ग्राउंड रिपोर्टः बनारस के बजरडीहा में स्कूल खोलना ही भूल गईं सरकारें और अब सर्वे के बहाने मदरसों पर हंटर !
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बनारस के एक ऐसे इलाके का भी प्रतिनिधित्व करते हैं जिसे बजरडीहा के नाम से जाना जाता है। बजरडीहा, बनारसी साड़ी कारोबार का सबसे बड़ा मकरज है तो सरकारी नुमाइंदों के लिए यह ‘काला पानी’। करीब ढाई लाख की आबादी वाले इस मुस्लिम बहुल इलाके में सिर्फ एक सरकारी प्राइमरी स्कूल है! सरकारें आती रहीं-जाती रहीं, आजादी का अमृत महोत्सव भी मनाया जाता रहा, लेकिन बजरडीहा के लोगों के नसीब नहीं बदले। हुक्मरान यहां रहने वाले हजारों बच्चों के लिए स्कूल खोलना ही भूल गए। खुले तो सिर्फ मदरसे, जिन पर अब डबल इंजन की सरकार का हंटर चल रहा है। मदरसों के आधुनिकीकरण और मूलभूत सुविधाएं जुटाने के लिए उत्तर प्रदेश की योगी सरकार एक चवन्नी भी नहीं देती। दावा किया जा रहा है कि सर्वे के बाद बहुत कुछ बदल जाएगा। बड़ा सवाल यह है कि मदरसों के सर्वे से उन्हें क्या मिलेगा?
सरकार से बगैर कोई सुविधा लिए दीनी और दुनियावी तालीम देने वाले सभी मदरसे के प्रबंधकों से सर्वे के बहाने यह तक पूछा जा रहा है कि तुम्हारी पढ़ाई वैध या अवैध? बिना रजिस्ट्रेशन के बच्चों को तालीम क्यों दी जा रही थी? इन ढेर सारे सवालों से मदरसों के सिर्फ प्रबंधक ही नहीं, स्टूडेंट्स और उनके अभिभावक भी खासे परेशान हैं। सबके मन में सिर्फ एक ही सवाल उमड़-घुमड़ रहा है कि मदरसों पर ताले लग गए तब क्या होगा? दूसरी ओर, सोशल मीडिया पर भाजपा के तमम नेताओं के बयान तैर रहे हैं मदरसों में धर्मांधता की शिक्षा और जेहाद की ट्रेनिंग दी जाती है। ऐसे में इनकी जांच और सर्वे जरूरी है। सर्वे शुरू होने के साथ ही एक बड़ा सवाल यह खड़ा हुआ है कि जांच-पड़ताल से गैर-पंजीकृत मदरसों को क्या मिलने वाला है? अब तक तो सरकार इन्हें एक चवन्नी भी नहीं दे रही है।
आबादी ढाई लाख, स्टूडेंट्स 151
वाराणसी कैंट रेलवे स्टेशन से करीब 11 किलोमीटर दूर दक्षिण पश्चिम में स्थित है बजरडीहा। भीड़भाड़ वाले इस इलाके में ज्यादातर बुनकर हैं, जिनकी रोजी-रोटी बनारसी साड़ियों के दम पर चला करती है। बजरडीहा के रास्ते कभी सुनसान नहीं रहते। हर गली-हर घर से हर वक्त लूम के खटर-पटर आवाज सुनी जा सकती है, चाहे वो आजादनगर, महफूज नगर, मकदूम नगर, लमही, अंबा, धरहरा हो या फिर अंबा, धरहरा, मुर्गिया टोला, फारूखीनगर, जक्खा, कोल्हुआ। बजरडीहा बनारस का वह इलाका है जो बारिश के दिनों में ताल-तलैया बन जाता है। बारिश जब ज्यादा होता है तो नावें भी चलाई जाती रही हैं। हाल के कुछ सालों में बजबजाती गलियों की स्थिति में थोड़ा सुधार हुआ है। बजरडीहा में घुसते ही सड़क के किनारे एक सीटिंग प्लाजा दिखता है, जहां बैठकर लोग गुफ्तगू करते नजर आते हैं। सीटिंग प्लाजा के पीछे की दीवार हरे रंग से रंगी है, जिस पर दो तरफ भारतीय झंडे लगे हैं और बीच में चांद तारा है। इसी दीवार पर एक हिदायत भी दर्ज की गई है, "यहां पोस्टर न चिपकाएं।"
बजरडीहा के मदरसों का हाल जानने से पहले ढाई लाख की आबादी के एक किनारे चलने वाले इकलौते सरकारी प्राइमरी स्कूल का हाल जान लीजिए। यह स्कूल जक्खा मुहल्ले में है, जहां सिर्फ 151 बच्चे पंजीकृत हैं। प्रिंसिपल रेनू सिंह कहती हैं, "पांचवीं कक्षा में 31, चार में 32, तीन में 29, दो में 26 और बाकी बच्चे पहली कक्षा के हैं। हमारे अलावा दो शिक्षामित्र मुन्ना लाल और अनीता गुप्ता पढ़ाती हैं।" यहां पंजीकृत बच्चे भले ही डेढ़ सौ के पार हैं। उंगलियों पर गिने जाने वाले स्टूडेंट्स को देखकर समझा जा सकता है कि यहां पढ़ाई का स्तर कैसा है? आसपास के लोग भी यहां अपने बच्चों को पढ़ाना पसंद नहीं करते।
