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मीरा मुखर्जी के मूर्ति शिल्प: धातु में ढली मानव आकृतियां

मीरा मुखर्जी की मूर्तियां आत्मिक कथ्य प्रस्तुत करतीं हैं, वे मानवता और स्वायत्तता के स्वर से लबरेज़ हैं। विषय के रूप में मीरा की मूर्तियों में मेहनतकश आमजन हैं, संगीतज्ञ, लोक वादक हैं, निर्भीक मछुआरे हैं।
Meera Mukherjee

देश की प्रसिद्ध महिला मूर्तिकार मीरा मुखर्जी को जब भी याद किया जाएगा तो उनके नाम के साथ बस्तर (वर्तमान में छत्तीसगढ़) के आदिवासी लोक मूर्तिकारों द्वारा की जाने वाली ढोकरा मूर्तिकला भी जुड़ जाएगी। इस प्राचीन ढलाई की पद्धति को 'लास्ट वैक्स प्रोसेस' भी कहा गया है। मीरा मुखर्जी की मूर्तियां आत्मिक कथ्य प्रस्तुत करतीं हैं, वे मानवता और स्वायत्तता के स्वर से लबरेज़ हैं।

दरअसल मीरा मुखर्जी ने बंगाल के परंपरागत मूर्ति शैली में ढोकरा शैली को मिश्रित कर विलक्षण मानव आकृतियों का सृजन किया। इन मूर्तियों में भाव है, कल्पनाशीलता है, नैसर्गिक, संवेदनशील स्वच्छंदता है। विषय के रूप में मीरा की मूर्तियों में मेहनतकश आम जन हैं, संगीतज्ञ, लोक वादक हैं, निर्भीक मछुआरे हैं। इसके अलावा मनोयोग से टोकरी बुनती महिला है, इस तरह है मानो वह टोकरी नहीं अपने सपनों को बुन रही हो। महिला आकृतियों को गढ़ने में मीरा ने परंपरागत विषयों को परे किया है। समसामयिक घटनाचक्र मीरा को भी विचलित करते हैं तभी तो 1978 के भयावह बाढ़ के दृश्य, भोपाल गैस पीड़ितों के दुख, बड़े संवेदनशील ढंग से उनकी मूर्तियों में ढलकर आते हैं। जो सार्थक कलाकारों के मानवतावादी दृष्टिकोण को दर्शाते हैं।

अपनी कलाकृतियों में मीरा वैचारिक दृष्टि से भी सरल हैं, उनकी मानव आकृतियां कोमल भाव लिए हुए हैं। उदाहरण स्वरुप कांस्य में बनाई गई उनकी मूर्ति 'बेसाईड स्टेशन'। मीरा मुखर्जी ने पाश्चात्य कला शैली में कला प्रशिक्षण लिया लेकिन वे परंपरागत और शास्त्रीय भारतीय कला परंपरा की समर्थक थीं। विविध प्रकार के टेक्सचर के साथ त्रिआयामी आकारों में बनाए गए उनके मूर्तिशिल्प भावनात्मक और एंद्रीय हैं। उनमें लोक शैली के प्रभाव के बावजूद वे इहलोक के ही मानव आकृतियां प्रतीत होते हैं।

मीरा की धातु की मूर्ति में धातु कहीं से भी कठोर नहीं दिखते। वे लचीले हैं, गतिशील हैं, उनके वस्त्र आदि भी गहन बुनावट से अलंकृत हैं। इसके लिए ढलाई के पहले मूर्ति शिल्प के धरातल पर मोम की नलिकाओं से अलंकृत करती थीं जो डोगरा मूर्तिकला से ही प्रभावित हैं, हालांकि सामान्य से बड़े आकार में हैं। उनमें मानों रेखांकन की मोटी, सघन, घुमावदार रेखाएं उभर कर आ रही हों। इस प्रकार के मूर्ति सृजन ढोकरा धातु ढलाई में ही संभव था। विविधता लिए मौलिक ढंग से उकेरे गए टेक्सचर ढोकरा मूर्तिकला की विशेषता है।

