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क्या दामोदर नदी फिर से बंगाल का 'शोक' बनेगी?

5 अक्टूबर को ममता बनर्जी ने प्रधानमंत्री को ख़त लिखते हुए बाढ़ की स्थितियों में आपात हस्तक्षेप की मांग की। उन्होंने दामोदर घाटी निगम के अनियोजित और अनियंत्रित पानी छोड़ने की गतिविधि को दक्षिण बंगाल में बाढ़ के लिए ज़िम्मेदार बताया। 
Will Damodar River Again be Bengal’s ‘Sorrow
Image Courtesy: Wikipedia

कोलकाता: क्या दामोदर नदी अपने "बंगाल के शोक की अपनी कुख्यात पहचान की तरफ़ वापस बढ़ रही है, जो 1950 के दशक के आखिर तक उसके साथ जुड़ी हुई थी? जब दामोदर घाटी निगम (डीवीसी) ने बाढ़ को नियंत्रित करने के लिए कई परियोजनाओं पर काम किया, तो धीरे-धीरे दामोदर नदी की इस पहचान की यादें धूमिल हो गईं। यह चिंताएं हाल में पश्चिम बंगाल के दक्षिणी जिलों में आई भारी बाढ़ की पृष्ठभूमि में जताई जा रही हैं। यह चिंताएं डीवीसी द्वारा मैथॉन और पांशेट बराज से 30 सितंबर से 2 अक्टूबर के बीच भारी मात्रा में पानी छोड़े जाने के चलते आई थी। अनुमानित तौर पर बांकुरा, बीरभूम, हुगली, पश्चिम बर्धमान और पश्चिम मिदनापुर जिलों में करीब़ 22 लाख लोग इस बाढ़ से प्रभावित हुए हैं। बाढ़ ने कृषि गतिविधियों को भी बुरे तरीके से प्रभावित किया है। नतीज़तन अब भी आसपास के शहरों और क्षेत्रों में सब्जियों के दाम 25 से 40 फ़ीसदी ज़्यादा चल रहे हैं। इन दामों से भी बाढ़ द्वारा कृषि को प्रभावित किए जाने की पुष्टि हो जाती है। 

फिर एक ऐसा आयाम भी है, जिसकी चर्चा नहीं हुई। 29 सितंबर की रात से अगले दिन के दोपहर तक, बादल फटने और भारी बारिश (करीब़ 370 मिलीमीटर) के चलते डीवीसी के 2,340 मेगावाट वाले मेजिया ताप विद्युत गृह की 8 ईकाईयों में से 5 से जबरदस्ती पानी बाहर निकालना पड़ा। सैलाब ने जहां कोयले की आपूर्ति में बाधा डाली। वहीं इस मामले में संयंत्र को बचाना था और औद्योगिक व घरेलू उपभोक्ताओं को ऊर्जा आपूर्ति फिर से चालू की जानी थी। बाढ़ ने जो नुकसान पहुंचाया, उसमें तुरंत आपात तरीके से बड़े स्तर पर राहत और पुनर्वास के कदम उठाए जाने जरूरी थे।

अचानक हुए इस घटनाक्रम से परेशान बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने प्रधानमंत्री मोदी को 5 अक्टूबर को ख़त लिखा और हस्तक्षेप की मांग की। मुख्यमंत्री ने इस हादसे के लिए डीवीसी द्वारा अनियोजित और अनियंत्रित तरीके से पानी छोड़े जाने को जिम्मेदार बताया, जिसमें राज्य प्रशासन को पहले से सूचना तक नहीं दी गई थी। नरेंद्र मोदी को लिखे ख़त में ममता बनर्जी ने दक्षिण बंगाल में बाढ़ की समस्या से निपटने के लिए फौरी और लंबे समय के कदमों को उठाने पर जोर दिया और प्रधानमंत्री से अपील में कहा कि तय किया जाए कि संबंधित मंत्रालय (यहां ऊर्जा मंत्रालय) पश्चिम बंगाल और झारखंड सरकार व डीवीसी के साथ स्थायी समाधान के लिए समन्वय बनाए। उन्होंने मोदी को याद दिलाया कि पश्चिम बंगाल निचले तटीय इलाके वाला राज्य है, क्योंकि झारखंड की भौगोलिक स्थिति दामोदर नदी से ऊपर की तरफ है। 

