्पिवक कभी कवि या विचारक नहीं बनतीं। उन्होंने भी ब्राह्मणवाद और इसके मिथकीय नज़रिए के खिलाफ बौद्धिक संघर्ष नहीं किया, जिसका जाति आधारित पूरी व्यवस्था पर प्रभाव है।
लेकिन सोनालकर और रामास्वामी की किताबों ने सीधे ब्राह्मणवाद के सिर पर चोट की। उन्होंने बताया कि कैसे उनके परिवार महिलाओं के लिए आध्यात्मिक कैदखाने का निर्माण करते हैं, जहां दलितों और शूद्रों के लिए एक तरह के नर्क का निर्माण होता है। इस तरह का पारिवारिक जेलखाना लड़कियों को उनके शुरुआती सालों से ही नैतिक संहिता में बांधना शुरू कर देता है, जो इंसानी गुलामी को मान्यता देती है। यह संहिता परिवार के बाहर की दुनिया के सामने कभी नहीं दिखाई जाती।
इस तरह का परिवार ना केवल महिलाओं को अशिक्षित बनाना तय करता है, बल्कि जब तक संस्कृत ही आध्यात्मिक भाषा होगी, तब तक अशिक्षा ही एकमात्र विकल्प होगा। इसके चलते अनगिनत अंधविश्वास थोपे गए, जिनका परिवार, समाज और राष्ट्र पर प्रभाव पड़ा। इस तरह के पारिवारिक, जातिगत और सामाजिक ढांचे के चलते कई हजारों सालों तक भारत दर्द झेलता रहा।
अगर आज़ादी के बाद महिलाओं को अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में शिक्षा उपलब्ध नहीं हो पाती, तब नया बना राष्ट्र उन्हें नौकरियां भी प्रस्तावित कर रहा था, तो उनकी हालत शूद्र महिलाओं से भी ज्यादा खराब होती। आखिर उत्पादक दुनिया शूद्र महिलाओं के लिए खुली थी, वे अपने पतियों और पिताओं के खिलाफ विद्रोह कर सकती थीं, कुछ कमा सकती थीं और गांव में अकेले रह सकती थीं। ब्राह्मण महिलाओं के पास ऐसा कोई विकल्प नहीं था।
आज़ादी के बाद बड़े शहरों में अंग्रेजी शिक्षा ने कई ब्राह्मण महिला बुद्धिजीवियों को जन्म दिया। लेकिन इनमें से शायद ही किसी ने ब्राह्मणवाद और इसके इतिहास की आलोचना कर उनके अंग्रेजी शिक्षित पुरुषों की दुनिया का विरोध किया हो। उनका पारिवारिक और जातीय इतिहास "माया" ही बना रहा, जब तक हमें सोनालकर और रामास्वामी ने उनके परिवारों के भीतर के कैदखानों की हकीकत नहीं बताई।
जाति और महिला व पुरुषों में व्याप्त असमता के खात्मे के लिए इस इतिहास का जरूरी है। आरएसएस नहीं चाहता कि यह ताले खुलें, क्योंकि उस ढांचे पर पुरुषों का नियंत्रण है, उसमें भी ब्राह्मण पुरुषों का। यह पारिवारिक कैद उस परंपरा का हिस्सा है, जिसे वे वापस लाना और बनाए रखना चाहते हैं।
अपने संघर्ष में रामास्वामी ज्यादा कठोर थीं, जो मद्रास में रहने के दौरान उनकी किशोर उम्र के शुरुआती सालों में शुरू हो गया था। वहां कलकत्ता में ईश्वर चंद्र विद्यासागर या मुंबई में एमजी रानाडे की तरह कोई ब्राह्मण पुरुष सुधारक मौजूद नहीं था।
