कश्मीर में सरकारी रवैया बदलना क्यों ज़रूरी ?
कश्मीर में संचार बंद अपने 60 वें दिन में पहुंच चुका है, कश्मीरियों और वहां की स्थिति के बारे में काफी भाषणबाजी की जा रही है और कई तरह के तर्क दिए जा रहे हैं।
भारत के गृहमंत्री कहते हैं कि प्रतिबंध सिर्फ ''आपके दिमाग में है'', सेना प्रमुख का कहना है कि ''कश्मीर में आम जिंदगी पर कोई फर्क नहीं पड़ा।'' वहीं राज्यपाल के मुताबिक कश्मीरियों को ''विशेष दर्जे'' की नहीं बल्कि ''विशेष इलाज'' की जरूरत है। यह तो महज कुछ उदाहरण जिनमें हम सभी को सबकुछ सीधा-सीधा बताया जा रहा है।
चलो मान लेते हैं कि प्रतिबंध हमारे दिमाग में है। तो फिर क्यों सरकारी प्रोपगेंडा और विदेश से आने वाली खबरों के अलावा कोई खबरें सामने नहीं आ रहीं? आखिर क्यों ऐसा है कि वहां इंटरनेट पूरी तरह बंद है, आने-जाने पर प्रतिबंध लगाए जा रहे हैं और 23 हजार लैंडलाइन को छोड़कर 80 लाख मोबाइल पूरी तरह बंद हैं? क्या यह सब भी किसी की दिमागी ऊपज है?क्यों बेनाम अधिकारी इस तर्क को बढ़ा रहे हैं कि कश्मीर में संचार बंद कश्मीरियों को ''दिमागी पट्टी पढ़ाने'' से बचाने के लिए है? मान कर चलते हैं कि यह सरकार का काम है कि वो लोगों को एक दूसरे से बात करने, घुलने-मिलने और सरकारी विवरण के विरोध में जाने से रोके।
जहां तक सामान्य जिंदगी की बात है और यह अगर ''प्रभावित नहीं हुई है'' तो क्यों 9.5 लाख सैनिकों की तैनाती की गई, 10 साल बाद बंकर वापस बनाए गए, हाइवे और रोड पर चैकप्वाइंट और बैरियर लगाए गए? क्यों रहवासी कॉलोनियों के आसपास वायर लगाए गए, जिनके चलते वहां आना-जाना संदिग्ध हो गया है? क्या यह आम जनजीवन की निशानदेही है? जहां तक 'विशेष इलाज' की बात है, मुझे लगता है राज्यपाल अपने निशाने पर सटीक थे। आखिर हमारे कश्मीरी भाईयों के साथ यही तो हो रहा है।
चीजों को बेहद छोटा कर, जबरदस्ती साहस दिखाने की बेकरारी झलक जाती है, यह भारत के खुल्ला ताकत दिखाने के पैमाने से भी बेहद नीचे चला जाता है। इसमें जम्मू कश्मीर के नागरिकों के लिए किसी भी तरह की चिंता नहीं है। ऊपर जिन अहम लोगों का जिक्र है, वे इस विकट सच पर पर्दा डालने में हिस्सेदार हैं।
जस्टिस अली मोहम्मद माग्रे ने हाल ही में जम्मू-कश्मीर के किशोरों से संबंधित एक रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की है। इसमें सरकारी आंकड़ों के हवाले से बताया गया कि 5 अगस्त से 23 सितंबर के बीच कम से कम 144 बच्चों को हिरासत में लिया गया। इनमें 9 साल के बच्चे तक शामिल हैं। पुलिस के मुताबिक, ''इनके साथ सख्ती से जुवेनाइल जस्टिस एक्ट के मुताबिक बर्ताव किया गया।'' 144 में से 46 को निगरानी गृहों में रखा गया है, वहीं 25 बच्चों को बेल दे दी गई। जो 46 बच्चे हिरासत में हैं उनमें से 36 श्रीनगर और 10 जम्मू में थे। फिलहाल निगरानी गृहों में कम से कम 21 बच्चे हैं, इनकी जांच पूरी नहीं हुई है। इनमें 15 श्रीनगर और 6 जम्मू में हैं। इन्हें पत्थर फेंकने के आरोप के चलते हिरासत में लिया गया था। केवल तानाशाही में ही बच्चों को निशाना बनाया जाता है। जहां कानून का शासन, कानून से शासन बन जाता है।
राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर मनमुताबिक नियमों में फेरबदल होते हैं। एक ओर अनुच्छेद 370 और 35A हटाने के वक्त किसी से सलाह नहीं ली गई। दूसरी तरफ ''आजादी'' का समर्थन करने वालों के साथ-साथ ''एकता'' की बात करने वाले नेताओं को हिरासत में ले लिया गया। कुछ एक्टिविस्ट को कश्मीर के बाहर जेलों में रखा गया है, ऐसे में क्या बिना नेता वाले कश्मीरी लोगों को पत्थर उठाने के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है? वो भी तब जब उनसे''दुश्मन'' की तरह बर्ताव करने पर उनमें नाराजगी है और उन्हें एक आभासी कैद में रखा गया है।
लोगों का निवारण के सभी क्षेत्रों में भरोसा कम हो रहा है। न्याय व्यवस्था के ''जीवन और स्वतंत्रता'' के अधिकार की रक्षा कर पाने की काबिलियत पर भी उनका शक बढ़ता जा रहा है। न तो हाईकोर्ट और न ही डिस्ट्रिक्ट कोर्ट पूरी तरह से काम कर पा रहे हैं। हाईकोर्ट में सिर्फ 9 जज हैं। जबकि वहां बंदी प्रत्यक्षीकरण (हीबियस कॉर्प्स) के 250 से ज्यादा मामले 5 अगस्त के बाद आए हैं। जम्म-कश्मीर और उसके बाहर ही हजारों की संख्या में हिरासत में लोग बंद हैं। इस बात को मानना नामुमकिन है कि प्रतिबंधों से न्यायव्यवस्था तक पहुंच पर कोई फर्क नहीं पड़ा।
लेकिन सुप्रीम कोर्ट में चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली बैंच ने सीनियर एडवोकेट हुजेफा अहमदी से कहा कि हमें आपके (जम्मू-कश्मीर) हाईकोर्ट से एक रिपोर्ट मिली है, जो आपके स्टेटमेंट का समर्थन नहीं करती। हुजेफा अहमदी ने 16 सितंबर को अपनी याचिका में सुप्रीम कोर्ट से कहा था कि घाटी में लोगों के लिए हाईकोर्ट तक पहुंचना मुश्किल हो रहा है।
यह भी तब हो रहा है जब हाईकोर्ट की वेबसाइट खुद यह दावा करती है कि प्रतिबंधों से आवाजाही पर असर पड़ रहा है, पोस्टल सर्विस बंद है इसलिए दस्ती नोटिस को हाथ से ले जाकर देना पड़ रहा है। संचार पर प्रतिंबध से जानकारी के लेन-देन पर असर पड़ रहा है। बड़ी संख्या में वकीलों को हिरासत में लिया गया है, याचिकाकर्ताओं को वकील खोजने में दिक्कत आ रही है।
सुप्रीम कोर्ट बंदी प्रत्यक्षीकरण और आर्टिकल 370 और 35A को चुनौती देने वाली याचिकाओं को सुनने में देर कर रहा है। जब तक 14 नवंबर आएगा तब तक ज्यादातर पानी बह चुका होगा और निर्विवादित तथ्यों को परोस दिया जा चुका होगा। अगर उस वक्त कोर्ट 370 के हटाने के खिलाफ फैसला देता है तो उस फैसले को लागू करवाने का कितना मौका होगा? ये सवाल लोगों के दिमाग में घूमते हैं और उनके न्यायव्यवस्था में विश्वास को हिला देते हैं।
एक दूसरी चिंता की बात करते हैं। जन्म और मृत्यु प्रमाण पत्रों को हासिल करने वाला, एक प्राथमिक मगर बेहद जरूरी काम कश्मीर में बिगड़ गया है। आज जब ऊंचे पायदानों से घुसपैठियों को बाहर करने वाली आवाजें आती हैं, एनआरसी का मुद्दा पूरे भारत पर छाया हुआ है, तब अगर किसी नए जन्मे बच्चे के पास जन्म प्रमाणपत्र न हो, तो यह बात उसके खिलाफ जा सकती है। जहां तक मृत्यु प्रमाण पत्र की बात है तो इसके बिना एक विधवा को पेंशन नहीं मिल सकती। दोनों प्रमाणपत्रों को जारी करने वाली आधिकारिक संस्था को सरकार की मनाही के कारण बीएसएनएल इंटरनेट नहीं दे पा रहा है, यहां तक कि मानवीय आधार पर भी नहीं। यह भी एक चिंता की बात है।
कश्मीर में किसी भी केस में चुनाव फर्जी साबित होते हैं, वहां पंच और सरपंच की 19,578 सीटों में से सिर्फ 7,029 ही भरी गईं(उनमें भी खराब वोटर टर्नआउट रहा, जिससे निर्विरोध विजेता सामने आए) और 12,549 सीटें खाली रह गईं।
