समय-स्वर : 'आगे क्या होगा जनाबेआली'
मैं अपने स्टडी रूम में बैठा मौजूदा राजनीतिक हालात पर चिंतन कर रहा था। जिस तरह के हालात बन रहे हैं उससे तो लगता है कि लोकतंत्र और संविधान का अस्तित्व ही संकट में आ जाएगा। फासीवादी ताकतें हमारे लोकतंत्र पर हावी होती जा रही हैं। ईडी सीबीआई, आईटीओ सब सरकार के इशाराें पर काम कर रहे हैं। हाल ही में झारखंड के मुख्यमंत्री रहे हेमंत सोरेन की गिरफ्तारी और सामाजिक कार्यकर्ता हर्ष मंदर के घर और दफ्तर पर सीबीआई का छापा इसके प्रमाण हैं। ऐसे उदाहरण अनेक हैं। ऐसा लग रहा है कि हमारा लोकतंत्र विपक्ष मुक्त हो जाएगा। लोकतंत्र राजतंत्र और धर्मतंत्र में बदल जाएगा। क्योंकि लोकतंत्र के समर्थन में आवाज उठाने वालों का दमन किया जा रहा है। गोदी मीडिया तो उनका है हीे। जनवादी मीडिया संस्थानों पर कोई न कोई आरोप लगाकर उन्हें बंद किया जा रहा है। ऐसे में जनता की आवाज़ कौन उठाएगा? यही सब सोचते हुए मैं कुछ लिखने का प्रयास कर रहा था।
दोपहर के भाेजन का समय हो रहा था। मैंने अपनी थाली स्टडी रूम में ही मंगवा ली। खाना शुरु ही करने वाला था कि डोर बेल बजी। बेटे ने दरवाजा खोला। मेरे स्टडी रूम में जिस शख्स ने प्रवेश किया वे पुराने परिचित थे। अभिवादन के बाद मैंने उन्हें कुर्सी पर बैठने का संकेत किया। औपचारिकतावश उन्हें खाना खाने को कहा।
वह बोले - ''नहीं यार, खाना तो अभी खाकर ही आया हूं। हां, एक गर्मागर्म कॉफी चलेगी।''
मैंने कहा - ''अपनी भाभीजी को बोलकर आओ।''
वे मेरी पत्नी को बोेलकर आ गए। फिर बोले- ''और सुनाओ क्या चल रहा है।''
''यार कुछ खास नहीं, तुम्हारी प्रिय सरकार और सरकार जी की हम मेहनतकशों, जनवादी लेखक-पत्रकारों पर कुछ ऐसी 'मेहरबानी' हो रही है कि हमारे हालात अच्छे नहीं हैं। तुम सुनाओ तुम्हारे क्या हाल हैं।''
''मेरे जैसे पार्टी कार्यकर्ताओं की इन दिनों मौज हो रही है। चकाचक कट रही है। अपन तो चैन की वंशी बजा रहे हैं। राम जी के गुन गा रहे हैं।''
''बहुत दिन बाद आए हो, इधर कैसे आना हुआ?''
''तुम तो जानते ही हो मैं गणेश जी, मातारानी आदि देवी-देवताओं के नाम पर भंडारा कराता रहता हूं। इस बार रामलला के नाम पर करवा रहा हूं। फंड पार्टी से मिल ही जाता है। कुछ चंदा का धंधा भी कर लेता हूं। तुम्हारे पड़ोस में कुछ पार्टी कार्यकर्ता रहते हैं। उन्हें इनवाइट करने आया हूं। पर पहले तुम्हारा घर पड़ा तो तुमसे मिलने चला आया - यूं ही हालचाल पूछने। पुराने मित्र हो। स्टूडेंट लाईफ में तुमने मेरी बहुत मदद की है। पर तुम्हें तो इनवाइट नहीं कर सकता। जानता हूं कि तुम्हारा इन सब आयोजनों से कोई लेना-देना नहीं होता।''
''एक बात बताओ यार, तुम पार्टी-पाेलिटिक्स करते हो। तुम्हारा घर कैसे चलता है। काम-धंधा तुम कुछ करते नहीं।''
''क्यों, पार्टी के लिए काम करना, काम नहीं है क्या? मैं पार्टी के लिए काम करता हूं। पार्टी से पैसा मिलता है। पार्टी ने मेरी कॉलोनी में मेरा एक छोटा-सा कार्यालय भी खुलवा दिया है। मैं एससी हूं इसलिए पार्टी ने मेरे इलाके के एससी वोट बैंक को पार्टी वोट बैंक बनाने की जिम्मेदारी मुझे दी है। ये काम मैं पूरी लगन से कर रहा हूं। इसके अलावा इतना कॉमन सेंस तो मुझ में है कि पार्टी से किन-किन कामों के लिए पैसा मिल सकता है। मैं वो काम करता रहता हूं। चुनावों के समय कुछ रिस्की काम भी करने पड़ते हैं। साम, दाम, दंड, भेद सब अपना कर मतदाता का वोट अपने पक्ष में करना होता है। इसके लिए कभी बस्ती भी जलानी होती है। मातम भी मनाता होता है। पीड़ितों को राहत भी पहुंचानी होती है।''
उनकी बातें सुनते हुए वसीम बरेलवी का एक शेर दिमाग में कौंध गया-
‘इस दौर-ए-सियासत का इतना सा फ़साना है,
बस्ती भी जलानी है, मातम भी मनाना है।’
वे बोले जा रहे थे- ''पीड़ितों को राहत देने में मुझे भी राहत मिल जाती है। थोड़ा बैंक बैलेंस बढ़ जाता है। बस पार्टी को पीड़ितों की राहत का बजट देते समय पीड़ितों की संख्या बढ़ानी होती है और राहत देते समय पीड़ितों की संख्या घटानी होती है। कुछ धर्म का धंधा कर भी अपनी आमदनी बढ़ा लेता हूं।''
''धर्म का धंधा मतलब?'
