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गुजरात: गन्ने के खेत में काम करने वाली आदिवासी महिलाओं की बंधुआ ज़िंदगी

दक्षिण गुजरात की आदिवासी महिलाओं की कहानी बेहद दर्दनाक है। वे यहां काम कर रहे 2.5 लाख गन्ना श्रमिकों की संख्या की तक़रीबन आधी हैं, लेकिन ये महिलायें चीनी उद्योग में आर्थिक, मानसिक और शारीरिक रूप से सबसे ज़्यादा शोषित हैं।
गुजरात: गन्ने के खेत में काम करने वाली आदिवासी महिलाओं की बंधुआ ज़िंदगी
अपने बच्चों के साथ गन्ने के खेतों में काम करने वाली महिलाओं की तस्वीरें

गुजरात के डांग ज़िले की आदिवासी गन्ना मज़दूर मनीषा शिंदे 20 साल की उम्र में एक बच्चे की मां हैं। वे जारसोल गांव की रहने वाली हैं। 15 साल की उम्र में एक गन्ना मज़दूर से शादी की और अपने माता-पिता की कोयता इकाई में काम करने को छोड़कर अपने पति के साथ गन्ना मज़दूर के रूप में काम करने लगीं।

मनीषा पिछले पंद्रह सालों से हर साल गन्ने के खेतों में काम करने के लिए प्रवास करती रही रही हैं। अपनी गर्भावस्था के दौरान भी अपने पति के साथ 14 से 15 घंटे तक गन्ने की कटाई, सफ़ाई और लोडिंग का काम करती रहीं, यह सिलसिला तब तक चलता रहा, जब तक कि बच्चे के साथ उनका भी वजन कम होना नहीं शुरू हो गया।

नौ महीने का बच्चा और सात लोगों के परिवार की देखभाल कर रहीं मनीषा बताती हैं “अपनी गर्भावस्था के नौवें महीने में जाकर मैं बीमार हो गयी, लेकिन घर वापस आने तक मैं किसी तरह काम करती रही। मेरे पास काम से छुट्टी लेने का कोई विकल्प ही नहीं था, क्योंकि काम नहीं करने का मतलब था कमाई का कम हो जाना। हमें अपना क़र्ज़ चुकाना था। इस साल हम पहले ही 40,000 रुपये का क़र्ज़ ले चुके हैं। हम सितंबर या अक्टूबर तक जब तक कटाई के लिए निकलेंगे, तब तक हम 10,000 रुपये तक का और उधार ले चुके होंगे।”  

इस इलाक़े के ज़्यादातर आदिवासी बच्चों की तरह मनीषा को भी कमाने के लिए स्कूल छोड़ना पड़ा, क्योंकि उनके माता-पिता की आय घर चलाने के लिए नाकाफ़ी थी।

पिछले 15 सालों से गन्ने के खेतों में काम रही एक बच्चे की मां मनीषा शिंदे (20) 

मनीषा ने न्यूज़क्लिक को बताया, “मैं गन्ने के खेतों में पली-बढ़ी हूं। जब मैं पांच साल की थी, तब से मेरे माता-पिता मुझे अपने साथ काम पर ले जाते रहे। मैं और मेरे भाई कुछ साल पढ़ाई के लिए घर पर रहे। लेकिन, मेरे माता-पिता की आय ज़्यादा नहीं थी। मेरे भाई, जो मुझसे बड़े थे, हमारे माता-पिता के साथ ही काम करने लगे। जल्द ही मुझे भी उनके साथ बतौर मज़दूर साथ हो जाना पड़ा। शादी के बाद से ही मैं और मेरे पति गन्ना मज़दूर के रूप में काम कर रहे हैं। मेरे पति के परिवार के सात सदस्यों में से पांच गन्ना मज़दूर के तौर पर ही काम करते हैं।”  