दूसरे शब्दों में, 60 फीसदी सीटें आधिकारिक तौर पर खाली रहीं और केवल 35 फीसदी पंच बीडीसी सदस्यों का चुनाव करेंगे। बता दें इन कदमों से निचले स्तर तक लोकतंत्र पहुंचाने और विकास करने की बात होती है। लेकिन इस निर्लज्ज कार्रवाई से खुद इसका पता चल जाता है।
इस सबसे ऊपर सरकार की उद्घोषणाओं में जो चीज नहीं है, वो है कश्मीरियों का अपनी जमीन और नौकरी छिन जाने का डर। सरकार ने आरएसएस प्रमुख के सुझाव को भी नजरंदाज कर दिया। इससे जमीन और नौकरी छिन जाने की बात और गंभीर हो जाती है। भागवत से जब पूछा गया कि अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद बाहरी लोग वहां जमीनें खरीदने लगेंगे तो उन्होंने कथित तौर पर कहा, ‘’नौकरियां और जमीन छिन जाने के बारे में उनका जो भी डर है उसे दूर किया जाना चाहिए।’’
लेकिन इस टिप्पणी को ध्यान के साथ देखा जाना चाहिए, क्योंकि यह विदेशी पत्रकारों के सवाल पर अंतरराष्ट्रीय जनता के सामने कही गई बात थी। ध्यान रहे, इनके कैडर की कश्मीर में राष्ट्रवादियों को बसाने की मांग पुरानी है। हालांकि जम्मू-कश्मीर में जमीन और नौकरियों का मुद्दा धर्म और क्षेत्र से बढ़कर है। यहां तक कि जम्मू के आरएसएस और बीजेपी सदस्य भी इसके खिलाफ बयानबाजी कर चुके हैं। हो सकता है जम्मू में खुद अपने लोगों में इस असुरक्षा की भावना के बारे में आरएसएस चीफ को पता न हो। बावजूद इसके भारत सरकार और इसके अधिकारी चुप हैं।
अगर आरएसएस प्रमुख के ‘’डर दूर करने’’ के सुझाव पर सरकार कोई ध्यान नहीं दे रही है तो इसका मतलब है कि किसी भी सलाह का कोई फर्क नहीं पड़ेगा और अपने प्लान व नीतियों के लिए सरकार जोर-जबरदस्ती का ही इस्तेमाल करेगी। लेकिन जैसा कहा जाता है कि जब वक्त होता है तो अच्छी योजनाएं भी धरी की धरी रह जाती हैं।
जैसा सरकार दावा कर रही है कि ‘’स्थिति पूरी तरह नियंत्रण’’ में है और वे ‘’किसी भी तरह की चुनौती से निपटने के लिए तैयार हैं’’, लेकिन निषेधात्मक प्रतिरोध ने बड़ी हद तक सरकार की नियंत्रण में होने के मिथक में छेद कर दिए हैं। अनुच्छेद 370 हटाने के बाद सरकार के पास वापस लौटने का कोई विकल्प नहीं बचता। वहीं आगे बढ़ने पर उन प्रतिबंधों ने गतिरोध लगा दिया है जो सरकार कश्मीरियों के खिलाफ इस्तेमाल कर रही थी। इन कारणों से सरकार के दावे संशय में लगते हैं।
कम्यूनिकेशन और नेटवर्किंग की रुकावटों के बावजूद, एक साझा दर्द ने कश्मीरियों के लिए एक ही कदम छोड़ रखा है कि जब भी उन्हें दबाने की कोशिश हो वे निष्क्रिय प्रतिरोध करें। इस करो या मरो की स्थिति में, लोगों के शेड्यूल में बाजार खोलने-बंद करने, बच्चों का स्कूल बॉयकॉट, बाहर जाकर खतरा मोल लेने से इंकार, और कुछ जगहों पर शेड्यूल को भंग करने वालों का प्रबल स्थानीय विरोध, है। इन सबके जरिए जनअवज्ञा जारी है और इसने सरकार के इरादों को नाकाम कर दिया है।
इन सभी कारणों से, जिनमें अधिकतर खुद सरकार ने पैदा किए हैं, इनसे तय हो गया है कि आगे भी विवाद और टकराव जारी रहेगा। फिलहाल मौतों का आंकड़ा कम है, लेकिन जब प्रतिंबध हट जाएंगे और तब जो होगा उसका केवल अंदाजा ही लगाया जा सकता है। सर्जिकल स्ट्राइक के वक्त आर्मी की उत्तरी कमांड के प्रमुख रहे जनरल डीएस हुड्डा ने सरकार को याद दिलाया है कि स्थितियों से निपटने का असली इम्तिहान तो उस वक्त होगा जब प्रतिबंध हटा लिए जाएंगे और लोग विरोध करने आएंगे।
अगर प्रतिबंध दो महीने से ज्यादा जारी रहे, तब क्या होगा? क्या सरकार को 5 अगस्त के बाद भारत में जो समर्थन मिला है, वो हर गुजरते दिन के साथ कम नहीं होता जाएगा?
