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पंजाब में दलित राजनीति और वोट बैंक की सियासत

पंजाब में दलितों की आबादी करीब 33 फीसदी है, जो अन्य राज्यों से सबसे ज्यादा है। लेकिन यहां भी दलितों के साथ सामाजिक गैरबराबरी अहम मुद्दा है।
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प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार: HINDUSTAN TIMES

इन दिनों पंजाब में जालंधर लोकसभा (रिज़र्व सीटके उप-चुनाव के लिए सभी राजनीतिक पार्टियां मैदान में आ चुकी हैं। यहां 10 मई को वोट पड़ेंगे जबकि मतगणना 13 मई को होगी। जालंधर पंजाब के दोआबा इलाके में पड़ता है जहाँ दलित आबादी काफ़ी प्रभावशाली संख्या में है। राजनीतिक विशेषज्ञ इस लोकसभा उप-चुनाव क्षेत्र में दलित वोटों के गुणा-घटाव करने में जुट गए हैं। यह लेख जालंधर लोकसभा क्षेत्र की जगह पूरे पंजाब की दलित राजनीति और वोट बैंक की सियासत पर है।

पंजाब में दलितों की आबादी करीब 33 फीसदी हैजो अन्य राज्यों से सबसे ज्यादा है। ग्रामीण क्षेत्र में यह आबादी 37 फीसदी तक हो जाती है। दोआबा क्षेत्र के कई इलाकों में यह अनुपात 45 से 50 फीसदी तक चला जाता है। दलितों का समूचा वोट कभी भी किसी एक पार्टी को नहीं पड़ा है। इसके कई कारण हैं। पंजाब में दलित भाईचारा 39 जातियों में बंटा हुआ है। उनके आपसी हित भी टकराते हैं। पंजाब में दलितों की मुख्य जातियों में रामदासिएरविदासियेमजहबीवाल्मीकिभगत अथवा कबीरपंथी प्रमुख हैं।

पंजाब के बड़े क्षेत्र मालवा में जाटव और मजहबी सिख बड़ी तादाद में हैं। माझा क्षेत्र में ज्यादातर मजहबी सिख और ईसाई दलित हैं। दोआबा में जाटव और वाल्मीकि समूह बड़ी तादाद में हैं।

आमतौर पर माना जाता है कि जाटव मतदाताओं के वोट ज्यादातर कांग्रेस को जाते रहे हैंवहीं वाल्मीकि और मजहबी मतदाता अकाली दलबसपा और अन्य पार्टियों को वोट देते रहे हैं। लेकिन 2022 में आम आदमी पार्टी की हुई बड़ी जीत ने इस धारणा को बदल दिया था। 2022 में कांग्रेस ने चरनजीत सिंह चन्नी को दलित मुख्यमंत्री के तौर पर पेश किया लेकिन इसका फायदा कांग्रेस को सिर्फ दोआबा इलाके में ही मिला। दोआबा क्षेत्र में 23 विधानॉसभा सीटें हैं यहाँ ‘आप’ ने 10 सीटें और कांग्रेस ने सीटें जीती थीं।

साल 1984 में दलितों की प्रतिनिधि पार्टी के रूप में अस्तित्व में आई बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम का संबंध भी पंजाब से था। वह पंजाब के रूपनगर ज़िला से थे। बहुजन समाज पार्टी ने 1989 के लोकसभा चुनाव में पंजाब की शिरोमणि अकाली दल (मानके सहयोग से फिल्लौर लोकसभा सीट जीती। इस सीट से बसपा के उम्मीदवार हरभजन सिंह लाखा जीते थे। 1991 के लोकसभा चुनाव में भी बसपा ने एक सीट जीती थी। उस समय फिरोजपुर लोकसभा क्षेत्र से बसपा के मोहन सिंह जीते थे (पंजाब में बिगड़े हालात के चलते वह चुनाव 1992 में हुए पंजाब के विधानसभा चुनावों के साथ हुए थे) 1992 के विधानसभा चुनाव में बसपा का अब तक का सबसे बढ़िया प्रदर्शन रहा है। उस चुनाव में बसपा ने सीटें जीत कर विपक्षी दल का दर्जा हासिल किया था। शिरोमणी अकाली दल ने इन चुनावों का बहिष्कार किया था।

