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पाकिस्तान के कट्टर मुस्लिम क्यों नहीं चाहते भारत सीएए को निरस्त करे

सीएए, एनपीआर और एनआरसी का विरोध करने के सभी कारणों में जो सबसे ज्यादा चिंता करने वाली बात है वह ये कि सीमाओं के पार कट्टर मुस्लिम में इसको लेकर उत्साह है।
Anti CAA Protest

सिएटल सिटी काउंसिल, संयुक्त राज्य अमेरिका में सबसे शक्तिशाली नगर परिषदों में से एक है, जिसने हाल ही में इतिहास रचा है। दुनिया का यह पहला निर्वाचित निकाय है जिसने प्रस्ताव पारित कर भारत सरकार से सीएए को निरस्त करने, नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर पर कार्यवाही रोकने और भारतीय संविधान की रक्षा करने को कहा है। इसने शरणार्थियों के संयुक्त राष्ट्र संधियों की बहाली की मांग भी की है। उक्त प्रस्ताव को विश्व स्तर पर “सीएए के खिलाफ वैश्विक आक्रोश में नैतिक सहमति” के रूप में देखा जा रहा है।

सिएटल निश्चित रूप से अपवाद नहीं है।

कई चिंतित लोगों ने अत्यधिक विवादास्पद और भेदभावपूर्ण नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) 2019 के खिलाफ आवाज़ उठाई है, जो कानून मुसलमानों [और यहूदियों] को अपने दायरे से बाहर कर देता है और धर्म के आधार पर एक चयनात्मक नागरिकता के मानदंडों को लागू करने की बात करता है। यह नया कानून भारत के भीतर रह रहे लाखों मुस्लिमों को प्राभावी रूप से अवैध प्रवासी बना देगा। इसी तरह का एक प्रस्ताव पिछले महीने यूरोपीय संघ की संसद के सदस्यों ने भी पेश किया था। इसे अभी स्थगित कर दिया गया है, लेकिन यह एक छोटो सी राहत हैं क्योंकि इन सदस्यों ने इसे जल्द ही फिर से वापस लाने का संकल्प लिया है।

स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली बार विदेश में रह रहे भारतीय – जिन्हें आम तौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के समर्थक के रूप में पेश किया जाता है और जो उनके समर्थन में रैलियों में भाग लेते हैं – वह तबका अब पश्चिम में अध्ययनरत भारतीय छात्रों के साथ-साथ इस विधेयक का विरोध कर रहा है। ये विरोध प्रदर्शन पश्चिम के अलग-अलग शहरों और कस्बों में करीब दो महीने से चल रहे है।

इस घटना के साथ देश के भीतर प्रतिरोध नए क्षेत्रों में फैल रहा है और समाज के व्यापक तबके को आंदोलन में शामिल कर रहा है, क्योंकि लोग धीरे-धीरे सीएए के ख़तरनाक संकेत के प्रति जागरुक हो रहे हैं। निश्चित रूप से, मोदी-शाह शासन के खिलाफ बैचेनी बढ़ रही है। शायद यह सरकार की हताशा को इंगित करता है कि इस कानून को वैध बनाने के लिए, सरकार संसद में भी आधे-अधूरे झूठ का सहारा ले रही है। प्रधानमंत्री मोदी ने नेहरू-लियाकत संधि से चुनिंदा बातें कहीं ताकि वे इस मामले को वैध ठहरा सके। उन्होंने सीएए का बचाव करने के लिए उसी नेहरू-बोरदोलोई पत्र का इस्तेमाल किया, जिसे उनकी पार्टी ने पहले कांग्रेस को पटकनी देने के लिए इस्तेमाल किया था। गोपीनाथ बोरदोलोई आज़ादी के बाद असम के पहले मुख्यमंत्री बने थे।

