क्या ये छोटे-छोटे भूकंप किसी बड़े भूकंप की आहट हैं?
हिलना-डुलना आम बात है लेकिन एक लम्हें के लिए भी ज़मीन का हिलना-डुलना हमारी ज़िंदगी, हमारी कायनात को सिहरा कर चला जाता है। जी हाँ, आप बिलकुल ठीक समझ रहे हैं, कुछ लम्हों में सबकुछ हिला देने वाली परिघटना भूकंप पर बात करने जा रहा हूँ।
पिछले 2 महीने में दिल्ली और आसपास के लोगों ने तकरीबन सात-आठ बार भूकंप के झटके महसूस किये। और एक हफ्ते में कल दूसरी बार दिल्ली आसपास की ज़मीन हिल गई। कल बुधवार, 3 जून की रात 10 बजकर 42 मिनट पर नोएडा में भूकंप का झटका महसूस किया गया। रिक्टर स्केल पर इसकी तीव्रता 3.2 मापी गई है। इस भूकंप का केंद्र दक्षिण-पूर्व नोएडा बताया जाता है। इससे पहले 29 मई को दिल्ली-एनसीआर में भूकंप आया था। जिसका केंद्र रोहतक था। उस भूकंप की तीव्रता रिक्टर स्केल पर 4.6 आंकी गई थी।
इस लॉकडाउन की शांति और अकेले रहने की वजह से जिस भूकंप के बारे में केवल किताबों और टीवी चैनलों पर पढ़ा सुना था, आजकल उसे खुद भी करीब से महसूस कर रहा हूं। हालांकि इन भूकंप के झटकों की वजह से जान-माल का नुकसान नहीं हुआ लेकिन भूकंप महसूस होना तो एक बार में पूरे जीवन के कम्पन का महसूस होने जैसा होता है। जिस पैमाने से भूकंप को मापा जाता है उस पैमाने पर भूकम्प से जुड़ी इन सारी घटनाओं की मात्रा रिक्टर स्केल 5 से कम थी। यानी स्थिति कंट्रोल में थी।
लेकिन भूकंप को लेकर यह बात भी पूरी तरह सही नहीं है कि स्थिति कंट्रोल में होती है। वजह यह है कि इसके बारे में अभी तक कोई पूर्वानुमान यानी अर्ली वार्निंग सिस्टम नहीं बना है। जैसा अर्ली वार्निग सिस्टम मौसमों, तूफानों और चक्रवातों के लिए होता है। अर्ली वार्निंग सिस्टम यानी ऐसा सिस्टम जो यह बता दे कि अमुक समय पर अमुक जगह पर भूकंप आने की सम्भावना है ताकि लोग संभावित ख़तरे से बचने के लिए समय पर सुरक्षित जगह पर पहुंच जाएं। जैसे अभी
अम्फान और निसर्ग तूफ़ान को लेकर पहले ही चेतावनी जारी कर दी गई थी, जिसकी वजह से सुरक्षा के ज़रूरी कदम पहले ही उठा लिए गए थे। इस तरह भूकंप को पहले ही भांपने का अभी कोई यंत्र दुनिया में नहीं बना। दुनिया के सारे रिसर्चर इस पर काम कर रहे हैं।
भूकंप के बारे में आगे बात करने से पहले भूकंप को मोटे तौर पर समझ लेते हैं। इस पृथ्वी की शुरुआत अरबों साल पहले मानी जाती है। पृथ्वी की सतह कई तरह के भूखंडों में बंटी है, जिन्हें भौगोलिक भाषा में प्लेट कहते हैं। प्लेट की ऊपरी परत क्रस्ट कहलाती है। महासागरों की नीचे वाली परत तकरीबन आठ किलोमीटर मोटी है और महाद्वीपों यानी ठोस ज़मीन वाली परत तकरीबन 32 किलोमीटर मोटी होती है। दुनिया जब से बनी तब से ये प्लेट धीमी गति से खिसकती रही हैं। जब एक-दूसरे से टकराती हैं तो दरार पड़ती हैं, टूटती हैं, एक दूसरे के ऊपर नीचे हो जाती है। इसी प्रक्रिया से दुनिया में मैदान बने हैं.,पठार बने हैं,पर्वत बने हैं, घाटियां बानी हैं। पर्वत टूटे हैं, घाटियां समुद्रों में तब्दील हुई हैं।
