शिंजो आबे: एक विवादास्पद दूरदर्शी शख़्सियत
जब राजनेताओं की मृत्यु हो जाती है, ख़ासकर वह मृत्यु दुखद परिस्थितियों में होने वाली एक असामयिक मृत्यु होती है, तो श्रद्धांजलि की बाढ़ उमड़ जाती है। जब श्रद्धांजलि में आलोचना न होकर तारीफ़ के पुल बांधे जाते हैं, तो देखने का दृष्टि बोध खो जाता है। लेकिन, आप इतिहास को ग़लत नहीं ठहरा सकते। और आख़िरी विश्लेषण में इतिहास की यही ताकतें शख़्सियत के बजाय राजनीति की कार्यप्रणाली को दर्ज कर देती हैं, और हक़ीक़त यही है कि जापान का अतीत रक्त रंजित और क्रूर राजशाही का रहा है।
जापान के तक़रीबन तमाम पड़ोसी देशों ने अपनी आधिपत्यवादी महत्वाकांक्षाओं और क्षेत्रीय जीत की प्यास को लेकर एक बड़ी क़ीमत चुकायी है। जापान की सत्तारूढ़ पार्टी की स्थापना करने वाले शिंजो आबे के दादा ख़ुद ही एक युद्ध अपराधी थे।
जापान ने उपनिवेशवाद के मानकों के लिहाज़ से विजीत लोगों, ख़ासकर कोरियाई और चीनी पर भी अकथनीय अपराध किये हैं। इसलिए, जब कभी आबे की विरासत का निष्पक्ष रूप से मूल्यांकन किया जायेगा, जिसे कि निश्चित रूप से होना ही है, तो उनके सबसे उत्कृष्ट योगदान के रूप में जो बातें सामने आयेगी, वह तत्काल तो यही होगी कि उन्होंने 'शांतिवादी' जापान को बदलकर रख दिया और अनजाने में उसे 'सैन्यवादी' अतीत में वापस खींच ले आए। इसमें तो कोई संदेह ही नहीं है।
लेकिन, यह एशियाई राजनीति और जापान की राजनीतिक अर्थव्यवस्था में एक मझोले और लंबी अवधि के लिए परेशान करने वाले प्रश्नचिह्न छोड़ देता है। मुद्दा यही है कि आबे ने अपने देशवासियों की देश के संविधान को बदलने की इच्छा को जाना ही नहीं, बल्कि वह इस बात को लेकर असहज थे कि राष्ट्र उनके एजेंडे का समर्थन नहीं कर पाया।
हम नहीं जानते कि इस तरह के घिनौने अपराध को अंजाम देने को लेकर उस नौजवान हत्यारे को किस बात ने प्रेरित किया होगा, लेकिन उस घृणित अपराध की ज़िम्मेदारी लेते हुए उसके आत्मसमर्पण से तो यही पता चलता है कि वह मज़बूत इरादे का शख़्स है और हत्या के पीछे उसका कोई आवेग काम नहीं कर रहा था। इससे जो बात हमें पता चलती है,वह यह है कि आबे जापान के भीतर एक विवादास्पद शख़्स थे।
आबे के सुधार कार्यक्रम ने अमीर और ग़रीब के बीच की खाई को चौड़ा कर दिया था और सामाजिक असंतोष को हवा दे दी थी, जबकि आबे के जापान के 'शांतिवाद' को छोड़ने को लेकर किसी तरह की कोई राष्ट्रीय सहमति नहीं बन पायी थी। आबे के लोकलुभावनवाद उनके वास्तविक एजेंडे के आड़े आता था, और नस्लीय और जातीय पूर्वाग्रहों जैसे बुनियादी प्रवृत्ति के उनके इस्तेमाल और मीडिया को अपने हिसाब से चलाने और स्वतंत्र प्रेस के दमन ने जापान की लोकतांत्रिक नींव को क्षतिग्रस्त कर दिया था।
