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गुजरात : बिलक़ीस बानो के अपराधियों की रिहाई का मुस्लिम महिलाओं पर क्या असर पड़ेगा?

गुजरात में मुस्लिम महिलाओं ने, न्याय के लिए बिलक़ीस बानो के 15 साल के संघर्ष और जीत की भावना को साझा किया था। लेखकों ने जब फिर से राज्य का दौरा किया तो पाया कि वे अब बिलक़ीस के दुख और निराशा को भी अपना दुख समझती हैं।
गुजरात : बिलक़ीस बानो के अपराधियों की रिहाई का मुस्लिम महिलाओं पर क्या असर पड़ेगा?

न्याय की तलाश में बिलक़ीस बानो की साहसिक यात्रा, मुस्लिम महिलाओं के आंदोलन और भारतीय नारीवादी आंदोलन के लिए मील का पत्थर साबित हुई थी। मई 2017 में, बॉम्बे हाईकोर्ट ने उसके सामूहिक बलात्कार और उसके परिवार के सदस्यों की हत्या के आरोप में 11 लोगों की सजा को बरकरार रखते हुए उसके 15 साल के संघर्ष को सही ठहराया था। अदालत ने सबूतों को दबाने और छेड़छाड़ करने के आरोप में पांच पुलिस अधिकारियों और दो डॉक्टरों की रिहाई को भी रद्द कर दिया था। कोर्ट के फैसले ने, न केवल 2002 के गुजरात दंगों के दौरान मुस्लिम महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा के सांप्रदायिक रूपों को पहचाना, बल्कि ऐसे अपराधों को कवर करने में राज्य की मिलीभगत को दोषी पाया था। 

बिलक़ीस का मामला न्यायिक प्रणाली में जीत सुनिश्चित करने का कोई जरूरी मानक फार्मूले के अनुरूप नहीं है। वह गुजरात के एक छोटे से गांव में एक मजदूर वर्ग के मुस्लिम परिवार से संबद्ध रखती हैं। उसने भारतीय इतिहास के सबसे खराब सांप्रदायिक दंगों में से एक को देखा और गर्भवती होते हुए उसने खुद के परिवार और तीन साल के बच्चे की हत्या देखी। बलात्कार के बाद उसे खुद को संभालने और अपने जीवन को फिर से पटरी पर लाने के कडा संघर्ष करना पड़ा, जिसे पुरुषों की भीड़ ने मृत अवस्था में छोड़ दिया था। उसे अपना केस दर्ज़ करने और आरोपी पुरुषों का विवरण का बताने के लिए पुलिस को समझाने में 15 दिन लगे,  जबकि उस केस को एक मजिस्ट्रेट की अदालत ने खारिज कर दिया था।

बिलक़ीस की लड़ाई में शामिल कानूनी और सामाजिक न्याय की लड़ाई को गुजरात में मुस्लिम महिलाओं ने कई तरीकों से उठाया। नतीजों को सुनिश्चित करने के लिए कई संघर्ष हुए और 11 लोगों को गिरफ्तार किया गया और उन्हें दोषी पाया गया। गोधरा की महिलाओं, जहां से बिलक़ीस की लड़ाई शुरू हुई थी, ने सुनिश्चित किया कि उन्हें और उनके पति याकूब रसूल को एक सुरक्षित और सहायक वातावरण मिले। इसलिए, उनकी कानूनी जीत के व्यापक सामाजिक निहितार्थ थे, क्योंकि गुजरात में महिलाओं को उनके केस से ताकत और प्रेरणा मिली थी। यह भारतीय नारीवादी आंदोलन की यौन हिंसा और पुलिस की बर्बरता के खिलाफ लंबी लड़ाई की कहानी है, जो एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर स हुई थी। 

इसलिए, बिलक़ीस की जीत के बाद की जीत, गुजरात सरकार द्वारा 11 दोषियों की रिहाई अब उन महिलाओं के लिए निराशा और आहत का सबब बन गई है। जबकि इस रिहाई को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई है, इसने विकास के "गुजरात मॉडल" में मुस्लिम महिलाओं के निरंतर बहिष्कार को फिर से सामने ला दिया है। इसने उन घावों को हरा कर दिया है जिन्हें मुस्लिम महिलाएं धीरे-धीरे बंद करने की कोशिश कर रही थी। और इसने 2002 के सदमे को भुलाने के उनके प्रयास को करारा झटका दिया है। मुस्लिम महिलाओं के पतन और दमन पर आधारित सांप्रदायिकता की राजनीति ने उनकी आवाज को जनता की कल्पना से हटा दिया है और उन्हें अदृश्य बना दिया है। इसमें 2002 के दंगों के पीड़ितों के लिए किए गए न्याय और उपाय की दिशा में कुछ कदमों को उलटने के प्रयासों पर उनकी प्रतिक्रियाएं शामिल हैं।