पृथ्वी के बनने और इसकी गति की अनोखी कहानी बहुत लम्बी हैं। इसे लेख में नहीं समेटा जा सकता है। फिर भी मौटे तौर समझने के लिए एक मोटा चादर मेज पर बिछा दीजिये और चादर को दोनों छोर से दबाइये तो आप उबड़ खबड़ बनी चादर की संरचना देखेंगे ठीक वैसे ही प्लेट की गति से पृथ्वी की संरचना बनी है और आज भी बन रही है।
अब आप जानना चाहेंगे कि जब प्लेट हमेशा चलते रहते हैं तो भूकंप हमेशा क्यों नहीं आते हैं? इसलिए नहीं आते क्योंकि इनकी चाल बहुत धीमी होती है। इतनी धीमी कि महसूस नहीं होते। रिसर्चरों का कहना है कि साल भर में अधिक से अधिक 10 सेंटीमीटर खिसकते हैं। इसलिए अब आप पूछेंगे कि भूकंप आते कब हैं? भूकंप की घटनाएं ज्यादतर तभी होती है जब दो प्लेटें एक दूसरे से किसी भी तरह से टकराती हैं, एक दूसरे पर दबाव डालती हैं,एक-दूसरे के ऊपर नीचे होती है या एक दूसरे को छूकर निकल जाती हैं। कहने का मतलब यह है कि ज्यादातर भूकंप की घटनाएं तभी होती हैं जब दो प्लेटों में किसी तरह का सम्पर्क होता है। भूकंप से जुड़ी इस मोटी बात को आधार बनाकर आगे बढ़ते हैं।
इस पृथ्वी पर सात प्लेटें हैं। भारत इंडियन प्लेट पर मौजूद है। यह भी आज से करोड़ो साल पहले अफ्रीकन प्लेट का हिस्सा हुआ करता था। यहां से टूटकर अलग हुआ तो धीरे-धीरे आगे बढ़ते हुए यूरेशियन प्लेट से जा टकराया। यह घटना आज से पांच करोड़ साल पहले घटी थी। जिस तरह से दो सतहों की टकराहट से कुछ टूटता है कुछ फूटता है कुछ नीचे चला आता है कुछ ऊपर चला आता है। ठीक वैसे ही इंडियन प्लेट की यूरेशियन प्लेट की टकराहट के बाद उत्तर से उत्तर पूर्व की तरफ जो उभरा हुआ पहाड़ बना, उसे ही हिमालय कहा जाता है। यह अब भी बनने की अवस्था में ही है। यानी इंडियन प्लेट की यूरेशियन प्लेट से टकराहट होती रहती है और हिमालय बनता रहता है। हिमालय की ऊंचाई बढ़ती रहती है।
अब यहीं पर वह पेच है जिससे आप यह समझ पाएंगे कि दिल्ली तक जुड़े हिमालय के नज़दीक के इलाकों में बार-बार छोटे स्तर की भूकंप की घटना क्यों घट रही है? तकरीबन 5-6 सेंटीमीटर सलाना की गति से इंडियन प्लेट, यूरेशियन प्लेट से टकरा रहा है। जब दो प्लेटों में टकराहट होती है तो दोनों एक दूसरे के खिलाफ तनाव पैदा करते है, जहां भी जगह देखते हैं वहां एडजस्ट करने की कोशिश करते है। एडजस्ट होने के बाद भी गति होती रहती है यानी टकराहट का माहौल बना रहता है और इस टकराहट से भूकंप आता है। इसके साथ दो प्लेट एक-दूसरे को एडजस्ट करते हैं तो बहुत बड़ी मात्रा में ऊर्जा निकलती है। इस ऊर्जा से भी धरती कंपकपाती है। ऊर्जा की मात्रा जितनी अधिक होती है। धरती उतनी तेज गति से कंपकपाती है। अभी दो प्लेटों के एडजस्टमेंट से कम ऊर्जा निकल रही है इसलिए छोटे स्तर के भूकंप आ रहे हैं। चूँकि यह प्रक्रिया अभी भी चल रही है इसलिए बार-बार भूकंप का समाना करना पड़ है।
