केंद्रीय बजट 2021-22 और राजकोषीय 'प्रोत्साहन'
इस बात को कोई समझाने की जरूरत नहीं है कि 2021-22 के केंद्रीय बजट की पृष्ठभूमि बेहद विशेष है। आज देश महामारी, आर्थिक मोर्चे और एक-दूसरे पर इनके प्रभाव से पैदा हुई भविष्य की अनिश्चित्ता से जूझ रहा है। लेकिन इसके बावजूद आर्थिक सर्वे हमें बताने की कोशिश कर रहा है कि सारी मौजूदा स्थितियां "दूरदृष्टि" रखने वाले नेतृत्व के नियंत्रण में हैं।
अगर हम सर्वे की तार्किकता पर विश्वास करें, मतलब एक करोड़ से ज़्यादा कोरोना के संक्रमित मामले, इससे हुईं 1.5 लाख से ज़्यादा मौत और वित्तवर्ष के पहले 6 महीनों में GDP में हुई 15 फ़ीसदी से ज़्यादा की गिरावट जैसी स्थितियों का सरकार ने अनुमान लगा लिया था और यह भारत की "अच्छी रणनीति" का सबूत हैं, जिसके तहत छोटे वक़्त के लिए कुछ तकलीफदेह फ़ैसले लिए गए, जिनसे आने वाले वक़्त में फायदा होगा। कहा गया कि इस फायदे के लिए बहुत सारे 'सुधार' किए जाएंगे। इन सुधारों को कई लोग नकारात्मकता के साथ देखते हैं। उनका मानना है कि सरकार महामारी का फायदा उठाकर ऐसी नीतियों को आगे बढ़ा रही है, जो आम आदमी को नुकसान पहुंचाएंगी। इन कथित "सुधारों" में एक चीज साझा है- यह सभी सुधार बड़ी भारतीय और विदेशी कॉरपोरेट पूंजी का देश की उत्पादक क्षमताओं और संसाधनों पर ज़्यादा नियंत्रण सुनिश्चित कर रहे हैं, नतीज़तन उत्पादन और बाज़ार के क्षेत्रों में कामग़ारों का शोषण करने की इनकी शक्ति भी बहुत बढ़ रही है। आखिरकार कामग़ारों को दुख के सागर में डूबने पर मजबूर होना पड़ेगा, चाहे उनके पास रोज़गार हो या ना हो।
वित्तमंत्री और सत्ताधारी पार्टी ने 1 फरवरी, 2021 को पेश किए जाने वाले बजट को "खेल बदलने वाला" करार दिया है। अब तक मौजूद सबूतों के हिसाब से देखें तो देश को वाकई इस तरह के बजट की जरूरत है और इस तरह के बजट से इंकार नहीं किया जा सकता। लेकिन खेल पहले से ही बड़े व्यापारियों, अमीरों के पक्ष में झुका हुआ था, फिर पिछले साल चीजों को उनके पक्ष में और भी ज़्यादा झुका दिया गया। बजट में जिस भी तरीके का प्रोत्साहन दिया जाएगा, उससे इस दिशा में कदम और बढ़ाए जाएंगे। जब मुनाफ़ा कमाने और आम लोगों की आय-आजीविका को हुए नुकसान में प्रोत्साहन की बात आएगी, तब मुनाफ़ा कमाने को प्राथामिकता दी जाएगी। लेकिन यह देखा जाना बाकी है कि क्या बजट में "प्रोत्साहन" में कोई अहम राजकोषीय तत्व होता है या फिर दूसरे कदमों की घोषणा की जाएगी। अभी जो हाल है, किसी भी तरह के राजकोषीय प्रोत्साहन को अंजाम देने के लिए FRBM (फिस्कल रिस्पांसिबिलिटी एंड बजट मैनेजमेंट एक्ट) कानून में मौजूद स्थापित तौर-तरीकों और रुढ़ीवादिता से आगे निकलना पड़ेगा। जबकि सरकार FRBM कानून के प्रति महामारी के दौर में तक अटूट प्रतिबद्धता दिखाती रही है। अगर FRBM कानून की प्रतिबद्धता से कोई थोड़ा-बहुत भटकाव होता भी है, तो वह तात्कालिक और सिर्फ़ इस हद तक होगा, जिससे रुढ़ीवादिता के पीछे छुपे हितों की रक्षा की जा सके।
अगर हम एक साल पहले के 2020-21 के बजट की बात करें, तो भारत में कोरोना का पहला मामला सामने आने के महज दो दिन बाद ही वित्तमंत्री ने बजट पेश किया था। यह लॉकडाउन लगाए जाने के दो महीने पहले की बात है। उस वक़्त विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी कोरोना को महामारी घोषित नहीं किया था, क्योंकि ज़्यादातर मामले वुहान तक ही सीमित थे। उस वक़्त तक किसी ने यह अंदाजा नहीं लगाया था कि आगे क्या होने वाला है या आगे किस तरह की भयानक आर्थिक गिरावट होने वाली है। पूरा ध्यान केवल धीमी होती आर्थिक दर को बढ़ाने पर था।