1995 में अकाली दल ने बठिंडा जिला के गीदड़बाहा विधानसभा क्षेत्र के उपचुनाव में बसपा से सहयोग लिया था। उस सीट से अकाली दल के उम्मीदवार प्रकाश सिंह बादल के भतीजे और पंजाब के पूर्व वित्त मंत्री मनप्रीत सिंह बादल चुनाव लड़ रहे थे। वह मनप्रीत का पहला चुनाव था। मनप्रीत बहुत कड़े मुकाबले के बाद वह सीट जीत पाए थे। 2010 में एक विवाद के बाद अकाली दल ने मनप्रीत को पार्टी से निकाल दिया जिसके बाद उन्होंने पीपुल्स पार्टी ऑफ पंजाब बना ली। फिर 2016 में मनप्रीत ने अपनी पार्टी का विलय कांग्रेस में कर दिया। इस समय वह कांग्रेस को छोड़ भाजपा में शामिल हो चुके हैं।

1996 के लोकसभा चुनाव में भी अकाली दल ने बसपा के साथ गठबंधन किया था। अकाली-बसपा गठबंधन ने पंजाब की कुल 13 सीटों में से 11 सीटें जीती थी। अकाली दल के हिस्से 8, बसपा के हिस्से सीटें आई थीं। इनमें से होशियारपुर सीट से बसपा के संस्थापक कांशीराम विजयी हुए थेफिरोज़पुर से मोहन सिंह और फिलौर से हरभजन सिंह लाखा ने अपनी सीटें जीत कर बसपा की झोली में डाली। उस चुनाव में कांग्रेस को सिर्फ दो सीटें मिली थीं। इस जीत के कुछ महीने बाद ही बसपा को बिना बताए अकाली दल ने बीजेपी के साथ गठबंधन कर लिया और बसपा से अपना नाता तोड़ लिया। जिस से कांशीराम बहुत हताश हुए। अकाली दल ने बिना शर्त केंद्र में बीजेपी को समर्थन दिया था। अपने गठजोड़ को सिख-हिंदू एकता का प्रतीक बता कर अकाली और बीजेपी ने मिल कर 1997 का विधानसभा चुनाव लड़ा। गठबंधन 93 सीटों के साथ (75 अकाली दल व 18 बीजेपीसत्ता में आया। कांग्रेस को 14 सीटों के साथ करारी हार मिली।

इसी विधानसभा चुनावों में बसपा महज एक सीट जीत पाई। इसी दौर में बसपा से टूट कर कई अन्य दलित ग्रुप और पार्टियां बने जिनमें से एक था सतनाम सिंह कैंथ का बहुजन समाज मोर्चा जिसके लिए शिरोमणि अकाली दल ने 1998 और 1999 में लोकसभा की फिल्लौर सीट छोड़ी थी। 1998 के लोकसभा चुनाव में सतनाम सिंह कैंथ फिल्लौर से जीत कर सांसद बने थे। 2002 के विधानसभा चुनाव में भी अकाली दल ने बहुजन समाज मोर्चा के लिए दो सीटें छोड़ी थी लेकिन वह दोनों हार गया। बाद में सतनाम सिंह कैंथ ने बहुजन समाज मोर्चा का कांग्रेस में विलय करवा दिया।

2002 के विधानसभा चुनावों में बसपा कोई सीट हासिल नहीं कर सकी लेकिन उसने 5.69 फीसदी वोट हासिल किए। 2007 के विधानसभा चुनावों में बसपा ने 4.13 फीसदी और 2012 के विधानसभा चुनावों में 4.29 फीसदी वोट हासिल किए। 2017 के विधानसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी ने अन्य पार्टियों के साथ-साथ बसपा के वोटों पर भी सेंध लगाई और बसपा का वोट प्रतिशत घट कर 1.52 फीसदी रह गया। 2019 के लोकसभा चुनाव बसपा ने कई पार्टियों के गठबंधन “पंजाब डेमोक्रेटिक अलायंस” का हिस्सा बन कर लड़ा और अपनी हालत को कुछ हद तक सुधारा। आनंदपुर लोकसभा सीट से लाख 46 हजार वोटहोशियारपुर से लाख 28 हजार से अधिक वोट और जालंधर से लाख से भी अधिक वोट हासिल किए। कुल मिला कर बसपा का वोट प्रतिशत बढकर 3.5 फीसदी हो गया। पंजाब में बसपा सुप्रीमो मायावती पर अक्सर ही यह आरोप लगते रहे हैं कि वह उत्तर प्रदेश की ओर अधिक ध्यान देती हैं और पंजाब में सिर्फ “लिप सर्विस” करते हुए बड़ी पार्टियों से ‘फ्रेंडली मैच’ खेलती हैं।