भूकंप में दो चीजें देखी जाती हैं। मैग्नीट्यूड और इंटेंसिटी। इसका मतलब है कितना आया और कितनी जोर से आया। जब प्लेट्स टकराती हैं, तो एनर्जी निकलती है। ये तरंग के रूप में निकलती है। तो इसके लिए एक यंत्र बैठाया जाता है। जिसे सीज्मोमीटर कहा जाता है। वैसे एरिया में जिससे 100-200 किलोमीटर दूर भूकंप आते हैं। तो भूकंप की तरंग आ के सीज्मोमीटर से टकराती है। ये इसको बढ़ा-चढ़ा के नापता है फिर दूरी और इस तरंग के आधार पर एक फ़ॉर्मूले के तहत रिक्टर स्केल पर नंबर बताया जाता है। और भी एक-दो तरीके हैं, पर रिक्टर वाला ज्यादा चलन में है। रिक्टर स्केल को 1 से लेकर 10 के बीच बांटा गया है।
रिक्टर स्केल पर 3 तक के भूकंप का पता भी नहीं चलता। लेकिन 4 से परेशानी शुरू हो जाती है। 6 वाले गंभीर खतरा पैदा करते हैं। धरती के नीचे जहां भूकंप शुरू होता है, उसको फोकस कहते हैं। इसके ठीक ऊपर की दिशा में जमीन पर जो पॉइंट होता है, उसको एपीसेंटर कहते हैं। फोकस जमीन से जितना नजदीक होता है भूकंप की तीव्रता उतनी तेज होती है। सीज्मोमीटर इसी एपीसेंटर पॉइंट से भूकंप की तीव्रता नापता है।
दिल्ली-एनसीआर में 29 मई की रात भूकंप के दो झटके महसूस किए गए। नेशनल सेंटर फॉर साइमोलॉजी (भूकंप विज्ञान) ने रिक्टेर स्केल पर इसकी तीव्रता 4.6 मैग्नीट्यूड मापी है। भूकंप 9 बजकर 8 मिनट पर आया और इसका केंद्र हरियाणा के रोहतक में जमीन से 16 किलोमीटर अंदर था। अगर 16 किलोमीटर की जगह यह 2 या 3 किलोमीटर नजदीक रहता तो स्थिति और गंभीर होती। इसी तरह 3 जून रात को आए भूकंप का केंद्र दक्षिण-पूर्व नोएडा था। इससे पहले 12 अप्रैल को 3.5, 13 अप्रैल को 2.7, 10 मई को 3.5 और 15 मई को 2.2 तीव्रता का भूकंप आया था।
नेशनल सेंटर फॉर सीस्मोलॉजी (National Center for Seismology) के तहत दिल्ली और पटना सहित भारत के 29 शहर और नगर गंभीर से अति गंभीर भूकंप क्षेत्रों (seismic zones) में आते हैं। इनमें में ज्यादातर क्षेत्र हिमालय के आस-पास स्थित हैं। उल्लेखनीय है कि हिमालय दुनिया के सबसे अधिक भूकंप सक्रिय क्षेत्रों में से एक है।
भारतीय मानक ब्यूरो (The Bureau of Indian Standards) ने भूकंप रिकॉर्ड, टेक्टोनिक गतिविधियों और क्षति को ध्यान में रखते हुए देश के विभिन्न क्षेत्रों को जोन II से V में वर्गीकृत किया है। जोन II को भूकंप की दृष्टि से कम सक्रिय माना जाता है, जबकि ज़ोन V को सबसे अधिक सक्रिय माना जाता है। जोन IV और V क्रमशः "गंभीर" से "बहुत गंभीर" श्रेणियों में आते हैं।
जोन IV और V में पड़ने वाले शहर हैं - दिल्ली, पटना, श्रीनगर (जम्मू-कश्मीर), कोहिमा (नागालैंड), पुदुचेरी, गुवाहाटी, गंगटोक, शिमला, देहरादून, इम्फाल (मणिपुर) और चंडीगढ़।
जम्मू-कश्मीर, दिल्ली, सिक्किम, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, गुजरात और महाराष्ट्र के कुछ हिस्से जोन IV में आते हैं। जोन V में संपूर्ण पूर्वोत्तर क्षेत्र, जम्मू और कश्मीर के कुछ हिस्से, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, गुजरात का कच्छ का रन क्षेत्र, उत्तर बिहार के कुछ हिस्से एवं अंडमान और निकोबार द्वीप-समूह शामिल हैं। भारत का तकरीबन 40 फीसदी से अधिक का इलाका मॉडरेट ज़ोन में आता है।
