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क्यों तीसरी दुनिया के मज़दूर ही महामारी से सबसे अधिक प्रभावित हुए?

विकसित देश अपनी अर्थव्यवस्थाओं के मामले में राजकोषीय समर्थन में काफी आगे रहे खासकर मजदूरों के मामले में उनके हाथ काफी खुले रहे हैं, जबकि तीसरी दुनिया के देश बेहद कंजूस और लापरवाह रहे हैं, जरूरी नहीं कि उनके पास कोई विकल्प नहीं थे (भारत के मामले को छोड़कर)।
नई दिल्ली रेलवे स्टेशन
लॉकडाउन के चौथे चरण के दौरान ट्रेन पकड़ने के लिए लोग नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुंचते हुए 

अब से कुछ महीनों बाद, अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) एक रिपोर्ट लाने जा रहा है, जो विश्व अर्थव्यवस्था पर महामारी के प्रभाव की जांच करेगी, विशेष रूप से लॉकडाउन और इसके प्रभाव के कारण खोए श्रम के घंटों पर भी यह रपट होगी। इस रपट के आँकड़े विभिन्न देशों के आधिकारिक आंकड़ों का संकलन नहीं हैं; बल्कि ये विभिन्न देशों से मिली जानकारी के आधार पर आईएलओ (ILO) के अपने अनुमान हैं। कोई नहीं कह सकता है कि ये आंकड़े कितने सही हैं, लेकिन हमारे पास केवल ये ही आंकड़े मौजूद हैं, और जिन सावधानियों के साथ ये अनुमान लगाए गए हैं और हमारे पास जो अन्य डेटा मौजूद है उसके साथ इनका मिलान करके ही इनका अनुमान लगाया गया है, इसलिए हम उनके आधार पर निर्णय पर पहुँच सकते हैं।

खोए हुए काम के घंटों की गणना एक निश्चित आधार पर की जाती है, जो 2019 के सीजनल रूप से समायोजित चौथी तिमाही के आंकड़े हैं। इस बेसलाइन के आधार पर की गई तुलना में, 2020 की पहली तीन तिमाहियों में विश्व अर्थव्यवस्था में क्रमशः 5.6 प्रतिशत, 17.3 प्रतिशत और 12.1प्रतिशत कामकाजी घंटों का नुकसान हुआ है। तीन तिमाहियों को मिलाकर, विश्व अर्थव्यवस्था में 11.7 प्रतिशत काम के घंटों का नुकसान हुआ है। 

गौरतलब है कि दक्षिण एशिया क्षेत्र में 2020 की पहली तीन तिमाहियों में घाटा क्रमशः 3.1 प्रतिशत, 27.3 प्रतिशत और 18.2 प्रतिशत रहा है। वास्तव में, लैटिन अमेरिका और कैरेबियाई देशों के बाद, जो दुनिया के सभी देशों या क्षेत्रों के मामले में महामारी से सबसे बुरी तरह प्रभावित थे, दक्षिण एशिया दूसरे नंबर पर रहा है।  

यह तथ्य अन्य आंकड़ों से भी निकल कर आता है। आईएलओ (ILO) श्रमिकों की आय में हुई हानि के आधार पर खोए काम के घंटों का अनुमान लगाता है। एक साथ ली गई तीन तिमाहियों में, खोई हुए श्रम से आय की हानी का प्रतिशत लैटिन अमेरिका और कैरिबियन में 19.3 प्रतिशत था; दक्षिण एशिया में यह 16.2 प्रतिशत था। ये आंकड़े दुनिया के हर दूसरे क्षेत्र के लोगों या मजदूरों की तुलना में काफी अधिक थे। वास्तव में, दुनिया भर में, खोए श्रम से आय की हानी 10.7 प्रतिशत से अधिक नहीं है। 

चूँकि भारत अपने व्यापक आकार के कारण दक्षिण एशिया पर हावी है, और जैसा कि इसके बारे में प्रसिद्ध है, इसके पड़ोसी देश, जिनमें पाकिस्तान भी शामिल है, महामारी से बहुत कम प्रभावित थे और इसका मुकाबला करने के लिए कम कठोर उपाय भी किए, इसलिए असाधारण रूप से दक्षिण एशिया में आय में हानि के ऊंचे आंकड़े मुख्यत भारत के खाते में गए है। इसलिए आप देख सकते हैं कि भारत में श्रमिकों की आय का नुकसान दुनिया में सबसे अधिक है, इसके बाद केवल लैटिन अमेरिका और कैरिबियन देश आते हैं जो इससे बहुत पीछे नहीं हैं। संक्षेप में, आईएलओ (ILO) के आंकड़े इस बात की पुष्टि करते हैं जो बात वैसे भी कई लोग कुछ समय से कह रहे थे, कि महामारी से निपटने के मामले में नरेंद्र मोदी सरकार दुनिया में सबसे अक्षम या विफल सरकार रही है।

