तख़्तापलट के बाद भविष्य की राह क्या है?
तख़्तापलट को संपन्न हुए दो सप्ताह से अधिक का समय बीत चुका है, जिसने राष्ट्रपति ईवो मोरालेस और उपराष्ट्रपति अल्वारो गार्सिया लिनेरा को अपने इस्तीफ़ा देने और देश से निर्वासन के लिए मजबूर कर दिया है। तब से लेकर आज तक, हज़ारों की संख्या में श्रमिक-वर्ग और देशज बोलिवियाई जनता ने तख़्तापलट और जीनिन आन्येज़ की अवैध सरकार के ख़िलाफ़ अपना विरोध प्रदर्शन जारी रखा हुआ है। उन्हें सशस्त्र बलों और राष्ट्रीय पुलिस की भीषण हिंसा का शिकार होना पड़ रहा है, जिसके चलते 30 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं, सैकड़ों घायल हैं और सैकड़ों लोगों की गिरफ़्तारी हुई है।
सोमवार की रात को आन्येज़ की वर्तमान काम-चलाऊ सरकार और मूवमेंट टुवर्ड्स सोशलिज़्म (एमएएस) के विधायकों के बीच अगले 3-4 महीनों में देश में चुनाव संपन्न कराने के लिए एक नए समझौते की घोषणा हुई है।
पीपल्स डिस्पैच ने अर्जेंटीना के समाजशास्त्री और पत्रकार मार्को तेरुगी से इस विषय में बातचीत की है, जिन्होंने चुनावों से पहले और बाद में बोलीविया में कई सप्ताह गुज़ारे हैं, जिससे कि चुनावों के संदर्भ में हुए समझौते और देश में प्रतिरोध की वर्तमान गति को समझने में मदद मिल सके।
पीपल्स डिस्पैच: हाल की घटनाओं के साथ शुरू करते हुए, हम यह जानना चाहते हैं कि, आप इस समझौते के बारे में क्या सोचते हैं जिसे एमएएस ने जीनिन की वर्तमान काम-चलाऊ सरकार के साथ किया है? क्या उनके पास कोई दूसरा विकल्प भी मौजूद था? क्या सड़कों पर और विधानसभा में कुछ और भी हासिल कर सकने लायक पर्याप्त बल मौजूद था?
मार्को तेरुगी: सबसे पहली चीज़, जिसे ध्यान में रखा जाना चाहिए वह यह है कि शुरू से ही तख़्तापलट की प्रकृति में ही, वैधता हासिल करने के लिए चुनावी समाधान की संभावना पर हमेशा से ही विचार किया गया था।
यदि आपको इसे विभिन्न चरणों में व्यवस्थित करना हो तो पहला कदम जो था वह उखाड़ फेंकने का था, दूसरा चरण जो है उसमें कामकाजी सरकार के गठन का काम था, और इन सभी में उत्पीड़न, दमन और नरसंहार शामिल हैं। तीसरा क़दम है, चुनावों की घोषणा करने का और चौथे चरण वह है जब चुनाव ख़ुद-ब-ख़ुद होने लगते हैं।
इसे हमेशा से ही अपनी मूल प्रकृति में प्रस्तावित किया गया था, जिसमें पुरानी शैली के तख़्तापलट की गुंजाईश ना के बराबर थी, जहां किसी काम-चलाऊ सरकार की स्थापना अनिश्चित काल के लिए कर दी जाती थी। बल्कि यह कहें कि इसकी प्रस्तुति कुछ इस प्रकार से की गई है जिसमें इस पूरी प्रक्रिया को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया के रूप में दिखाया जा सके, जिसमें यह शर्त शामिल है कि बाद में इसका समापन चुनावों में हो।
इसकी उम्मीद हमेशा से ही थी, लेकिन सवाल सिर्फ यह बना हुआ था कि यह किस क्षण, किन शर्तों के साथ इसे संपन्न किया जायेगा। यह प्रश्न तख़्तापलट समर्थकों और उन लोगों के लिए जो इसका सामना कर रहे हैं, दोनों के लिए बना हुआ था। इस अर्थ में, इस मुद्दे पर विधानसभा में चर्चा चल रही थी, जहां एमएएस के पास बहुमत है। और जैसा कि वे घोषणा कर रहे थे और क़ानूनन आम चुनावों की घोषणा करने के लिए उन्होंने इस समझौते पर अपनी मुहर लगा दी है, जिसमें 20 अक्टूबर के चुनाव परिणामों को भी रद्द कर दिए गया है।
