श्रीलंका संकट: घर-बाहर हर तरह से सबसे ज़्यादा महिलाएं प्रभावित
श्रीलंका के आर्थिक संकट की खबरें लगातार मीडिया में आ रही हैं और अटकलें भी लगाई जा रही हैं कि यदि हम सचेत न हुए तो किसी दिन भारत में भी ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ सकता है। गोटाबाया राजपक्षे तो देश छोड़कर भाग चुके हैं और अब रनिल विक्रमसिंघे ने सत्ता की बागडोर संभाल ली है। पर लोगों का कहना है कि उनपर जनता को भरोसा नहीं है और अभी तक स्थिति काबू में नहीं आई है। लेकिन हम यहां विशेष तौर पर बात करना चाहेंगे महिलाओं के बारे में जो सबसे अधिक प्रभावित हुई हैं और अपने तथा अपने परिवार को जीवित रखने के लिए भारी संघर्ष के दौर से गुज़र रही हैं। यानी महिलाओं का जीवन पूरी तरह से बदल गया है।
मध्यम वर्गीय महिलाओं के ऑप्शन खत्म होते जा रहे हैं
द सोशल आर्किटेक्ट्स (TSA), श्रीलंका नामक संगठन की शीरीन ज़ेवियर से बात करने पर पता चला कि देश में शहरी मध्यम वर्ग तक की महिलाओं के सामने संकट काफी गहरा चुका है। टीएसए का निर्माण 2012 में कुछ लेखकों, पेशेवर लोगों और अध्येताओं ने मिलकर किया था। वर्तमान समय में यह संगठन सूचना के अधिकार का प्रयोग और ट्रांसिश्नल जस्टिस संबंधी मामलों पर काम कर रहा है। शीरीन का कहना है कि श्रीलंका में आर्थिक संकट का प्रभाव महिलाओं पर बहुत विषम रहा है, खासकर वे महिलाएं जो शहरों में रहकर स्वंतत्र रूप से जी रही हैं।
उदाहरण के तौर पर उन्होंने बताया कि जो महिलाएं कार या स्कूटर पर काम करने निकलती थीं उनको अब सार्वजनिक परिवहन का इंतज़ार करना पड़ता है जो कम है और महंगा भी। या वे परिवार के अन्य सदस्यों का मुंह देखती हैं; उनकी स्वंतंत्रता समाप्त है।
आखिर ऐसा क्यों हुआ? इसका कारण है कि पेट्रोल की लाइन में 3000-5000 गाड़िया खड़ी होती हैं और ये वाहन ज्यादातर पुरुषों द्वारा संचालित होते हैं। कई बार 2-3 दिन बाद नम्बर आता है। पेट्रोल 470 और डीज़ल 460 रुपये प्रति लीटर है और गैस के दामों में भी बेतहाशा वृद्धि हुई है। घर में भी मुश्किलें बढ़ गई हैं क्योंकि गैस की कीमत 430 प्रतिशत बढ़ गई है, और उसके लिए भी लाइन में लगना होता है।
अब अधिकतर घरों में 3 बार की जगह 2 बार खाना बनता है। वह भी अजीब ढंग से-चावल, दाल, सब्ज़ियां सब एक ही कुकर में डालकर सीटी लगा दी जाती है।
सब्ज़ियों की सप्लाई बहुत कम है और आलू, प्याज़ आदि की होर्डिंग चल रही है तो वे भी बहुत महंगे हैं। खाद्य मुद्रास्फीति 90 प्रतिशत है और डबलरोटी के दाम में 100 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।