प्राइमरी पाठशाला के ठीक पश्चिमी कोने पर मोहनलाल केसरी का मकान हैं। इनकी दो पौत्रियां-दिव्यांशी (6) व नित्या (2) हैं। दिव्यांशी के पिता पवन केसरी चाट-पपड़ी का ठेला लगाते हैं। पकवान बनाने में हाथ बंटाती हैं इनकी पत्नी रेनू। न्यूजक्लिक से बातचीत में वह कहती हैं, "हमें नहीं पता कि यहां पढ़ाई कैसी होती है। हमें अपनी बेटी दिव्याशी के भविष्य की चिंता है। इसलिए हम उसे कान्वेंट स्कूल में भेज रहे हैं।" कुछ इसी तरह की चिंता दूसरे अभिभावकों में भी झलकती है। अचरज की बात यह है कि मुफ्त में दोपहरिया भोजन मिलने के बावजूद बनारस के सबसे पिछड़े इलाके के इकलौते सरकारी स्कूल में गिने-चुने बच्चे ही पढ़ने पहुंचते हैं। खासतौर पर वो बच्चे जिन्हें उनके घरों में भरपेट भोजन नहीं मिल पाता है। जक्खा के सरकारी प्राइमरी स्कूल के ठीक सामने बिजली के तारों का संजाल नजर आता। शायद सरकारी मशीनरी को किसी हादसे का इंतजार है। घनी आबादी और दो इमारतों के अलग-बगल दुबका सा नजर आता है बजरडीहा का सरकारी प्राइमरी स्कूल। एक तरफ स्कूल का गेट है तो दूसरी ओर मदहारी बाबा का मंदिर। बाहर से यह पता ही नहीं चलता कि मंदिर में स्कूल है या फिर स्कूल में मंदिर है।
जक्खा स्थिति सरकारी प्राइमरी स्कूल से इतर बजरडीहा में करीब 19 मदरसे हैं, जिनमें दो-तीन ही सरकारी मदद से चलते हैं। यहां कई मदरसे जकात के पैसे से भी चलते हैं, जो ग़ैर-मान्यता प्राप्त हैं। बजरडीहा के एक मदरसे के प्रबंधक ने ‘न्यूजक्लिक’ को सरकारी आदेश की एक कॉपी मुहैया कराई, जिसके मुताबिक़ यूपी के सभी ज़िलों में एक निर्धारित समय सीमा में एक तय फ़ॉर्मेट पर सर्वे करने और सरकार को डाटा देने भेजने को कहा गया है। सर्वे में ग़ैर-मान्यता प्राप्त मदरसों के संचालन करने वाली संस्था, मदरसे की स्थापना की तारीख़, उसका स्टेटस (निजी या किराए के घर में चल रहा है), मदरसे में पढ़ने वाले छात्र-छात्राओं की सुरक्षा, पानी, फ़र्नीचर, बिजली, शौचालय की व्यवस्था आदि की मांगी गई है। साथ ही छात्र- छात्राओं व शिक्षकों की संख्या, वहां पढ़ाया जाने वाला पाठ्यक्रम, मदरसे की आय का स्त्रोत का ब्योरा जुटाया जा रहा है। अगर छात्र किसी अन्य जगह भी पढ़ रहे हैं तो उसकी जानकारी और अगर सरकारी समूह अथवा संस्था से मदरसों की संबद्धता है तो उसका ब्योरा भी देने को कहा गया है। बनारस के मदरसों के सर्वे के लिए टीम गठित कर दी गई है। सर्वे शुरू हो चुका है। यह काम हर हाल में पांच अक्टूबर 2022 तक पूरा किया जाना है। उत्तर प्रदेश के सभी जिलाधिकारियों के माध्यम से 25 अक्तूबर तक सर्वे का डाटा शासन को भेजा जाएगा।
मदरसे के बच्चों की चहेती हैं गीता
मदरसों के सर्वे के इस बारे में जानकारी जुटाने के लिए ‘न्यूजक्लिक’ ने राजानगर स्थित मदरसा नूरिया रिज्विया के प्रिंसिपल मोहम्मद नासिर हुसैन से संपर्क किया। लूम और करघों के खटर-पटर, सर्पीली और तंग गलियों के बीच इस मदरसे में पहुंच पाना आसान नहीं है। इस मदरसे में आठवीं तक की कक्षाएं चलती हैं। साल 2013 से 2018 तक इसका पंजीकरण था, लेकिन बाद में रिन्युवल नहीं हो सका। इस बाबत न तो सरकार से कोई गाइडलाइन मिली, न रजिस्ट्रेशन कराने के लिए कोई निर्देश। अचंभित करने वाली बात यह है कि बिना सरकारी अनुदान के चलने वाले इस मदरसे में अव्वल दर्जे की पढ़ाई होती है। यहां साढ़े तीन सौ से ज्यादा स्टूडेंट्स हैं। इन्हें पढ़ाने के लिए नौ शिक्षक नियुक्त हैं। फीस के रूप में सिर्फ टोकेन मनी ली जाती है। बेहद गरीब बच्चों से कोई शुल्क नहीं लिया जाता है।
मदरसा नूरिया रिज्विया बजरडीहा का इकलौता मदरसा है जहां हिन्दू महिला टीचर गीता श्रीवास्तव पूरे मनोयोग से बच्चों को पढ़ाती हैं। वह ‘न्यूजक्लिक’ से कहती हैं, "मदरसों के बारे में पहले हमारी सोच अलग थी। हिन्दू समाज में यह भ्रांतियां फैलाई गई थीं कि यहां धर्मांधता और कट्टरता सिखाई जाती है। मदरसों के बारे में और भी तमाम बातें बताई गई थीं। पिछले साल हम यहां पढ़ाने आए तब सच पता चला। हमने देखा कि यहां तो सिर्फ बच्चों की पढ़ाई पर फोकस किया जाता है। सुविधाएं भले ही नहीं है, लेकिन पढ़ाई की गुणवत्ता बेहतरीन है। टीचर को ज्यादा भोजन और बच्चों को दोपहरिया भोजन नहीं मिलता, फिर भी बच्चे ज्यादा हैं। एक टीचर के रूप में मैं यहां तनिक भी असहज महसूस नहीं करती। क्लास खत्म होने के बाद भी इलाकाई बच्चों को मुफ्त में ट्यूशन देती हूं। ट्यूशन फीस सिर्फ उन्हीं बच्चों से लेती हूं, जो हर तरह से सक्षम और समर्थ हैं।"
