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जब भी संकट पैदा होता है वैश्विक पूंजी तीसरी दुनिया को अकेला छोड़ देती है!

महामारी के कारण अकेले मार्च में ही भारत सहित तीसरी दुनिया के देशों से लगभग 83 अरब डॉलर निकल गए हैं। इसलिए समय आ गया है कि अब वैश्वीकरण से नाता तोड़ दिया जाए।
 वैश्विक पूंजी
प्रतीकात्मक तस्वीर

मौजूदा वैश्वीकरण की वकालत करने वाले हमेशा जो तर्क देते रहे हैं, वह यह कि अब पूंजी औपनिवेशिक काल के विपरीत काम करती है और अपने व्यापार के स्थान के बारे में तय कराते वक़्त नस्लीय या इसी तरह के अन्य भेदों पर ज्यादा गौर नहीं करती है; यानी पूंजी वहीं जाती है जहां उसे निवेश के लाभदायक अवसर मिलते हैं।

तीसरी दुनिया के देशों में कम मजदूरी और लाभ की अधिकता को देखते हुए पूंजी ने विकसित देशों (बड़े महानगरों वाले देश) में अपने प्लांट लगाने के बजाय तीसरी दुनिया को चुना गया, जो अब विकसित देशों और तीसरी दुनिया के देशों के बीच संचयी विचलन (cumulative divergence) को सुनिश्चित नहीं करेगा,जैसा कि पहले करता था, बजाय इसके यह अब इसके विपरीत, इस विचलन के उन्मूलन का काम करेगा। इसी तर्क के आधार पर तीसरी दुनिया के देशों को अपनी अर्थव्यवस्था को खोलने को कहा गया था; और वास्तव में एशिया में पूर्व और दक्षिण-पूर्व के कई देशों के अनुभव, जिन देशों में कई औद्योगिक और सेवा क्षेत्र की गतिविधियों को विकसित देशों से यहाँ स्थानांतरित किया गया था, वे सब इस दृष्टिकोण की पुष्टि करते दिखाई दे रहे हैं।

इस तरह से अर्थव्यवस्था को "खोलने" का विरोध, जो वैश्वीकरण में निहित है,नासमझ कदम लगा, और जिसे औपनिवेशिक काल से विरासत में मिली पुरानी वैचारिक समझ का हैंगओवर कहा गया। कई लोगों ने यह भी तर्क भी दिया कि तीसरी दुनिया में औपनिवेशिक काल के खत्म होने के बाद वहाँ भी "आर्थिक महाशक्तियां" में उभार आया है, और इसलिए यह आभास दिया गया कि "साम्राज्यवाद" शब्द अपनी प्रासंगिकता खो चुका है।

इस तर्क के साथ दो मूलभूत समस्याएं हैं। पहली, जिसकी हम यहां अधिक चर्चा नहीं करेंगे, वह यह है कि किसी भी देश को वैश्विक बाजार में प्रतिस्पर्धी बने रहने के लिए उसे अपने भीतर निरंतर तकनीकी-सह-संरचनात्मक परिवर्तन लाना होगा जिससे श्रम उत्पादकता दर में वृद्धि होती है और इसलिए किसी भी जीडीपी वृद्धि के मामले में यह स्थिति रोजगार वृद्धि की दर में कमी लाती है।

यह स्थिति किसान और कृषि को निचोड़ने के साथ आती है जो अनिवार्य रूप से इस तरह की रणनीति का हिस्सा होता है और संकटग्रस्त ग्रामीण श्रमिकों का शहरों की तरफ पलायन का मतलब है कि मेट्रोपोलिज़ से तीसरी दुनिया में आर्थिक गतिविधियों के प्रसार के बावजूद पूरे श्रम भंडार का उपयोग कभी नहीं किया जाता है। इसलिए, बेरोजगारी और गरीबी बनी रहती है, और वास्तव में बढ़ती रहती है, तब भी जब जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) की दर ऊंची होती है, उससे देश के भीतर सामाजिक और आर्थिक स्तर पर एक गहरा अंतर पैदा हो जाता है। हमारा भारतीय अनुभव इस बात की पुष्टि करता है।

