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जी-20 निष्प्रभावी हो गया है, जी-20 अमर रहे!

बाली में दिखी असंगति ने यह उजागर कर दिया कि अमेरिका अभी भी अपने दावे पर क़ायम है और तहस-नहस करने को तैयार है।

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अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन (दाएं) और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग 14 नवंबर, 2022 को बाली में मिलते हुए। बाइडेन ने कहा कि प्रतिस्पर्धा को रोकने और एक साथ काम करने के तरीक़े तलाशने की अपनी ज़िम्मेदारी पर उन्होंने चर्चा की।

मेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन (दाएं) और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग 14 नवंबर, 2022 को बाली में मिलते हुए। बाइडेन ने कहा कि प्रतिस्पर्धा को रोकने और एक साथ काम करने के तरीक़े तलाशने की अपनी ज़िम्मेदारी पर उन्होंने चर्चा की।

15-16 नवंबर को इंडोनेशिया के बाली में राष्ट्राध्यक्षों और सरकारों का आयोजित सत्रहवां जी-20 शिखर सम्मेलन कई मायने में अहम है। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति बदलाव की स्थिति में है और ये परिवर्तन अतीत से विरासत में मिली किसी भी संस्था को अप्रभावित नहीं छोड़ेगा जिसका संपर्क ख़त्म हो रहा है।

हालांकि, जी-20 वर्तमान और भविष्य के साथ-साथ अतीत को पाटने में एक अपवाद हो सकता है। बाली से मिल रही जानकारी आशा और निराशा की मिली जुली भावनाओं को दर्शाते हैं। 2007 में वित्तीय संकट के मद्देनज़र जी-20 पर विचार किया गया था। विशेष रूप से उभरती हुई शक्तियों ख़ासकर चीन जो जी-7 से बाहर था उसे जी-20 में शामिल करने का पश्चिमी प्रयास किया गया और इस तरह वैश्विक संवादों में समकालीनता को बढ़ावा दिया गया।

सद्भाव का शोर शराबा था। बाली शिखर सम्मेलन उस अपेक्षा पर कितना खरा उतरा यह आज का विवादास्पद मुद्दा है। अफसोस की बात है कि जी-7 ने चुनिंदा बाहरी मुद्दों को विचार-विमर्श में शामिल कर लिया और उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) ने एशिया-प्रशांत क्षेत्र में अपनी पहली उपस्थिति दर्ज की। तार्किक रूप से, नाटो को बाली शिखर सम्मेलन के दौरान होने वाली एक महत्वपूर्ण घटना के रूप में गिना जाना चाहिए।

जो हुआ वह जी-20 की भावना का प्रतिवाद है। यदि जी-7 अपनी गुप मानसिकता को छोड़ने से इंकार करता है, तो जी-20 का सामंजस्य प्रभावित होगा। जी-7 और नाटो का संयुक्त बयान ब्रुसेल्स या वाशिंगटन या लंदन से जारी किया जा सकता था। बाली से क्यों?

चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने 17 नवंबर को बैंकॉक में एपेक सीईओ शिखर सम्मेलन में एक लिखित भाषण में कहा था कि "एशिया-प्रशांत किसी की जागीर नहीं है और बड़ी शक्ति की प्रतियोगिता के लिए अखाड़ा नहीं बनना चाहिए। एक नया शीत युद्ध छेड़ने के किसी भी प्रयास को कभी भी लोगों द्वारा या समय के साथ इजाज़त नहीं दी जाएगी।”

शी जिनपिंग ने चेतावनी दी कि "भू-राजनीतिक तनाव और उभरती आर्थिक गतिशीलता दोनों ने एशिया-प्रशांत के पर्यावरण विकास और सहयोग संरचना पर नकारात्मक प्रभाव डाला है।" शी ने कहा कि एशिया-प्रशांत क्षेत्र कभी बड़ी शक्ति प्रतिद्वंद्विता का मैदान था साथ ही संघर्ष और युद्ध झेल चुका था। उन्होंने कहा, "इतिहास हमें बताता है कि गुटों का टकराव किसी भी समस्या का समाधान नहीं कर सकता है और ये पूर्वाग्रह तबाही की तरफ़ ले जाएगा।"

