घरेलू हिंसा कानून: 18 साल बाद भी महिला पर अपराध में घरेलू हिंसा आगे
इस माह भारत के सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय (मिनिस्ट्री ऑफ स्टैटिस्टिक्स ऐण्ड प्रोग्राम इंप्लिमेंटेशन) द्वारा जारी एक रिपोर्ट, विमेन ऐण्ड मेन इन इंडिया 2022 ने एनसीआरबी डाटा का अध्ययन करके महिलाओं पर विभिन्न प्रकार के उत्पीड़न के जो आंकड़े प्रस्तुत किये हैं वे चौंकाने वाले हैं।
इस रिपोर्ट में 2016 से 2021 के बीच महिलाओं के साथ हो रहे अत्याचार व हिंसा के आंकड़े जुटाए गए हैं।
रिपोर्ट के अनुसार देश में महिलाओं के विरुद्ध अपराध की 22.8 लाख घटनाएं दर्ज की गईं और इनमें से 7 लाख घटनाएं घरेलू हिंसा से संबंधित थीं। यानी 30 प्रतिशत मामले पति और उसके परिवार द्वारा हिंसा के थे।
2016 में यह आंकड़ा 33 प्रतिशत था, 2017 में 29 प्रतिशत, 2018 में 27 प्रतिशत, 2019 में 31 प्रतिशत, 2020 में 30 प्रतिशत, और 2021 में 32 प्रतिशत। तो हम समझ सकते हैं कि महिलाओं पर अपराध के प्रत्येक 3 मामलों में से एक ससुराल में होने वाली हिंसा से संबंधित है।
(स्रोत: भारत का सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय)
अखबारों की सुर्खियां देखकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं क्योंकि इन मामलों में अमानवीय व्यवहार की चरम सीमा तक पार होती दिखाई पड़ती है। मसलन उत्तर प्रदेश में नवम्बर 2022 की दो घटनाएं- गुड़गांव में एक 24 वर्षीय युवती, जो 6 माह की गर्भवती थी, को उसके पति और उसके परिवार वाले पीट-पीटकर मौत के घाट उतार देते हैं क्योंकि उन्हें ‘‘पर्याप्त दहेज नहीं मिला था’’। दूसरी ओर ग्रेटर नोएडा में न्यूक्लियर फैमिली में रह रही एक 35 वर्षीय महिला अपनी बिल्डिंग की छठी मंज़िल से कूदकर अपने प्राण गंवा देती है। कारण था पारिवारिक कलह। महिला एक बेटी की मां थी और बेनेट विश्वविद्यालय नॉलेज पार्क से पीएचडी कर रही थी।
इसी तरह फरवरी 2023 की दो घटनाएं देखें जो महाराष्ट्र में हुईं। धारावी में रहने वाली एक 24 वर्षीय महिला को उसका पति और सास-ससुर इसलिए मारकर लटका देते हैं कि वह अपने घर से 5 लाख रुपये और बुलेट मोटरसाइकिल नहीं ला पाती। महिला 7 माह की गर्भवती थी। मुम्बई की ही एक और 34 वर्षीय महिला ज़हर खाकर इसलिए आत्महत्या करती है कि उसे रोज़-रोज़ दहेज के लिए पीटा जाता था।
मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के थाणे में पिछले वर्ष 2 महिलाओं को ससुराल में इसलिए मार दिया गया कि वे बेटा नहीं पैदा कर पा रही थी। ओडिशा में बहू को चारपाई पर बांधकर आग लगा दी गई। ये कुछ मामले हैं जहां अमानवीय व्यवहार और निराशा चरम सीमा पर है।
क्या कारण है इन घटनाओं को लेकर उस तरह का हाहाकार नहीं मचा न ही आंदोलन हुआ, जैसा कि बलात्कार या महिलाओं के साथ यौन हिंसा को लेकर होता है? क्यों महिलाओं के साथ घरेलू हिंसा में इस हद तक अत्याचार कि वह मर जाए या आत्महत्या कर ले, के बाद भी यह लड़की के परिवार का मामला बना रह जाता है? क्या इसलिए कि यौन हिंसा के मामले संपूर्ण समाज में लड़कियों या औरतों की सुरक्षा से जुड़े होते हैं और उनके सार्वजनिक जीवन को प्रभावित करते हैं।
लोग चिंतित होते हैं कि घर की महिलाएं आखिर बाहर कैसे निकलेंगी? पर परिवार तो सबसे ‘सुरक्षित’ जगह मानी जाती है! और, दहेज विरोधी कानून बनने और 2005 के घरेलू हिंसा कानून में भी इसे शामिल किये जाने के बाद यह मान लिया गया है कि अगर कुछ होता है तो लड़की के माता-पिता की जिम्मेदारी है कि वे घटना की रिर्पोट करें और कानूनी लड़ाई लड़ें।
उत्पीड़िता को क़ानून से कितनी राहत?