मैं समझता हूँ कि यह यह पहले से ही साफ़ था कि तख़्तापलट की रणनीति ने ख़ुद को वैध ठहराने के लिए एक चुनावी संकल्प के रूप में ख़ुद को दिखाने के लिए इसे पहले से ही निर्धारित किया था। यह भी जल्दी साफ़ हो गया था कि एमएएस के विधायकों की रणनीति इन चुनावों को सबसे अनुकूल परिस्थितियों हेतु संभव बनाने की थी। मूल रूप से एमएएस ख़ुद को चुनावों में प्रस्तुत कर सकता है, जिसे इसने हासिल भी कर लिया है। और इसे ईवो को इसमें भाग लेने के रूप में नहीं बल्कि उनके संभावित राजनीतिक-न्यायिक उत्पीड़न को रोकने के लिए एक गारंटी के रूप में हासिल कर लिया है। और सैनिकों के पीछे हटने के लिए भी, उनके बैरकों में वापस लौटने के लिए, और उनके लिए हुक्मनामा हासिल करने के लिए जिससे उन्हें “व्यवस्था की पुनर्स्थापना” के अभियान में दंडात्मक ज़िम्मेदारी से छूट देने वाले हुक्मनामे को वापस ले लिया गया है।
इसे देखते हुए, इस बात में कोई आश्चर्य नहीं कि एमएएस ने चुनावों को लेकर हाँ कहा है, क्योंकि भले ही सड़कों पर की गई कार्यवाही ने तख़्तापलट की आरंभिक रणनीति को स्थायित्व प्रदान किया हो, लेकिन सड़क के माध्यम से आन्येज़ को अपदस्थ करना संभव नहीं था। इसे ध्यान में रखना बेहद महत्वपूर्ण है, वरना कोई भी इन्सान यह सोच सकता है कि एमएएस ने रणनीति के तहत अपनी कार्यनीति में बदलाव को प्रस्तावित किया है। लेकिन ऐसा नहीं है, यह हमेशा से चुनावी समाधान को ही तलाश रहे थे, और किसी भी तरह से दोनों छोरों पर इस प्रक्रिया को तेज़ करने के लिए सड़कों पर संघर्ष इसका एक महत्वपूर्ण घटक था।
मेरे लिए यह बेहद चिंताजनक स्थिति है कि तख़्तापलट के प्रतिरोध के लिए कोई समन्वित रणनीति नहीं बनाई जा सकी, जहाँ पर विधायी शक्ति के साथ तालमेल बेहद निचले स्तर पर था। सड़क पर दबाव पैदा करने वाले आंदोलन तो सक्रिय थे, लेकिन प्रतिरोध को समन्वित करने वाला कोई स्थान नहीं बन पाया था। चारों तरफ़ आंदोलनों, विद्रोह और नरसंहार की घटनाएं हो रही थीं, लेकिन परिवर्तन की इस प्रक्रिया के दौरान इस मुश्किल समय में, बेहद तकलीफ़ों और कमज़ोरियों के चलते कोई स्पष्ट रोडमैप नहीं बन पाया था।
उसी समय जब एमएएस इस समझौते पर हस्ताक्षर कर रहा था, तब ऐसे विभिन्न आंदोलन भी सक्रिय थे जो कि उसी दौरान इस काम चलाऊ सरकार के साथ बातचीत में भी जा रहे थे, और जिसका अंतिम चरण सोमवार की रात को संपन्न हुआ। उदाहरण के लिए बोलिवियन वर्कर्स सेंटर ने भी काम चलाऊ सरकार के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किए। इसलिए, इस परिणाम का पूर्वानुमान पहले से था, लेकिन मुझे लगता है कि यह समझौता उत्पीड़न, हत्याओं और निर्वासित कॉमरेडों के रूप में बेहद मुश्किल परिस्थितियों के बीच हो रहा है, लेकिन इसमें आश्चर्य करने वाली कोई बात नहीं है।
पीपल्स डिस्पैच: इस बात के क्या मायने हैं कि न तो ईवो मोरालेस और न ही अलवारो गार्सिया लिनेरा चुनाव में भाग ले सकते हैं?