सुरक्षा के मुद्दे जी-20 के दायरे में नहीं आने का सुनहरा मौक़ा समाप्त हो गया है। इस जी-20 शिखर सम्मेलन में पश्चिमी देश बाली शिखर सम्मेलन में भाग लेने वाले बाकी प्रतिभागियों पर हावी हुए: 'हमारा रास्ता या कोई रास्ता नहीं'। जब तक यूक्रेन के मुद्दे पर अड़ियल पश्चिम को खुश नहीं किया गया, तब तक कोई बाली घोषणा नहीं हो सकती थी, इसलिए रूस ने नरमी बरती। इस घिनौने नाटक ने दिखाया कि पश्चिमी दुनिया का डीएनए नहीं बदला है। परेशान करना इसकी ख़ासियत अभी भी बनी हुई है।

लेकिन, विडंबना यह है कि आख़िरी दिन जो बात सामने आई वह यह थी कि बाली घोषणा यूक्रेन मुद्दे पर रूस की निंदा करने में विफल रही। सऊदी अरब और तुर्की जैसे देश कुछ उम्मीद जगाते हैं कि जी-20 खुद को पुनर्जीवित कर सकता है। ये देश कभी पश्चिमी उपनिवेश नहीं थे। वे बहुध्रुवीयता के प्रति समर्पित हैं, जो अंततः पश्चिम को यह मानने के लिए मजबूर करेगा कि एकपक्षवाद और आधिपत्य अस्थिर है।

इस परिवर्तन बिंदु ने बाली में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच बैठक को बहुत महत्व दिया। वाशिंगटन ने जी-20 शिखर सम्मेलन के दौरान इस तरह की बैठक के लिए अनुरोध किया और बीजिंग ने सहमति दे दी। बैठक के बारे में एक ख़ास बात यह रही है कि बेहद सफल पार्टी कांग्रेस के बाद शी जिनपिंग विश्व मंच पर दिखाई दे रहे हैं।

उनकी आवाज़ की गूंज स्पष्ट थी। शी ने इस बात को रेखांकित किया कि अमेरिका ज़मीन खो चुका है। उन्होंने बाइडेन से कहा, “एक राजनेता को इस बारे में सोचना चाहिए और पता होना चाहिए कि उसको अपने देश का नेतृत्व कहां करना है। उन्हें इस बारे में भी सोचना चाहिए और जानना चाहिए कि दूसरे देशों और व्यापक दुनिया के साथ कैसे घुलना-मिलना है।

व्हाइट हाउस के बयान ने संकेत दिया कि बाइडेन सुलह करने को इच्छुक थे। अमेरिका को चीन को अलग-थलग करने की कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। जैसे-जैसे चीज़ों सामने आ रही हैं, कुल मिलाकर हालात चीन के फ़ायदे के लिए काम कर रहे हैं।

अधिकांश देशों ने यूक्रेन का पक्ष लेने से इनकार कर दिया है। चीन का रुख इसे काफ़ी हद तक दर्शाता है। शी ने बाइडेन से कहा कि चीन यूक्रेन की मौजूदा स्थिति के बारे में 'काफ़ी चिंतित' है और शांति वार्ता को फिर से शुरू करने के लिए तत्पर है और समर्थन करता है। शी ने यह उम्मीद भी जताई कि अमेरिका, नाटो और यूरोपीय संघ रूस के साथ 'व्यापक संवाद' करेंगे।