न्याय पाने के इतिहास और बदले परिप्रेक्ष्य में, हमने हाल ही में गुजरात की कई मुस्लिम महिलाओं से बात की ताकि वे बता सकें कि, बिलक़ीस केस के साथ उनके संबंधों और समानता और न्याय के उनके संघर्षों के बाद भी इस रिहाई के उनके लिए क्या मायने हैं। ये महिलाएं गोधरा, हलोल, कलोल और वडोदरा से थीं, जो या तो गुजरात दंगों की शिकार हुई थीं या हिंसा के बाद राहत और पुनर्वास में मदद की थीं।

बिलक़ीस, गोधरा में गुजरात नरसंहार के पीड़ितों के लिए बनाए गए राहत शिविर में रुकी थीं।  लामिया और उनके पति जावेद ने उन गर्भवती महिलाओं को अपने घर में जगह दी, जिन्हें 2002 में क्रूर हिंसा का सामना करना पड़ा था। बिलक़ीस उनमें से एक थीं। खराब स्वास्थ्य, दंगों से पैदा हुए भय के माहौल और पूरे भारत में बढ़ती सांप्रदायिकता से जूझ रही लामिया को गोधरा में लड़कियों को सिलाई और ट्यूशन कक्षाएं प्रदान करने के अपने प्रयासों को बंद करना पड़ा था। ट्यूशन बंद होने से शहर में मुस्लिम महिलाओं के लिए थोड़े बहुत जो साधन थे वे समाप्त हो गए थे। सामाजिक अधिकारों और महिला संगठनों की अनुपस्थिति ने हालत को और खराब बना दिया था, क्योंकि मुस्लिम महिलाओं के संगठित होने और इकट्ठा होने की अब कोई जगह नहीं थी। लामिया के अनुसार, "2002 का डर अभी लोगों के भीतर से निकला नहीं है - गोधरा के लोग आज भी 2002 की घटनाओं से उबर नहीं पाए हैं।"

गोधरा का सामाजिक भूगोल, जिसमें गोधरा जेल और एशिया का सबसे बड़ा कब्रिस्तान शामिल है, में जैसे सन्नाटा छाया हुआ है, 2002 के दंगों ने इस क्षेत्र को कैसे बदल दिया, यह इसका एक उचित रूपक है। 27 फरवरी 2002 को अयोध्या से तीर्थयात्रियों को ले जा रही एक ट्रेन में आग लगने का संदर्भ, यानि "डब्बे का मामला" गोधरा में मुसलमानों के लिए एक बड़ा आघात था। लोगों ने यहां अपने घरों में पुलिस की बर्बरता के विभिन्न रूपों को देखा। स्थानीय मस्जिदें अभी भी उन परिवारों को जीविका मुहैया कराने करने के लिए समुदाय से धन इकट्ठा करती हैं जिनके सदस्यों को 2002 की आगजनी के मामले में गलत मुकदमें लगाकर कैद में डाल दिया था। स्थानीय लोगों ने हमें बताया कि कैसे, 2014 से, पुलिस उन्हें लगातार परेशान कर रही है, गाय के मांस की अफवाह को पुलिस अक्सर फ्रिज की जांच करने कभी  भी घरों में घुस जाती है और लोगों को बेतरतीब ढंग से गिरफ्तार कर लेती है।

गोधरा की एक स्थानीय पार्षद अमीना शेख, जो 2002 में बिलक़ीस को एक दोस्त के रूप में जानती थी और उनसे मिलने गई थी, फिर 2011 में गोहत्या के एक मुक़दमा लगाकर पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर लिया था, वे उन नौ महिलाओं में से एक थी जिनके खिलाफ पुलिस ने क्रूरता बरती थी। रफीक हुसैन की गिरफ्तारी के विरोध का सामना कर रही गुजरात पुलिस, गोहत्या के आरोप में कई घरों में जबरन घुस गई और कई महिलाओं का यौन शोषण किया और उन पर शारीरक हमले किए। गलत कारावास ने अमीना को बदल दिया, और उसने महसूस किया कि हिंसा का सामना करने के उनका अनुभव, गोधरा में बदलाव को उत्प्रेरित करेगा। जब उन्होंने पार्षद का चुनाव लड़ने का फैसला किया तो उन्हें काफी विरोध का सामना करना पड़ा। "मेरे बारे में बोला गया कि इसे चुनाव मत लड़ने दो, ये गंदा काम है- लोगों ने कहा कि मुझे चुनाव में नहीं खड़ा होना चाहिए, यह अनैतिक काम है।" लेकिन अमीना कायम रही और अंततः वोटों के काफी अंतर से जीत गई।