सबसे पहले तो हम देखें कि घरेलू हिंसा कानून में क्या प्रावधान है। इनमें शामिल हैं—
- ·किसी महिला (पीड़िता) को क्षति पहुंचाना या जख्मी करना या पीड़िता को स्वास्थ्य, जीवन, अंगों या हित को मानसिक या शारीरिक तौर पर खतरे में डालना या ऐसा करने की नीयत रखना और इसमें शारीरिक, यौनिक, मौखिक और भावनात्मक शोषण शामिल है, या
- ·दहेज या अन्य संपत्ति या मूल्यवान प्रतिभूति की अवैध मांग पूरा करने के लिये महिला या उसके रिश्तेदारों को मजबूर करने के लिए यातना देना, नुकसान पहुंचाना या जोखिम में डालना, या
- ·पीड़िता या उसके निकट संबंधियों पर उपरोक्त वाक्यांशों में सम्मिलित किसी आचरण के द्वारा दी गई धमकी का प्रभाव होना, या
- ·पीड़िता को शारीरिक या मानसिक तौर पर घायल करना या नुकसान पहुंचाना।
घरेलू हिंसा कानून को लागू करने के लिए सुरक्षा अधिकारी या प्रोटेक्शन अफसरों की नियुक्त का प्रावधान है, जो पीड़िता को केस दर्ज करने, कानूनी मदद लेने और वन स्टॉप सेंटर में मामले के हल होने तक रहने आदि में सहयोग करेंगे। पर लगभग दो दशक बीतने के बाद भी प्रोटेक्शन अफसरों का नितांत अभाव है, यहां तक कि महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के पास भी पूरे आंकड़े नहीं हैं कि कितने जिलों में सुरक्षा अधिकारी नियुक्त हुए हैं। जहां तक वन स्टाप सेंटरों की बात है तो वर्तमान समय में केवल 801 वन स्टॉप सेंटर मौजूद हैं और इनमें से कितने सचमुच में कार्य कर रहे हैं इसपर कोई सर्वे मंत्रालय की ओर से नहीं किया गया है।
जब हमने कुछ महिला कार्यकर्ताओं और पीड़ित महिलाओं से पूछा तो उन्हें जिले के प्रोटेक्शन अफसर का नाम तक नहीं पता था न ही वन स्टॉप सेंटर कहां है इसकी जानकारी थी। एक केस में पिता द्वारा बेटी के साथ बलात्कार तक के मामले में मां केस करने को राज़ी नहीं हुई क्योंकि समाज में उनका जीना दूभर हो जाएगा।
महिला कामगार संगठन की अनुराधा ने भी बताया कि केस कम ही दर्ज होते हैं, क्योंकि महिलाएं कोर्ट-कचहरी से घबराती हैं; फिर बच्चों का मामला भी होता है। इसलिए जो आंकड़े सामने आते हैं उनसे कहीं अधिक घरेलू हिंसा के मामले असल में होते हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने लिया संज्ञान