टीएसए की राधिका गुनरत्ने का कहना है कि ‘‘मेन्स्ट्रुअल हाइजीन को लेकर श्रीलंका में महिलाओं को काफी आन्दोलन करना पड़ा है। सैनिटरी पैड जैसी आवश्यक सामग्री पर तो पहले से ही भारी टैक्स था और अब 52 प्रतिशत टैक्स है जिसके चलते रजस्वला औरतों का 50 प्रतिशत हिस्सा पैड खरीदने से वंचित रहता है। इसे ‘पीरियड पॉवर्टी’ कहा जाता है और श्रीलंका इससे जूझ रहा है। श्रमिक वर्ग की महिलाएं तो पैड की जगह कपड़ा ही इस्तेमाल करती हैं। अब तो पैड एक लक्ज़री आइटम है और उसे खरीदना मुश्किल है। आपको चुनना पड़ेगा कि आप पैड खरीदेंगे या फिर भोजन सामग्री।”
SUML (Stand Up Movement Lanka) की अशिला दंडेनिया का कहना है कि ‘‘संकट से पहले एक पैकेट पैड 90 रुपये में मिल जाता था पर अब 350 रुपये का है। सबसे सस्ता वाला 200रु./10 नैप्किन है।”
शीरीन कनाडा से हैं। वह कहती हैं, ‘‘अब तो टॉयलेट पेपर भी बहुत महंगा है। 1500 रुपये खर्च करने पर मुझे एक टॉयलेट पेपर रोल मिलता है। हम पहले युद्ध के परिणामों से जूझ रहे थे, फिर कोविड-19 आया। उससे उबरे नहीं थे कि सरकार की गलत नीतियों के चलते हम जैसे रसातल में पहुंच गए। बच्चे लम्बे समय से लॉकडाउन के कारण ऑनलाइन पढ़ रहे थे। बाद में स्कूल खुले.....और अब फिर से बंद हो गए हैं। माताएं इन्हें कहां छोड़कर काम पर जाएं? कितने ही ऐसे लोग हैं जो बच्चों को लैपटाप और मोबाइल फोन दिला सकते हैं? और, अब तो घंटों बिजली नहीं रहती....कभी इस इलाके में तो कभी उस इलाके में। अखिर अध्यापक किस टाइम शेड्यूल के हिसाब से पढ़ाएं? स्वास्थ्य सेवाओं का बुरा हाल है तो इमर्जेंसी में ही कोई अस्पताल जाता है। गर्भवती महिलाओं को सबसे अधिक झेलना पड़ रहा है क्योंकि मुफ्त दवाएं मिलना बंद है और अस्पतालों में स्टाफ का भारी अभाव है।’’
फ्री ट्रेड ज़ोन्स (FTZ) की महिलाएं हाशिये पर
श्रीलंका में फ्री ट्रेड ज़ोन्स में महिला श्रमिकों की भारी तादाद है। यहां टेक्सटाइल (Textile) और अपैरेल (Apparel) यानी कपड़ा और वस्त्र उद्योग देश का 15 प्रतिशत रोज़गार प्रदान करता है और 50 प्रतिशत निर्यात में योगदान है। यह फ्री ट्रेड ज़ोन के अन्दर आता है, जहां डेढ़ लाख से अधिक श्रमिक हैं और हर 10 में से 8 श्रमिक महिलाएं हैं। यहां कोई श्रम कानून लागू नहीं होता, इसलिए श्रमिक भारी शोषण के शिकार हैं। औसत वेतन 28,000 रुपये मासिक हैं, जो ओवरटाइम जोड़कर 35,000 रुपये तक पहुंचता है।
महामारी ने पहले ही इस क्षेत्र को तबाह कर दिया था। वेतन घट गए थे और बड़ी तादाद में छंटनी भी हुई थी। अब तो कई फैक्टरियां बंद हो रही हैं, और आगे और भी बंद होने की संभावना है क्योंकि विश्व बाज़ार में श्रीलंका की साख इस कदर गिर चुकी है कि नए ऑर्डर आना बहुत कम हो गया है। यह इसलिए हुआ कि समय से ऑर्डर स्प्लाई नहीं हो रहा था। नतीजतन श्रीलंका ने कपड़ा निर्यात में 10-20% भारत और बंग्लादेश के हित में खो दिया।
श्रीलंका के दैनिक अख़बार द मॉर्निंग की माने तो इस सेक्टर में समस्या इतनी गंभीर हो चुकी है कि बड़ी संख्या में (पुरुषों की तुलना में अधिक) महिलाएं देश छोड़कर बाहर काम करने जा रही हैं। कई महिलाएं घर बैठ गई हैं।