अब, अमीना समुदाय के मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करती है। हाशिए पर पड़े लोगों को नागरिकता से वंचित करने के लिए बनाए गए सीएए, एनआरसी और एनपीआर को लागू करने की दहशत के दौरान, अमीना और उनके पति ने लोगों को सरकार द्वारा जारी दस्तावेजों को हासिल करने में मदद की। उन्होंने गोधरा में मुस्लिम युवाओं को शिक्षा हासिल करने में आने वाली कठिनाइयों और स्थिति को सुधारने के अपने संकल्प के बारे में बताया। उन्होंने कहा कि लड़कियों को अपनी स्कूली शिक्षा पूरी करने से हतोत्साहित किया जाता है, जबकि कई लड़के आठवीं कक्षा के बाद सरकारी से निजी स्कूलों में दाखिला नहीं ले पाते हैं। इसके अलावा, माता-पिता बच्चों को गोधरा के एक विविध सामुदायिक कॉलेज में भेजने से हिचकिचाते हैं, जिससे समुदायों के बीच सामाजिक और आर्थिक विभाजन गहराता नज़र आता है।

गुजरात दंगों के बाद कड़ी मेहनत करने वाले कार्यकर्ताओं पर राज्य दमन का गोधरा के समुदाय पर गहरा प्रभाव पड़ा है। तीस्ता सीतलवाड़ की गिरफ्तारी से लामिया और अमीना परेशान थे, जिन्होंने 2011 में नौ महिलाओं की गिरफ्तारी के खिलाफ एक रैली का आयोजन किया था। अमीना के पति ने कहा, "हम तो तीस्ता सीतलवाड़ की गिरफ्तारी की खबर सुनकर खूब रोए थे।"

कलोल की एक पुनर्वास कॉलोनी में रहने वाली सुमैरा अजीज भी एक पार्षद हैं और अपने क्षेत्र की मुस्लिम महिलाओं के साथ मिलकर काम करती हैं। गुजरात दंगों में अपने परिवार के 22 सदस्यों को खो देने और राहत शिविर में काम करने के दौरान यौन उत्पीड़न के शिकार होने के बावजूद, सुमैरा मुस्लिम महिलाओं को शिक्षित और आर्थिक रूप से स्वतंत्र होने की जरूरत पर जोर देती हैं। “मेरा तो यही कहना है की कल मेरे जैसे रह गए, तो क्या करोगे? कितना शोषण सहोगे?—मैं अपने क्षेत्र की लड़कियों से पूछती हूं कि अगर वे मेरी स्थिति में आ गईं तो वे क्या करेंगी—उन्हें कितना अन्याय सहना होगा?” पड़ोस में उसका प्रभाव काफी है, जहां लोग अपनी समस्याएं लेकर उनके पास आते हैं, और वह मुस्लिम लड़कियों को स्थानीय स्कूल में अपनी शिक्षा जारी रखने के लिए लगातार काम करती हैं, गुजरात 2002 हिंसा में बचे लोगों के लिए काम करना ही उनकी शिक्षा है।

हलोल में हमने जिस पुनर्वास कॉलोनी का दौरा किया, उसमें त्याग दी गई और बेजान जगह की हवा थी। मुस्लिम महिलाओं ने अपनी वित्तीय स्थिति के बारे में शिकायत की, अपने घर चलाने और जीवित रहने के लिए दैनिक संघर्ष के बारे में चिंता व्यक्त की और अपने जीवन की अनिश्चितता को विस्तार से समझाया। उनकी कहानियां, नरसंहार के बाद सरकारी सहायता न मिलना, और इस्लामी धर्मार्थ संगठनों और गैर सरकारी संगठनों द्वारा निर्मित पुनर्वास कॉलोनियों के पैटर्न की पुष्टि करती हैं। वे आम तौर पर आर्थिक और शैक्षिक अवसरों वाले शहरों या स्थानों से बहुत दूर स्थित होते हैं। ये कालानियाँ विकास के गुजरात मॉडल की परिधि में खड़े हैं और इस बात के ठोस उदाहरण हैं कि किस तरह 'विकास' के मॉडल ने मुस्लिम महिलाओं को पीछे छोड़ दिया है।