मार्को तेरुगी: यह स्पष्ट है कि तख़्तापलट के उद्देश्यों में से एक यह भी है जिसे न सिर्फ़ बोलीविया में रणनीतिक तौर इस्तेमाल में लाया गया है बल्कि आमतौर पर लातिन अमेरिकी देशों में रणनीतियों में परिवर्तन की प्रक्रियाओं में शामिल प्रमुख नेताओं को लक्षित कर किया जाता रहा है। हमने इसे ब्राज़ील में लूला के साथ देखा, यहां तक कि इक्वाडोर में कोरेया के साथ, और अब इसे ईवो और गार्सिया लिनेरा के साथ भी होते देख रहे हैं।
इसके पीछे भी कई वजहें हैं। यह सिर्फ़ इसलिए नहीं किये जा रहे हैं कि इनकी भूमिका सभी को एकजुट करने वाली नेतृत्वकारी शक्ति के रूप में थी, या वे प्रक्रियाओं की नेतृत्व वाली भूमिका में थे, जिसे विशेषकर ईवो के मामले में देख सकते हैं। बल्कि यह इसलिए भी था क्योंकि जब वे प्रक्रिया को संपन्न कराने वाले नेतृत्व को अपदस्थ करने में सक्षम साबित हो जाते हैं, तो तार्किक रूप से मुझे लगता है कि, उन्हें आंदोलनों के बीच विवाद की एक प्रक्रिया शुरू होती दिखने लगती है। यह देखने के लिए कि इसकी दिशा या उम्मीदवारी किस दिशा में जाएगी, कई संभावनाओं के द्वार खुल जाते हैं।
इसलिए यह आंकड़ा जो लोगों को एकजुट रख रहा है, जैसा कि ईवो के मामले में देखने को मिला है, जिसमें उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है। और अब प्रश्न यह उठता है कि चुनावों के लिए एक संयुक्त रणनीति किस प्रकार से निर्मित की जाती है, जहाँ पर कई लोगों के मन में राष्ट्रपति बनने की आकांक्षाएं उफ़ान मार रही होंगी। मुझे लगता है कि तख़्तापलट की रणनीति में यह स्पष्ट था कि किसी भी तरह से इसके नेतृत्वकारी शक्ति को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाया जाए।
इसके अलावा भी, मुझे ऐसा लगता है कि प्रक्रिया के घिसाव के दौरान, जो कि 2016 के जनमत संग्रह के बाद से जो घिसाव बढ़ रहा था, जो घिसाव 20 अक्टूबर से नतीजों के प्रबंधन के चलते बढ़ा, और ऐसे भी कई लोग हैं जो ईवो के व्यक्तित्व से भी ऊब चुके थे। इसलिए ईवो की ताक़त से कहीं अधिक, मैं कहना चाहूँगा कि आबादी के एक बड़े हिस्से ने तख़्तापलट को अपनी अस्वीकृति प्रदान की है जिसमें प्रमुख सवाल देशज समुदाय के बारे में, तथा विभिन्न वर्गों के सवाल पर, और उनके आंदोलनों की मांगों को लेकर है। लेकिन यह ज़रूरी नहीं कि इस गुरुत्वाकर्षण के केंद्र में ईवो रहे हों। इसलिए इन सभी को बेहद तनाव में रहते हुए लागू किया जाएगा, और हम आशा करते हैं कि चुनावी क्षेत्र में अपनी प्रतिक्रिया देने के लिए किसी एकीकृत समाधान तलाश को संपन्न कर लिया जायेगा।
पीपल्स डिस्पैच: आपने इस बात का उल्लेख किया है कि पिछले कुछ सप्ताह में बोलीविया में जो कुछ हुआ है और जो इस समझौते से संपन्न हुआ है, क्या वह उत्तर अमेरिकी साम्राज्यवाद के लिए एक प्रभावी रूप से एक सफल प्रयोग साबित हुआ? इन हफ़्तों में उसने क्या हासिल किया? महाद्वीप के लिए इसके क्या मायने हैं?