उस वक़्त 'सामान्य वर्ष' में धीमी होती अर्थव्यवस्था को तेजी देने के लिए वित्तमंत्री ने 2019-20 के "संशोधित अनुमान (RE)" की तुलना में सरकारी खर्च को 12.7 फ़ीसदी बढ़ाने की योजना बनाई थी। यह 2018-19 के वास्तविक खर्च से 13.2 फ़ीसदी ज़्यादा था, लेकिन यह उस साल के संशोधित अनुमानों से काफ़ी कम था। 2020-21 वित्तवर्ष की तीन तिमाही निकल चुकी हैं। यह वह दौर रहा है जब दुनिया भर की सरकारों को अभूतपूर्व जन स्वास्थ्य और आर्थिक चुनौतियों से निपटने के लिए खर्च बढ़ाने पर मजबूर होना पड़ा है। लेकिन अप्रैल से दिसंबर तक 9 महीने की अवधि में सरकार ने कुल ख़र्च में पिछले साल के वास्तविक खर्च की तुलना में सिर्फ़ 8.1 फ़ीसदी का ख़र्च ही बढ़ाया है। जो "कोरोना की गैरमौजूदगी" वाली स्थिति से भी कम बढ़ोत्तरी है।
यहां तक कि 8.1 फ़ीसदी की भी जो बढ़ोत्तरी हुई है, वह भी एक धोखा है। अगर हम इस बढ़ोत्तरी से सिर्फ़ एक चीज- "बांटे गए कर्ज़ों" को ही हटा दें, तो यह बढ़ोत्तरी महज़ 5.1 फ़ीसदी रह जाती है। इससे पूंजीगत खर्च में जो 20.9 फ़ीसदी की बढ़ोत्तरी होनी थी, वह घटकर -4.1 फ़ीसदी रह जाती है। कर्ज वितरण में पिछले साल की तुलना में 300 फ़ीसदी तक बढ़ोत्तरी हुई है। लेकिन यह सरकार द्वारा वास्तविक खर्च या सार्वजनिक निवेश नहीं होता। इसे राज्य सरकारों को दिए गए कर्ज़ के तौर पर देखा जाएगा। यह खर्च बेहद जरूरी था, क्योंकि राज्यों को ना तो GST लागू करने से हुए नुकसान का मुआवज़ा दिया गया और ना ही केंद्रीय राजस्व में उनका हिस्सा बांटा गया। बल्कि अप्रैल से दिसंबर 2020 के बीच राज्यों की केंद्रीय राजस्व में हिस्सेदारी में पिछले साल की तुलना में 22 फ़ीसदी की गिरावट आई है। यहां यह भी बता दें कि 2018-19 वित्तवर्ष में राज्यों को जो आवंटन हुआ था, उसकी तुलना में 2019-20 में उन्हें 15 फ़ीसदी कम हिस्सा मिला था।
लगातार दूसरे साल केंद्रीय कर राजस्व में राज्यों की हिस्सेदारी का गिरना यह बताता है कि इन करों से मिलने वाला राजस्व संकट के दौर से गुजर रहा है। पिछले साल के बजट में 2019-20 में केंद्रीय करों से मिलने वाले सकल राजस्व का संशोधित अनुमान (आरई) 21.63 लाख करोड़ रुपये था। जबकि 2019-20 के बजट अनुमान (बजट एस्टीमेशन-बीई) में मूलत: यह आंकड़ा 24.61 लाख करोड़ रुपये था। मतलब केंद्रीय करों से मिलने वाले राजस्व का जितना अनुमान बजट में लगाया था, वास्तविकता में उससे 1.53 लाख करोड़ रुपये कम हासिल हुए।
इस गिरावट केंद्रीय सकल राजस्व की तुलना में राज्यों को नुकसान ज़्यादा हुआ। इसके बावजूद केंद्र सरकार का राजकोषीय घाटा 2019-20 में GDP का 4.6 फ़ीसदी पहुंच गया। यह एक दशक पहले के स्तर के बराबर था। बता दें एक दशक पहले ही सार्वजनिक खर्च को कम कर राजकोषीय घाटे को कम करने की प्रक्रिया चालू की गई थी। इस प्रक्रिया को लगातार दो सरकारों ने अपनाया है। लेकिन 2019-20 में राजकोषीय घाटे की इतनी विकट बढ़ोत्तरी सार्वजनिक खर्च के बढ़ने से नहीं, बल्कि खराब तरीके से राजस्व अनुमान लगाने के चलते हुई थी। यह भी एक कारण था कि तथाकथित "तेजी से फ़ैसले" लेने वाली सरकार खराब योजना के साथ लागू किए गए लॉकडाउन में ख़र्च करने से बचती रही।