2022 के विधानसभा चुनाव में शिरोमणि अकाली दल ने बहुजन समाज पार्टी (बसपाके साथ 25 साल बाद दोबारा रिश्ता जोड़ते हुए इनके नेताओं ने कहा, “यह गठजोड़ सिर्फ 2022 के विधानसभा चुनाव तक ही सीमित नहीं है बल्कि भविष्य में भी बना रहेगा। अकाली दल व बसपा की विचारधारा एक हैदोनों किसानोंदलितों और खेत मजदूरों की भलाई के लिए काम करते रहेंगे।

2022 के विधानसभा चुनाव में शिरोमणी अकाली दल को बड़ी ऐतिहासिक हार का सामना करना पड़ा और वह सिर्फ सीटों पर ही सिमट गया। यहाँ तक कि प्रकाश सिंह बादलसुखबीर बादल और बिक्रम सिंह मजीठिया जैसे दिग्गज अकाली नेताओं को शिकस्त का सामना करना पड़ा। बसपा अकाली दल से मिल कर 1997 के बाद 25 साल बाद विधानसभा में अपना खाता खोलने में कामयाब रही । 117 विधान सभा सीटों में अकाली दल ने 97 सीटों पर चुनाव लड़ा और सहयोगी बसपा ने 20 सीटों पर। बसपा के वोट बैंक को 2019 के लोकसभा चुनाव के मुकाबले धक्का लगा और बसपा को महज 1.77 फ़ीसदी वोट ही मिल पाये। इन चुनावों में कई राजनीतिक विशेषज्ञबसपा के कई नेता और समर्थक यह आरोप लगाते दिखे कि बसपा के हिस्से जो सीटें आई थी उनमें से ज़्यादा जनरल सीटें थी। कई ऐसी सीटेंजो अकाली दल के लिए जीतनी मुश्किल थींवे बसपा को दे दी गईं। कई जगह यह भी आरोप लगे कि बसपा ने तो अपनी वोट अकाली दल को दी पर जिन जगहों पर बसपा चुनाव लड़ रही थी वहां अकाली दल ने बसपा को वोट नहीं डाले।

जालंधर लोकसभा उप-चुनाव में भी अकाली-बसपा मिल कर चुनाव लड़ रहे हैं। यहाँ अकाली दल ने अपने उमीदवार के तौर पर विधानसभा क्षेत्र बंगा के विधायक डासुखविंदर कुमार सुखी को खड़ा किया है।

अकाली-बसपा गठबंधन पर समाजशास्त्री प्रोफेसर बावा सिंह कहते हैं, “किसान संघर्ष ने पंजाब की सभी पारंपरिक पार्टियों को नंगा करके रख दिया था। इसलिए 2022 में पार्टियों ने मौकापरस्त गठजोड़ किये। अकाली दल लोगों के दिल से उतर चुका हैउनसे अपने पुराने सिद्धांतजैसे कि अल्पसंख्यकों के लिए खड़े होनासंघीय ढांचे की रक्षा करनाआदि को छोड़ दिया है। बीजेपी के साथ गठजोड़ टूटने के बाद वह दलित वोटों से अपनी भरपाई करना चाहता था।

पंजाब के राजनीतिक टिप्पणीकार प्यारालाल गर्ग कहते हैं, “अकाली दल और बसपा का 1996 का गठजोड़ नेचुरल लगता थाउस समय पंजाब आतंकवाद के दौर से निकल रहा था। लेकिन अब यह गठजोड़ मौकापरस्ती पर आधारित है। दोनों पार्टियां अब हाशिए पर हैंइनके गठजोड़ को सिख-दलित एकता और संघीय हितों के लिए लड़ने वाला गठजोड़ कहना गलत होगा।

हालांकि यह माना जाता है कि पंजाब में बाकी कई राज्यों की अपेक्षा दलितों की हालत अच्छी है। सिख धर्म में जातपात की कोई जगह नहीं है लेकिन वर्तमान और अतीत की कुछ ऐसी कड़वी सच्चाइयां भी हैं जिनसे मुंह नहीं फेरा जा सकता।