"मैं सुंदरपुर से बच्चों को पढ़ाने आती हूं। शुरू में तंग गलियों से होकर स्कूल पहुंचने में दिक्कत हो रही थी, तब मदरसे के बच्चे ही हमें सड़क से लेने और पहुंचाने आया करते थे। यहां आने के बाद हमें एहसास हुआ कि मदरसों को लेकर हम सभी की सोच बहुत छोटी है। हमें कभी लगा ही नहीं कि इस मदरसे में बच्चों को कट्टरता सिखाई जाती है। अगर यह सब सिखाया जा रहा होता तो बच्चे पढ़ाकू नहीं, उदंड होते। हमें लगता है कि मदरसा नूरिया रिज्विया के बच्चों का दिल है तो एक सादे काग़ज़ की तरह है। हम उस पर जो लिखेंगे, वही आगे आएगा। ज़ाहिर सी बात है जब हम उन्हें तैयार करते हैं तो बच्चे डॉक्टर, इंजीनियर बनने की कोशिश भी करते हैं। सिर्फ उर्दू ही नहीं, उन्हें हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत, विज्ञान सब कुछ पढ़ाया जाता है। स्टूडेंट्स और टीचर्स भी बहुत ज्यादा फैमिलियर हैं।"
मदरसा का पंजीकरण न कराए जाने पर नूरिया रिज्विया के प्रिंसिपल नासिर हुसैन कहते हैं, "हम लगातार दौड़ रहे हैं, लेकिन मदरसा बोर्ड की वेबसाइट ही सालों से बंद है। बताइए कि हम क्या करें? हम स्टूडेंट्स को अच्छी शिक्षा दे रहे हैं, क्या यही हमारा गुनाह है? कोई यह तो बताए कि हमारे मदरसे को मान्यता क्यों नहीं दी जा रही है? बजरडीहा के कुछ मदरसे तो आजादी के पहले से ही चल रहे हैं। सोचने की बात है कि छोटे बच्चों को हम कट्टरता क्या सिखाएंगे? हम तो उन्हें कंप्यूटर जैसी दुनियावी तालीम भी दे रहे हैं। तब और अब में बहुत अंतर है। अगर हम मदरसे नहीं चलाते तो आखिर यहां पढ़ने वाले साढ़े तीन सौ बच्चे कहां जाते? हम चाहते हैं कि योगी सरकार मुस्लिम समुदाय के बच्चों के भविष्य के बारे में अच्छा सोचे। मैं देख रहा हूं कि मदरसों के सामने ज्यादा समस्याएं साल 2014 के बाद से आनी शुरू हुई हैं। जब से मदरसों का सर्वे शुरू हुआ है तब से मानसिक रूप से परेशान हूं। सरकार के खौफ से डरा हुआ हूं कि अगर मदरसे बंद हो गए तो हमारे 350 बच्चों के भविष्य का क्या होगा? "
मदरसा नूरिया रिज्विया के टीचर मो.फरीद बताते हैं "हमारे यहां अंग्रेज़ी की पढ़ाई अनिवार्य है। हम संस्कृत भी पढ़ाते हैं और विज्ञान भी। हमें इस बात से नाराजगी जरूर है कि इस समय मदरसों को तल्ख नजरों से देखा जा रहा है। कोई हमारा गुनाह तो बताए? बच्चों को तालीम कौन सा जुर्म है? कुंभ के लिए सरकार चार हजार करोड़ का बजट अलाट करती है और यूपी के मदरसों के लिए एक हजार करोड़ भी नहीं देती। जो मदरसे सिर्फ रजिस्टर्ड हैं और उन्हें शासन की मान्यता नहीं मिली है, उन्हें सरकार एक चवन्नी नहीं देती। अब मान्यताप्राप्त मदरसों के संचालन में भी कटौती की जा रही है। सिर्फ बनारस ही नहीं, समूचे प्रदेश में अधिसंख्य मदरसे तंग गलियों में चलाए जा रहे हैं। ज्यादातर में खेल का मैदान तक नहीं है। यह स्थिति तब है जब डबल इंजन की सरकार देश भर में आजादी स्वर्ण जयंती समारोह मना रही है। अगर वह सचमुच अल्पसंख्यक समुदाय की बेहतरी चाहती है तो उसे मदरसा टीचर्स के सुझावों पर अमल करना चाहिए।"
सर्वे से भय और दहशत
उत्तर प्रदेश के मदरसों के सर्वे और सरकार की नीयत पर काशी पत्रकार संघ के पूर्व अध्यक्ष एवं चिंतक प्रदीप श्रीवास्तव तल्ख टिप्पणी करते हैं। वह कहते हैं, "मदरसे हमेशा से हिन्दूवादी सोच के निशाने पर रहे हैं। भाजपा का मानना है कि इन मदरसों के जरिये मुस्लिम धर्म और संस्कृति का संरक्षण व संवर्धन हो रहा है, लिहाजा इन्हें इस हद तक कमजोर किया जाए कि इनका वजूद ही खत्म हो जाएं। फासिस्टवादी सोच की यही सबसे बड़ी कमजोरी है। वे खुद को श्रेष्ठ मानते है और चाहते हैं कि बाकी लोगों का अस्तित्व मिटा दिया जाए। जो सर्वे हो रहा है, उससे अल्पसंख्यक समुदाय में भय, दहशत है। यह एक हथियार है। सर्वे के बहाने यह साबित करने की कोशिश की जा रही है कि वहां आतंक की तालीम दी जा रही है, जबकि सचाई इसके ठीक उलट है।"