SUML की निदेशक अशिला दंडेनिया का कहना है कि फ्री ट्रेड ज़ोन की बहुत सी श्रमिक महिलाओं को सेक्स वर्क करने पर मजबूर होना पड़ा है (कोलंबो में सेक्स वर्करों की संख्या में जनवरी 2022 से लगभग 22-30% की वृद्धि हुई)। उनका कहना है कि वे 14 फ्री ट्रेड ज़ोन्स में काम कर रहे प्रवासी मज़दूरिनों के साथ और सेक्स वर्करों के बीच काम करती हैं और एक छोटा सैंपल सर्वे जो कटुनायके में सामुदायिक स्रोतों के माध्यम से किया गया, बताता है कि महिलाएं सेक्स ट्रेड की ओर बढ़ी हैं।
द मॉर्निंग अख़बार में एक महिला श्रमिक के साक्षातकार से उद्धरण दिया गया है, जिसमें वह कह रही हैं, ‘‘हम सुन रहे थे कि उद्योग बंद होने वाले हैं। यह सुनकर हम बुरी तरह डर गए हैं। अब हम सेक्स वर्क से 15,000 रुपये प्रतिदिन तक कमा लेते हैं।” वह कहती है कि यद्यपि उसे यह काम अच्छा नहीं लगता पर एक स्पा मालिक ने जब बुलाया तो मजबूरी में करना पड़ा।
द मॉर्निंग को एसयूएमएल (स्टैंड अप मूवमेंट लंका) की निदेशक अशिला दांडेनिया ने एएनआई के मार्फत बताया, ‘‘ये महिलाएं अपने माता-पिता, भाई-बहनों और बच्चों को अर्थिक मदद देने के लिए बेताब हैं।” अगर यह सत्य है तो बहुत ही अमानवीय है। पर शीरीन ज़ेवियर और राधिका कहती हैं कि एक छोटे सैंपल के आधार पर ऐसा कहना छोटी-मोटी बात नहीं है। अगर सचमुच ऐसा हो रहा है तो सरकार को जांच करके ठोस तथ्य एकत्र करने चाहिये और इसे रोकना चाहिये।
राधिका कहती हैं, ‘‘युद्ध के बाद से औरतों की बड़ी तबाही हुई पर सरकार ध्यान नहीं देती। मैं कुछ इस मसले पर कुछ कहना नहीं चाहती क्योंकि महिलाएं कलंकित होती जाती हैं और कोई समाधान नहीं निकलता।“
पर कहानी इतनी ही नहीं है
कहानी इतनी ही नहीं है कि सेक्स वर्क से पैसा कमाना अपेक्षाकृत आसान है, जैसा कि अशिला की बातों से लगता है। भारत की तरह श्रीलंका में सेक्स वर्क करना कानूनी मान्यता-प्राप्त नहीं है। इसलिए क्लाइंट असुरक्षित सेक्स के लिए बाध्य करते हैं जिससे एड्स और यौन रोग होने का खतरा रहता है। श्रीलंका में वेश्यावृत्ति खुलेआम नहीं, बल्कि स्पा, वेलनेस सेंटर या मसाज पार्लर आदि के नाम से चलती है। अस्थायी रूप से कुछ खास जगहों पर सेक्स वर्क भी चलता है। अख़बारों की रिपोर्टें यह भी बताती हैं कि कई बार दुकानदार आवश्यक वस्तुओं और दवाओं के बदले में सेक्सुअल फेवर्स की मांग करते हैं। लेकिन इसपर ठोस साक्ष्य उपलब्ध नहीं हैं। अशिला स्वयं सेक्स वर्करों के बीच काम करती हैं पर ठोस आंकड़े नहीं दे पातीं।
रिपोर्टर बताते हैं कि फ्री ट्रेड ज़ोन्स और बंडारनायके इंटरनेशनल एयरपोर्ट के आस-पास सबसे अधिक सेक्स वर्क होता है; और यह पुलिस संरक्षण में होता है; वे भी महिलाओं का यौन शोषण करते हैं। रिपार्टें सत्यापित हों या नहीं, गरीबी के कारण यह संभावना बढ़ गई है। आखिर सरकार इसपर क्या कर रही है?