लेकिन यही सबकुछ नहीं है। संबंधित देशों की सरकारों द्वारा दी गई राजकोषीय सहायता से पहले आईएलओ (ILO) ने आय में हानि के आंकड़ों की गणना की थी। वास्तव में, आईएलओ (ILO) इस बात की गणना करता है कि विभिन्न सरकारों ने जो राजकोषीय सहायता दी है उसके बाद महामारी से श्रमिकों की आय में हानि से लड़ने में क्या मदद मिली है।

राजकोषीय सहायता को आईएलओ (ILO) द्वारा परिभाषित किया गया है जिसमें अतिरिक्त सरकारी खर्च, आय स्थानान्तरण या राजस्व (कर कटौती) शामिल हैं। आईएलओ (ILO) अध्ययन के महत्वपूर्ण निष्कर्षों में से एक निष्कर्ष यह भी है कि सकल घरेलू उत्पाद के प्रतिशत के रूप में उच्च राजकोषीय प्रोत्साहन या आर्थिक मदद देने वाले देशों में श्रम के घंटे के नुकसान का प्रतिशत कम था। आईएलओ (ILO) स्वयं इस विपरीत संबंध का कोई स्पष्टीकरण नहीं देता है, लेकिन इसे खोजना बहुत मुश्किल नहीं है।

यदि सरकार द्वारा लगाए गए लॉकडाउन के कारण और आपूर्ति में कमी की वजह से पूरी राशि का नुकसान होता है, तो यह "आपूर्ति की ओर" से उत्पन्न होने वाली वजह है, तो ऐसा कोई कारण नहीं है कि इस तरह के नुकसान और इसके लिए राजकोषीय प्रोत्साहन के आकार के बीच कोई उलटा संबंध हो। तब नुकसान की भयावहता केवल लॉकडाउन की कठोरता पर निर्भर करेगी न कि राजकोषीय प्रोत्साहन के आकार पर। 

लेकिन लॉकडाउन का बाज़ार में मांग पक्ष के माध्यम पर भी "गुणक" या बड़ा प्रभाव रहा है। यदि लॉकडाउन की वजह से आय में हानि हुई है, तो इसका मतलब है लोगों ने विभिन्न उपलब्ध सेवाओं की अपनी मांग को कम कर दिया है, जिनमें बाल काटने वाले सैलून से लेकर भोजनालयों तथा विभिन्न प्रकार की मरम्मत या दुकानों आदि शामिल है, जिन्हे लॉकडाउन की वजह से खोलने की अनुमति नहीं दी गई है। यदि ये सेवा-प्रदाता अपनी दुकानें बंद कर देते हैं, तो इसका कारण लॉकडाउन के प्रतिबंधों में सीधे नहीं होगा, लेकिन मांग के अभाव में अप्रत्यक्ष रूप से लॉकडाउन प्रतिबंधों के कारण प्रभाव पड़ता है। आय की हानि "आपूर्ति पक्ष" से आती है, क्योंकि लॉकडाउन प्रतिबंधों की वजह से मांग पक्ष कम होता है और इसलिए आय की हानि बढ़ती है।

यह वह जगह है जहां राजकोषीय मदद या उसकी भूमिका आती है। यह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उन लोगों के हाथों में कुछ खरीदने की ताक़त देता है, जिन्हे लॉकडाउन के कारण आय का नुकसान उठाना पड़ रहा होता हैं, जिससे लॉकडाउन की वजह से मांग पक्ष पर प्रभाव पड़ता है, या "गुणक" प्रभाव कम हो जाते हैं। जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) के संबंध में राजकोषीय प्रोत्साहन या मदद का आकार जितना बड़ा होता है, लॉकडाउन का गुणक प्रभाव उतना ही छोटा होता है, और इसलिए, आनुपातिक रूप से श्रम घंटे का नुकसान कम होता है। यह वही बिन्दु है जिसका आईएलओ ने अध्ययन किया है।

आईएलओ (ILO) का अध्ययन, खोए हुए श्रम के घंटों के संबंध में राजकोषीय मदद या प्रोत्साहन के आकार का भी अनुमान लगाता है। यह पूर्णकालिक काम के बराबर खोए श्रम के घंटों को परिवर्तित करता है। इसी तरह, यह राजकोषीय प्रोत्साहन से आर्थिक गतिविधि में आए विस्तार का आकलन करके पूर्णकालिक नौकरी के बराबर परिवर्तित करता है, जिसके कारण प्रोत्साहन को बढ़ावा मिला होगा। इसलिए दोनों के बीच का अनुपात खोए हुए श्रम घंटों के पैमाने के संबंध में राजकोषीय मदद को आकार देता है।