डीवीसी ने तर्क दिया कि पानी को छोड़े जाने का फ़ैसला हमेशा दामोदर घाटी बांध नियंत्रण समिति लेती है, जिसमें दोनों ही राज्य सरकारों के प्रतिनिधि शामिल हैं। दोनों ही सरकारों को पानी छोड़े जाने के 6 घंटे पहले ईमेल और संबंधित दावेदारों वाले वॉट्सऐप ग्रुप पर सूचित कर दिया गया था। नियंत्रण समिति के प्रमुख केंद्रीय जल आयोग, नई दिल्ली के सदस्य होते हैं।

सभी विपक्षी पार्टियों में से केवल बीजेपी ने यह आरोप लगाया है कि यह सब इसलिए हुआ क्योंकि मुख्यमंत्री अपने उपचुनाव अभियान में व्यस्त थीं और कमज़ोर तटबंधों की मरम्मत की दिशा में प्रशासन ने ध्यान नहीं दिया। 

तृणमूल कांग्रेस और बनर्जी की राष्ट्रीय स्तर की महत्वकांक्षाओं को देखते हुए, यह व्याख्या वाली बात है कि क्या मुख्यमंत्री ने झारखंड के बारे में जो कहा, उसमें राजनीतिक आग्रह शामिल है या नहीं। उन्होंने कहा कि झारखंड एक मित्रवत पड़ोसी राज्य है और अपने बांधों से बड़े स्तर पर पानी छोड़े जाने के पहले उसे पश्चिम बंगाल को सूचित करना चाहिए, ताकि राज्य को तैयारी का वक़्त मिल पाए। 

(बांध नियंत्रण समिति और डीवीसी स्वामित्व ढांचे के प्रावधान झारखंड के पानी छोड़ने संबंधी अधिकारों को पूरी तरह खारिज करते हैं। समिति तकनीकी फ़ैसलों के लिए एक सलाहकारी मंच है। झारखंड में मैथन और पंशेट की स्थिति मुद्दा नहीं है। लेकिन अगर भारी बारिश की स्थिति में झारखंड राज्य के स्वामित्व वाले तेनुघाट बांध से पानी छोड़ता है, तो झारखंड की जिम्मेदारी पर सवाल उठेंगे।)

खूंखार दामोदर कई बाढ़ों की वज़ह रही है। 1943 में इस क्षेत्र में दामोदर नदी के चलते भीषण बाढ़ आई थी। प्रशासन ने तब एक समिति बनाई थी, जिसमें जाने-माने भौतिकशास्त्री मेघनाद साहा और तबके बर्दवान महाराज सदस्यों के रूप में शामिल थे। समिति ने अमेरिका के टेनेसी घाटी प्राधिकरण (टीवीए) के आधार पर एक बहुउद्देशीय प्राधिकरण के निर्माण की सलाह दी। बाद में टीवीए के एक वरिष्ठ इंजीनियर डबल्यू एल वूरडुइन ने दामोदर नदी पर हुए काम में सक्रिय भूमिका निभाई। दामोदर घाटी के लिए प्रस्तावित इस प्राधिकरण के निर्माण के लिए डॉ बी आर अंबेडकर भी काफ़ी सक्रिय थे। 

7 जुलाई 1948 को डीवीसी अस्तित्व में आया। यह केंद्रीय विधानसभा द्वारा पारित डीवीसी अधिनियम, 1948 पर आधारित था और इसे 27 मार्च, 1948 को गवर्नर जनरल से मान्यता भी मिल गई। अधिनियम ने केंद्र, पश्चिम बंगाल और बिहार (बाद में झारखंड) को बराबर की हिस्सेदारी दी। डीवीसी को बाढ़ नियंत्रण, सिंचाई, औद्योगिक और घरेलू उद्देश्यों के लिए जल आपूर्ति, तापीय और जल विद्युत उत्पादन, जंगल लगाने और मिट्टी के अपरदन को रोकने के काम दिए गए। ज़्यादा बारिश की स्थिति में पानी छोड़ने और उससे उपजने वाली अलग-अलग तीव्रता की बाढ़ों ने डीवीसी को हमेशा चर्चा में रखा है।   

