UAPA : व्यक्ति की आज़ादी को कुचलने का मनमाना हथियार?
हमारे देश का संविधान कहता है कि राज्य नागरिकों की सुरक्षा के लिए काम करेगा लेकिन सुरक्षा की आड़ में वह ऐसे कदम नहीं उठाएगा जिससे व्यक्ति के अधिकार छीन लिए जाएं। कहने का मतलब है कि राज्य और नागरिकों के बीच एक तरह का संतुलन है। और इस संतुलन में व्यक्ति जीवन के अधिकार को नहीं छीना जा सकता है (संविधान अनुच्छेद 21)। अब यह संतुलन टूट रहा है। इसका हालिया उदहारण है मोदी सरकार द्वारा अपने प्रचंड बहुमत से लोकसभा में पारित किया गया विधि विरुद्ध क्रियाकलाप निवारण संशोधन विधेयक, 2019 (UAPA : THE UNLAWFUL ACTIVITIES (PREVENTION) AMENDMENT BILL, 2019)। एक तरह का ऐसा कानून जिसके बहुत सारे प्रावधान राज्य को इतनी शक्ति देते हैं कि वह व्यक्ति के अधिकार मनमाने तरीके से कुचल दे।
यह बिल पास करवाते हुए गृह मंत्री अमित शाह ने कहा कि आतंकवाद के लिए कठोर कानून होना चाहिए। यह बिल कांग्रेस के जमाने में आया था और उसी दौर में ही इसमें संशोधन किये गए और संशोधन कर 'आतंकवाद' जैसे शब्द शामिल किए गए। तो कांग्रेस देश के लिए आतंकवाद से लड़ने के लिए जरूरी कठोर कानून का विरोध क्यों कर रही है? उनके कहने का मोटा-मोटा मतलब यह था कि कांग्रेस आंतकवाद पर कठोर कानून बनाने का विरोध नहीं कर सकती। यह देश हित में नहीं है। ऐसा करना देश विरोधी है।
अमित शाह के इसी वक्तव्य में ही इस बिल की सबसे बड़ी खामी छिपी हुई है कि किसी भी व्यक्ति को देश हित के खिलाफ या देश विरोधी बताकर इस कानून का शिकार बनाया जा सकता है। तो चलिए समझते हैं कि आतंकवाद के खिलाफ कठोर कानून बनाने के नाम पर यह कानून राज्य के मुकाबले व्यक्ति के अधिकारों को किस तरह से बहुत अधिक कमजोर कर देता है।
साल 1962 में चीन के साथ लड़ाई के बाद तमिलनाडु की तरफ से तमिल अस्मिता के नाम पर भारत से अलग होने की मांग उठने लगी। इसलिए संसद ने देश की सम्प्रभुता और अखंडता की सुरक्षा के नाम पर साल 1967 में पहली बार UAPA कानून बनाया। इस तरह से इस कानून के बाद से भारत की सरकार भारत से अलग होने की कोशिश में जुड़े किसी भी संगठन पर बैन लगा सकती थी। यानी यह कानून गैरकानूनी संगठनों पर रोकथाम के मकसद से लाया गया था। उसके बाद इस कानून में साल 2004, 2008 और 2013 में बदलाव किये गए। इन्हीं संशोधनों के बाद इस कानून में 'टेररिस्ट एक्ट' 'टेररिस्ट गैंग' और टेररिस्ट आर्गेनाईजेशन जैसे शब्द जोड़े गए।
दरअसल हुआ यह था कि इस बीच आतंकवाद की रोकथाम के लिए पोटा (POTA) और टाडा (TADA) जैसे कानून आये थे। ये कानून अपनी प्रकृति में बहुत अधिक बेरहम थे। इसलिए बाद में इन कानूनों को ख़ारिज कर दिया। और यहां से जुड़े आतंकवादी कृत्य की व्यख्याओं को UAPA के अनलॉफुल शब्द में शामिल कर दिया गया।