एक बाल अधिकार संगठन ‘सेव द चिल्ड्रेन’ ने मई-जून 2022 में एक सर्वे किया जिसका उद्देश्य था घरेलू अर्थव्यवस्था में आर्थिक संकट के प्रभाव का अध्ययन करना। इस सर्वे का नाम है ‘रैपिड नीड्स ऐसेसमेंटः जून 2022, और इसमें देश के 9 जिलों के 2309 लोगों से बात की गई। इनमें 49.8% महिलाएं थीं।
सर्वे के कुछ नतीजे चौंकाने वाले हैं, मस्लन
* महिला मुखिया वाले परिवार पुरुष मुखिया वाले परिवारों की अपेक्षा अधिक गरीब हैं 48% बनाम 42.6%
* 85.1% परिवारों को आर्थिक संकट के कारण आय में ह्रास झेलना पड़ा है, जिसका बोझ औरत के कंधे पर पड़ा
* केवल 2.5% परिवारों को सामाजिक सुरक्षा नेट उपलब्ध हो पाया है। बाकी भुखमरी के कगार पर हैं
* 35.5% परिवारों की आय खत्म हो गई क्योंकि उनकी छंटनी कर दी गई
* महिला मुखिया वाले परिवारों में पुरुष मुखिया वाले परिवारों की अपेक्षा पूरी आय खत्म होने के मामले अधिक हैं क्योंकि महिलाओं की छंटनी आसान है
* केवल 49% परिवारों में सभी मूल आवश्यकताएं-भोजन, स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा पूरी हो सकीं
* केवल 31% परिवारों की खाद्य आवश्यकताएं समग्र रूप से पूरी हो सकीं
इन आंकड़ों के आधार पर मल्टीडायमेंश्नल पॉवर्टी इंडेक्स (MPI) का आंकलन भी किया जा रहा है।
“जो श्रमिक बड़ी कम्पनियां-लेवाइस, नाइके, नेक्ट, विक्टोरिअयाज़ सीक्रेट के लिए घंटों खड़े रहकर, बिना ब्रेक लिये काम करते हैं उन्हें सहयोग नहीं मिला तो वे काम कैसे करेंगे?’’ एक महिला श्रमिक विस्मी वर्नचपा पूछती हैं। यूनियनों को सप्लायर और ब्रान्ड मालिकों के साथ बातचीत करके रास्ता निकालना चाहिये। सबसे आवश्यक है कि हमें इस संकट में सम्मानजनक जीवन जीने लायक पगार मिले। ब्रान्ड मालिकों का मुनाफा इतना तो है ही कि वे ऐसा करें। दूसरे, उन्हें सप्लाई के लिए अधिक समय देना चाहिये, वरना हमारे ऑर्डर कम हो जाएंगे।’’ यह सच है कि आर्डर में कमी के कारण काम के घंटे कम हो गए हैं और पगार घट गई है। ले-ऑफ और छंटनी हो रही है। कम्पनियां भी बंद हो रही हैं।
पर कुछ सकारात्मक कहानियां भी सामने आई हैं। मस्लन बेथनी क्रिस्टियन लाइफ सेंटर की चीफ अकिला ऐलिस कहती हैं, ‘‘भोजन का संकट इतना बड़ा था कि हमने कोलंबो में जून से 12 गिरजाघरों में सामुदायिक किचन शुरू किये हैं। यहां प्रतिदिन 1500 लोगों को भोजन दिया जाता है। महिलाएं पकाती हैं। हमें चीन और वियतनाम से सहयोग मिल रहा है। बौद्ध संत भी हमारे भण्डारों में चावल भर जाते हैं।” यहां भोजन लकड़ी की आग पर पकाया जाता है। पर जलावन 200 रुपये प्रति किलो बिक रहा है और चावल 250 रुपये किलो है।
