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हिमाचल में (अ) प्राकृतिक विनाश के लिए मानवीय लालच ज़िम्मेदार

ऐसी आपदाओं की चुनौतियों का मुक़ाबला करने के लिए हमें विकास के प्रति अपनी मानसिकता बदलनी होगी और स्थानीय समुदायों के साथ सहयोग करके क़ुदरत से सीखना होगा।
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भूस्खलन से कई घर ढह जाने के बाद शिमला में मंगलवार को जारी बचाव अभियान। फोटोः PTI

हिमाचल प्रदेश एक महीने से अधिक समय से (अ) प्राकृतिक आपदाओं का केंद्र बना हुआ है। सोमवार को मारे गए 35 लोगों को मिलाकर अब तक 300 से अधिक लोग की मौत हो चुकी है, हजारों लोग बेघर हो गए हैं और 1,500 करोड़ रुपये से अधिक की संपत्ति नष्ट हो गई है।

हिमाचल, हिमालय में स्थित है, जो जलवायु में आए बदलाव से प्रभावित हुआ है। बढ़ते तापमान और बदलते वर्षा पैटर्न से भूस्खलन, अचानक बाढ़ का आना और बादल फटने जैसी भयानक मौसमी घटनाओं की प्रवृत्ति और तीव्रता बढ़ रही है।

इस छोटे से पहाड़ी राज्य में आय के संसाधन सीमित हैं लेकिन आपदा के कारण मानवीय, प्राकृतिक और आर्थिक क्षति बहुत अधिक हुई है।

मानवीय लालच और सरकार की नवउदारवादी नीतियां मुख्यता इन आपदाओं का प्रमुख कारण है। शोधकर्ता डायने ड्रेज के अनुसार, “यूरोपीय अंधकार युग से वैज्ञानिक क्रांति की ओर बदलाव के दौरान, चर्च, मंदिर, मस्जिदों और सामंती रिश्तों में अंधविश्वास से दूर होकर विज्ञान, लोकतंत्र, पूंजीवाद और इसकी भूमिका में विश्वास जमाते हुए और सरकार को सार्वजनिक हितों की रक्षक मानते हुए आगे कदम बढ़ाया गया था।”

उनके अनुसार, इस वक़्त जो सबसे महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक थी वह तर्कसंगत वैज्ञानिक सोच थी, जिसने पिछली तीन शताब्दियों में चार बहुत महत्वपूर्ण प्रभाव डाले वे इस प्रकार हैं:

व्यक्तिवाद: एक किस्म की व्यक्तिगत विश्वदृष्टि का उदय हुआ है, जहां सामूहिक सार्वजनिक हितों को धता बताते हुए खुद के हित साधना, प्रतिस्पर्धा करना तथा व्यक्तिगत धन पैदा करने पर ध्यान केंद्रित हुआ है। व्यक्तिवाद यही मानता है कि लोग खुद के स्वार्थ और व्यक्तिगत लाभ के लिए काम करते हैं।

न्यूनीकरणवाद: सबसे बेहतरीन समाधान पेश करने के लिए एकल स्पष्टीकरण देना और जिसके जरिए जटिल, गतिशील चुनौतियों का विश्लेषण, वर्णन और इलाज़ पेश करना है। न्यूनीकरणवाद मानता है कि जटिल समस्याओं से बाज़ार, प्रबंधन और आर्थिक विकास जैसे छोटे प्रबंधनीय विवेकशील भागों में बांटकर निपटा जा सकता है।

अलगाव/पृथक्करण: व्यक्ति एक-दूसरे और प्रकृति से दूर हो गए। इस अलगाव ने व्यक्तियों को अपने काम की व्यक्तिगत जिम्मेदारी लेने से प्रभावी ढंग से दूर कर दिया है, इसके बजाय वे व्यक्तिगत जिम्मेदारी को विनिवेश, आउटसोर्स और ऑफसेट करने के लिए विज्ञान और कानून पर निर्भर हो रहे हैं। उदाहरण के लिए, जिम्मेदारी को बाहरी बनाया जा सकता है और कानूनों, विनियमों और स्वैच्छिक स्थिरता के मानदंडों के माध्यम से इसे ऐसे बनाया जा सकता है ताकि लगे कि यह किसी और की समस्या हो। इस तरह वहन करने की क्षमता हर किसी के लिए चुनौती बन जाती है लेकिन वह किसी की जिम्मेदारी नहीं होती है।

