क्या भंग हो सकती है बिहार विधानसभा?
कहा जाता है कि भारतीय राजनीति में जितनी अविश्वनियता हमेशा बनी रहती है, शायद दुनिया के किसी भी लोकतंत्र में इसकी नज़ीर नहीं मिलती है। बिहार में बीते महीने के अंतिम हफ़्ते में 'विपक्ष परिवर्तन' हो गया। विपक्ष परिवर्तन इसलिए क्योंकि सत्ता तो अभी भी नीतीश कुमार की ही है जो 28 जनवरी से पहले भी थे। बिहार सरकार के मुखिया नीतीश कुमार ही हैं लेकिन नेता प्रतिपक्ष बदल गए हैं। पूरा बिहार नहीं पूरा देश हतप्रभ है कि आखिर मिस्टर क्लीन की छवि वाले नीतीश कुमार जिन पर न ईडी का छापा है न भ्रष्टाचार का आरोप है और वो परिवारवाद से भी मुक्त हैं, वे जनसरोकार के मुद्दों पर भी बहुत मजबूती से खड़े हैं, आख़िर वो अचानक भाजपा के साथ कैसे खड़े हो गए। लेकिन जब राजनीति सिद्धांत विहीन और विचार विहीन होकर केवल अति महत्वाकांक्षा, सत्ता पर हर हाल में नियंत्रण और कब्ज़ा, और हमेशा अपनी राजनैतिक असुरक्षा के भाव पर आधारित हो तो कुछ भी मुमकिन है।
ये अलग बात है कि नीतीश कुमार इंडिया गठबंधन से अलग होने का कोई तार्किक कारण अभी तक नही बता पाये हैं। लेकिन नीतीश के भाजपा के साथ जाने के बाद भी बिहार के पॉलिटिकल तमाशे का अंत हो गया है या वो अपने निर्धारित समय यानी 22 नवंबर 2025 तक का अपना कार्यकाल पूरा करेगी इस पर संशय बरकरार है। बिहार के तमाम राजनीतिक विश्लेषक भी इस पर कुछ स्पष्ट बोलने की स्तिथि में नहीं हैं। अभी नवगठित सरकार का बहुमत परिक्षण भी होना है जिसकी तारीख बारह फरवरी निर्धारित है। कल ही विधानसभा स्पीकर अवध बिहारी चौधरी ने कह दिया है वो फ्लोर टेस्ट से पहले इस्तीफा नहीं देंगे।
अब सरकार विश्वास मत हासिल कर पाती है या कोई नया राजनीतिक घटनाक्रम सामने आता है ये तो बारह फरवरी को पता चलेगा। लेकिन इससे इतर बिहार के राजनैतिक गलियारों में प्रति घंटे की रफ्तार से इस बात की चर्चा तेज़ होती जा रही है कि महीने भर के अंदर बिहार विधानसभा भंग हो सकती है, ऐसा मानना है पटना के कई स्थानीय पत्रकारों का। अंदरखाने की खबरों के मुताबिक ये खबर लगातार चल रही है के नीतीश भाजपा के साथ इन्ही शर्तों पर आए हैं कि बहुमत परीक्षण के बाद बजट सत्र, और उसके बाद कैबिनेट की बैठक बुलाकर बिहार विधानसभा भंग करने की सिफारिश राजभवन को भेज दी जाएगी। नीतीश कुमार के बारे में लगातार ये चर्चा चल रही थी कि नीतीश कुमार हर हालत में लोकसभा के साथ विधानसभा का चुनाव भी चाहते हैं।
आपको बता दें राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा के बावजूद भाजपा के लिए बहुमत का आंकड़ा इस बार मुश्किल लग रहा है। जातिगत आरक्षण, ओबीसी कार्ड, ओल्ड पेंशन स्कीम, आठवां वेतन आयोग और रोटी-रोज़गार के तमाम सवाल राहुल गांधी अपनी यात्रा समेत इंडिया गठबंधन के तमाम नेता अलग-अलग मंचों पर उठा रहे हैं। दूसरी तरफ बिहार, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में एनडीए अलायंस में इंडिया अलायंस से कहीं अधिक भगदड़ की स्तिथि है, ये अलग बात है कि मुख्य धारा का मीडिया ऐसी टूट-फूट की ख़बर केवल विपक्ष के हवाले से दिखाता है या यूं कहिए उसे यही निर्देश दिया गया है।