हर साल सितंबर और अक्टूबर के दौरान तक़रीबन 2.5 लाख गन्ना मज़दूर या फ़सल काटने वाले मज़दूर, ख़ास तौर पर दक्षिण गुजरात और महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों के आदिवासी अपने परिवारों के साथ गुजरात के वलसाड, नवसारी, सूरत, भरूच और वडोदरा जैसे इलाक़ों में प्रवास कर जाते हैं। यहां इन्हें तेरह चीनी मिलों में काम मिलता है, जो एक सहकारी ढांचे पर चलती हैं। वे कोयता या गन्ना श्रमिकों की एक जोड़ी के रूप में काम करते हैं। एक कोयता को काटने, सफ़ाई करने, गट्ठरों बनाने और फिर एक टन गन्ना लोड करने के बाद 275 रुपये का भुगतान किया जाता है। इस काम करने में उन्हें औसतन दिन में 14 से 15 घंटे लगते हैं। चूंकि इनकी आय इतनी कम होती है कि पुरुष आमतौर पर अपनी पत्नियों के साथ मिलकर काम करते हैं, जिससे महिलायें हर साल आदिवासी गांवों से पलायन कर जाती हैं। इन श्रमिकों में कर्मचारियों की संख्या की लगभग आधी तादाद महिलाओं की होती हैं।

अनौपचारिक क्षेत्रों के श्रमिकों के साथ काम करने वाले संगठन सेंटर फ़ॉर लेबर रिसर्च एंड एक्शन की ओर से 2017 में किये गये शोध में कहा गया है, "15 कोयताओं की प्रत्येक टीम में 7 से 14 वर्ष आयु वर्ग के कम से कम पांच और 6 वर्ष से कम उम्र के आठ बच्चे होते हैं। इनमें से एक चौथाई बच्चे कभी स्कूल में दाखिल ही नहीं हो पाते। जिन बच्चों का दाखिला स्कूल में होता है, वे भी आख़िरकार स्कूल छोड़ने से पहले साल में महज़ कुछ ही महीनों के लिए स्कूल जा पाते हैं।”

गुजरात स्थित ट्रेड यूनियन, मज़दूर अधिकार मंच के सचिव डेनिश मैक्वान कहते हैं “महिलाओं के प्रवास के चलते बच्चे भी उनके साथ पलायन कर जाते हैं। दूध पिला रहीं मांओं को भी अपने बच्चों के साथ चले जाने के लिए मजबूर होना पड़ता है और जो बच्चे बहुत छोटे होते हैं, वे लंबे समय तक गांव में अकेले रह पाने की स्थिति में होते नहीं। यहां महिलाओं के लिए मातृत्व अवकाश, स्वास्थ्य और शिशु की देखभाल के लिए दिये जाने वाले भत्ते की कोई धारणा ही नहीं है। भले ही गन्ने की कटाई का काम कमरतोड़ मेहनत वाला है, लेकिन तब भी आदिवासी महिलायें अपनी गर्भावस्था के दौरान काम करती हैं और बच्चे को जन्म देने के कुछ ही दिनों के बाद अपने नवजात शिशु के साथ फिर से काम शुरू कर देती हैं। छुट्टी लेने का मतलब होता है परिवार की आय में कमी होना।”  

मैक्वान आगे कहते हैं, “एक कोयता में महिला श्रमिकों का मुख्य कार्य कटे हुए गन्ने की सफ़ाई करना और गट्ठर बनाना होता है, हर एक गट्ठऱ का वज़न कम से कम 40-45 किलोग्राम होता है। हालांकि, जब पुरुष गन्ना काटते-काटते थक जाते हैं, तब वे अक्सर काम संभालने के लिए आगे आ जाती हैं। जितने घंटे पुरुष काम करते हैं, उतने ही घंटे महिलायें भी काम करती हैं, इसके बावजूद, पति और बच्चों की देखभाल की प्राथमिक ज़िम्मेदारी महिलाओं पर ही होती है। यह एक और वजह है कि पुरुष इस बात पर ज़ोर देते हैं कि प्रवास के सात महीने उनकी पत्नियां उनके साथ ही सफ़र पर रहती हैं। एक तरफ़ जहां पुरुषों को आमतौर पर सुबह 3 बजे उठकर सुबह 5 बजे तक काम पर जाना होता है, वहीं महिलाओं को खाना पकाने और काम पर जाने से पहले घर का काम निपटाने के लिए पहले ही उठ जाना होता है।”  