बाज़ारीकरण: व्यक्तिवाद और अलगाव ने प्रतिस्पर्धा, उपभोक्तावाद और व्यक्तिगत धन संचय को पनपने दिया। सामूहिक सार्वजनिक हित और सामान्य संसाधनों को तरजीह ने निजी हितों की खोज का मार्ग प्रशस्त किया, जहां, संभवतः, यह सोचा गया कि अदृश्य हाथ नकारात्मक प्रभावों पर नज़र रखेंगे।

इन चार आयामों से प्रभावित होकर पिछली सदी, वैज्ञानिक मानसिकता हमारे आर्थिक-सामाजिक-पर्यावरणीय संबंधों को आकार देने वाली प्राथमिक शक्तियों के रूप में रणनीतिक प्रबंधन और नवउदारवादी आर्थिक विचारधाराओं में अंध विश्वास को अपनाने के मामले में विकसित हुई है। इस विश्वास प्रणाली ने प्रकृति, एक-दूसरे, खुद और जिसे हम सफलता के रूप में देखते हैं, के साथ हमारे संबंधों को आकार दिया है।

इस दृष्टिकोण के मुताबिक, प्रकृति को व्यक्तिगत संसाधनों (जैसे जल, वायु, खनिज, वन, समुद्र तट, समुदाय, श्रमिक, आदि) में विभाजित कर दिया गया है, और मुख्य काम इन संसाधनों से आर्थिक उत्पादन और खपत को बढ़ावा देने के लिए अधिकतम मूल्य निकालना या अधिकतम कीमत वसूलना है। “दूसरे शब्दों में, ये संसाधन निचोड़ने के लिए हैं। सरकारों ने इन संसाधनों की सुरक्षा करने के बजाय इनके शोषण के रास्ते खोले हैं और इनकी सुविधाप्रदाता बन गई है।”

परिणामस्वरूप, कॉर्पोरेट जगत कुदरत का शोषण/दोहन करने के लिए नवउदारवादी नीतियों का आंख बंद करके अनुसरण कर रही हैं और कुदरत को केवल अपनी इच्छाओं और आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए एक संसाधन के रूप में इस्तेमाल कर रही हैं। वे यह समझ नहीं पा रही हैं कि मनुष्य पूरी कुदरत की तुलना में एक छोटी प्रणाली है, जो सरकारों को कॉर्पोरेट संस्थाओं और पूंजीपतियों को अपने लाभ के लिए प्रकृति का शोषण करने का पूरा अवसर प्रदान करती है।

कॉरपोरेट सेक्टर के लालच के कारण कई शक्तिशाली देश कार्बन उत्सर्जन को न्यूनतम स्तर तक कम नहीं कर पाए हैं। औद्योगिक विकास और पर्यटन विकास के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों और भारी असहनीय प्रथाओं/गतिविधियों के अवसर सरकार उन्हें दे रही है।

इन नीतियों के परिणामस्वरूप ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु में बदलाव हुआ है, जो इस विनाश का मुख्य कारण है।

दूसरी ओर, सरकार पहाड़ों में अंधाधुंध खनन, जलविद्युत परियोजनाओं, अस्थिर सड़क निर्माण और पत्थर तोड़ने के लिए भी लाइसेंस दे रही है, जिससे भूस्खलन बढ़ रहा है।

ऐसी आपदाओं की चुनौती से पार पाने के लिए हमें विकास के प्रति अपनी मानसिकता बदलनी होगी और स्थानीय समुदायों के साथ सहयोग करके कुदरत से सीखना होगा। विकास के लिए एक बहु-विषयक, समग्र दृष्टिकोण की जरूरत है जिसमें कुदरत और स्थानीय समुदायों के प्रति सहानुभूति और उनकी देखभाल की इच्छा शामिल हो।

समय की मांग है कि, पृथ्वी ग्रह के दीर्घकालिक सामाजिक-सांस्कृतिक, आर्थिक और पारिस्थितिक विकास के लिए वैज्ञानिक, प्रगतिशील और देशज ज्ञान प्रणालियों और स्थानीय समुदायों के दृष्टिकोण के संगम से युक्त विकास की एक गतिशील और सह-विकासवादी प्रक्रिया रहे।

कुदरत के साथ बेहतरीन संतुलन बनाने और (अ)प्राकृतिक और मानव निर्मित आपदाओं को रोकने का यही एकमात्र तरीका है।

(लेखक सेंट्रल यूनिवर्सिटी ऑफ केरल में रिसर्च स्कॉलर हैं। ये विचार निजी हैं।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:

Human Greed at Epicentre of (Un)natural Devastation in Himachal

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