बुद्धिमत्ता इसी में है कि स्थितियां और खराब होने से पहले अपने कदम बदले जाएं, क्योंकि अंतरराष्ट्रीय समुदाय खराब होती स्थितियों को नजरंदाज नहीं कर पाएगा। दुर्भाग्य से अफगानिस्तान में चल रहे घटनाक्रम, जिसमें अमेरिका-तालिबान की बातचीत चालू होगी, से इशारा मिलता है कि भविष्य में भारत की पैंतरेबाजी को दर्ज किया जाएगा।
क्योंकि चीन और रूस समेत सभी अमेरिका-तालिबान समझौते के पक्ष में हैं, वे इसे तालिबान-काबुल समझौते की दिशा में पहला कदम मानते हैं। यह सही भी है क्योंकि अमेरिकी नेतृत्व वाले नाटो ने ही तालिबान सरकार को काबुल से उखाड़ फेंका था। इसलिए काबुल के साथ तालिबान के समझौते के लिए जरूरी है कि पहले अमेरिका और तालिबान का समझौता हो और अमेरिका अफगानिस्तान से फौज हटाने के कार्यक्रम की घोषणा करे।
कोई भी नहीं चाहेगा कि इस बीच कश्मीर में स्थितियां खराब हों। क्योंकि अफगानिस्तान में शांति के लिए पाकिस्तान अहम है। वे कश्मीर में स्थितियों को उपयोग करना चाहते हैं ताकि अमेरिका से हस्तक्षेप करवाया जा सके। इसलिए ऐसी कोई भी बात जिससे अफगानिस्तान में इस समझौते को नुकसान पहुंचता हो, उसे अंतरराष्ट्रीय और खासकर क्षेत्रीय गुस्से का शिकार होना पड़ेगा और कश्मीर विवाद से निपटने के तरीके के लिए भारत को अपमान सहना पड़ेगा।
भारत के पड़ोस में खराब माहौल, जहां यह अपने दो पड़ोसियों के साथ सीमा विवाद में है और अफगानिस्तान में जारी युद्ध के बीच, किसी भी स्थिति में कश्मीर में जोर-जबरदस्ती की नीति भारत के अनुकूल नहीं है।
भारतीय लोग इस गलतफहमी में रह सकते हैं कि भारत अब एक वैश्विक ताकत है, जो सबसे ताकतवर, डोनल्ड ट्रंप के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा है और जो भी वह खुद के लोगों के साथ करता है, वो किसी दूसरे की चिंता नहीं है। लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति वक्त के साथ बदल सकते हैं। एक आदमी जो केवल भारत में पैसे की संभावनाओं को देखकर खुश होता है, वो भारत के प्लान को नुकसान पहुंचा सकता है। तब भारत का प्रभाव केवल घर में धरा रह जाएगा। यहां हम आर्थिक संकट को भी नजरंदाज नहीं कर सकते, जिसमें विदेशी धन और वित्त पर निर्भरता होती है, यहां अंतरराष्ट्रीय प्रभाव काफी बढ़ जाता है और उसे अलग नहीं किया जा सकता।
सब चीजों को देखते हुए क्या यह बुद्धिमत्तापूर्ण नहीं है कि भारत सरकार अपने रवैये में बदलाव लाए और लोकतांत्रिक-राजनीतिक प्रक्रिया चालू कर पुरानी सरकारों की गलतियां सुधारे। कांग्रेस पार्टी से ज्यादा नीचे गिरने की जगह बेहतर होता कि लोकतांत्रिक तरीकों का सहारा लिया जाता। असली ताकत गलतियां मानने में है, सिर्फ पुरानी सरकारों की नहीं, इस सरकार की भी और बदलाव की तरफ मुड़ा जाए। ऐसा न हो कि आने वाले लंबे वक्त तक हमें यह मिथक सताते और डराते रहें। कश्मीर पर बदली नीतियों का यह मकसद तो कतई नहीं हो सकता? या हो सकता है?
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