उत्तर प्रदेश में अनुप्रिया पटेल, ओम प्रकाश राजभर और संजय निषाद से लेकर बिहार में चिराग पासवान, पशुपति पारस, मांझी और उपेंद्र कुशवाहा ने पॉलिटिकल ब्लैकमेलिंग की चौसर बिछा रखी है तो उधर महाराष्ट्र में शिंदे गुट और अजीत पवार गुट के बीच जबरदस्त खींचतान है। इधर संघ की प्राथमिकता में हर हाल में तीसरी बार नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री की शपथ दिलाना है ताकि संघ के सौ वर्षों के पूरे होने के उपरांत उसके हिंदू राष्ट्र का ड्रीम प्रोजेक्ट धरातल पर औपचारिक घोषणा के साथ उतर सके। मोदी इसकी बाबत एक बार इशारा कर चुके हैं के तीसरा कार्यकाल कुछ बड़े फैसलों वाला होगा।
बिहार में लोकसभा की 40 सीटें हैं और 2019 में जदयू के साथ चुनाव लड़ कर भाजपा ने 40 में से 39 सीटें जीती थीं। इस कारण भाजपा के लिए नीतीश की शर्तें मानना उसकी राजनीतिक मजबूरी है। ये अलग बात है कि नीतीश की शर्तों के साथ भाजपा को बिहार में 5 साल और Big Brother की भूमिका नहीं मिलेगी बल्कि उसे नीतीश कुमार के सहयोगी के रूप में ही राजनीति करनी होगी। भाजपा जानती है कि नीतीश के एनडीए गठबंधन में होने का मतलब हैं लोकसभा चुनाव में भाजपा को नीतीश के 14 से 16 फ़ीसदी वोटों की गारंटी मिलना जो फिलहाल भाजपा की प्राथमिकता है।
दूसरी ओर नीतीश कुमार के भाजपा के साथ खड़े होने पर मोदी को एक दूसरा लाभ ये मिल सकता है कि विपक्षी एकता की एक मजबूत कड़ी को वो तोड़ने में कामयाब होकर विपक्ष का मोराल डाउन करने में सफल हो जाएंगे। नीतीश के इंडिया गठबंधन से निकलने के बाद उसकी विश्वनीयता निसंदेह जनता के सामने कम हो जाएगी जिसका लाभ मोदी को मिलना तय है। मोदी अपने चुनावी भाषणों में इस बात का ज़िक्र अवश्य करेंगे के विपक्ष का सेनापति ही आज हमारे साथ है यानी विपक्ष ने पहले ही हार मान ली है। ये नैरेटीव मुख्य धारा की मीडिया की सहायता से आसानी से हिंदी पट्टी में खड़ा किया जा सकता है।
नीतीश कुमार जानते हैं कि अकेले विधानसभा लड़ने की शक्ति भाजपा, राजद, कांग्रेस या ख़ुद उनकी जनता दल यूनाइटेड में से किसी भी दल के पास नही है और उनकी ख़ुद की बार्गेनिंग पावर मई 2024 तक ही है। अपने पीछे खड़े लगभग सोलह सत्रह फीसद वोटों के पहाड़ पर बैठ कर नीतीश कुमार भाजपा से भी अपनी शर्तें मनवा सकते हैं और विधानसभा में अपने विधायकों की संख्या को 45 से ऊपर ले जा सकते हैं जो नीतीश कुमार का प्राथमिक लक्ष्य है। नरेंद्र मोदी का लक्ष्य संसद में 272 का है और नीतीश कुमार बिहार विधानसभा में जदयू विधायकों की संख्या हर हाल में 45 से ऊपर तकरीबन 80- 90 तक देखना चाहते हैं ताकी अगले पांच साल के लिए एक अणे मार्ग पटना यानी मुख्यमंत्री आवास की चाबी उनके पास सुरक्षित रहे। गठबंधन चाहे भाजपा के साथ रहे या फिर एक बार राजद के साथ लेकिन सत्ता की चाबी उन्ही के पास रहेगी। आज जदयू विधानसभा ने नंबर तीन की पार्टी है जिसे हर हाल में नीतीश नंबर वन नहीं तो कम से कम नंबर दो के पायदान पर पहुंचाना चाहते हैं और ये उनके और उनकी पार्टी की सर्वाइवल के लिए भी उन्हें सबसे ज़रूरी लग रहा है। इसलिए कहा जा रहा है कि सहजीवी फॉर्मूले पर दोनों दलों में सहमति बन गई है और दोनों एक-दूसरे के उद्देश्य पूर्ति के लिए साथ खड़े हो गए हैं। नीतीश कुमार का लोकसभा और विधानसभा चुनावों को एक साथ कराने के पीछे का तर्क ये भी है कि मोदी ख़ुद 'वन नेशन वन इलेक्शन' की बात कर रहे हैं तो हम लोग ऐसा कर के बिहार से इसकी शुरआत कर सकते हैं और जनता को एक संदेश दे सकते हैं के हम वन नेशन वन इलेक्शन के अपने एजेंडे पर गंभीर हैं।