यहीं से इस कानून की ख़मियाँ शुरू हो जाती है। अनलॉफुल और आंतकवाद जैसे शब्दों की अवधारणाओं की व्याख्या बहुत अधिक अस्पष्ट है। इसके अंदर राज्य अपने विरोध और असहमति से जुड़े हर तरह के कामों और संगठनों को शामिल कर सकता है। पिछले साल भीमा कोरेगांव घटना से जुड़े मसले पर भी पांच मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के कामों को भी गैरकानूनी बताकर इसी कानून के अंतर्गत गिरफ्तार कर लिया।
इससे पहले भी कई मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को राज्य और सिस्टम से अलग जाकर सोचने के लिए इस कानून के अंतर्गत प्रताड़ित किया गया। विकास के मॉडल के नाम पर न्यूक्लियर प्लांट और बड़े बांधों का विरोध करने वाले कई संगठनों को इस कानून के आधार पर बैन किया गया है। कहने का मतलब यह है कि ‘प्रचंड’ बहुमत में सराबोर सरकार 'अनलॉफुल' की व्याख्या के अंदर जो मर्जी वह शामिल कर सकती है। इसलिए इस कानून की अब तक कठोर आलोचना होती आ रही है।
अभी पास किये गए संसोधन बिल के दो प्रावधानों पर सबसे अधिक विवाद छिड़ा है। पहला ये है कि अब UAPA बिल के अंदर एक व्यक्ति को भी केवल शक के आधार पर आतंकवादी बताकर गिरफ्तार किया जा सकता है। भले ही वह किसी आतंकवादी संगठन से जुड़ा हुआ हो या नहीं।
जबकि पहले यह प्रावधान था कि गैरकानूनी काम करने वाले संगठन को प्रतिबंधित किया जा सकता था और प्रतिबंधित संगठन से जुड़े लोगों को इस कानून के अंतर्गत गिरफ्तार किया जा सकता है। पहले का प्रावधान भी अस्पष्ट था। और इस बार संशोधित होकर बने कानून ने तो राज्य को बहुत अधिक शक्ति दे दी है। अब तो जिसे चाहे उसे गैरकानूनी कामों से सम्बंधित बताकर गिरफ्तार करने का प्रावधान बन चुका है, भले ही वह किसी आतंकवादी संगठन से जुड़ा हुआ हो या नहीं। साथ में पहले वाली दिक्क्त अब भी मौजूद है कि व्यक्ति को यह साबित करना पड़ेगा कि वह गैरकानूनी संगठनों से जुड़ा नहीं है या वह गैरक़ानूनी काम नहीं करता है।
दिल्ली विश्वविद्यालय में कानून के विषय पर रिसर्च कर रहे रितेश धर कहते है कि हम यह कैसे निर्धारित करेंगे कि कोई संगठन गैरक़ानूनी है या कोई गैरक़ानूनी काम करता है? पहले ही हम देख चुके हैं कि आदिवासियों, दलितों, मुस्लिमों, वंचितों और पिछड़े इलाकों में काम करने वाले संगठन को UAPA के अंतर्गत बैन किया जा चुका है। अभी पिछले ही साल पांच मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को माओवादी संगठन से जुड़ा बताकर गिरफ्तार कर लिया गया।
अब यह सोचने वाली बात है कि कैसे किसी व्यक्ति को किसी बैन संगठन से जुड़ा हुआ बताया जाता है? अगर यह साबित कर दिया गया कि अमुक व्यक्ति प्रतिबंधित संगठन से जुड़ा है तो उसे गिरफ्तार कर लिया जाता है। इसके लिए कई बार तो किसी विचारधार से जुडी किताब रखने पर गिरफ्तार किया गया है। अब अगर मैं रिसर्चर हूँ और मुझे अमुक विचारधारा या संगठन के बारें में रिसर्च करना है तो मैं उससे जुडी किताबें या पन्ने तो रखूँगा ही तो मुझे आतंकवादी कैसे कहा जा सकता है जैसे विनायक सेन के केस में हुआ। यह इस कानून की कमी है कि इसमें गैरक़ानूनी संगठनों से जुड़ा हुआ किसी को भी बताया जा सकता है।