मार्को तेरुगी: मुझे लगता है कि सबसे पहले यह तय करना महत्वपूर्ण है कि तख़्तापलट के पीछे वह कौन सी ताक़त थी, जो कि संयुक्त राज्य अमेरिका के रूप में रणनीति बनाने, वित्तीय पोषण और ओएएस (अमेरिकी राज्यों के संगठन) के पीछे मौजूद था। और बोलिविया में तख़्तापलट, एक ही समय में कई तख़्तापलट को आपस में जोड़ती है, यह उन तख़्तापलट के तर्क को आपस में जोड़ती है जो पैराग्वे में लुगो के ख़िलाफ़, होंडुरास में ज़ेलाया के ख़िलाफ़ और ब्राज़ील में दिल्मा के ख़िलाफ़ इस्तेमाल किए गए थे। जो नेतृत्व को उखाड़ फेंकने के साथ यह प्रवचन देता है कि यह संभव है और इसकी ज़रूरत थी, जिसके बाद संक्रमण का दौर, चुनावी संकल्प, और सरकार के पुन: वैधीकरण की प्रक्रिया जारी रहती है।
यह एक ऐसा तंत्र है जिसे इस मामले में काफी तत्परता से संपन्न किया गया था, जहां यह वेनेज़ुएला में सड़कों पर हो रही हिंसा को नियोजित रूप से रणनीतियों के तत्वों के साथ भी जोड़ रही थी और वहां पर यक़ीनी तौर पर इसके ठोस अभिनेताओं के बीच एक सीधा संबंध है। यदि आप देखें, यह ठीक वैसे ही हुआ जिसे गुआदो ने लगभग एक साल पहले घोषित कर दिया था, जब उसने ‘सूदखोरी’, संक्रमण वाली सरकारों की स्थापना और स्वतंत्र चुनावों की समाप्ति की घोषणा की थी। यह क़रीब-क़रीब वही फार्मूला है, लेकिन बोलीविया के मामले में इसे हासिल कर लिया गया है।
संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए यह न सिर्फ़ बेहद अहम सफलता है, क्योंकि इस मामले में न सिर्फ़ बोलिविया को एक बार फिर से पुनर्गठित किया जाएगा और अशक्त बना दिया जाएगा, बल्कि इसलिये कि यह इस बात को दर्शाता है कि आज तख़्तापलट करवाना एकदम संभव है और इसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी वैध ठहराये जाने को लेकर कोई समस्या नहीं है। यदि आप ओएएस में संयुक्त राज्य अमेरिका और अल्माग्रो को मिल रहे खुले समर्थन से परे जाकर देखें, जो उत्तरी अमेरिकी शैली की नीतियों को क्रियान्वित करने के लिए एक प्रतिध्वनि कक्ष के रूप में और उसकी एक विस्तारित बाँह के रूप में काम करता है. यूरोपीय संघ ने भी इस बात की आलोचना नहीं की है। उसने एक बार भी यह नहीं कहा कि वहाँ पर तख़्तापलट हुआ है। और इस बारे में भी कोई आश्चर्य नहीं नहीं करना चाहिए कि न ही महाद्वीप के किसी दक्षिणपंथी सरकारों ने ही इसकी भर्त्सना की है।
यह उनके लिए अच्छा ही साबित हुआ कि बोलीविया में हुए तख़्तापलट को लेकर किसी प्रकार की अंतर्राष्ट्रीय अस्वीकृति देखने को नहीं मिली। निस्संदेह निंदा की स्पष्ट अभिव्यक्तियाँ भी थीं, जैसे कि मेक्सिको और अर्जेंटीना की सरकार के साथ यह देखने को मिला। इसके साथ ही विभिन्न सामाजिक आंदोलनों से, व्यक्तित्वों से, मानवाधिकार रक्षकों से, अंतहीन अभिनेताओं से इसे देखने को मिला है, लेकिन जिन राजनयिकों के पीछे राजनीतिक वज़न मौजूद था, उनमें से अधिकतर ने इसका समर्थन ही किया है।
पीपल्स डिस्पैच: अब आगे क्या क़दम उठाये जाने वाले हैं? आपको क्या लगता है कि सड़कों पर क्या होगा, क्या जनता अपना प्रतिरोध जारी रखेगी? क्या सैन्यीकरण और उत्पीड़न जारी रहेगा?