न्यूज़क्लिक ने कुछ अधिकारियों और ट्रेड यूनियन के सूत्रों से प्राधिकरण के बाढ़ पर नियंत्रण की भूमिका के ऊपर उनके विश्लेषण को समझने के लिए बात की। डीवीसी श्रमिक यूनियन के महासचिव जिबान ऐक कहते हैं, "मेरी जानकारी से मूलत: सात बांधों का प्रस्ताव दिया गया था, लेकिन बाद की स्थितियों में पांच बांध बनाए गए- तिलया (फरवरी, 1953), कोनार (अक्टूबर 1955), दुर्गापुर बराज (1955), मैथॉन (सितंबर, 1957) और पांशेट (दिसंबर 1959)। दुर्गापुर बराज के अलावा बाकी सारे झारखंड में हैं। प्रस्तावित छठवीं ईकाई (पश्चिम बंगाल के झारग्राम जिले में बालपहाड़ी में प्रस्तावित थी) नहीं बन पाई।"

कुछ साल पहले कोनार, मैथॉन और पांशेट के पुनर्वास का जिम्मा डीवीसी ने CWC के बांध पुनर्वास और विकास परियोजना के तहत लिया, जिसकी मद 143 करोड़ रुपये थी। लेकिन डीवीसी की बालपहाड़ी पर बांध बनाने की योजना का स्थानीय लोगों ने भूमि अधिग्रहण के मुद्दे पर जमकर विरोध किया।

एक आधिकारिक स्त्रोत् ने न्यूज़क्लिक को बताया, "देश के इस हिस्से में यह बहुत राजनीतिक मुद्दा है। हमने इस आशा में लंबे वक़्त तक इंतज़ार किया कि इस परियोजना की अहमियत को सब समझ जाएंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। आखिरकार हमें इस विचार को त्याग देना पड़ा। झारखंड में प्रस्तावित एक और बांध भी नहीं बनाया जा सका, क्योंकि वहां भी भूमि अधिग्रहण मुद्दा है। राज्य हमें इस मामले में मदद नहीं करते।" 

 नतीज़तन हमारी पानी को रोक सकने क्षमता, जितनी सुझाई गई थी, उससे कम है। यह मामला इसलिए भी बढ़ गया कि तलहटी में जमे गाद को कई सालों से ठीक से साफ़ नहीं किया गया है। अब पानी को रोक सकने की क्षमता, जब बांध बनाए गए थे, उसकी तुलना में 50 फ़ीसदी हो चुकी है। डीवीसी के 2,494 किलोमीटर लंबे सिंचाई तंत्र की तलहटी की भी गहन सफ़ाई बाकी रह गई है। आधिकारिक सूत्र ने इसकी कीमत अनुमानित तौर पर करीब़ 50,000 करोड़ रुपये बताई। तीनों हिस्सेदार इस समस्या पर चुप हैं, जबकि वे जानते हैं कि यह एक बड़ी समस्या है। 

इस ज़मीनी हकीक़त ने इस चिंता को बढ़ावा दिया है कि दामोदर नदी एक बार फिर बंगाल का दुख बन सकती है। जैसा विशेषज्ञों ने पहले बताया, तलहटी साफ़ करने के लिए एक मास्टर प्लान और अलग-अलग स्तरों पर इसके संचालन के साथ-साथ प्रस्तावित दोनों बांधों के निर्माण के लिए केंद्र सरकार को ज़्यादा अहम भूमिका निभानी होगी। 1940 के दशक में बराबर की हिस्सेदारी ने समन्वयकारी संघवाद का अच्छा और अनोखा उदाहरण पेश किया था, लेकिन पिछले दो दशकों में केंद्र-राज्य और राज्य-राज्य के संबंधों में काफ़ी बदलाव आ चुका है। न्यूज़क्लिक को मामले से जुड़े जानकारों ने बताया कि क्या ममता बनर्जी का हालिया ख़त केंद्र सरकार को कुछ ठोस करने के लिए मजबूर करेगा और अतीत से हटकर कुछ होगा या नहीं यह देखा जाना बाकी है।

लेखक कोलकाता स्थित वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं। यह उनके निजी विचार हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

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