प्रदीप यह भी कहते हैं, "नौकरियों के आंकड़े जुटाए जाएं तो पता चलेगा कि ऐसी तस्वीर उभरकर सामने आएगी, जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती है। प्रशासनिक नौकरियों और कठिन परीक्षाओं में उन स्टूडेंट्स की तादाद लगातार बढ़ती जा रही है जिन्होंने बुनियादी शिक्षा मदरसों में ही हासिल की है। उच्च पदों की तमाम सरकारी नौकरियों में मुस्लिम बच्चे मेरिट में आ रहे हैं। इनकी असली परेशानी की असली वजह यही है। वो नहीं चाहते कि कोई और संस्कृति को फलने-फूलने की आजादी रहे। पढ़ाकू संस्कृति के लोग देश की मुख्य धारा में अपनी कामयाबी की झंडे गाड़ सकें।"
"मदरसों को लेकर वितंडा खड़ा करने वाले ये वो लोग हैं जिनके निशाने पर पहले ईसाई मिशनरियां और उनके स्कूल हुआ करते थे। वहां इनकी दाल गली नहीं, क्योंकि अमेरिका जैसे ताकतवर देशों ने इन्हें दबोच लिया, जिससे इनकी घिग्धी बंध गई। हाल के सालों में जब रोजी-रोटी पर अंग्रेजी भाषा का वर्चस्व बढ़ा तो कट्टरवादी हिन्दू जमात के लोग भी अपने बच्चों को ईसाइयों के स्कूलों में पढ़ाने के लिए लाइन लगाने लगे। मदरसों में ऐसे हालात नहीं हैं। इसके जरिये वो दो निशाने साध रहे हैं। एक तो वो मदरसों को बर्बाद कर दें और दूसरे, बहुसंख्यक समाज में यह संदेश दे देने में कामयाब हो जाएं कि वो मुसलमानों पर चाबुक चला रहे हैं और पुराने जुल्म-ज्यादतियों का बदला ले रहे हैं। तीसरी बात, वो अनपढ़ और जाहिल रहेंगे तभी इनकी सियासत चमकेगी। नंगा सच यह है कि मुस्लिम सोसाइटी के बच्चों को दीनी तालीम से इन्हें कोई गुरेज नहीं है। इनकी असली परेशानी की बड़ी वजह यह है कि ज्यादातर मदरसे आधुनिक शिक्षा के बड़े केंद्र बनते जा रहे हैं।"
तालीम के सिवा कुछ नहीं सिखाते
बनारस के लल्लापुरा में मदरसा मरकजी असारुल उलूम और लोहता में मदरसा फैजुल उलूम, हरपालपुर में रजा-ए-मुस्तफा नामी शिक्षण संस्थाएं हैं, जहां बच्चों को अव्वल दर्जे की तालीम दी जाती है। मदरसों में पढ़ाई की गुणवत्ता परखने के लिए ‘न्यूजक्लिक’ ने मदरसा बजरडीहा के मदरसा हनफिया गौसिया के स्टूडेंट्स के बातचीत की। इलाके का यह इकलौती ऐसी शिक्षण संस्था है जहां मुंसी, मौलवी, आलिम से लगायत कामिल और फाजिल तक (परास्नातक) की पढ़ाई होती है। यहां उर्दू-फारसी के क्लास चलती हैं तो अंग्रेजी, संस्कृत और विज्ञान के भी। मदरसे के प्रबंधक हाफिज शहाबुद्दीन ने पहली कक्षा (तहतानिया) से लेकर फ़ाज़िल (पोस्ट ग्रेजुएशन) को दिखाया और बताया कि सभी कक्षाओं में अंग्रेज़ी अनिवार्य है। वह कहते हैं, "हम इसे दुर्भाग्य कह सकते हैं कि आठवीं पास लड़कियों के लिए बजरडीहा इलाके में कोई स्कूल नहीं है। इससे आगे की पढ़ाई के लिए उन्हें काफी दूर खोजवां अथवा सरायनंदन जाना पड़ता है। मदरसों को लेकर बेवजह वितंडा खड़ा किया जा रहा है और बहुसंख्यक समाज के बीच झूठी और मनगढ़ंत बातें फैलाई जा रही हैं। हमें ये बातें कितनी चुभती हैं जब मदरसों के बारे में कहा जाता है कि ये आतंक फैलाने वाली फैक्ट्री है। सच यह है कि यहां तालीम के अलावा कुछ भी नहीं सिखाया जाता।"
मदरसा हनफिया गौसिया में अंग्रेजी व्याकरण पढ़ने में तल्लीन इरफान ने कहा, "प्राइवेट स्कूलों की हम भी अंग्रेज़ी और विज्ञान पढ़ते हैं। अंग्रेजी का ग्रामर तो तर्जुमे के साथ पढ़ाया जाता है। यहां सभी टीचर अच्छे हैं और चाहते हैं कि हम हर जबान सीख लें। अंग्रेज़ी इसलिए पढ़ रहे हैं क्योंकि हम अपने देश की ख़िदमत करना चाहते हैं। आजकल जो माहौल है, उसमें इंग्लिश जानना बेहद जरूरी है। इसके बिना तो कहीं काम ही नहीं चलता। चाहे वो बैंक हो, बाजार हो या फिर गांव ही क्यों न हो।" सिर्फ मदरसों का सर्वे किए जाने पर इरफान शक का सवाल गंभीर खड़ा करते हैं और कहते हैं, "देश में नए तरह का माहौल पैदा किया जा रहा है जो गलत है। अगर सरकार हमारे बारे में सचमुच अच्छा सोच रही है तो बड़ी बात है। मदरसों में मज़हबी तालीम के साथ दुनियावी तालीम लाज़मी है। हमारे यहां पढ़ाई का स्तर अच्छा है। इम्तिहान सख्ती के साथ होता है। सभी उस्ताद मेहनती हैं और अच्छे से बच्चों को तालीम देते हैं।"