इन गन्ना श्रमिकों की भर्ती वे मुक्कदम या श्रमिक ठेकेदार करते है, जो आदिवासी ही होते हैं, लेकिन ये चीनी कारखानों और श्रमिकों के बीच मध्यस्थ के रूप में काम करते हैं। भर्ती किये जाने के बाद नियोक्ता 15 या 20 कोयता या 30 या 40 श्रमिकों को ले जाने के लिए एक ट्रक उपलब्ध कराते हैं। मज़दूर ट्रक में क़रीब 200 से 300 किलोमीटर का सफ़र तय करने के बाद उन शिविर स्थल पर पहुंचा दिये जाते हैं, जहां वे अगले छह-सात महीने तक रहते हैं। पीने के पानी, बिजली, शौचालय या फिर बुनियादी चिकित्सा सहायता की भी कोई सुविधा नहीं होने के चलते इनकी स्थिति दयनीय होती है।

डांग ज़िले के सुबीर तालुका स्थित कांगड़िया माल गांव की 40-वर्षीय बिबिबेन बंजुभाई पवार कहती हैं, “भर्ती की इस पूरी प्रक्रिया में महिलाओं की कोई भूमिका ही नहीं होती है। मुक्कदम हमारे पतियों को काम पर रखता है और हम उनके साथ हो जाते हैं। महिलाओं के लिए बिना किसी निजता के खुले में रह पाना बहुत मुश्किल होता है। हमें अंधेरा रहते हुए ही खुले में शौच करने या स्नान करने के लिए पहले जाग जाना होता है। आमतौर पर महिलायें गन्ने के खेत से एक घंटा पहले निकल जाती हैं। जबतक पुरुष फ़सल को लोड करते हैं, तब तक हम खाना पकाने के लिए लकड़ी इकट्ठा करते हैं और फिर घर के कामों में लग जाते हैं। जब तक पुरुष वापस नहीं आते, तब तक महिलायें अपनी सुरक्षा को लेकर डरी रहती हैं और उस शिविर स्थल में एक साथ रहती हैं।”  

बिबिबेन पवार पिछले 25 वर्षों से गन्ना मज़दूर के रूप में काम कर रही हैं। उन्हें लंबे समय से शरीर में दर्द की शिकायत है, लेकिन डॉक्टर के पास जाने का ख़र्च नहीं उठा सकतीं।

वह बताती हैं, “हमारे लिए यह चौबीसों घंटे का काम है। हमें आराम नहीं मिलता। जब पुरुष आराम करते हैं, तो हम बच्चों के पास जाते हैं, खाना बनाते हैं और सफ़ाई का काम करते हैं। गर्भवती होने पर भी महिलाओं को काम करना होता है। कई बार तो ऐसा भी होता है महिलायें बिना किसी चिकित्सकीय सहायता के ही ईख के खेतों में प्रसव कराती हैं। उन्हें सिर्फ़ अन्य महिला श्रमिकों से ही मदद मिलती है। नयी मांओं को प्रसव के बाद स्वास्थ्य लाभ के लिए वक़्त ही नहीं मिलता है, क्योंकि छुट्टी लेने का मतलब होता है, पैसे नहीं पाना। इस वजह से महिलाओं को महज़ चार या पांच दिनों के भीतर ही अपने नवजात बच्चों के साथ काम पर वापस जाने के लिए मजबूर होना पड़ता है। जब महिलायें काम करती हैं, तो बच्चों को आमतौर पर उसके बगल में गन्ने के खेतों में छोड़ दिया जाता है। कई बार शिशुओं की ज़िम्मेदारी किशोरवय की बड़ी बहन पर आ जाती है, लेकिन ज़्यादातर मांओं को दिन भर के काम को ख़त्म करने के लिए अपने रोते हुए शिशु को भी नज़रअंदाज़ करना होता है।” 

बिबिबेन की बहू 22 वर्षीय भारती को अपनी गर्भावस्था के दौरान तब तक काम करना पड़ा था, जब तक कि वह काम करते हुए बीमार नहीं पड़ गयीं। उनकी बेटी अब एक साल की हो गयी हैं, लेकिन भारती इस समय भी स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रही है। चूंकि उनका पूरा परिवार काम के लिए पलायन कर जाता है, इसलिए उन्हें अपनी नवजात बेटी के साथ घर में अकेले ही रहना होता है।

आठ लोगों के परिवार के साथ मिट्टी की झोपड़ी में बैठी भारती पवार कहती हैं, "गन्ने के खेत में काम करते हुए मैं अपनी गर्भावस्था के पांचवें महीने के दौरान बीमार पड़ गयी थी। मेरा वज़न काफ़ी कम हो गया था, इसलिए मैं काम पर वापस नहीं जा सकती थी और घर लौटना पड़ा था।"