यही वजह है कि उनके प्रशंसक जिस तरह से उनके 'विज़न' को रखते हैं,उस पर एक बड़ा सवालिया निशान लगाने की ज़रूरत है। सच कहा जाये, तो आबे दुनिया की राय में एक ध्रुवीकरण करने वाले शख़्स बन गये थे,यानी सीधे-सीधे शब्दों में कहा जाये, तो उनके प्रशंसक उनकी एक-आयामी चीन विरोधी भावनाओं के साथ गर्मजोशी से पेश आते हैं और इस प्रक्रिया में भावनाओं के प्रवाह में उनकी त्रुटिपूर्ण विरासत को नज़रअंदाज़ कर देते हैं।
क्वाड के बाक़ी तीन देशों ने आबे के लिए जारी अपने दिलचस्प मृत्यु संदेश में एक आकर्षक अभिव्यक्ति का इस्तेमाल किया है। इन देशों ने आबे को "जापान के परिवर्तनकारी नेता" के रूप में सराहना की है और विवेकपूर्ण तरीके से उतना ही कहकर छोड़ दिया है। क्वाड के बाक़ी तीनों देशों का यह आकलन सही ही है कि आबे ने "क्वाड साझेदारी की स्थापना में एक रचनात्मक भूमिका निभायी थी और एक स्वतंत्र और खुले इंडो-पैसिफिक के सिलसिले में एक साझा दृष्टिकोण को आगे बढ़ाने का अथक प्रयास किया था।" वह वास्तव में चीन के ख़िलाफ़ नियंत्रण की रणनीति के ज़बरदस्त समर्थक थे।
लेकिन, आबे द्विअर्थी चाल के भी उस्ताद थे और उन्होंने कभी चीन के साथ जापान के सम्बन्धों को बेहतर बनाने में अहम योगदान दिया था और यहां तक कि बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के साथ सहयोग करने की खुलेआम इच्छा जतायी थी ! क्वाड तो तक़रीबन पूरी तरह से प्रधान मंत्री मोदी का आबे साथ काम करने वाले सम्बन्धों के बल पर बनाया गया था।मोदी के साथ-साथ आवे का भी चीन के प्रति गहरा अविश्वास था।
हालांकि, उसके बाद से जापान की यह इंडो-पैसिफिक नीति एशिया में नाटो के दाखिल होने की गति को तेज़ करने के सिलसिले में मज़बूत समर्थन में बदल गयी है। यहां तक कि सचाई तो यही है कि अपने पूरे इतिहास में जापान ने हमेशा अंतरराष्ट्रीय प्रणाली में अपनी स्वायत्तता को बनाये रखने की मांग को मज़बूती के साथ रखा है। यह अंतर्विरोध किस तरह सुलझता है, यह अभी देखना बाक़ी है। ज़ाहिर है कि जापान को एशिया के शक्ति संतुलन में आये बदलाव के लिहाज़ से अपनी स्थिति को चीन के पीछे होने के अभ्यास में मुश्किल पेश आ रही है और चीन के स्तर पर आने के लिए उसे नाटो के समर्थन की दरकार है।
कोई शक नहीं कि आबे भारत के घनिष्ठ मित्र थे। भारत के प्रति उनका सम्मान मनमोहन सिंह की पिछली सरकार में भी देखा सकता था। इसके बावजूद, भारत "एशियाई नाटो" को आगे बढ़ाने की दिशा में जापान की इंडो-पैसिफिक रणनीति के इस नये आयाम से किस हद तक जुड़ पाता है, यह अभी साफ़ नहीं है। परंपरागत रूप से भारत कभी भी गुटीय मानसिकता वाला देश नहीं रहा है। इसके अलावा, क्वाड या इंडो-पैसिफिक रणनीति को भारत की एक्ट ईस्ट नीति के साथ भी नहीं जोड़ा जाना चाहिए।