मदरसा अहयाउस सुन्ना के क्लर्क अब्दुल हकीम से मुलाकात हुई तो उन्होंने कई अहम जानकारी दी। बताया, "हमारे मदरसे 32 लोगों का स्टाफ है, जिनमें दस महिलाएं हैं। अंग्रेजी और मैथ पढ़ाने वाले आनंद प्रकाश श्रीवास्तव कुछ साल पहले ही रिटायर हुए हैं। अंग्रेजी की टीचर कल्पना बनर्जी भी दो बरस पहले रिटायर हुई हैं। हमारे मदरसे के तमाम बच्चे सरकारी नौकरियों में हैं। डाक्टर, इंजीनियर और टीचर ही नहीं, कई स्टूडेंट प्रशासनिक सेवाओं में भी चले गए हैं। इस समय भी यहां की कई लड़कियां नामी कालेजों में पीएचडी कर रही हैं। आप मुझे देखिए, मैं भी मदरसे से ही पढ़कर निकला हूं और अब मैं यहां आया हूं। हम सभी कि कोशिश होती है कि बच्चों को प्रोफ़ेशनल फ़ील्ड में ले जा सकें। बच्चों की दिलचस्पी भी दिखती है।"
अब्दुल यह भी कहते हैं, "तालीम कोई भी हो, उससे पीछे नहीं हटा जा सकता है। सरकार कंप्यूटर और अंग्रेजी सिखाने की बात कर रही है तो अच्छी बात है। नए दौर में इसी की जरूरत है और इसी से कामयाबी भी हासिल की जा सकती है। सरकार को चाहिए कि वो मदरसों को और भी ज्यादा सुविधाएं दे। मदरसों का आधुनिकीकरण बेहद जरूरी है। दुर्भाग्य यह है कि जो सुविधाएं मिलनी चाहिए वो नहीं मिल पा रही हैं। गौर करने की बात यह है कि साल 2022-2023 का सत्र चल रहा है और मदरसों में अभी एनसीईआरटी की किताबें नहीं आई हैं। ऐसे में बच्चे आखिर कैसे पढ़ेंगे? एक तरफ़ आप मदरसों को एनसीईआरटी के पैटर्न पर खड़ा करना चाहते हैं और दूसरी ओर, मूलभूत सुविधाएं ही नदारद हैं। मदरसा बोर्ड सुविधाएं देगा तो ज़ाहिर सी बात है कि बच्चे आगे जाएंगे। हमें तो लगता है कि सरकार की मदरसों के आधुनिकीकरण की मंशा ठीक है। योगी सरकार के फैसले का स्वागत होना चाहिए।"
बेचैन क्यों हैं वितंडावादी?
बजरडीहा के मुस्लिम बहुल इलाकों में काम करने वाले एक्टिविस्ट डा.लेनिन कहते हैं, "मुस्लिम कम्युनिटी में बड़ा बदलाव आया है। वो न शिक्षित हो रहे हैं, बल्कि अपनी कामयाबी के झंडे भी गाड़ रहे हैं। वितंडा खड़ा करने वालों के लिए यही सबसे बड़ी बेचैनी है। वे नहीं चाहते कि मुस्लिम युवक ऊंचा पदों पर पहुंचें। वो दस्तकारी तक ही सीमित रहें। दुर्भाग्य है कि देश के निर्माण को सरकार खुद ही बाधित कर रही है। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में बजरडीहा साफ-साफ दिखता है। पहले मदरसों का काम दीनी तालीम देना था, लेकिन वो अब दुनियावी तालीम दे रहे हैं। पाठ्यक्रम सरकारी है। शिक्षा देना सरकार की नैतिक जिम्मेदारी है। अगर मदरसों को बंद करते हैं तो सरकारी स्कूल खोलिए। नहीं खोल सकते तो मदरसों को आर्थिक मदद दीजिए। सिर्फ हंटर चलाया जाना ठीक नहीं है। अगर कोई मदरसा गैर-पंजीकृत है तो उनके संचालक से ज्यादा, सरकारी नुमाइंदे जिम्मेदार हैं। बदनीयत से कोई काम करेंगे तो बहुत खतरनाक बात हो जाएगी। आजादी का अमृत महोत्सव मनाने में जुटी भाजपा सरकार आखिर यह क्यों भूल गई है कि साल 1857 के गदर में हिन्दुओं से ज्यादा कुर्बानी मुसलमानों ने दी थी। देश के लिए अपनी जिंदगी कुर्बान करने वाले अधिसंख्य मदरसों से पढ़कर निकले हुए लोग थे।"
डा.लेनिन यह भी कहते हैं, "हमें खुद ही नहीं पता कि सनातन क्या है? हिन्दुओं को यह चिंता क्यों नहीं हो रही है कि हमारे गुरकुल क्यों बंद हो गए? उनके यहां दीन की पढ़ाई हो रही है तो गलत क्या है? इस्लाम को जो लोग सही ढंग से समझते हैं वो न तो कट्टरपंथी होते हैं और न ही उन्हें कोई संगठन अथवा धर्म बरगला सकता है। आजकल मदरसों में राष्ट्रगान भी होता है और योग भी। मदरसों से निकले हुए बच्चों को मातृभूमि से ज्यादा प्यार नजर आता है। हमारा नजरिया इसलिए घटिया है क्योंकि उनके खिलाफ दुष्प्रचार बहुत ज्यादा हुआ है। कोई आदमी धार्मिक है तो इसका मतलब यह नहीं होता कि वो पिछड़ा है। इस्लाम में मदीना कांस्ट्यूशन है। मैं उस पुरोहितवाद के खिलाफ हूं, जिसका विरोध बहुत से ब्राह्मण भी करते हैं। सवाल यह उठाया जाना चाहिए कि हमारे वहां संवैधानिक मूल्य जिंदा हैं अथवा नहीं? धर्मांधता पर नहीं, सामजिक सरोकारों व मूल्यों पर बहस होनी चाहिए। मदरसे बंद कर देंगे तो जो भी पढ़ रहे हैं वो भी नहीं पढ़ पाएंगे। धर्म और मजहब की समझदारी न होने पर किसी को भी बरगलाया जा सकता है। लोग निरक्षर रहेंगे तो वहां कट्टरवाद पनपेगा।"