उपर्युक्त तर्क के साथ दूसरी समस्या यह है कि हमें यहां क्या चिंता होनी चाहिए, और यह इस तथ्य से संबंधित है कि पूंजी के लिए रास्ता "खोलने" के बाद कोई निकेश के लिए पूंजी और उत्पादन के लिए पूंजी के बीच कोई अंतर या भेद नहीं होना चाहिए। यहां तक कि अगर हम एक पल के लिए यह मान भी लें कि उत्पादन की पूंजी वास्तव में "अंधी" हो गई है, वहाँ के लिए जहां इसे लगाया जाता है तो यह पूंजी केवल मुनाफे को अर्जित करने पर ध्यान केन्द्रित करती है (जो अपने आप में सच नहीं है), वह निश्चितता वित्त पूंजी के मामले में कतई नहीं है। इस तथ्य की जानकारी हमेशा से थी, लेकिन महामारी ने इसे फिर से सबसे अधिक नग्न रूप से पेश किया है।

वित्तीय पूंजी के तीन महत्वपूर्ण गुण हैं। एक तो यह बड़े पैमाने पर अस्थिर रहती है, छोटे से उकसावे पर यह बड़ी तेजी के साथ एक स्थान से दूसरे स्थान पर जा सकती है, जो तब अपने आप में एक संचयी चरित्र हासिल कर लेती है और इसलिए किसी भी अर्थव्यवस्था को जब चाहे अस्थिर कर सकती है।

दूसरा इसका स्पष्ट रूप हठधर्मी होना हैं, इस हठधर्मिता में सबसे ऊपर जो बात है वह यह कि यह राज्य के आर्थिक-हस्तक्षेप को नापसंद करती है, जिसमें सभी परिस्थितियों में अधिक राजकोषीय घाटे का नापसंद करना भी इसका एक संकेत है। इसकी ये दोनों संपत्तियां या गुण बताते हैं कि सरकारें ऐसा करने के लिए क्यों तैयार रहती हैं, वे सार्वजनिक उपक्रमों में निवेश और सार्वजनिक शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा पर खर्च के बारे में हमेशा आशंकित रहती हैं,  और ये गुण यह भी स्पष्ट कराते हैं कि राजकोषीय घाटा मंदी के बीच भी क्यों सीमित रहता है।

यह वित्त की तीसरी संपत्ति या गुण है हालांकि यहां इसका अत्यधिक महत्व है, यहाँ इस पर कम चर्चा हुई है या इसका नोटिस कम लिया गया है; कि यह विश्व अर्थव्यवस्था में किसी भी तरह की गड़बड़ी के पहले संकेतों के मिलने भर पर ही तीसरी दुनिया के देशों से विकसित देशों (मेट्रोपोलिज) के "सुरक्षित आश्रय" में जाने की प्राथमिकता तय कर लेती है, भले ही इस गड़बड़ी का तीसरी दुनिया से कोई लेना-देना न हो, और यहां तक चाहे इस गड़बड़ी की जड़ मेट्रोपोलिज में ही क्यों न हो। आमतौर पर, कोरोनावायरस महामारी के कारण, अकेले मार्च के महीने में, भारत सहित तीसरी दुनिया के देशों से 83 बिलियन डॉलर निकल गए हैं।

यहाँ "घर वापसी की प्रवृत्ति" का तात्पर्य यह है कि यह वित्त इस बात के लिए अंधा नहीं है कि वह खुद को कहां पर स्थित करता है। यह तीसरी दुनिया के दूरस्थ इलाकों में मुनाफे की तलाश में निकल सकता है, लेकिन जब भी इन दूरस्थ इलाकों में न सही बल्कि दुनिया की अर्थव्यवस्था में कहीं भी कोई भी गड़बड़ी होती है, तो वह पूंजी "घर" वापस आ जाती है।