''देखो, धर्म के नाम पर अपने लोग इमोशनल भी होते हैं और अंधविश्वासी तथा अंधभक्त भी। मैंने अयोध्या में 22 जनवरी 2024 की रामलला की प्राण प्रतिष्ठा से पहले लोगों को राममंदिर के लिए दान करने का अभियान चलाया। इससे अच्छी-खासी दानराशि इकट्ठी हो गई। दानराशि की कुछ धनराशि अयोध्या चली गई और बाकी मेरे बैंक पहुंच गई। दान करने वालों का पुण्य कर्म बढ़ गया और मेरा बैंक बैलेंस। इस तरह धर्म के धंधे से वे भी खुश और मैं भी। इसी तरह मैंने पार्टी अधिकारियों को सुझाव भेजा के हमारी दलित बस्तियाें में रामलला वाला हर घर झंडा होना चाहिए। पर खरीद कर सारे लोग नहीं लगाएंगे। क्यों न हम झंडे प्रिंट करा कर उन्हें निशुल्क वितरण करें। हर घर में झंडा होगा तो वातावरण रामललामय हो जाएगा। पार्टी अधिकारियों को मेरा यह सुझाव अच्छा लगा। उन्होंने मुझे बल्क में झंडा बनबाने का ऑर्डर दे दिया। मैंने जहां से झंडे बनवाए वहां से बिल में धनराशि बढ़वा ली। घर-घर झंडे लगवा दिए। फिर 'एक ही नारा एक ही नाम' के नारे के साथ बस्तियों में झंडा जुलूस भी निकलवा दिया। उसके वीडियो और फोटो पार्टी अधिकारियों को भेज दिए। पार्टी वाले भी खुश, बस्ती वाले भी खुश। मैं तो बिल में बढ़ी हुई धनराशि लेकर पहले ही खुश हो लिया था। ''
इस बीच पत्नी उनके लिए कॉफी लेकर आ गईं। मैंने कहा, 'मेरे लिए भी ले आतीं' तो पत्नी तुनक कर बोलीं-''दूध खत्म हो गया। मुझे ही मालूम है मैं कैसे घर चला रही हूं।''
फिर मित्र की ओर मुखातिब होकर बोलीं-''भाई साहब, इनको जरा समझाओ। सरकार की आलोचना करने वाले संस्थान में काम करेंगे। सरकार को आईना दिखाएंगे तो सरकार क्या छोड़ देगी। सरकार तो दफ्तर भी सील करेगी। तुम्हें बेरोजगार भी करेगी। आखिर सरकार से पंगे लेते ही क्यों हो। भुगतना तो मुझे पड़ता है जब घर चलाना मुश्किल होता है।''
मित्र भी उनके सुर में सुर मिलाते हुए बोले- ''आप सही कह रही हैं भाभी जी। मगर ये मेरी भी कहां सुनता है। जल में भी रहेगा और मगरमच्छ से बैर भी रखेगा। ऐसा होता है कहीं। मुझे देखो, मैं सरकार के लिए काम कर रहा हूं तो चैन की वंशी बजा रहा हूं। आखिर हमारे पुरखे भी कह गए हैं कि जैसी बहे बयार पीठ तब तैसी कीजे।'' कमरे से बाहर जाती हुई पत्नी की की मुख मुद्रा से लगा कि वे मित्र से सहमत थीं।
फिर मित्र का ध्यान मेरी भोजन की थाली की ओर गया। बोला - ''यार कुछ महीने पहले आया था तब तुम्हारे भोजन में दाल-सब्जी, दही, पापड़, सलाद सब होते थे। और आज सिर्फ सब्जी-रोटी और अचार। यानी सिमतटी जा रही है तुम्हारे भोेजन की थाली, ऐसा ही रहा तो आगे क्या होगा जनाबेआली। खैर, कुछ पैसे-वैसे की जरूरत हो तो निसंकोच मांग लेना। अच्छा चलता हूं। पार्टी कार्यकर्ताओं को आमंत्रित करना है - रामलला के भंडारे के लिए।'' और वह चला गया।
मैंने अपने भोजन की थाली को देखा। लगा, मित्र तंज कस कर चला गया - मेरे जैसे लाखों सिद्धांतवादियों पर, मेहनतकशों पर। पर मैं फासीवादी ताकतों के आगे कभी नहीं झुकूंगा। अपने सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं करूंगा। लोकतंत्र और संविधान विरोधी रवैये के ख़िलाफ़, मेहनतकशों पर जोर-जुल्म, उनके शोषण-उत्पीड़न के ख़िलाफ़ फासीवादी ताकतों से मेरा संघर्ष, मेरी लड़ाई जारी रहेगी। मैं अपनी थाली को समृद्ध करने के लिए कोशिश और मेहनत तो करूंगा पर अपने सिद्धांत, अपने आत्मसम्मान, अपने ज़मीर और अपने स्वाभिमान को बरकरार रखते हुए। मित्र रूकते तो उनसे यही कहता, भले हमारी बिगड़ जाए हालते-माली, पर फासीवादियों के आगे तो नहीं झुकेंगे, आप भी सुन लीजिए जनाबेआली।
अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।