साल 2005 में नेपाल में 7.8 रिक्टर स्केल पैमाने का भूकंप आया था। तकरीबन चार देशों में 9000 लोगों की मौत हुई थी। 10 बिलियन डॉलर की सम्पति बर्बाद हो गयी थी। इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ साइंस के कुशल राजेंद्रन और सीपी राजेंद्रन ने 2013 के अपने रिसर्च पेपर में दर्ज किया कि मध्य हिमालय के 500 किलोमीटर उत्तर पश्चिम में जिसमें दिल्ली समेत उत्तर भारत के कई इलाके आते हैं, में पिछले 200- 500 सालों से कोई बड़ा भूकंप नहीं आया है। इसका मतलब है कि इस इलाके में दो प्लेटों के तनाव से पैदा होने वाली एनर्जी इकट्ठी हो रही है। और हो सकता है कि आने वाले सालो में इस इलाके में बहुत बड़े पैमाने का भूकंप आये। या यह भी हो सकता है कि बहुत छोटे स्तर के भूकंप आते रहे और एनर्जी रिलीज होती रहे।
31 मई को अर्थक्वेक रिस्क इवैलुएशन सेंटर ऑफ़ इंडिया के भूतपूर्व अध्यक्ष एके शुक्ला का मीडिया में बयान छपा। शुक्ला जी ने कहा कि दिल्ली के इर्द गिर्द का फॉल्ट सिस्टम के इलाके के तकरीबन 6 से 6.5 मात्रा का भूकंप पैदा करने की क्षमता है यानी दिल्ली का इलाका भूकंप के लिहाज से गंभीर इलाके में है।''
अब यहां भी तकनीकी शब्द आया है फाल्ट सिस्टम। यह क्या होता है? आसान में इसे समझने के लिए उन फ़िल्मी दृश्यों को याद कीजिए कि जहां पर दो सतहों के टकराने के बाद दोनों सतहों के पूरे इलाके में दरारे पड़ जाती है। इंडियन और यूरेशियन प्लेट की टकराहट के बाद बनी इन्हीं दरारों को फॉल्ट कहा जाता है। और यहां पर भी भूकंप आने और नुकसान होने की अधिक संभावना होती है।
दुर्भाग्य से दिल्ली भूकंप के लिहाज से सबसे गंभीर इलाक़ों में पड़ती है। यानी यहां भूकंप आने की सम्भावना दूसरे इलाकों से अधिक है। फिर भी दिल्ली शहर का विकास देखिये। एक के ऊपर एक मकान-दुकान लदे जा रहे हैं। इनके इमारतों के मालिकों और बनाने वाले बिल्डरों को कोई फर्क नहीं पड़ता। आईआईटी दिल्ली के प्रोफेसर डॉक्टर कालचंद्र सेन कहते हैं कि दिल्ली, नोएडा, गुरुग्राम के मकान और अन्य इमारतों को बनाने वालों ने ब्यूरो ऑफ़ इंडियन स्टैंडर्ड द्वारा भूकंप को सह सकने वाले मानकों को नहीं अपनाया है। अबकी बार का भूकंप तो 5 से कम मात्रा का था अगर यह 6 से ऊपर जाता तो ये मकान कईयों की मौत को अपने साथ लेकर खुद को धूल में मिला देते। सब जानते हैं कि दिल्ली भूकंप के मामलें में गंभीर इलाके में पड़ता है। फिर भी ऐसा हो रहा है। यह सब आर्किटेक्चर और बिल्डरों की मिलभगत से हो रहा है। सब इसे देख रहे हैं। रोक कोई नहीं रहा। एक दिन तबाही आएगी। सब कुदरत को दोष देंगे। कुदरत मुस्कुराएगी और कहेगी कि तुम्हें तो पता था कि तुम्हें क्या करना है। फिर भी... ''
जापान दुनिया का वह देश है जहां भूकंप आने की सम्भावना सबसे अधिक रहती है। लेकिन जापान ने सीख लिया है कि धरती को जीता नहीं जा सकता, उससे तालमेल बिठाना ही पड़ेगा। इसलिए जापान में हर मकान तक़रीबन 7 से 8 मैग्नीट्यूड के भूकंप को सह सकने वाले ढाँचे के लिहाज से बनते हैं। यह प्रकृति है और यह किसी एक व्यक्ति से नहीं पूरे समाज से, समाज के पूरे सिस्टम से अनुसाशन और नैतिकता की मांग करती है। अगर सही से तालमेल नहीं बैठा तो तो फिर बर्बादी तय है।
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