मदरसों के सर्वे के नाम पर वितंडा क्यों? इस सवाल पर बुनकर दस्तकार अधिकार मंच के मुखिया इदरीश अहमद कहते हैं, "सब वोट की राजनीति है। यह सर्वे नहीं, चुनाव का टीजर है। लोकसभा चुनाव जीतने के लिए इन्हें हिन्दुओं-मुसलमानों को लड़ाए रखना है। अगर मुस्लिम बीजेपी के नजदीक चले जाएंगे तो वो इतनी मनमानी नहीं कर पाएंगे। मुस्लिम समाज के कुठ ठेकेदारों ने हमें डराकर रखा है। सच तो यह है कि किसी की सत्ता में हमें सुख नहीं मिला, चाहे वो सपा-बसपा की सरकार रही हो या फिर कांग्रेस और भाजपा की। हालांकि कांग्रेस के जमाने में बनारस में बुनकरी का कारोबार आसमान छू रहा था। अब तो दंगा कराने वाले लोग सत्ता में बैठे हैं, इसलिए फसाद नहीं हो रहा है। कहीं हमारे पैगंबर साहब को गालियां दी जा रही हैं तो कभी ज्ञानवापी में शिवलिंग का वितंडा खड़ा किया जा रहा है।
इदरीश कहते हैं, "योगी सरकार ने मदरसों के लिए जो नया सिलेबस तैयार किया है उसमें अंग्रेजी, विज्ञान, हिन्दी, गणित ही नहीं, दूसरे गैर-धार्मिक विषय भी हैं। मदरसों में पढ़ाने के लिए पर्याप्त टीचर ही नहीं हैं। गौर करने की बात है कि पूर्व राष्ट्रपति फखरूद्दीन अहमद रहे हों या फिर मिसाइल मैन अब्दुल कलाम या फिर उप-राष्ट्रपति हामिद अंसारी। इन सभी की प्रारंभिक शिक्षा मदरसों से ही हुई है। यहां दीन और दुनियावी दोनों तरह की शिक्षा दी जाती है। मदरसों से भी आईएए-आईपीएस, इंजीनियर-डाक्टर निकल रहे हैं। शरारती तत्व तो हर जगह मिलेंगे, जिनका न कोई मजहब होता है, न ही ईमान। हमारे पैगंबर का फरमान है कि अपने वतन से महब्बत करो। यही शिक्षा हमें मदरसों में भी दी जाती है। चिंता की बात यह है कि कोरोना काल के बाद मदरसों में स्टूडेंट्स की तादाद काफी हदतक कम हो गई है। सिर्फ बनारस ही नहीं, समूचे उत्तर प्रदेश में बड़ी संख्या में मुस्लिमों के बच्चों ने स्कूल जाना ही छोड़ दिया है। कोरोनाकल के बाद घर चलाने के लिए ढेर सारे बच्चों ने पढ़ाई छोड़ दी और अपने पुश्तैनी कारोबार में जुट गए।"
मदरसों में क्यों घटते जा रहे स्टूडेंट्स
भारत में सबसे ज्यादा मुसलमान उत्तर प्रदेश में रहते हैं, लेकिन वहां मदरसे में जाने वाले बच्चों की संख्या तीन साल में घट कर आधी रह गई है। इंडिया टुडे की एक रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2016 में मुंशी-मौलवी पाठ्यक्रम में पंजीकृत छात्रों की संख्या 422,627 थी, जो 2022 में घटकर सिर्फ 92 हज़ार रह गई है। साल 2016 के आंकड़े के एक चौथाई से नीचे। मान्यताप्राप्त मदरसों में आधुनिक विषय भी पढ़ाए जाते हैं। पिछले चार बरस के आंकड़े देखें तो इन मदरसों की परीक्षा में बैठने वाले स्टूडेंट्स की तादाद में भारी गिरावट आई है।
साल 2016 में 4,95,636 छात्रों ने आवेदन किया, जिसमें से 3,17,050 छात्र परीक्षा में बैठे। उसके बाद साल 2017 में आवेदन करने वाले छात्रों की संख्या घट गई और कुल 3,70,752 छात्रों ने फॉर्म भरे और कुल 2,8,9014 छात्र परीक्षा में शामिल हुए। फिर 2018 में छात्रों की संख्या और घट गई और कुल 2,70,755 छात्रों ने आवेदन किया और कुल 2,20,804 छात्र परीक्षा देने आए। 2019 में होने वाली परीक्षा के लिए कुल 1,63,365 छात्रों ने आवेदन किया। इस तरह साल 2016 से 2019 तक आते-आते 3,32,271 छात्र घट गए। इनकी घटती संख्या को देखते हुए मदरसा बोर्ड ने फॉर्म जमा करने की मियाद चार दिन और बढ़ाई, फिर भी स्थिति जस की तस रही। ऐसे में बड़ा सवाल है कि क्या मुसलमान अब बच्चों को मदरसे में नहीं भेजना चाहते?