डांग की आदिवासी महिला श्रमिक (बायें से दायें) भारती पवार (22), ज्योत्सना पवार (20), मोंगला पवार (18), बिबिबेन (40)

वह कहती हैं, “यह एक दर्दनाक अनुभव था। मैं फिर कभी गन्ना मज़दूर के रूप में काम पर वापस नहीं जाना चाहती।”

प्रवासी गन्ना श्रमिकों पर ऑक्सफ़ैम इंडिया की ओर से किया गया शोध बताता है, “महिला श्रमिकों के लिए मासिक धर्म चक्र के दौरान शौचालय और पानी की कमी और सैनिटरी पैड के इस्तेमाल करने में असमर्थता के चलते मासिक धर्म स्वच्छता को बनाये रखना और भी ज़्यादा मुश्किल हो जाता है। महिलायें अक्सर गंदे और नम कपड़े का इस्तेमाल करती हैं, जिससे संक्रमण की आशंका बढ़ जाती है। ल्यूकोरिया के लक्षण महिलाओं के साथ-साथ किशोरियों में भी बहुत आम हैं, जो उनके काम को प्रभावित करते हैं। मासिक धर्म स्वच्छता की निम्न स्थिति और देखभाल के कारण फंगल और बैक्टीरियल संक्रमण होते हैं, जिससे पेंड़ू के सूजन से जुड़ी बीमारियां (pelvic inflammatory diseases-PID) योनिशोथ (vaginitis) और कई तरह का गर्भाशय संक्रमण हो जाता है।”

ज़ाहिर है, नियोक्ता की ओर से इस स्वास्थ्य संकट के दौरान किसी तरह की सहायता या सवैतनिक अवकाश नहीं मिलते हैं। अनौपचारिक क्षेत्र होने के चलते गन्ना श्रमिकों को कर्मचारी भविष्य निधि (EPF) या कर्मचारी राज्य बीमा निगम (ESIC) जैसे सामाजिक सुरक्षा लाभ नहीं मिलते हैं। महिला श्रमिकों को भी मातृत्व लाभ (संशोधन) अधिनियम, 2017 के तहत अधिकृत लाभों से वंचित कर दिया गया है।

मज़दूर अधिकार मंच के कार्यकारी निकाय के सदस्य शांतिलाल मीणा कहते हैं, “महिला श्रमिकों में एनीमिया की शिकायत आम है और उनके बच्चे कुपोषण से पीड़ित हैं। ग़रीबी उन्हें गर्भावस्था के महीनों में भी कठोर जीवन जीने के लिए मजबूर करती है। उन्हें आराम और चिकित्सा देखभाल के बजाय गन्ना काटने के शारीरिक तनाव से भी गुजरना होता है। इसके अलावा, शिविरों में रह रहे मज़दूर जो खाना खाते हैं, वह खाना शायद ही पौष्टिक होता है। ज़्यादातर वे नियोक्ता की ओर से मुहैया कराये गये बाजरे और दाल पर निर्भर होते हैं, जिसके दाम सीज़न के आख़िर में उनके वेतन से काट लिया जाता है। वे स्थानीय बाज़ारों से बहुत कम मात्रा में खाना पकाने का तेल, नमक आदि ख़रीदते हैं और शायद ही कभी सब्ज़ियां ख़रीद पाते हैं।”

मीणा बताते हैं, “गन्ने के खेतों में प्रवास के इन सात महीनों के दौरान महिलायें और बच्चे ही सबसे ज़्यादा असुरक्षित होते हैं। जहां बच्चों के बीमार होने का सबसे ज़्यादा ख़तरा होता है, वहीं गर्भावस्था के दौरान और बाद के दिनों में महिलाओं को कामकाज की अमानवीय परिस्थितियों से गुज़रना होता है। महिलाओं, ख़ासकर उन नौजवान लड़कियों के लिए सुरक्षा एक बड़ी चिंता है, जो अक्सर नियोक्ताओं या स्थानीय ग्रामीणों द्वारा अपने आवास स्थानों पर यौन हिंसा का शिकार होती हैं।” 

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Gujarat’s Killing Cane Fields for Women: It’s All Work, no Rest in Dang Dist

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