वरिष्ठ पत्रकार और बिहार की राजनीति पर गहरी नज़र और सटीक विश्लेषण कला रखने वाले अभिषेक कुमार कहते हैं कि "लोकसभा चुनाव 2024 के साथ बिहार विधानसभा के चुनावों का फैसला नीतीश कुमार ने भाजपा के साथ आने के बाद लिया है ऐसा नहीं है, बल्कि राजद, जदयू यानी महागठबंधन की सरकार को छोड़ने का फैसला ही नीतीश कुमार ने इसी कारणवश किया है कि इंडिया गठबंधन में बिहार में मध्यावधि चुनावों के लिए विधायकों की एक बड़ी संख्या तैयार नही हो रही थी जबकि भाजपा के साथ आने के बाद इसका स्कोप परजीवी फार्मूले के माध्यम से ज़्यादा प्रबल दिख रहा था या यूं कहिए कि जदयू को भाजपा के साथ लाने वाले पंचों के माध्यम से दिल्ली अशोका रोड से इसका सिग्नल भी शायद दे दिया गया था। इसी विषय को लेकर जनवरी माह में नीतीश कई बार लालू और तेजस्वी से बैठक कर चुके थे लेकिन बात बनती दिखाई नही दे रही थी।"
“25 जनवरी को तत्कालीन इंडिया गठबंधन वाली बिहार सरकार की कैबिनेट बैठक बुलाई गई थी जिसके बारे में एक नोट जारी किया गया था कि इस कैबिनेट मीटिंग की कोई औपचारिक रूटिन मीडिया ब्रीफिंग नहीं की जाएगी। शायद मंशा रही होगी कि अगर कैबिनेट में विधानसभा भंग करने पर सहमति बनती है तो इसकी खबर सीधे राजभवन से ब्रेक की जाएगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ और राजद, कांग्रेस और लेफ्ट पार्टियों के अंदर दो धड़े बन गए जिसमें से एक धड़ा नीतीश जी की इच्छा के साथ विधानसभा भंग करने के पक्ष में था जबकि दूसरा धड़ा जिसमें लालू यादव और तेजस्वी थे वो ऐसा नहीं चाहते थे। अगर 25 जनवरी को ही इंडिया गठबंधन वाली नीतीश कैबिनेट में विधानसभा भंग करने की सहमति बन जाती तो नई विधानसभा के गठन तक बिहार सरकार बिहार की कार्यवाहक सरकार हो जाती और कार्यवाहक सरकार के पास लगभग वही शक्ति होती है। वो नीतिगत फैसले भले ही नहीं ले सकती है लेकिन प्रशासन पर उसका पूरा नियंत्रण होता है। 25 जनवरी या उसके एक दो दिन बाद विधानसभा भंग होती तो फिर हर हाल में 24 जुलाई से पहले नई विधासभा का गठन करना होता और चुनाव आयोग को हर हाल में लोकसभा चुनावों के साथ विधानसभा चुनावों की घोषणा करनी पड़ती।"
वरिष्ठ पत्रकार अभिषेक कुमार ये भी कहते हैं कि "नीतीश जी को ये भी लगता था कि बिहार विधान सभा भंग होने की स्तिथि में मुख्यधारा की सत्ता समर्थक मीडिया द्वारा उनके ख़िलाफ़ सुबह से शाम तक रोज़ बनाया जाने वाले नैरेटिव, के आज तेजस्वी मुख्यमंत्री बनेंगे, अगले हफ्ते महागठबंधन की सरकार गिर जायेगी, नीतीश जी अब भाजपा के पाले में जायेंगे, भाजपा में उनको कोई पूछ नहीं रहा है, बल्कि अमित शाह ने तो लाखों की भीड़ के सामने बिहार में ये कह दिया कि नीतीश के लिए भाजपा के दरवाज़े हमेशा के लिए बंद हैं - जैसी खबरों के साथ नीतीश को