पिछले महीने जस्टिस एस रवीन्द्र भट्ट और जस्टिस दीपंकर दत्ता की एक पीठ ने केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की सचिव को निर्देशित किया कि वे तमाम राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के प्रमुख सचिवों की बैठक बुलाकर प्रोटेक्शन अफसरों की नियुक्ति के मामले पर रिपोर्ट दें। इस बैठक को करने के लिए सरकार को 3 माह का समय दिया गया है और यह भी निर्देश दिया गया है कि वित्त मंत्रालय, सामाजिक न्याय मंत्रालय और गृह मंत्रालय के सचिव सहित राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष, मानवाधिकार आयोग के प्रतिनिधि और लीगल सर्विस अथॉरिटी (नाल्सा) के अध्यक्ष की उपस्थिति सुनिश्चित की जाए। याचिका ‘‘वी द विमेन ऑफ इंडिया’’ की ओर से अधिवक्ता शोभा गुप्ता ने दायर की थी।
नाल्सा ने कुछ आंकड़े जुटाकर कोर्ट के समक्ष पेश किये जिनसे समझ में आता है कि स्थिति कितनी दयनीय है। मसलन 1 जुलाई 2022 तक घरेलू हिंसा के 4.71 लाख मामले पेंडिंग पड़े थे। 21,088 केस अपील और रिविज़न में पड़े हुए थे। 797 जिलों में केवल 801 वन स्टॉप सेंटर बने थे, जबकि एक जिले में कई ऐसे सेंटर होने चाहिये। पीठ ने कहा कि यदि एक जिले में एक ही प्रोटेक्शन अफसर होंगी, तो उन्हें तकरीबन 500 केस देखने होंगे, जो असंभव है। इसलिए हरेक जिले में कई सुरक्षा अधिकारियों के बिना मिशन शक्ति का सही कार्यान्वयन नामुमकिन है।
कानूनी प्रक्रिया लम्बी और समाज की सोच यथास्थितिवादी
हां, कानूनी सहायता देने के लिए तमाम गैर-सरकारी संगठन, जैसे मजलिस, एक्शन एड, अपनालय, साझी दुनिया, सपना, स्वयंसिद्ध, आदि ज़रूर काम कर रहे हैं, पर ये गिने-चुने शहरों में हैं। प्रोफेसर रूपरेखा वर्मा, पूर्व कुलपति लखनऊ विश्वविद्यालय द्वारा संचालित साझी दुनिया की तज़ीन फातिमा बताती हैं ‘‘हर केस में लम्बा समय लगता है। इस बीच महिला को भारी मानसिक प्रताड़ना झेलनी पड़ती है। कारण है कि कहीं-न-कहीं यह सोच समाज में गहरे पैठी हुई है कि घरेलू मामले घर तक ही सीमित रहने चाहिये। इसलिए भी महिलाएं अधिकतर उत्पीड़न के मामलों में तबतक चुपचाप सहती रहती हैं जबतक मामला असहनीय नहीं बन जाता। पत्नी को उल्टा-सीधा सुनाना, सर्वजनिक रूप से उसकी तौहीन करना, उसे कम पैसा देना, दूसरी औरत से संबंध बनाना, उसे मारना या अपनी मां-पिता के ताने या अत्याचार पर पत्नी का साथ न देना जैसी घटनाएं तो घर-घर की कहानी हैं।’’ पर क्या ये मामले सुरक्षा अधिकारी, महिला आयोग, महिला पुलिस थाने या हेल्पलाइन नम्बर डायल करने तक भी पहुंचते हैं? ज्यादातर नहीं! क्योंकि कार्यवाही करवाना बहुत पेचीदा होता है।
तज़ीन बताती हैं एक केस में महिला पुलिस खुद समझाने लगी कि मार-पीट तो उसका पति भी करता है। तो वह केस थोड़े ही करती है। दूसरे, अधिकतर महिलाओं को लगता है कि
- ·केस करने से कलह बढ़ेगी
- ·वे बच्चों को लेकर कहां जाएंगी?