बजरडीहा स्थित मदरसा उस्मानिया के प्रिंसिपल मोहम्मद मुस्तकीम आलम कहते हैं, "धार्मिक शिक्षा ज़रूरी हैं, लेकिन हमको ज़माने के साथ चलना हैं। बच्चों को आगे जाकर नौकरी भी करनी हैं। हमने घर पर ही धार्मिक शिक्षा का प्रबंध किया हैं और बच्चे स्कूल जाते हैं। सरकार से मान्यता प्राप्त मदरसों में भी दिक्कतों का अंबार है। वहां सरकार की पॉलिसी लागू करने की बात होती हैं, जैसे कभी वंदेमातरम, कभी उर्दू हटाओ। इसके अलावा जो मदरसे हैं वहां बच्चे बहुत तेज़ी से पढ़ रहे हैं और आगे बढ़ रहे हैं। हाल के कुछ सालों में कई मदरसे सुर्खियों में रहे हैं। कभी उन्हें चरमपंथ की पाठशाला कहा गया तो कभी उन्हें मुख्यधारा में लाने की बात हुई। आमतौर पर तो यही कहा जाता है कि मुख्य रूप से धार्मिक शिक्षा देने वाले ये मदरसे बाकी दुनिया से कटे रहते हैं, लेकिन धीरे-धीरे बदलाव की हवा वहां भी बहने लगी है। अब मदरसों में पढ़ने वाले बच्चे भी स्मार्टफोन चलाते हैं। वहां कंप्यूटर आ गए हैं और कई जगह पर अंग्रेजी भी पढ़ाई जा रही है। पिछले तीन सालों में यूपी के मदरसों में स्टूडेंट्स की तादाद आधी से भी कम हो गई है, जिससे यह भी पता चलता है कि राज्य में मदरसों के प्रति मुसलमानों का रुझान घटता जा रहा है।"
मदरसा रिजिविया रशीदुल उलूम के मोहम्मद गुलफाम कहते हैं, "यह बड़ा सच है कि मदरसे की शिक्षा से नौकरी पाना कठिन है। सभी जगहों इनकी डिग्री भी मान्य नहीं हैं। ऐसे में समय के साथ चलना ज़रूरी हो गया हैं। अब हर मुस्लिम परिवार चाहता हैं कि उसके बच्चे आधुनिक शिक्षा लें जो रोजगारपरक हो और वे अपनी जिंदगी में कुछ कमी कर सके। आम मुसलमान धार्मिक शिक्षा के खिलाफ नहीं हैं लेकिन उसकी प्राथमिकता अब मौजूदा वक्त में बदल गई है। उसे समझ आ गया है कि नौकरी आधुनिक शिक्षा से ही मिलेगी।"
लापता हो गए कई मदरसे
उत्तर प्रदेश में आमतौर पर दो तरह के मदरसे चलते हैं। पहले वे जो उत्तर प्रदेश सरकार के मदरसा शिक्षा बोर्ड से मान्यता प्राप्त हैं। इनके छात्रों, अध्यापकों और पाठ्यक्रम पर सरकार की नजर रहती है। इन मदरसों में एनसीआरटी का पाठ्यक्रम चलता है। दूसरे मदरसे वे हैं जो सरकार से कोई मतलब नहीं रखते। वे अपने स्तर से धार्मिक शिक्षा देते हैं। उनके पास कोई मान्यता नहीं है और वे अपने धार्मिक हिसाब से चलते हैं। आजकल इन्हीं मदरसों की जांच और सर्वे चल रहा है। यूपी में पहले 19,125 मदरसे थे। जांच हुई तो 3,250 मदरसे हटा दिए गए। मौजूदा समय में यूपी में 16,513 मान्यताप्राप्त मदरसों में से 560 अनुदानप्राप्त मदरसे हैं, जिनमें मदरसा बोर्ड शिक्षकों के वेतन देता है। बाक़ी बचे ख़र्चे मान्यता प्राप्त मदरसे ख़ुद उठाते हैं। मान्यता प्राप्त मदरसों में भी आधुनिक टीचर्स के नाम पर उन्हें तीन टीचर्स मिलते हैं जो उन्हें पढ़ाते हैं। मदरसा बोर्ड के अनुसार एनसीईआरटी की किताबें, ड्रेस का ख़र्च भी सरकार उठाती है और हर ज़िले के बेसिक शिक्षा अधिकारी किताबों को मुहैया कराते हैं।"
मदरसा स्टूडेंट्स की घटती तादात पर रुख स्पष्ट करते हुए बनारस के वरिष्ठ पत्रकार एके लारी कहते हैं, "गैर-पंजीकृत और जगात आधारित मदरसों की तादाद कोरोनाकाल में इसलिए घट गई, क्योंकि जकात देने वाले भी कम हो गए। जो चमड़े मदरसों में दिए जाते थे, लेकिन अब उनकी खरीद नहीं के बराबर रह गई है। इससे जकात का पैसा कम हो गया। टीचर भी मदरसे छोड़ने लगे। पहले कोई इम्तहान दे रहा है, उसकी जगह बैठकर कोई और जा रहे हैं। इस पर रोक लगाई गई। आज सीसीटीवी की निगरानी में परीक्षाएं हो रही है। इन वजहों से कई छात्रों ने फ़ॉर्म भरकर परीक्षा ही नहीं दी। इन कारणों से मदरसों में बच्चों की संख्या कम हुई है। जो लोग ज़कात की रक़म निकालते हैं उनकी मदद से मदरसे चलते हैं, वे इतने मज़बूत नहीं होते हैं कि अच्छे टीचर रखकर कर के पढ़ाई को आगे बढ़ा सके और बच्चों को अच्छी सुविधाएं दे सकें। दूसरी बात यह कि एडेड मदरसे पहले स्कॉलरशिप के चक्कर में लोग बच्चों की संख्या बढ़ा के दिखाते थे। पोर्टल बना तो मदरसे भी घट गए और स्टूडेंट्स भी। सच यह है कि मदरसे थे ही नहीं जो बंद होते। मदरसों से वही बच्चे घटे जो सिर्फ काग़ज़ों पर केवल थे, हक़ीक़त में थे ही नहीं।"
मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, बनारस के जिला अल्पसंख्यक कल्याण अधिकारी संजय मिश्रा कहते हैं, "मदरसे की रिपोर्ट प्रदेश सरकार को सौंपी जाएगी। उम्मीद है कि जिले में सौ से ज्यादा मदरसे बिना पंजीकरण के संचालित हो रहे हैं। इन्हें चिह्नित किया जा रहा है। ये मदरसे राइट एजुकेशन की परिधि में नहीं आते। ऐसे में इसलिए इन पर कोई कार्रवाई नहीं की जा सकती। मदरसा बोर्ड से मान्यता लेने के लिए दो सौ रुपये का फार्म भरना होता है। साछ ही आठ हजार रुपये की एनएसई लगानी होती है, जिसे खर्च नहीं किया जा सकता है। मदरसों के आधुनिकीकरण के लिए योगी सरकार नई नियमावली बनाने में जुटी है। जिस तरह से राज्य में टीईटी और सुपर टीईटी के इम्तिहान होते हैं, उसी तर्ज पर मदरसा टीचर्स एलिजिबिलिटी टेस्ट (एम-टीईटी) के ज़रिए भर्ती की योजना बनाई गई है।"
टीचर्स के लिए एलिजिबिलिटी टेस्ट
हाल ही में बनारस आए मदरसा बोर्ड के चेयरमैन डॉ इफ़्तिख़ार अहमद जावेद मीडिया से कहते हैं, "अभी तक मदरसों में टीचर्स के चयन का अधिकार मैनेजमेंट को है। कोशिश की जा रही है कि भविष्य में मदरसा बोर्ड एम-टीईटी की परीक्षा कराए, ताकि क्वालिफ़ाइड लोग ही शिक्षक बनें। अब भाई-भतीजावाद नहीं चल पाएगा। टीचर बनने के लिए एलिजिबिलिटी टेस्ट देना होगा। पहले मदरसा शिक्षकों को 15 हजार मानदेय मिलता था, जिसमें 12 हज़ार केंद्रांश होता था और तीन हज़ार राज्यांश। केंद्र सरकार की तरफ़ से अब भी पैसे आते हैं। कभी-कभी मानदेय की दिक़्क़त आती हैं।" मदरसे संविधान के अनुच्छेद-30 के अनुसार हैं तो यूपी सरकार ने सर्वेक्षण का आदेश क्यों दिया है? इस सवाल पर डॉ इफ़्तिख़ार कहते हैं, "मदरसों के संचालन में कोई बाधा नहीं आएगी। सर्वे इसलिए हो रहा है ताकि हमें पता भी पता चलना चाहिए कि हमारे कितने मदरसे सिर्फ दीनी तालीम दे रहे हैं। जो मान्यता चाहते हैं उन्हें मेनस्ट्रीम में लाएंगे।"
"सरकार की कोई ऐसी योजना नहीं है कि मदरसा बोर्ड की मान्यता लेने वाले ही चलेंगे। जो सिर्फ़ दीनी तालीम देना चाहता है वो आर्टिकल 30 के हिसाब से अपना मदरसा चला सकेगा। हर किसी को धार्मिक शिक्षा देने का अधिकार मिला हुआ है। यूपी देश का सबसे बड़ा राज्य है। मैंने मदरसों के बच्चों के हाथ में एनसीईआरटी की किताबें देखी हैं। कुछ जगहों पर कमियों को दूर किया जा रहा है। हमारी कोशिश मदरसों को अच्छा बनाने की है, बंद कराने की नहीं। सिर्फ दीनी तालीम पढ़कर मुस्लिमों के बच्चे नौकरी और कोई बड़ा काम काम नहीं कर सकते हैं। ऐसे बच्चे सिर्फ मस्जिदों और मदरसों तक सीमित रह जाते हैं।"
अल्पसंख्यक कल्याण राज्यमंत्री दानिश आजाद अंसारी भी कहते हैं कि सर्वे के फैसले का असर पहले से चल रहे मदरसों पर नहीं पड़ेगा। वह कहते हैं, "हमारा मकसद अच्छी और गुणवत्ता वाली शिक्षा देना है। सरकार ने मदरसों के महिला शिक्षकों के लिए भी मैटरनिटी लीव लागू की है। सरकारी अनुदान वाले मदरसों में कुल 1,000 से 1,200 महिला टीचर और कर्मचारी हैं। इसके अलावा पति-पत्नी शिक्षकों के लिए म्यूच्यूअल ट्रांसफ़र स्कीम को भी लागू करने का आदेश दिया है। नौकरी के दौरान मृत्यु होने पर अनुकंपा के आधार पर मृतक आश्रित कोटे के तहत नौकरी की नियमावली भी तैयार की जा रही है।"
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