जब यह वापस आती है, जैसा कि यह हाल ही में कर रही है, तो दूरस्थ क्षेत्रों में मुद्राएं डॉलर के मुकाबले कम या काफी सस्ती हो जाती हैं, जिससे इन देशों के लिए बाहरी ऋण-सेवा हासिल करना अधिक कठिन हो जाता है, और इसलिए बिना बाहर से कर्ज़ लिए उनका भुगतानों का संतुलन गड़बड़ या अस्थिर हो जाता है। इस तरह के बाहरी कर्ज़ को लेने के लिए इनकी “शर्तों” में सार्वजनिक क्षेत्र में खर्च को कम करना और बेरोजगारी को बढ़ाने का काम करती हैं।

इस प्रकार, वैश्वीकृत वित्त की प्रकृति कुछ ऐसी है कि वह न केवल तीसरी दुनिया की सरकारों द्वारा कल्याणकारी खर्चों को रोकती है भले ही यह अच्छा हो लेकिन जब भी विश्व अर्थव्यवस्था में कोई गड़बड़ी होती है तब वह इन सरकारों पर खर्च को कम करने पर ज़ोर देती है, फिर चाहे उस आर्थिक गड़बड़ी का तीसरी दुनिया से कुछ भी लेना-देना न हो।

इसलिए, तीसरी दुनिया के देशों का वैश्विक वित्तीय प्रवाह के अधीन होना, न केवल अपने घरेलू राष्ट्र-राज्य को वित्त के आधिपत्य की अधीनता को स्वीकार करने जैसा है, बल्कि विकसित राष्ट्र-राज्यों की हीनता का शिकार होना भी है। तथ्य यह है कि राष्ट्र-राज्य हर जगह (अमरीका को छोडकर क्योंकि उसकी मुद्रा शक्तिशाली है) वैश्विक वित्त के अधीन हो जाते हैं, जिससे लोकतंत्र का हनन होता है, यह व्यापक रूप से नोट किया गया है; लेकिन फिर भी इस बात पर कम ध्यान दिया जाता है कि इसके भीतर भी मेट्रोपोलिज राष्ट्र-राज्यों की स्थिति और तीसरे दुनिया के राष्ट्र-राज्यों की स्थिति में अंतर है।

इस स्थिति में यह अंतर वर्तमान महामारी के दौरान भी दिखाई देता है। उन्नत पूंजीवादी देशों में सरकारों ने अपनी जीडीपी का पर्याप्त अनुपात (जर्मनी ने 5 प्रतिशत, अमरीका ने अब तक 15 प्रतिशत और जापान ने 20 प्रतिशत) में महामारी का सामना करने के लिए राजकोषीय पैकेजों की घोषणा की है, उन्हे न तो राजकोषीय घाटे के उपयोग करने के बारे में कोई मलाल है बल्कि न ही वित्त पोषण के लिए मुद्रीकृत घाटे (यानी अपने संबंधित केंद्रीय बैंकों से उधार) के इस्तेमाल के बारे में भी कोई मलाल है।

भारत में, इसके विपरीत, अब तक का एकमात्र पैकेज निर्मला सीतारमण द्वारा घोषित 1.7 लाख करोड़ (जीडीपी का 0.7%) रहा है जिसमें से लगभग आधे पुराना खर्च को नए लेबल में लपेट कर पेश किया है। 14 अप्रैल को समाप्त होने वाले लॉकडाउन के विस्तार के बावजूद, तीन सप्ताह के लिए किसी भी नए पैकेज की कोई घोषणा नहीं हुई है; और अब सरकार ने राजकोषीय घाटे की सीमा के भीतर रहने के अपने इरादे की घोषणा कर दी है। आंशिक रूप से, इसमें कोई संदेह नहीं है, क्योंकि यह नरेंद्र मोदी सरकार की वैश्विक विश्वव्यापी वित्त के बारे में बुज़दिली को दर्शाती है; लेकिन यह इसकी बाधाओं को भी दर्शाता है।