साल 2011 में जस्टिस मार्कण्डेय काटजू ने अपुर सिंह बनाम स्टेट ऑफ़ असम में एक महत्वपूर्ण फैसला दिया कि कोई व्यक्ति अगर किसी प्रतिबंधित संगठन में सक्रिय तौर से जुड़ा होगा या अप्रत्यक्ष रूप से सक्रिय भागीदारी निभाता होगा तभी उसे UAPA के अंतर्गत गिरफ्तार किया जाएगा। शायद इसी से बचने के लिए बिना किसी संगठन से जुड़े भी किसी व्यक्ति को गैरकानूनी कामों से जुड़े होने का प्रावधान जोड़ा गया है। इसलिए अब यह स्थिति हो गयी कि राह चलते हुए व्यक्ति को अगर राज्य चाहे तो इसके अंतर्गत गिरफ्तार कर सकता है।
वकील मनीषा कहती हैं कि यह पहला ऐसा कानून है जिसमें कार्यपलिका को यह अधिकार दिया गया है कि वह किसी व्यक्ति को गैरकानूनी कामों में संलिप्त बता दे, आतंकवादी बता दे। किसी भी ऐसे व्यक्ति को जिसके खिलाफ पहले कोई मुकदमा नहीं है,जिसके खिलाफ पहले कोई अपराध नहीं दर्ज हुआ हो। न्यायपालिका की जगह पर कार्यपालिका का यह फैसला लेना कि कोई आतंकवादी है या नहीं यह प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के खिलाफ है।
इस कानून से जुड़ा एक और विवादित उपबंध है - सेक्शन 43 D (5), सुप्रीम कोर्ट ने साल 1970 में एक फैसला देते हुआ कहा था कि 'जेल इज एक्सेप्शन बेल इज नॉर्म' यानी जहां तक सम्भव हो किसी को जेल जाने से बचा लेना चाहिए उसे बेल यानी जमानत पर छोड़ देना चाहिए। किसी को बिना ट्रायल के तभी जेल में रखा जाना चाहिए जब वह न्याय को प्रभावित करने वाली स्थिति में हो। जैसे कि देश से भाग जाने में कामयाब हो, सबूतों के साथ छेड़छाड़ कर सकता हो या किसी भी तरह की ऐसी स्थिति में हो जिससे न्याय प्रभावित होता हो। क्योंकि इस देश के क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम का गोल्डन रूल है कि जब तक किसी पर आरोप साबित नहीं हो जाता तब तक वह निर्दोष है।
रितेश धर कहते हैं की UAPA के सेक्शन 43 D ( 5 ) के तहत पुलिस की केस डायरी या चार्जशीट से कोर्ट को ऐसा लगता है कि प्रथमदृष्टया अभियुक्त पर गंभीर मामला बनता है तो वह बिना ट्रायल के भी व्यक्ति को 180दिनों तक जेल में रहने के आदेश दे सकती है। जबकि आम मामलों में 90 दिनों के भीतर दोनों पक्षों की सुनवाई न होने के बाद मामला नहीं बनता है तो अभियुक्त को बरी कर दिया जाता है। लेकिन यहां इसे कोर्ट के आदेश पर पूरी जिंदगी तक बढाया भी जा सकता है।
यह उपबंध ही प्राकृतिक न्याय के खिलाफ है, जहां बिना सुनवाई के व्यक्ति को जेल में रखा जाता है। चार्जशीट स्टेट का पक्ष है। बिना व्यक्ति का पक्ष सुने केवल चार्जशीट और केस डायरी पर जेल में डाल देना गलत है। ऐसे में अब सरकारें जिसे भी अपनी राजनीती के लिए खतरा मानेंगी उसे गिरफ्तार कर लेंगी। या जिस तरह से भी खुद का फायदा देखेंगी, इसका फायदा उठाएंगी।
इसके साथ इस कानून के अंतर्गत अभियुक्त की ही यह जिम्मेदारी होती है कि वह यह साबित करे कि वह अपराधी नहीं है। यानी आतंकवादी का आरोप राज्य लगाएगा लेकिन आतंकवाद के आरोप से मुक्ति के लिए सबूत व्यक्ति को देना होगा। जबकि भारत के अपराध संहिता में कुछ अपवादों को छोड़कर प्रॉसिक्यूशन की यह जिम्मेदारी होती है कि वह सिद्ध करे कि अभियुक्त दोषी है। इसका मतलब है कि सरकार के पास इस कानून के माध्यम से ऐसी शक्ति मिली हुई है कि वह किसी भी तरह की असहमति को गैरकानूनी बताकर उसपर आरोप लगा सके। और व्यक्ति जीवन भर उसे हटाने की कोशिश करते रहा।