सीएए के खिलाफ इस तरह का मंथन तब देखा गया जब मध्य प्रदेश के आदिवासियों ने इसके खिलाफ विरोध शुरू किया। बुरहानपुर से शुरू होकर, राज्य के अन्य हिस्सों में विशाल रैलियों का आयोजन किया गया है जिसमें लोगों ने "इन दस्तावेज़ों से संबंधित परेशानी पर ज़ोर दिया।" चूंकि बहुसंख्यक लोगों के पास जाति प्रमाण पत्र या राशन कार्ड नहीं होते हैं, परिभाषित धर्म का उल्लेख नहीं करने से, यह परिवर्तित परिवेश उनके अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लगा सकता है। खरगोन में आयोजित रैलियों में 30,000 से अधिक दलितों और आदिवासियों ने केंद्र से विवादास्पद कानून को वापस लेने की मांग की है। इसके खिलाफ प्रस्ताव पारित करने की अपील भी राज्य सरकार से की गई है।

देश के विभिन्न हिस्सों में शाहीन बाग-शैली के धरने लगने से इस आंदोलन ने अपने विरोध प्रदर्शनों में खास धार्मिक रंग देने को अनुमति देने से इनकार कर दिया है। उल्लेखनीय रूप से उन्होंने इस संघर्ष को संविधान को बचाने और एक धर्मनिरपेक्ष भारत के संघर्ष में बदल दिया है। उन्होंने धर्म-आधारित राजनीतिक संरचनाओं/संगठनों को अपने मंचों पर कब्जा नहीं करने दिया और न ही उन्हें आंदोलन चलाने दिया। यह उनके परिपक्व समझ का नतीजा है कि उन्होंने इसके जरिए संविधान बचाने पर जोर दिया है, और गांधी और अंबेडकर के बारे में सभी नागरिकों को याद दिलाया, जिन्होंने आधुनिक भारत का निर्माण किया था। दक्षिण एशिया में जमात-ए-इस्लामी जैसे संगठन जिनका सबसे व्यापक नेटवर्क है और जिनका राष्ट्रीय कार्यालय शाहीन बाग के पास है उसे आंदोलन से दूर रखा गया है।

यहां तक कि स्थानीय समुदाय के नेताओं के समझौतावादी रवैये के बावजूद "मुंबई बाग" के प्रदर्शन में महिलाएं शामिल हुई हैं। ये विरोध जैसे जैसे बढ़ रहे हैं ऐसे में इसने उन लोगों को आवाज दी है जो पहले सीएए के बारे में चर्चा में उपेक्षित थे या इससे दूर थे, समावेशी और सतत शहरीकरण (NCU) के लिए बने राष्ट्रीय गठबंधन जो कार्यकर्ताओं, शोधकर्ताओं, वकीलों, और अनौपचारिक क्षेत्र के श्रमिकों, सामूहिक समूहों का एक नेटवर्क है और जो शहरी वर्ग और जातिगत असमानताओं के मुद्दों से जुड़े मामलो पर काम करता है उसने इसके बारे में कई तरह से व्याख्या किया है।

इनके अनुसार, सीएए-एनआरसी-एनपीआर असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों, बेघर लोगों, प्रवासी श्रमिकों, बस्ती निवासियों, ट्रांसजेंडर व्यक्तियों पर बड़े पैमाने पर निशाना साधेगा। एनसीयू ने कहा कि प्रस्तावित एनआरसी-एनपीआर की गणना प्रक्रिया का 1.77 मिलियन बेघर लोगों पर प्रतिकूल यानि खराब प्रभाव पड़ेगा। आंध्र प्रदेश, बिहार, झारखंड, महाराष्ट्र और तमिलनाडु में उनके द्वारा किए गए सर्वेक्षणों से पता चलता है कि औसतन 99 प्रतिशत बेघर लोगों के पास अपना जन्म प्रमाण पत्र नहीं है। और 30 प्रतिशत शहरी बेघर आबादी के पास पहचान का कोई प्रमाण नहीं है। लाखों घुमंतू और विमुक्त जनजातियां हैं और साथ ही साथ ग्रामीण संकट के चलते प्रवासियों के पास भी देने के लिए कोई दस्तावेज नहीं है।

क्या इस कानून के तहत परिकल्पित नागरिकता के प्रमाण का बोझ नागरिकों पर पड़ना चाहिए, या फिर ये ज़िम्मेदारी राज्य की होनी चाहिए, जैसा कि पहले था जो अब एक मूल मुद्दा है। नई कल्पना के पीछे धारणा यह है कि भारत में रहने वाला हर कोई व्यक्ति अवैध अप्रवासी है, जब तक कि वह साबित न कर दे। यह साफ़ तौर पर असंवैधानिक है और सभी भारतीयों के अपरिहार्य अधिकारों का उल्लंघन करता है।