- ·समाज में बदनामी होगी
- ·माता-पिता से सहयोग नहीं मिलेगा या उनका तनाव बढ़ेगा
- ·कानून की व कानूनी प्रक्रिया की जानकारी नहीं होने से दिक्कत होगी
- ·केस लम्बा चलेगा तो कोर्ट-कचहरी में धक्के खाने पड़ेंगे। वकील को देने के लिए पैसा नहीं होगा
- ·डर, कि ससुराल वाले अधिक नुकसान पहुंचा सकते हैं
ज़िम्मेदारी सरकार की और महिला आंदोलन की भी
शायद इसलिए सबसे अधिक परेशानी होती है कि महिलाओं के मामले में समाज आधुनिक व प्रगतिशील नहीं बन पाया है। पारिवारिक ढांचे को देखने का नज़रिया पितृसत्तात्मक है, चाहे हम भारत की बात करें या विदेश की। समाज में घर-परिवार के सदस्यों से रिश्ता बनाए रखना और उन्हें जोड़े रखना औरत का ही उत्तरदायित्व माना गया है। अगर पति दूसरी महिला के साथ अफेयर चलाता है, तो कहा जाता है कि पत्नी में कोई कमी है। यदि वह मार खाती है तो बहुत लोगों को लगता है कि ये आपस का मामला है, यदि महिला घर छोड़कर आ जाती है तो मायके में बोझ बन जाती है, आदि। फिर, मायके का साथ न मिला तो महिला सड़क पर आ जाती है, और तब उसी से किसी तरह समझौता कर लेने की हिदायत दी जाती है।
बनारस के एक चर्चित केस में महिला ने जब थाने में कहा कि उसका पति महिला ‘मित्र’ के साथ संबंध बनाए हुआ है इसलिए उसे घर से निकाल दिया है, उससे सबूत मांगे गए। निचली अदालत को निर्णय देने में 8 वर्ष लगे। इस बीच महिला की मेडिकल रिपोर्ट फाइल से गायब हुई; पति से असलहे की बरामदगी का कागज़ भी गायब हुआ। निर्णय के बाद भी वैवाहिक घर में पत्नी को रहने नहीं दिया गया। जसके बाद पति उच्च न्यायालय में निर्णय को चुनौती देने की बात करने लगा। सदमे से पत्नी को स्ट्रोक हुआ और वह दुनिया को अलविदा कह गई। घरेलू हिंसा कानून कुछ राहत न दे सका।
लखनऊ के एक केस में लेक्चरर महिला को उसका पति इस बात पर ज़लील करता और पीटता कि वह तमाम सामाजिक मुद्दों पर चल रहे कार्यक्रमों में हिस्सा लेती है। अंत में 5 वर्ष के वैवाहिक जीवन को समाप्त कर वह अपने बच्चे की कस्टडी के लिए लड़ पायीं क्योंकि वह अच्छी तन्ख्वाह पाती थीं और उनके पिता उच्च पद पर आसीन थे।
इलाहाबाद के एक केस में पत्नी महिला संगठन से जुड़ीं तो उनके ससुराल में महाभारत शुरू हो गया। एक दिन सास से झगड़ा हुआ तो महिला ने अपने ऊपर मिट्टी का तेल डालकर माचिस लगा दी। सास ने बहू को जल जाने दिया। 85 प्रतिशत जलकर वह मर ही गई पर पूरे मामले को पुलिस की मदद से डिप्रेशन के कारण आत्महत्या का बना दिया गया क्योंकि पति की पहुंच अच्छी थी। मेरे अनुभव में तो किसी आम परिवार की घरेलू महिला तो अपना केस कायदे से लड़ भी नहीं पाती, न्याय पाना तो दूर की बात है!