मार्को तेरुगी: मुझे लगता है कि आंदोलनों के एक महत्वपूर्ण हिस्से के साथ हस्ताक्षरित समझौतों की नवीनतम घोषणाओं को ध्यान में रखते हुए, उदाहरण के लिए सीओबी इस 'शांति' के रोडमैप पर काम कर रही है। यह सैनिकों को सड़कों से हटाने और विभिन्न अवरोधकों को समाप्त करने और हड़ताल को ख़त्म करने में जुटी है। इसलिए मुझे लगता है कि यह वही स्थिति होगी, जैसा कि ज़ाहिर तौर पर प्रतिरोध के केंद्र बिंदुओं के रूप में रहे फ़ेडरेशन ऑफ़ ट्रॉपिक जैसे आंदोलनों के साथ है, जो संघर्ष को तथा सड़कों पर होने वाले टकरावों को एक स्तर को बनाए रखना जारी रखेंगे।
आम तौर पर कहें तो मृतकों के रूप में भारी क़ीमत को चुकाकर, अब सड़कों पर सामाजिक संघर्ष को कम करने की प्रक्रिया शुरू होगी, जिसमें बहुत अधिक मात्रा में कमज़ोरी और बेहद तकलीफ़देह है। और इस प्रक्रिया को तख़्तापलट समर्थकों के लिए संभव बना पाना कहीं अधिक मुश्किल भरा होता। लेकिन इस क्षण में जिसमें बिना किसी नेतृत्व के तख़्तापलट के ख़िलाफ़ दबाव बढाने पर ज़ोर दिया जा रहा है, और इस दृष्टिकोण में एमएएस विधायकों के समर्थन के बिना, सबसे संभावित रास्ता शायद यह है कि यह यूरोपीय संघ की राह पर समाप्त हो जाए, जैसा कि संयुक्त राष्ट्र और अन्य अंतरराष्ट्रीय ताक़तें ज़ोर दे रही हैं।
यह आवश्यक नहीं है कि तख़्तापलट को वैध बनाने की योजना है, जबकि वे हैं जो इसे इस तरह से होने की आशा रखते हैं. लेकिन जो लोग एमएएस से हैं, उन्होंने एक राजनीतिक रूप से रिक्त स्थान में जो विभिन्न ताक़तों के बीच सहसंबंध निर्मित करने की अनुमति देता है, जहां एक एकीकृत स्थिति को स्थापित करना बेहद मुश्किल काम है। जहां पर यह एक ऐसे नेतृत्व के लिए बेहद मुश्किल का काम है जो सड़कों और विधानसभा के बीच समन्वय स्थापित कर सके। लेकिन यह अभी केवल प्रतिरोध के साथ ही नहीं है, बल्कि तख़्तापलट के साथ भी यह बेहद स्पष्ट रूप से उजागर हो गया है।
इसलिए मैं सोचता हूँ कि ऐसा संभव है कि सड़कों पर होने वाले टकराव में कमी देखने को मिले, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि उत्पीड़न ख़त्म होने जा रहा है, या गिरफ़्तारी वारंट या लोगों के ख़िलाफ़ काली सूची जारी करने का काम बंद होने जा रहा है।
सौजन्य: पीपल्स डिस्पैच
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