सबसे लंबे समय (9 वर्ष) तक कार्य करने वाले जापानी प्रधान मंत्री के रूप में आबे की जो जगह है,वह काफ़ी हद तक उनके करिश्मे, उनकी शख़्सियत की ताक़त और उनकी दुर्जेय राजनीतिक प्रतिभा की वजह से है। लेकिन, अपने महत्वाकांक्षी घरेलू सुधार एजेंडे के सिलसिले में जापान के भविष्य के लिए उनकी विरासत,यानी "एबेनॉमिक्स" या राज्य के खर्च में बढ़ोत्तरी और जापान की स्थिर अर्थव्यवस्था को ज़ोर लगाकर शुरू करने के उद्देश्य से ज़बरदस्त रूप से आसान मौद्रिक नीति अपेक्षाकृत विचित्र है। जापान के क़र्ज़ में नाटकीय रूप से बढ़ोत्तरी हुई है और आबे के सुधारों ने वास्तव में येन को कमज़ोर कर दिया है।
कम उत्पादकता, तेज़ी से बूढ़ी होती आबादी और ग़ैर-लचीले श्रम बाज़ार से घिरी अर्थव्यवस्था को फिर से आकार देने वाले सुधारों का उनका वादा छलावा ही साबित हुआ है। सबसे बड़ी बात कि कोविड-19 ने एबेनॉमिक्स से हासिल हुए पर्यटन में आये उछाल, परिलक्षित विकास और बढ़ते रोज़गार की उपलब्धता जैसे अल्पकालिक लाभों पर पानी फेर दिया है। आगे जो कुछ दिखायी देता है,वह यही है कि आबे का निधन जापान के दक्षिणपंथियों को लोकलुभावन, दूसरे देशों के प्रति विरोधी भावना और यहां तक कि चरम राजनीतिक लक्ष्यों को बढ़ावा देने को प्रेरित कर सकता है।
जापान के दो विशाल पड़ोसी देश-चीन और रूस सुदूर पूर्व में अपनी सुरक्षा मौजूदगी में तेज़ी से ताल-मेल बना रहे हैं। चाहे कुछ भी हो, ये दोनों बड़ी शक्तियां नाटो के साथ जापान की साझेदारी का मुक़ाबला करेंगी और यह स्थिति आने वाले समय में एशिया-प्रशांत की भू-राजनीति का मुख्य आकर्षण बन सकती है। मास्को ने जापान पर कुरील द्वीप समूह के प्रति उस विद्रोही प्रवृत्ति को लेकर खुलेआम आरोप लगाया है, जो कि क्षेत्रीय सुरक्षा और स्थिरता के लिए ख़तरा है।
अगर यूक्रेन में अमेरिका और नाटो की प्रतिष्ठा को एक घातक झटका लगता है, जिसकी संभावना दिख रही है, तो जापान के राजनीतिक और नीतिगत लक्ष्य को लेकर जो आकर्षण है,वह खो जायेगा। लेकिन, जापान के प्रधानमंत्री किशिदा प्रमुख यूरोपीय शक्तियों, ख़ासकर उस जर्मनी के साथ जापान के रिश्तों में यक़ीन पैदा करने के लिए सभी तरह के टोटके अपना रहे हैं , जिसके साथ कभी जोसफ स्टालिन की अगुवाई वाले सोवियत सत्ता के लगातार उदय पर नाजी जर्मनी और इंपीरियल जापान की आम चिंताओं पर निर्मित एंटी-कॉमिन्टर्न पैक्ट (1936) के रूप में जाना जाने वाला एक गठबंधन था।
चांसलर ओलाफ़ स्कोल्ज़ और किशिदा ने हाल ही में मौजूदा हालात में अपने ऐतिहासिक रिश्तों को नवीनीकृत करने के लिए एक-दूसरे की राजधानियों के दौरे किये थे। बेशक, आबे का निधन ऐसे समय में हुआ है, जब जापान ख़ुद को एशियाई राजनीति और विश्व व्यवस्था के चौराहे पर खड़ा पाता है।
मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करेंः
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