पुलिस का रवैया भी आम समाज से भिन्न नहीं था। न्यायपालिका में तारीख़ पर तारीख़ और जज बदलते रहने के कारण मामले लम्बे समय चले। सुरक्षा अधिकारी नाम के वास्ते रहती हैं। बड़ी मुश्किल से अंतरिम राहत की छोटी रकम मिलती है। बाहर महिला और घरवालों को धमकियां मिलती हैं। तो महिलाएं कानून पर भरोसा कैसे करें? यह सब देखते हुए लगता है कि महिला आंदोलन को बहुत काम करना बाकी है। मसलन—
- ·मोहल्ला समितियां बनाएं, जिसमें महिलाएं अपनी बात कह सकें और उनमें स्वतंत्र होने की चेतना बढ़ाई जाए
- ·श्रमिक वर्ग की महिलाओं को संगठित करें, जो सबसे अधिक मुखर और लड़ाकू होती हैं, वे ऐसे मुद्दों पर संघर्ष की मिसाल बन सकती हैं
- ·अपने दफ्तरों के नम्बर सार्वजनिक तौर पर साझा करें, ताकि संकट में उनसे सम्पर्क हो सके
- ·आपस में नेटवर्किंग करके उत्पीड़ित महिला की मदद करें- ससुराल व पति से बातचीत करने, वकील करने से लेकर शेल्टर दिलाने और आर्थिक मदद प्राप्त कराने से लेकर नौकरी ढूंढने तक
- ·महिलाओं को घरेलू हिंसा कानून के बेहतर इस्तेमाल के बारे में प्रशिक्षित कराया जाए
- ·मनोचिकित्सकों की टीम बनाएं जो पति और पीड़िता की काउन्सलिंग कर सकें
- ·सबसे पहले महिला में आत्मसम्मान और आत्मनिर्भरता की भावना को मजबूत करें
महाराष्ट्र में लाल निशान पार्टी के महिला संगठन ने एक नायाब प्रयोग किया है। उन्होंने राज्य स्तर पर महिला कामगारों का संगठन बनाया है और इसकी महिलाएं हस्तक्षेप कर कई मामलों में जिन घरों में वह काम करती थीं उनकी महिलाओं तक को घरेलू हिंसा से बचा पाई हैं। आन्ध्र प्रदेश के कुछ जिलों में सीपीआई (एमएल) ने ग्रामीण इलाकों के सैकड़ों परिवारों पर दबाव बनाकर महिलाओं को राहत दिलाई या गांव स्तर पर उनका पुनर्वास करवाया। ऐसे प्रयोगों को सचेत ढंग से हर इलाके में लागू करने की जरूरत है।
सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता रवीन्द्र गढ़िया ने न्यूज़क्लिक को बताया कि सबसे बड़ी समस्या है कि प्रोटेक्शन ऑफिसरों की नियुक्ति काम चलाऊ तरीके से हो रही है। जिलाधिकारी, एडीएम, तहसीलदारों को ही जिम्मा दे दिया गया है, क्योंकि अलग ढांचे के लिए बजट में आवंटन पर्याप्त नहीं है। कई एनजीओ भी एक निश्चित फ्रेमवर्क में ही काम कर पाते हैं क्योंकि वे एफसीआरए से बंधे हैं। जहां तक पीड़ित महिलाओं (निम्न मध्यम व मध्यम वर्ग) की बात है, वे भी पितृसत्तात्मक सोच के तहत दुष्ट से दुष्ट पति को तलाक नहीं देना चाहतीं। वर्तमान स्थिति में प्रोटेक्शन ऑफिसर का काम दरअसल यही है कि वह क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम के जरिये महिला के लिये‘‘सिविल रेमेडी’’ यानी नागरिक समाधान सुनिश्चित कर सके। महिलाओं की चेतना को बढ़ाने का काम भी जरूरी है, ताकि वे स्वाभिमानी व स्वतंत्र बनने की दिशा में अग्रसर हों।
(लेखिका महिला एक्टिविस्ट हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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