बिहार की जनता के सामने डिस्क्रेडिट करने के षड्यंत्र पर भी नकेल कस जाएगी। लेकिन इंडिया गठबंधन में इस पर सहमति नहीं बनी। नीतीश अब भाजपा के साथ हैं और कहा जा रहा है कि भाजपा और जदयू के बीच इतनी अविश्वसनीयता की स्तिथि कभी नही थी जितनी आज है। इसका एक उदाहरण तो तब ही बिहार ने देख लिया था जब वर्तमान की भाजपा जदयू गठबंधन की नई सरकार गठन से पहले भाजपा की तरफ से कहा गया के पहले नीतीश राजभवन जाकर अपना इस्तीफा महामहिम राज्यपाल को सौंपेंगे उस के बाद ही भाजपा अपने विधायकों का समर्थन पत्र नीतीश को देगी। उसके बाद नीतीश को लग रहा था कि सुशील कुमार मोदी को उप-मुख्य्मंत्री बनाया जाएगा क्योंकि वो उनके साथ काफ़ी सहज रहते हैं लेकिन उनके दाएं बाएं सम्राट चौधरी और विजय सिन्हा को खड़ा करके उनकी बैरिकेटिंग कर दी गई। नीतीश को अब ये भी लग रहा है कि भाजपा ऑपरेशन लोटस करके जदयू को तोड़ सकती है और उन्हें हाशिए पर डाला जा सकता है। शिवसेना का हाल वो देख चुके हैं। वीआईपी वाले मुकेश सहनी के तीन विधायकों को भाजपाई बना लेने का खेल वो बिहार में तो देख ही चुके हैं अरुणाचल प्रदेश में उनके अपने दल यानी जदयू के ही सात विधायकों को भाजपा ने कैसे तोड़ा था वो नीतीश जी भूल गए हों ऐसा लगता नही है। उस वक्त तो नीतीश भाजपा गठबंधन के साथ ही थे। नीतीश को लगता है कि इसलिए भी लोकसभा के साथ ही विधानसभा का चुनाव करा लेना बुद्धिमानी है ताकि ऐसी तमाम संभावनाओं को रोका जा सके।"
नीतीश हर हाल में बिहार विधानसभा को भंग कर नए सिरे से चुनाव क्यों चाहते हैं इसका एक और कारण भी है जिसे ध्यान रखना ज़रूरी है। 2020 के बिहार विधानसभा चुनावों में मोदी के स्वघोषित हनुमान और कथित चिराग मॉडल के जरिए भाजपा ने अलायंस में रहते हुए जदयू को कमज़ोर करने का खेल रचा और इसमें भाजपा काफ़ी सफल रही। भाजपा और संघ के नेताओं और कार्यकर्ताओं को लोजपा के चुनाव चिन्ह पर नीतीश के ख़िलाफ़ मैदान में उतारा गया था। उस वक्त लोजपा एक ही थी और जैसा कि आज उनके चाचा पशुपति पारस कहते हैं कि उस वक्त चिराग पासवान ने पार्टी संसदीय बोर्ड के निर्णय के ख़िलाफ़ जाकर राजग गठबंधन से अलग होकर अकेले विधानसभा चुनाव लड़ने का फैसला किया था और 137 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे थे जिसमें से केवल एक पर जीत मिली थी और बाकी कितनों की तो जमानत तक नहीं बची थी लेकिन नीतीश कुमार को उसका बहुत बड़ा नुकसान उठाना पड़ा था और उनकी सीटें भाजपा से लगभग आधी हो गई थीं। नीतीश इस बार वो रिस्क नहीं लेना चाहते हैं। नीतीश जानते हैं जब लोकसभा चुनाव के साथ विधानसभा चुनाव होंगे यानी वोटिंग 40+ 243 सीटों के लिए जनता वोट देने घर से बाहर निकलेगी तो कोई चिराग मॉडल और मोमबत्ती मॉडल की गुंजाइश नहीं रहेगी बल्कि मनोवैज्ञानिक रूप से वोटर उधर ही बटन दबाएगा जिस गठबंधन का सामाजिक जातिगत वोटों की गोलबंदी का समीकरण और आधार मजबूत होगा। दूसरी तरफ भाजपा के साथ रहने पर चुनावी हिंदुत्व का फायदा भी मिलेगा जिसकी संभावना राजद के साथ चुनाव लड़ने पर शायद कम थी।