20वीं सदी के शुरुआत में हरमंदिर साहिब में दलितों से भेदभाव किया जाता था। उनके लिए दरबार साहिब के दर्शनों के लिए अलग समय और स्नान के लिए अलग जगहें निश्चित थीं। उस समय का पुजारी वर्ग (जो अंगरेजों की सहायता प्राप्त महंत थेदलितों के हाथों से कड़ाह प्रसाद नहीं लेता था और न ही उनके लिए अरदास करता था। इसके खिलाफ सिख भाईचारे को लंबी जद्दोजहद करनी पड़ी।

पंजाबी लेखक बलबीर माधोपुरी 25 जून 2020 को पंजाबी ट्रिब्यून में छपे अपने लेख ‘आदि धर्म अते दलितां नाल वापरे साके’ में उल्लेख करते हैं कि 1931 की जनगणना से पहले जब पंजाब में “आदि धर्म” नए धर्म के तौर पर रजिस्टर्ड हुआ तो हिंदुओं और सिखों द्वारा अछूत समझे जाने वाले समाज पर जुल्म का सांगठनिक रूप देखने को मिला। हिंदुओं और सिखों ने इसे अपनी तौहीन समझी कि सदियों से गुलाम रहने वाले हमारे बराबर कैसे हो गए। विरोधस्वरूपअछूतों की नाकांदियां की गईं और जगह-जगह उन पर हमले हुए। पंजाब में कई स्थानों पर जनगणना में अपना धर्म “आदि धर्म” लिखवाने वाले दलितों को जान से मारा गया।

दलितों के साथ पंजाब में होने वाले भेदभाव को दर्शाती बेहतरीन आत्मकथा ‘छांग्या रुख’ के लेखक बलबीर माधोपुरी बताते हैं, “पंजाब में निम्न समझी जाने वाली जातियां आजादी के बाद बेशक कुछ आर्थिक तौर पर ठीक हुई हैं लेकिन सामाजिक गैरबराबरी की लड़ाई अभी बाकी है। मैंने छोटी उम्र से छूआछातदलितों की गुरुद्वारों में प्रवेश की मनाहीदलितों की बहन-बेटियों के साथ शारीरिक शोषण आदि जुल्म खुद देखे और सहे हैं। पंजाब में अभी भी कई गुरुद्वारों में दलितों की मनाही की खबरें मिल जाती हैं इसीलिए दलितों के अलग गुरुद्वारे और डेरे बने। अभी भी दलितों के श्मशान घाट अलग हैंगुरुद्वारों से उनके सामाजिक बहिष्कार की अनाउंसमेंट्स होती हैंयहां तक कि दलित समाज आपस में भी ऊंच-नीच का शिकार है।

पंजाब में दलितों के साथ सामाजिक गैरबराबरी अहम मुद्दा है। धान के मौसम में धान की बिजाई के रेट धनी किसानों द्वारा खुद ही तय कर दिए जाते हैं। अगर दलित खेत मजदूर इसका विरोध करते हैं तो उनका सामाजिक बहिष्कार करने के मामले सामने आते हैं। प्रमुख पार्टियों के स्थानीय नेता भी इस बहिष्कार में शामिल पाए जाते हैं। दलितों की आर्थिक मांगों की लड़ाई कभी भी किसी दलित संगठन या पार्टी ने नहीं लड़ीयह लड़ाई हमेशा वामपंथी संगठन लड़ते आए हैं। इनमें एक अहम लड़ाई है पंचायती जमीन में दलितों के एक तिहाई हिस्से कीजो अक्सर ही दलितों को नहीं मिलती। इस हक के लिए वामपंथी संगठनों ने मालवा क्षेत्र में लंबी लड़ाई लड़ी है।

जमीन प्राप्ति संघर्ष कमेटी के मुकेश मलोद ने बताया, “हमारे इस संघर्ष का अकाली और कांग्रेसियों ने तो विरोध किया ही लेकिन कई दलित संगठन भी हमारे साथ नहीं खड़े हुए। बहुजन समाज पार्टी की भूमिका भी बहुत नकारात्मक रही।