बाली में दिखाई देने वाली ग़लतियां अगले साल भारत में जी-20 के 18वें शिखर सम्मेलन तक नए रूप ले सकती हैं। सतर्कतापूर्वक आशावादी होने का कारण है। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि यह असंभव है कि यूरोप चीन के ख़िलाफ़ प्रतिबंधों को हथियार बनाने की अमेरिकी रणनीति के साथ चलेगा। वे चीन से अलग होने का जोखिम नहीं उठा सकते, जो दुनिया का सबसे बड़ा व्यापारिक देश है और विश्व अर्थव्यवस्था के लिए विकास का प्रमुख देश है।

दूसरा, यूक्रेन में लड़ाई के हंगामे ने यूरोप को अमेरिका के पीछे लाकर खड़ा कर दिया है। इस पर गहनता से विचार किया जा रहा है। रणनीतिक स्वायत्तता के प्रति यूरोप की प्रतिबद्धता को लेकर बहुत पीड़ादायक स्थिति है। जर्मनी के चांसलर ओलाफ शोल्ज की हालिया यात्रा ने इसी दिशा में इशारा किया। यह ज़रूरी है कि यूरोप अमेरिका की शीत युद्ध की आकांक्षाओं से खुद को दूर कर लेगा। यह ऐसी दुनिया में आवश्यक है जहां अमेरिका अपने यूरोपीय सहयोगियों पर समय, धन या मेहनत बेकार ख़र्च करने को इच्छुक नहीं है।

मसला यह है कि कई मायनों में प्रभावी वैश्विक आर्थिक नेतृत्व प्रदान करने की अमेरिका की क्षमता बिना परिवर्तन के कम हो गई है, जिसने बड़े अंतर से दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में अपनी पूर्व-प्रतिष्ठित स्थिति खो दी है। इसके अलावा, अमेरिका अब नेतृत्व का बोझ उठाने के लिए भारी निवेश करने का इच्छुक या सक्षम नहीं है। सीधे शब्दों में कहें तो उसके पास अभी भी चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव की बराबरी करने के लिए कुछ भी नहीं है। इसका एक बड़ा प्रभाव होना चाहिए था और सहकारी नीति कार्रवाइयों के प्रति मानसिकता में बदलाव को प्रेरित करना चाहिए था, लेकिन अमेरिकी अभिजात वर्ग पुराने खांचे में फंस गया है।

इसलिए, मौलिक रूप से विश्व की वर्तमान स्थिति में बहुपक्षवाद बहुत कठिन हो गया है। बहरहाल, जी-20 इस परिदृश्य में जी-7 और महत्वाकांक्षी विकासशील देशों को एक साथ लाने वाला एकमात्र खेल है जो एक लोकतांत्रिक विश्व व्यवस्था से बाहर निकलने के लिए खड़ा है। पश्चिमी गठबंधन प्रणाली की जड़ अतीत से जुड़ी है। गुट मानसिकता विकासशील देशों से बहुत कम गुहार लगाती है। ब्रिक्स की ओर तुर्की, सऊदी अरब और इंडोनेशिया का आकर्षण एक शक्तिशाली संदेश देता है कि जी-7 के चारों ओर अधीनस्थ देशों का घेरा बनाने के लिए जी-20 की अवधारणा में पश्चिमी रणनीति अपनी उपयोगिता खो चुकी है।

बाली में दिखी असंगति ने यह उजागर कर दिया है कि अमेरिका अभी भी अपने दावे पर क़ायम है और तहस नहस करने को तैयार है। भारत के पास जी-20 को एक नई दिशा में ले जाने का एक शानदार अवसर है। लेकिन इसके लिए भारत की ओर से भी बड़े बदलाव की आवश्यकता है। भारत अपनी यूएस-केंद्रित विदेश नीतियों से दूर रहे, चीन के साथ एक सहकारी संबंध बनाने के लिए दूरदर्शिता और एक साहसिक दृष्टि के साथ मिलकर काम करे, अतीत के भय को दूर करे और स्वार्थी बयानों को त्यागे और वास्तव में कम से कम भिखारी-तेरा-पड़ोसी नीतियों से बचे।

मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करेंः

G20 is dead. Long live G20!

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