इससे यह पता चलता है कि दुनिया के सभी क्षेत्रों में, अगर लैटिन अमेरिका और कैरिबियन और उप-सहारा अफ्रीका को एक ही क्षेत्र मान लें तो दक्षिण एशिया वह इलाका है जहां काम के घंटों की हानी सबसे अधिक हुई और सबसे कम राजकोषीय प्रोत्साहन मिला। और दक्षिण एशिया के खराब रिकॉर्ड की बड़ी वजह मुख्य रूप से भारत की राजकोषीय उदासीनता या लापरवाही थी।

इस खोज के दो स्पष्ट प्रभाव देखे जा सकते हैं। सबसे पहला,  भारत में राजकोषीय प्रोत्साहन  की लचरता के कारण लॉकडाउन ने शुरुआती नुकसान के को कई गुना बढ़ा दिया और श्रम के घंटों का नुकसान भी काफी बढ़ा, जो अपने आप में भारत के मामले में बेहद गंभीर मसला है।

दूसरा, किसी भी तरह का राजकोषीय प्रोत्साहन, श्रम के घंटों के नुकसान पर इसके प्रभाव को कम करने के अलावा, श्रमिकों को आय सहायता प्रदान करता है; यह महामारी की वजह से उत्पन्न आर्थिक संकट के बीच उन्हें बचाए रखने का एक जरूरी साधन बनता है। इसलिए, भारत सरकार की कंजूसी मजदूरों पर दोहरी मार है: यह कामकाज़ी या मजदूरों को दो अलग-अलग तरीकों से चोट पहुंचाती है, जिनका प्रभाव कई गुना है। इसने उन पर पहले से पड रही  लॉकडाउन की निर्दयी मार को बढ़ाने में मदद की; और जब उन्हें इसकी सबसे ज्यादा जरूरत थी, तब उसे न देकर उनपर सबसे अधिक चोट पड़ी। यह भारत सरकार को महामारी के संदर्भ में न केवल सबसे अक्षम/विफल सरकार के रूप में बल्कि दुनिया की सबसे अनसुनी सरकारों के  रूप में पेश करता है।

भारत, जिसकी कथित रूप से एक मजबूत अर्थव्यवस्था है, क्योंकि लगातार केंद्र सरकारें जोर-शोर से इस बात की घोषणा करती रहती हैं, राजकोषीय प्रोत्साहन की गंभीरता के मामले में सरकार की निर्दयी-मानसिकता को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है; लेकिन तीसरी दुनिया के अन्य देशों की बड़ी संख्या के मुक़ाबले में, इनके पास इस मामले में बहुत कम विकल्प हैं।

आईएलओ की रिपोर्ट से पता चलता है कि राजकोषीय प्रोत्साहन का संबंधित आकार तीसरी दुनिया के बहुत से हिस्से में काफी कम रहा है। नव-उदारवादी युग में उनकी अर्थव्यवस्थाओं की दशा इतनी खराब है कि किसी भी पर्याप्त राजकोषीय प्रोत्साहन के लिए उन्हे अतिरिक्त बाहरी ऋण की आवश्यकता होगी; और इस तरह के ऋण मौजूद नहीं है।

इसलिए, महामारी से पनपे लॉकडाउन और परिणामस्वरूप काम के नुकसान से विभिन्न देशों की राजकोषीय प्रतिक्रिया में काफी विविधता रही है। जबकि विकसित देशों ने अपनी अर्थव्यवस्थाओं को बचाने के लिए राजकोषीय समर्थन के मामले में अपने हाथ ज्यादा खुले रखे हैं, और  खासकर मजदूरों के लिए, लेकिन तीसरी दुनिया के देश इस मामले में खासकर मजदूरों के मामले में बेहद लापरवाह रहे हैं, जरूरी नहीं कि उनके पास कोई विकल्प न हो।(भारत के मामले को छोड़कर) लेकिन मुख्य रूप यह मजबूरी की वजह से है। इस तथ्य की वजह से विकसित देशों के मुकाबले तीसरी दुनिया के मजदूरों पर महामारी की मार विशेष रूप से गंभीर है। तीसरी दुनिया के दुर्भाग्य का साया उसी तेज़ी से विकसित देशों पर नहीं छाया है।

हर जगह मजदूरों को नुकसान हुआ है, ज़ाहिर है, यह समय अरबपतियों के लिए भी इतना अच्छा नहीं था। लेकिन मजदूरों के भीतर, वह भी तीसरी दुनिया के मजदूरों के भीतर इसकी पीड़ा या तकलीफ बड़ी निर्दयी रही है, जो वैश्वीकरण के युग में तीसरी दुनिया की सरकारों द्वारा अपनी आर्थिक स्वायत्तता खोने का नतीजा है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

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