मीरा मुखर्जी का जन्म 1923 में में हुआ था। उनकी माता का नाम बीना पाणि देवी और पिता का नाम द्विजेंद्र मोहन था। मीरा एक सफल मूर्तिकार तो थीं ही, चित्रकला पर भी उनकी अच्छी पकड़ थी, साथ ही वे बहुत अच्छी लेखिका भी थीं। मीरा अवनीन्द्रनाथ टैगोर के 'इंडियन सोसाइटी ऑफ ओरियंटल आर्ट स्कूल' में जब चौदह वर्ष की थीं तभी शामिल हो गईं। यह वह दौर था जब कला के क्षेत्र में महिलाओं की‌ भागीदारी नगण्य थी। 1947 में दिल्ली पॉलिटेक्निक से चित्रकला, ग्राफिक्स और मूर्तिकला में डिप्लोमा हासिल किया। मीरा ने 1953-1955 का समय म्यूनिख के ललित कला अकादमी में कला प्रशिक्षण लिया क्योंकि उन्हें इंडो-जर्मन फेलोशिप मिला था।

म्यूनिख में मीरा को कला के कई दिग्गजों से मिलने का सुअवसर मिला। जर्मन अतियथार्थवादी मूर्तिकार टोनी स्टेडलर, हेनरिक क्रिचनर की प्रेरणा ने मीरा मुखर्जी के जीवन में महत्वपूर्ण मोड़ लिया और मीरा ने मूर्तिकला को ही अपनी कला अभिव्यक्ति का माध्यम बना लिया। उन्होंने बस्तर के धरूआन आदिवासी शिल्पकारों की पारंपरिक कांस्य धातु में ढलाई (मेटल कास्टिंग) के कई तकनीकी सीखा जिससे उनकी मूर्तिकला और परिष्कृत हुई।

मीरा मुखर्जी ने विशेष रूप से बस्तर के मशहूर आदिवासी लोक मूर्तिकार 'सिरमन बघेल' से धातु मूर्तिकला सीखा। उनके पिता इसी इलाक़े में पुलिस कमिश्नर थे। मीरा मुखर्जी के प्रयासों से बस्तर की खोई हुई धातु शिल्प कला दुनिया के सामने आई।

'ढोकरा' में पीतल का इस्तेमाल होता है। यह तकनीक लास्ट वैक्स कास्टिंग और धातु शोधन का संयोजन है जिसमें धान की भूसी को कृषि अपशिष्टों से एकत्र की गई स्थानीय मिट्टी में मिला कर मनचाही आकृति का सांचा तैयार किया जाता है। इस सांचे का इस्तेमाल केवल केवल एक बार ही होता है। इस सांचे में  प्राकृतिक मोम जो मधुमक्खियों के छत्ते से प्राप्त होता है, का इस्तेमाल होता है। आज फिर ढोकरा कास्टिंग से बनाई जाने वाली मूर्तिकला शैली का अस्तित्व सरकारी उपेक्षा और मंहगाई के कारण खतरे में है।

बहरहाल मीरा मुखर्जी ने ढोकरा मूर्तिकला शैली और परंपरागत भारतीय मूर्तिकला शैली का सम्मिश्रण कर जो नवीन मूर्तिकला शैली निकाली वो मौलिक और अनोखा था जिसका अनुकरण आज भी कई समकालीन मूर्तिकार कर रहे हैं।

मीरा के अंदर एक कठोर परिश्रम पूर्ण सृजनात्मकता है, तभी उन्होंने अपने निजी जीवन के गतिरोधों को अपनी कला पर हावी नहीं होने दिया। मीरा मुखर्जी ने 1957 से 1959 तक डाउन हिल स्कूल कुर्सियांग में कला अध्यापक के तौर पर अपनी सेवाएं दीं। 1962 में उन्हें एंथ्रोपोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया की ओर से फेलोशिप मिला। 1968 में मीरा को राष्ट्रपति प्रेस पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 1984-1986 के लिए उन्हें संस्कृति विभाग से फेलोशिप मिला। उन्हें पद्मश्री सम्मान भी मिल चुका है।

धातु के सम्मिश्रण से ढलाई कर के मूर्तियां गढ़ने में मीरा मुखर्जी को महारथ हासिल था। 1998 में उनकी मृत्यु हो गई थी। वे भारत की सबसे प्रसिद्ध मूर्तिकार रही हैं।

(डॉ. मंजु प्रसाद स्‍वयं चित्रकार हैं। आप इन दिनों पटना में रहकर पेंटिंग के अलावा 'हिंदी में कला लेखन' क्षेत्र में सक्रिय हैं।)

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