वाम के भीतर भी, ऐसा एक विचार है कि वैश्वीकरण उस अंतर्राष्ट्रीयता की ओर एक तरह के आधे-अधूरे सपने का प्रतिनिधित्व करता है जिसकी वकालत वामपंथ करता है। सच है, कि यह पूंजीवाद के भीतर हो रहा है और वित्त का इस पर प्रभुत्व है। लेकिन हमें ऐसा नहीं करना चाहिए, तर्क भी दिया जाता है, कि हमें पूर्व-वैश्वीकरण की स्थिति में वापस नहीं जाना चाहिए; बल्कि हमें वैश्वीकरण के दायरे में रहना चाहिए और इस प्रक्रिया पर वित्त पूंजी के आधिपत्य को उखाड़ फेंकना चाहिए।

यह तर्क दो भिन्न कारणों से त्रुटिपूर्ण है: एक जो स्पष्ट है, वह यह कि श्रमिकों का कोई भी अंतरराष्ट्रीय स्तर का समन्वित संघर्ष नहीं है, अगर किसानों के अंतर्राष्ट्रीय-समन्वित संघर्ष को एक बार छोड़ भी दें। वैश्वीकरण के खिलाफ एक अंतर्राष्ट्रीय संघर्ष कभी न शुरू होने वाली कहानी है, वह इसलिए कि जिन वर्गों का काम इस संघर्ष को अंजाम देना है वे खुद ही अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर समन्वित नहीं हैं।

दूसरा कारण यह है कि चूंकि इसमें वैश्वीकरण शामिल है, जैसा कि हमने अभी देखा है, राष्ट्रों का पदानुक्रमित ढाँचा जिसे कि पूंजीवाद के तहत ऐतिहासिक रूप से हासिल किया गया है, और विकसित राष्ट्रों से तीसरी दुनिया में आर्थिक गतिविधियों को स्थानांतरित करने के बावजूद,  वित्त-प्रभुत्व वाले वैश्वीकरण से मुक्ति सभी राष्ट्रों में एक समान या एक जैसी नहीं हो सकती है।

यदि तीसरी दुनिया के देशों से बिना उनकी किसी ग़लती के बड़े पैमाने पर वित्तीय पूंजी बाहर जा सकती है, तो वे इसे पूंजी नियंत्रण के माध्यम से ही रोक सकती हैं; और ऐसा करने के लिए आपको वैश्वीकरण से नाता तोड़ना होगा। संक्षेप में, तीसरी दुनिया के मज़दूरों और किसानों के लिए, वर्तमान भूमंडलीकरण या वैश्वीकरण से दूर होना उनके संघर्ष का केंद्रीय उद्देश्य होना चाहिए।

इसका मतलब यह नहीं है कि संस्थानों और प्रथाओं को सुधारने के संघर्ष जिसके माध्यम से वित्त-प्रधान भूमंडलीकरण संचालित होता है, उसमें शामिल नहीं होना चाहिए। इसलिए डी-लिंकिंग का मुद्दा यहाँ सटीक रूप से प्रासंगिक हो जाता है क्योंकि उसमें शामिल रहकर इस तरह के सुधार या तो बिल्कुल सफल नहीं होंगे या तीसरी दुनिया के देशों के दृष्टिकोण के मामले में अपर्याप्त होंगे।

उन संस्थानों में सुधार का संघर्ष चलाना जिनके माध्यम से वित्त पूंजी के अधिपत्य का प्रयोग किया जाता रहा है और वर्तमान वैश्वीकरण का अर्थव्यवस्था से नाता तोड़ना, कोई अलग  प्रक्रिया नहीं हैं; जब एक विफल होता है तो दूसरा उठता है। और दूसरा अर्थात् वर्तमान वैश्वीकरण के संस्थानों में सुधार करना, अपने आप में असफल होगा क्योंकि वित्त कभी भी अपनी स्वेच्छा से अपने आधिपत्य को त्याग नहीं करता है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल लेख को नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करके पढ़ा जा सकता है।

Why Global Finance Prefers to Rush Back ‘Home’ When There’s a Crisis

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