खाद्य सुरक्षा को भारी धक्का और महिलाएं अधिक प्रभावित
श्रीलंका की अर्थव्यवस्था काफी हद तक कृषि आधारित रही है। बाकी निर्यात से राजस्व कमाया जाता है। पर देश में कृषि को कभी भी व्यवस्थित तरीके से नहीं चलाया गया। द डेली मिरर के अनुसार कोपा कमेटी बताती है किसान अपनी मर्जी से अनाज व सब्ज़ियां उपजाते हैं क्योंकि वे अपना मुनाफा देखते हैं और सरकार की कोई कृषि नीति या योजना नहीं है। सरकार ने रासायनिक उर्वरक पर प्रतिबंध भी लगा दिया है। परिवहन के साधन नहीं है न भण्डारन सुविधाएं; तो 3 अरब रुपये से अधिक का अन्न प्रति वर्ष बर्बाद होता रहा है। इस वजह से खा़द्य संकट अप्रत्याशित रुप से बढ़ गया है। इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ रेड क्रॉस ऐंड रेड क्रिसेंट का कहना है कि 24 लाख लोग गरीबी रेखा से नीचे जी रहे हैं। लेकिन एक तरफ जहां इन लोगों को खाद्य संकट झेलना पड़ रहा है, दूसरी ओर 40-50% यानी 270,000 मेट्रिक टन सब्ज़ी और फल बर्बाद हो जाते हैं क्योंकि परिवहन की कमी के कारण उन्हें बोरियों में (श्रीलंका में प्लास्टिक कार्टन का प्रयोग नही होता) भरकर ट्रकों में दबाकर ठूंस दिया जाता है, जहां वह सड़ जाता है।
वस्त्र उद्योग की एक महिला श्रमिक शान्ति एशिया फ्लोर वेज अलायंस (AFWA) को बताती है कि उनका पगार कम हो गया है पर चावल, सब्ज़ी और मछली के दाम 100% बढ़ गए हैं। तो हर परिवार में औरतें कम खाकर या एक बार खाकर काम चलाती हैं। हम बच्चों और बूढ़ों को पहले खिलाते हैं, फिर पति को। फैक्टरियों में पैकेट वाला खाना मिलता है पर उसकी क्वालिटी दिन-ब-दिन गिरती जा रही है।”
अशिला बताती हैं, ‘‘बच्चों के लिए और चाय-कॉफी के लिए दूध का पाउडर पहले 350 रुपये प्रति पैकेट (400 ग्राम) था पर अब उसका दाम 2000 रुपये तक बढ़ गया! हमारी पहुंच के बाहर है। तो आप समझ सकते हैं मज़दूर परिवार कैसे जी रहे होंगे।“
इस सब के बावजूद लोग, यहां तक कि भारी तादाद में श्रमिक और यहां तक कि चर्च की नन और पादरी भी प्रदर्शनों में हिस्सा ले रहे हैं। इस कठिन दौर में भी वे निकम्मी सरकार को हटाने के लिए आवाज़ उठा रहे हैं। विश्व भर से श्रीलंका की संघर्षशील जनता, खासकर श्रमिकों, औरतों और बच्चों को हर प्रकार का सहयोग दिया जाना चाहिये।
(लेखिका सामाजिक कार्यकर्ता हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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