यही कारण है कि सीएए के इर्द-गिर्द चल रही बहस और एनआरसी को कैसे लागू किया जाए जो कि एक बड़े मानवीय संकट को जन्म देगी, लेकिन किसी ने भी अभी तक इस पर विचार नहीं किया है कि यह नया कानून कैसे सीमा पार इस्लामिक अनुयायियों की मदद कर रहा है।

आखिरकार, जब कट्टर मुस्लिम स्वतंत्र विचारकों के खिलाफ अपने उपदेश थोपते हैं, तो एक प्रतिकार के रूप में वह क्या कार्य करता है? वे कौन हैं जो इस्लामिक अनुयायियों के विचार से सहमत नहीं होना चाहते हैं, वे उनके समुदाय के लोग हैं जो अल्पसंख्यक है? इस्लाम धर्म को प्रचारित करने वाले संगठन का "सबसे बड़ा दुश्मन" कौन है? वे समुदाय के भीतर के ही लोग हैं, जो इस्लाम के उनके संस्करण को मानने के लिए तैयार नहीं हैं, जो इसके सबसे बड़े दुश्मन हैं। टिप्पणीकार मिलिंद मुरुगकर इस पहलू को हाल ही में सामने लाए है।

महिला शिक्षा पर काम कर रही पाकिस्तानी कार्यकर्ता मलाला यूसुफजई के बारे में सोचें जिन पर महिला शिक्षा का विरोध करने वाले तालिबान ने हमला किया। प्रसिद्ध लेखिका तस्लीमा नसरीन और सलमान रुश्दी के बारे में सोचें, जो कट्टर मुस्लिमों के क्रोध को निशाना बनते हैं। आसियाबी के मामले को लें - इस ईसाई महिला को, जिस पर धर्म की निन्दा का आरोप लगाया गया था, हालांकि बाद में उसे अदालत ने बरी कर दिया था, फिर भी उसे अपनी जान का डर है क्योंकि कट्टरपंथी अदालत के फैसले से खफा हैं। या मुख्तारन माई के बारे में सोचें जिनका सामूहिक बलात्कार हुआ था और जो वंचितों की शिक्षा के अधिकार के लिए लड़ रही थी। अगर सीमा पार या दुनिया भर से उदार आवाजों ने उनका समर्थन नहीं किया होता, तो ये सभी लोग बहुत पहले ही अपनी जान गंवा चुके होते।

कट्टर मुस्लिम द्वारा उत्पीड़न केवल कुछ व्यक्तियों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह इस्लाम के भीतर के समुदायों तक फैला जाता है। पाकिस्तान में अहमदिया पर चार दशक से अत्याचार हो रहा है, जिन्हें गैर-मुस्लिम घोषित किया गया है, जो अपने आप में एक मामला है। वहां अहमदिया मस्जिदों को जला दिया गया है, उनके घरों को आग लगा दी गई है और वे प्रभावी रूप से पाकिस्तान में दूसरे दर्जे के नागरिकों की तरह से रहने को मजबूर हैं।

जब भारत, जिसका बहुलतावाद की दुनिया दाद देती है, और जिसे दुनिया भर में सताए गए लोगों को आश्रय देने के लिए जाना जाता है, वह एक ऐसा कानून लागू करता है, जो इस तरह के किसी भी उत्पीड़न को मानने से इनकार करता है तो ऐसे में कोई भी सोच सकता है कि ये पाकिस्तान और बांग्लादेश में कट्टर मुस्लिमों को कितना खुश कर रहे हैं।

सीएए, एनपीआर और एनआरसी का विरोध करने के सभी कारणों में से जो सबसे ज्यादा चिंतित करने वाली बात है वह ये कि सीमाओं के पार कट्टर मुस्लिमों में इसको लेकर उत्साह है। यह ऐसा समय है जब भारतीय इस सच्चाई को लेकर जाग चुके हैं।

सुभाष गाताडे स्वतंत्र पत्रकार हैं। व्यक्त विचार निजी है।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Why Pakistan’s Islamists Don’t Want India’s CAA Repealed

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