नतीज़ा यह हुआ कि दुनिया की किसी भी अर्थव्यवस्था की तुलना में हमारी अर्थव्यवस्था में बहुत ज़्यादा गिरावट आई। कई सारे उद्यम तबाह हो गए और लाखों लोगों की आय को झटका लगा। कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि ऐसी स्थितियों में जो राहत दी गई, वह बेहद कम थी। आर्थिक सर्वे में पेश किए गए आंकड़ों के मुताबिक़ दिसंबर 2020 तक प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण में जिन 42.1 करोड़ लाभार्थियों को फायदा पहुंचाया गया, उन पर महज़ 68,914 करोड़ खर्च किए गए थे। एक लाभार्थी को इस हिसाब से महज़ 1,637 रुपये और देश के प्रति व्यक्ति को महज़ 500 रुपये ही मिले।
2020-21 में आर्थिक नुकसान ने राजस्व के संकट को और भी ज़्यादा तेज कर दिया है। इसका भार लोगों पर डालने का एक और उदाहरण यह है कि सरकार ने राजस्व इकट्ठा करने का अपना पसंदीदा तरीका अपनाते हुए डीजल और पेट्रोल पर दो किस्तों में उत्पाद शुल्क 16 और 13 रुपये प्रति लीटर तक बढ़ा दिया।
इसके चलते अप्रैल-दिसंबर 2020 में उत्पाद शुल्क से मिलने वाला राजस्व पिछले साल इसी अवधि की तुलना में 54 फ़ीसदी ज़्यादा रहा। जबकि इस दौरान डीजल और पेट्रोल की खपत क्रमश: 12 और 17 फ़ीसदी कम रही। लेकिन इससे भी केंद्रीय करों से मिलने वाले राजस्व में गिरावट को पूरी तरह नहीं रोका जा सका। अप्रैल से दिसंबर 2020 के बीच पिछले साल की तुलना में 3 फ़ीसदी कम कर इकट्ठा हुआ। बची हुई तिमाही में राजस्व के अनुमानों के कुछ ऊपर जाने की आशा है। लेकिन यह इतना पर्याप्त नहीं होगा कि यह "GDP के 6 फ़ीसदी" के अनुमानित राजकोषीय घाटे की भरपाई कर सके। बशर्ते इस अवधि में सार्वजनिक खर्च पर बहुत ज़्यादा लगाम ना लगा दी जाए।
कथित "राजकोषीय बुद्धिमानी" से इस दो साल के भटकाव की पृष्ठभूमि में क्या वित्तमंत्री पहले स्थापित आदतों को बदलेंगी और खर्च को बढ़ावा देंगी? इसमें कोई शक नहीं है कि अर्थव्यवस्था को इस तरीके के प्रोत्साहन की जरूरत है। कहा जा सकता है कि अगर खर्च को नहीं बढ़ाया जाता, तो इससे आर्थिक गतिविधि का विकास रुकेगा, जिससे राजस्व संकट और भी ज़्यादा बदतर होगा। अतिरिक्त खर्च की भरपाई अमीरों और कॉरपोरेट पर कर लगाकर की जा सकती है।
इसके लिए काफ़ी जगह भी है, क्योंकि भारत में प्रत्यक्ष करारोपण का स्तर बहुत नीचे है। सरकार को ना केवल फौरी आर्थिक बाधा को ख़त्म करने के लिए यह तरीका अपनाना चाहिए, बल्कि दीर्घकाल में असमानता बढ़ाने और बेरोज़गारी बढ़ाने वाली चीजों को खत्म करने के लिए भी ऐसा करना चाहिए। यही असमानता और बेरोज़गारी विकास में बाधा बनती है। लेकिन सरकार का समर्थन करने वाले अमीर लोग यही तो नहीं चाहते हैं।
अगर उन्हें खुश रखना है तो वित्तमंत्री को 'प्रोत्साहन' की तरफ झुकना होगा, जिसमें कर रियायतों का कुछ मिश्रण होगा और इंफ्रास्ट्र्क्चर जैसी चीजों पर खर्च को बढ़ाया जाएगा। इसके खर्च और मौजूद व भविष्य के खर्च को संतुलित करने का भार आम लोगों पर डाल दिया जाएगा। आर्थिक सर्वे ने इसी तरह के प्रोत्साहन की ज़मीन तैयार की है। लेकिन यहां मौजूदा सशक्त किसान आंदोलन वित्तमंत्री को एक ही तरफ झुकाव रखने वाले रवैये से होने वाले नुकसान की चेतावनी देने का काम करेगा।
लेखक नई दिल्ली के जेएनयू में अर्थशास्त्र पढ़ाते हैं।
इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।
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