इस बिल में विवाद का दूसरा बिंदु केंद्र सरकार के अधीन काम करने वाली संस्था नेशनल इन्वेस्टीगेशन एजेंसी (एनआईए) को दिए गए अधिकारों से जुड़ा है। लॉ एंड आर्डर मसला राज्य सरकार के अधीन आता है। लेकिन केंद्र सरकार द्वारा ये अधिकार लेने का मतलब है कि राज्य सरकार के कार्यक्षेत्र का अतिक्रमण। देश को केन्द्रीकरण की तरफ ले जाना। और संघवाद के सिद्धांत से दूर जाना। इसका फायदा केंद्र सरकारें राज्यों को काबू करने में भी उठा सकती हैं। पहले राज्य के डायरेक्टर जनरल ऑफ पुलिस (डीजीपी) को यह अधिकार था कि वह किसी संगठन को प्रतिबंधित कर उसकी सम्पति जब्त करे या व्यक्ति की गिरफ्तारी का फैसला ले, लेकिन अब यह अधिकार नेशनल इन्वेस्टीगेशन एजेंसी के तहत काम करने वाले डायरेक्टर जनरल रैंक अधिकारी को दे दिया गया है। यानी सीधे केंद्र की दखलअंदाज़ी।
ऐसे मामलों पर पहले इन्वेस्टीगेशन करने का अधिकार अस्सिटेंट कमिश्नर रैंक से ऊपर के अधकारी को मिला था। लेकिन अब यह अधिकार नेशनल इन्वेस्टीगेशन एजेंसी के अंदर काम करने वाले इंस्पेक्टर रैंक अधिकारी को मिल गया है। यानी आतंकवाद जैसे विषय पर कठोर कानून की तो बात कही गयी लेकिन छानबीन करने का अधिकार उस पद को सौंपा गया, जिसकी शक्तियाँ कम हैं और जो अपने आकाओं की बात मानकर काम करने के लिए अभिशप्त है।
न्यूज़क्लिक में क़ानूनी मसलों पर लिखने वाले पत्रकार विवान कहते हैं की राज्य के ऐसे ही अतिक्रमण से बचने के लिए संविधान में मौलिक अधिकारों का उपबंध किया गया है। संविधान के अनुच्छेद 21 में इसकी बहुत साफ़ व्याख्या है कि किसी भी व्यक्ति के जीवन जीने के अधिकार को नहीं छीना जा सकता है। न ही व्यक्ति को उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित किया जा सकता है। लेकिन अगर ऐसी स्थिति आती है कि व्यक्ति किसी अपराध से जुड़ा है तो व्यक्ति के जीवन में हस्तक्षेप कानून द्वारा स्थापित यथोचित प्रक्रिया अपनाकर (procedure established by law) ही किया जा सकता है। मेनका गाँधी मामले में तो इस उपबंध की और स्पष्ट व्यख्या कर दी गयी कि किसी व्यक्ति को अपराधी घोषित करने के लिए न्यायपूर्ण, निष्पक्ष और तार्किक प्रक्रिया अपनायी जायेगी।
अभी तक UAPA के तहत दर्ज हुए मामलों में केवल 28 फीसदी के आसपास मामलों में ही दोष सिद्ध हुआ है। नहीं तो 72 फीसदी मामले में केवल अभियुक्तों को प्रताड़ित होना पड़ा है। इस तरह से राष्ट्रीय सुरक्षा का मकसद बताकर UAPA कानून के जरिए सरकार अपनी तानाशाही स्थापित कर रही है। ऐसी तानाशाही जिसमें विरोध के स्वर को आतंकवादी बताकर कुचला जा सका। गैरक़ानूनी बताकर देश विरोधी करार दिया जा सके।
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