जब भी हमारी बातचीत बिलक़ीस से हुई, हमने पाया कि कुछ महिलाएं उसके मामले से परिचित थीं; अन्य नहीं थीं। कई लोग 2002 की अपनी यादों को फिर से याद करने में झिझक रहे थे। “आज ये बिलक़ीस के साथ हुआ है, कल कोई और होगा-आज यह [दोषियों की रिहाई] बिलकिस के साथ हुआ है, कल, यह कोई और महिला हो सकती है” इस भावना को सना नामक एक स्थानीय कार्यकर्ता दर्ज़ किया। अन्य महिलाओं ने हलोल की कॉलोनी में आने के लिए अपने पीछे छोड़े गए गांवों के बारे में बताया और बताया कि क्यों और कैसे वे अपने गांवों में कभी नहीं लौट पाई। हमने जो सुना, वह था कि वे '2002’ को फिर से याद नहीं करना चाहते हैं।

बड़ौदा में महिलाओं से जब बात की तो उन्होने बताया कि राज्य द्वारा बिना किसी डर के, महिलाओं के खिलाफ लगातार यौन हिंसा और मुसलमानों के उत्पीड़न करता हिय जिसके खिलाफ उनमें आक्रोश है। 2002 में अपने घर को जलते हुए देखने वाली शकीला ने दोषियों की रिहाई पर रोष जताया है। “जो ऐसा अपराध करता है उसे सज़ा तो मिलनी चाहिए। हमने भी अपना घर जलते हुए देखा था। हम इतना घुट-घुट के रहते हैं कि अब कुछ भी बरदाश्त नहीं होता—इस तरह के अपराध करने वालों को सजा मिलनी चाहिए। हमने देखा कि हमारा घर जल गया है और तब से हम डर और घुटन में जी रहे हैं। अब हम ऐसी घटनाओं को बर्दाश्त नहीं कर सकते।"

बिलक़ीस ने, जिस यौन हिंसा के खिलाफ जो लड़ाई शुरू की थी- उसे गुजरात सरकार ने हरा दिया और कमजोर कर दिया है- यह रोष उन मुस्लिम महिलाओं के बीच गहराई से नज़र आया, जो उसके संघर्ष में भागीदार थीं। गुजरात मॉडल और नारी सम्मान के संदेश- महिलाओं के प्रति सम्मान के जुमले ने मुस्लिम महिलाओं को अपने दायरे से बाहर कर दिया है। दरअसल, इस कहानी को उनकी ही कीमत पर बढ़ाया जा रहा है। समाज का ध्रुवीकरण करने की राज्य की कोशिश का यही कारण है कि मुस्लिम महिलाओं की आवाज को दबाया जा रहा है। गोधरा हिंसा के बाद, गुजरात में मुस्लिम महिलाओं ने सांप्रदायिक हिंसा और अपने समुदाय के सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन के खिलाफ सामूहिक रूप से अपने हितों के बारे में सोचना और काम करना शुरू किया था। साम्प्रदायिक एजेंडे और सरकार के कदमों ने इस नवोदित आंदोलन को पूरी तरह से जड़ जमाने और बढ़ने से रोक दिया है।

मुस्लिम महिलाओं और उनके संघर्षों के खिलाफ प्रतिक्रिया या उनका दमन के पीछे एक इस्लामोफोबिक विचारधारा काम कर रही है, जिसने सुल्ली-बुली ऐप (जहां मुस्लिम महिलाओं की नीलामी और उन्हे वस्तु के रुप में परोसा जाता था) की लोकप्रियता को सक्षम बना दिया था और इसी समझ ने 11 दोषियों की रिहाई को उत्सव का रूप दिया। गुजरात में महिलाएं बिलक़ीस और उनकी लड़ाई को अलग-अलग तरीकों से याद करती हैं। कुछ ने अपनी अधिक तात्कालिक चिंताओं पर ध्यान केंद्रित करना चुना, जबकि अन्य दर्द को भूलकर आगे बढ़ गई हैं और इस पर फिर से विचार नहीं करना चाहती हैं। हालाँकि, उनकी विविध आवाज़ों का अदृश्य हो जाना, समुदाय के भीतर पैदा किए गए डर के कारण हुआ है। जब उनकी आवाज़ और दृष्टिकोण को मुख्यधारा तक पहुँचने से रोक दिया जाता है, तो यह मुस्लिम महिलाओं को उनके संवैधानिक और सामाजिक अधिकारों से वंचित कर देता है और उन्हें न्याय के लिए संघर्ष को आगे बढ़ाने से रोकता है।

उमरा ज़ैनब एक शोधकर्ता और कार्यकर्ता हैं, और हसीना ख़ान बेबाक कलेक्टिव के साथ काम करती हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

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