2014 में ही संगरूर जिले के बलद कलां गांव में उच्च जाति के लोगों द्वारा दलितों का बहिष्कार किया गया तो आप से जुड़े दलित समाज ने आशा की कि भगवंत मान (वर्तमान मुख्यमंत्री और उस समय संगरूर से सांसदइस पर बोलेंगे। यह मुद्दा लोकसभा में भी उठा तब भी इस मुद्दे पर भगवंत मान की नकारात्मक भूमिका रही। इसी तरह 2016 में जिला संगरूर के जलूर गांव में जब दलितों का बहिष्कार किया गया तब भी भगवंत मान चुप रहे।

मुकेश मलौद ने बताया कि जब आप की ओर झुकाव रखने वाले उनके संगठन के कुछ लोगों ने एक मीटिंग में भगवंत मान को बुलाकर इन मुद्दों का हल करने को कहा तो भगवंत ने साफ कह दिया कि ''अगर वह ऐसा करेंगे तो जट्ट वोट उनसे कट जाएंगे।’’

दोआबा और माझा में काम करने वाले वामपंथी दलित कार्यकर्ता तरसेम पीटर बताते है, “जैसे मालवा में दलितों की जमीनों का मुद्दा अहम हैदोआबा में दलितों के रिहाइशी प्लाटों का मुद्दा बड़ा है। इसका वादा पिछली सरकारों ने किया था लेकिन अब तक पूरा नहीं हो सका। यह पंचायत द्वारा प्रस्ताव पास करके दिए जाने होते हैं। हमारे संगठन ने इसके लिए काफी काम किया लेकिन कई जगह इस मुद्दे को लेकर दलितों का सामाजिक बहिष्कार भी हुआ। दलितों के सहकारी कर्जे माफ करने का मुद्दा भी बड़ा मुद्दा है।

पीटर आगे बताते हैं कि दोआबा में दलित अस्मिता एक अहम मुद्दा हैं। दोआबा का दलित बड़ी गिनती में विदेश में गया है। यहां आपको बड़ी संख्या में दलित अस्मिता को दर्शाते मंदिर और गुरुद्वारे मिल जाएंगे। कई बार दलित डेरों का उग्र सिख ग्रुपों के साथ सीधा टकराव भी हुआ है जिसके चलते संत रामानंद डेरा बल्लां (जालंधरकी हत्या हुई। माझा क्षेत्र में दलितों की समस्याएं हालांकि समान हैं लेकिन यहां ईसाई दलित बड़ी संख्या में होने के कारण उनके कब्रिस्तान की मांग काफी लंबे समय से लटक रही है। दोआबा में बड़ी गिनती में बसने वाले ईसाई दलित का भी यह अहम मुद्दा है। हाल के दिनों में बनी एक ईसाई पार्टी ने भी इस मुद्दे को अपना अहम मुद्दा बताया है।

पिछले दिनों अमृतपालउनके साथियों और कुछ अन्य उग्र सिख संगठनों ने इसाई धर्म के पादरियों पर आरोप लगाया कि वे दलित सिखों का जबरन धर्म परिवर्तन करवा रहे हैं। कई जगह इन उग्र सिख संगठनों ने ईसाईयों के धार्मिक समारोहों को रोकने की कोशिशें की व हिंसक कार्रवाई कीं।

पंजाब में दलित विद्यार्थियों की रुकी हुई स्कॉलरशिप का मुद्दा एक अहम मुद्दा रहा है। वजीफों में गड़बड़ी के आरोपों में पिछली पंजाब सरकार के एक मंत्री भी विपक्षी पार्टियों के निशाने पर रहा। दलित विद्यार्थियों के वजीफे समय पर न मिलने का मुद्दा अकाली सरकार के समय भी चर्चा में रहा था। पंजाब के नामवर राजनीतिक शास्त्री रौनकी राम का मानना है, “सारी सियासी पार्टियां दलितों को वोट बैंक के रूप में देखती रही हैं। अकालियों ने भी अपने राज में दलित वोट खींचने के लिए आटा-दाल स्कीमशगुन स्कीम जैसी स्कीमें चलाई लेकिन बाद में इनमें भी गड़बड़ियां पाई गईं। आज दलितों के हक की बात करने वाली अकाली दल, 2007 में जब डेरा विवाद हुआतब उसके कार्यकर्ता ही दलितों का सामाजिक बहिष्कार करवा रहे थे।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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