बहरहाल जानकारों का मानना है कि विधानसभा भंग करने से पहले तमाम तैयारी कर ली गई हैं और विधानसभा चुनावों को लेकर जदयू और भाजपा के सामने सीट बंटवारे को लेकर दो तरह के फॉर्मूले हैं। पहला जदयू 122 और भाजपा 121 सीटों पर चुनाव लड़ सकती है और भाजपा अपनी 121 सीटों में से चिराग पासवान की लोजपा (आर) को एडजस्ट करेगी और नीतीश कुमार अपने कोटे से मांझी को हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा यानी 'हम' को एडजस्ट करेगी। दूसरा फॉर्मूला जदयू 130 और भाजपा 113 का है। लोकसभा चुनाव में दोनों दल 18-18 सीटों पर लड़ सकते हैं और शेष चार सीटों में लोजपा दोनों गुट को एडजस्ट किया जाएगा। इस बीच बिहार की 6 राज्यसभा सीटों के लिए भी चुनाव होने हैं जिसकी अधिसूचना जारी हो चुकी है। जिन सांसदों का मौजूदा कार्यकाल समाप्त होने वाला है उनमें वशिष्ठ नारायण सिंह और अनिल हेगड़े (जदयू), सुशील कुमार मोदी (भाजपा), मनोज कुमार झा और अशफाक करीम (राजद) और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अखिलेश प्रसाद सिंह शामिल हैं। राज्यसभा चुनाव के लिए नामांकन दाखिल करने की अंतिम तिथि 15 फरवरी है और 16 फरवरी को नामांकन पत्रों की जांच की जाएगी और अगर सातवें उम्मीदवार का नामांकन नहीं होता है और सभी छह उम्मीदवारों के नामांकन में कोई गड़बड़ी नहीं पाई जाती तो उसी दिन देर शाम यानी 16 फरवरी को सभी छह उम्मीदवारों को निर्विरोध निर्वाचित कर दिया जाएगा जबकि सातवें उम्मीदवार होने की स्तिथि में 27 फरवरी को चुनाव की प्रक्रिया होगी। अगर राज्यसभा का चुनाव बिना सातवें उम्मीदवार के संपन्न हो जाता है और चुनाव की नौबत नहीं आती है तो संभव है कि वैसी स्तिथि में 17 या 18 फरवरी को ही विधानसभा भंग करने की सिफारिश की जा सकती है अन्यथा पूर्व योजानुसार एक या दो मार्च को बिहार विधानसभा भंग होने की सिफारिश राज्यपाल को सौंपी जा सकती है जो तस्वीर अब तक दिख रही है।
जानकार मानते हैं कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का वर्तमान दिल्ली दौरा भी इस योजना को अंतिम रूप देने की कवायद ही थी। लेकिन इन सब के लिए नीतीश कुमार को सबसे पहले सदन में बहुमत साबित करना होगा और इसकी जिम्मेदारी भी भाजपा से ज़्यादा जदयू पर ही है। भाजपा जानती है कि उसका अपना उद्देश्य पूरा हो चुका है कि उसने विपक्षी गठबंधन के एक महत्वपूर्ण घटक दल बल्कि शिल्पकार को तोड़ कर जनता को एक मैसेज दे दिया है।
बहुमत को लेकर सभी दल अपने-अपने दावे कर रहे हैं। भाजपा भी दावा कर रही है कि कांग्रेस और राजद के विधायक उसके संपर्क में हैं। जदयू की तरफ से कांग्रेस के एक पूर्व प्रदेश अध्यक्ष जो अभी जदयू विधान पार्षद और मंत्री ही नहीं बल्कि नीतीश के काफ़ी करीबी माने जाते हैं वो कांग्रेस विधायकों को मैनेज करने में लगे हैं। कांग्रेस विधायकों को हैदराबाद भेजा जा चुका है। राजद का दावा है कि जदयू ही नही भाजपा के विधायक तक उनके संपर्क में हैं। इस बात को और बल इसलिए भी मिलता है कि दूसरे राज्यों में 'ऑपरेशन लोटस' चलाने और सरकार को अस्थिर करने में महारत रखने वाली भाजपा को भी अपने विधायकों को 'ऑपरेशन लालटेन' का डर लग रहा है इसलिए उन्हें भी तथाकथित प्रशिक्षण के नाम पर बोधगया शिफ्ट किया गया है। सभी दलों के कुछ न कुछ विधायक लोकसभा का चुनाव लड़ना चाहते हैं इसलिए भी इधर-उधर शिफ्टिंग की संभावना ज़्यादा दिखती है।