मद्रास में भी पेरियार का डीके आंदोलन ब्राह्मण पुरुषों और महिलाओं के लिए ईसाई स्कूली व्यवस्था लेकर आया। यह बिल्कुल है कि इससे उनके लिए केंद्र सरकार की नौकरियां हासिल करना आसान हो जाता। अगर पेरियार नहीं होते, तो आज महिलाएं जहां हैं, वहां नहीं होती। कमला हैरिस (मां श्यामला गोपालन) और इंदिरा नूई (कृष्णमूर्ति) इसी शिक्षा प्रक्रिया का हिस्सा हैं, जो उन्हें पश्चिमी दुनिया की जिंदगी के शीर्ष पर लेकर गई। इन सभी को पेरियार का आभार व्यक्त करना चाहिए, जिनसे भारत के ब्राह्मण मर्द नफ़रत करते हैं।
रामास्वामी दिलचस्प तरीके से बताती हैं कि कैसे वे घर पर "ब्राह्मण और स्कूल में कैथोलिक थीं।" घर पर उनके भीतर अंधविश्वास और मिथक भरे गए, ताकि उन्हें भविष्य में अंग्रेजी शिक्षित ब्राह्मण पति के हाथों में गुलाम बनाया जा सके। दूसरी तरफ स्कूल ने उनकी सोच के भीतर तार्किकता और विज्ञान भरा। उन्हें महसूस हुआ कि चार बहनों और शिक्षित व नौकरीशुदा पिता व परंपराओं के मिथक में यकीन रखने वाली, पिता के सामने पूरी तरह झुकी हुई मां के नीचे परवरिश पाने वाली लड़की के सामने दो विरोधाभासी दुनिया हैं।
13 साल की उम्र में रामास्वामी ने पूजा घर में रखी भगवानों की मूर्तियों को हाथ लगाकर जंग का सीधा ऐलान कर दिया। दरअसल मासिक धर्म के दौरान लड़कियों को इन्हें छूने का अधिकार नहीं था। ईसाई स्कूल ने रामास्वामी का धर्म नहीं बदलवाया। लेकिन उनके भीतर घर और जाति व्यवस्था में मौजूद ब्राह्मणवाद के खिलाफ एक विद्रोही पैदा कर दिया। इससे उन्हें जिंदगी me आत्म सम्मान वाले रास्ते पर चलने की प्रेरणा मिली।
अतीत में कई ब्राह्मण महिलाएं अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा के चलते आज़ाद हुईं और कम्युनिस्ट या नारीवादी बुद्धिजीवी बनीं। उनका करियर काफी अच्छा चला, लेकिन उन्होंने कभी अपने भीतर मौजूद ब्राह्मणवाद पर कोई पेपर या लेख जमा नहीं किया। और ब्राह्मण पुरुष बुद्धिजीवी, चाहे वह विदेश में पढ़ा हो या देश में, उसने हमेशा अपने घर, जाति और सांस्कृतिक विरासत में मौजूद कचरे को बचाकर रखा। इसके चलते ब्राह्मणवादी हिंदुत्व आज के स्तर तक बढ़ पाया। दलित आदिवासी और दूसरे पिछड़े वर्गों के आंदोलन जाति रहित भारत के अपने संघर्ष में उनकी एक भी किताब का उपयोग नहीं कर पाए। इसके बावजूद आज हमारे पास "व्हाई आई एम नॉट ए हिन्दू वूमेन" और "लैंड, गंस, कास्ट, वूमेन" जैसी किताबें हैं, जो हिंदुत्ववादी ब्राह्मणवाद और ऐतिहासिक ब्राह्मणवाद के खिलाफ संघर्ष में संभावित हथियार हो सकती है।
लेखक राजनीतिक सिद्धांतकर, सामाजिक कार्यकर्ता और लेखक हैं। उनकी किताब "व्हाई आई एम नॉट ए हिन्दू" ने शूद्र, ड्यूटी, आदिवासी और महिला लेखकों की एक पूरी नई पीढ़ी को प्रेरणा दी है। यह उनके निजी विचार हैं।
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Social Reform in India and the Intellectual Rebellion of Women
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