बहुत साफ है कि 241 सीटों वाली विधानसभा में बहुमत के लिए 122 का जादुई आंकड़ा चाहिए। अभी 28 जनवरी से पहले तक राजद गठबंधन के साथ नीतीश जिस सरकार के मुखिया थे उसके पास बिहार विधानसभा में एक तिहाई बहुमत था लेकिन फिलहाल नीतीश जी के पास बहुमत से अधिक सिर्फ छह की संख्या है। जिनमे चार तो जीतन राम मांझी जी के हैं। मांझी जी लगातार अपना भाव बढ़ा रहे हैं। उन्हें दो मंत्री पद के साथ-साथ राज्यसभा और लोकसभा की सीटें भी चाहिए। दूसरी तरफ लालू यादव उन्हें मुख्यमंत्री पद का ऑफर तक दे चुके हैं। ऐसी स्तिथि में अगर मांझी ने लालू से हाथ मिलाया तो सिर्फ़ तीन और विधायकों की जरूरत पड़ेगी जो कि लालू यादव जैसी सत्ता के खेल को बनाने-बिगाड़ने में माहिर खिलाड़ी के लिए बहुत ज़्यादा मुश्किल नहीं है।
वरिष्ठ पत्रकार अरुण पांडे मानते हैं कि बारह फरवरी को जब सत्र शुरू होगा तो परंपरा के अनुसार साल का पहला सत्र महामहिम राज्यपाल के अभिभाषण के साथ शुरू होगा और उसके बाद की कार्य सूची के अनुसार सबसे पहले स्पीकर के ख़िलाफ़ अविश्वास प्रस्ताव लाया जाएगा। संभावना है कि अगर नीतीश कुमार को स्पीकर के ख़िलाफ़ सदन में लाए गए प्रस्ताव के गिरने की आशंका दिखी तो नीतीश बहुमत परीक्षण की दिशा में बढ़ने के बजाए उसी वक्त अपनी कैबिनेट की बैठक बुला कर सहमति के साथ विधानसभा भंग करने की सिफारिश राज्यपाल को सौंप देंगे।
नीतीश कुमार तेजस्वी के मुख्यमंत्री बनने की गुंजाइश तो नहीं छोड़ेंगे ये तय है। परंतु वैसी स्तिथि में भी बिहार में भाजपा की नैतिक हार तो उसी वक्त ही हो जाएगी। झारखंड में हेमंत सोरेन प्रकरण में भाजपा की नैतिक हार आज किसी से छिपी नहीं है। दुनिया ने देखा के किस तरह दिल्ली में बैठे मीडिया प्रायोजित तथाकथित चाणक्य और बात-बात पर मास्टर स्ट्रोक मारने वालों वालों को हेमंत सोरेन ने बिरसा मुंडा की धरती पर कैसे पटखनी दी और एक आदिवासी नेता के रूप में अपने आपको राष्ट्रीय पटल पर स्थापित कर दिखाया। अगर नीतीश कुमार बहुमत साबित करने में असफल हो जाते है तो निश्चित रूप से तेजस्वी यादव बिहार में नीतीश कुमार के सामने जबरदस्त मनोवैज्ञानिक बढ़त बना लेंगे इसमें कोई संदेह नहीं है। तेजस्वी यादव निसंदेह आज एक परिपक्व और संयमित नेता के रूप के बिहार के राजनीतिक फलक पर उभरे हैं ऐसा तमाम राजनीतिक जानकारों का एक मत है और बिहार के जमीनी हालात के मुताबिक नीतीश जी की विश्वसनीयता को इस बार के पलटी मार प्रकरण से गहरा आघात लगा है इस में भी कोई शक नही है। तेजस्वी के प्रति जनता की सहानुभूति भी है क्योंकि वो काफ़ी अच्छा काम कर रहे थे। नीतीश चाह कर भी जातिगत जनगणना, लाखों नौकरी और अन्य जनकल्याण की योजनाओं का लाभ नहीं ले पाएंगे जो उन्होंने इंडिया अलायंस के साथ रहते हुए किए हैं। अब सौ घंटों के भीतर बिहार की राजनीतिक तस्वीर काफ़ी कुछ साफ़ हो जाएगी। इंतज़ार कीजिए ऊंट किस करवट बैठता है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। विचार निजी हैं।)
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