Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

गणतंत्र के 73 साल: संविधान निर्माण से लेकर शाहीन बाग़ तक लोकतंत्र को और सशक्त करती महिलाएं

इन सात दशकों में देश में काफी कुछ बदला, राजनीति से लेकर ज्ञान-विज्ञान और खेल की दुनिया में महिलाओं ने अपना परचम बुलंद किया। साथ ही वे बड़ी संख्या में सड़कों पर भी अपने हक़ के लिए आवाज़ बुलंद करने उतरीं।
republic day

इस बार देश अपने गणतंत्र के 73वीं सालगिरह और 74वां दिवस मना रहा है। हर साल 26 जनवरी को मनाए जाने वाले इस गणतंत्र दिवस का इतिहास में एक विशेष महत्व है। इस दौरान देश में काफी कुछ बदला, महिलाओं ने प्रधानमंत्री से लेकर राष्ट्रपति तक के पद को सुशोभित किया तो वहीं ज्ञान-विज्ञान और खेल की दुनिया में अपना परचम बुलंद किया। महिलाएं बड़ी संख्या में सड़कों पर उतरीं और उन्होंने अपने हक़ के लिए आवाज़ बुलंद की है।

हालांकि इस पूरे सफर में उन महिलाओं की बहुत कम चर्चा होती है, जिन्होंने देश के संविधान में अहम योगदान दिया। भारतीय संविधान के जनक और पिता भले ही बीआर आंबेडकर रहे हैं लेकिन संविधान सभा में मौजूद 15 प्रगतिशील महिलाएं की भूमिका भी कम सराहनीय नहीं है, क्योंकि यही वो नींव थी जिस पर आज महिला सशक्तिकरण की इमारत खड़ी हो पाई है। तो, आइए आज उन महिलाओं को याद करते हैं, जो कल थीं और जिनकी वजह से हम आज हैं...

पूर्णिमा बनर्जी
हमारे संविधान के प्रस्तावना की शुरुआत "हम भारत के लोग" से होती है। ये शब्द पूर्णिमा बनर्जी के सुझाव पर ही डाले गए थे। पूर्णिमा बनर्जी शुरुआत से ही महिला आरक्षण की पक्षधर थीं, उन्होंने एक बहस के दौरान महिलाओं के हक़ में कहा था कि महिलाओं द्वारा खाली की गई कोई भी सीट केवल महिलाओं द्वारा ही भरी जानी चाहिए। उन्होंने महिला अधिकारों, किसान सभाओं, ट्रेड यूनियनों की व्यवस्था और ग्रामीणों से जुड़े मुद्दों पर ख़ूब काम भी किया।

समाजवादी विचारधारा से प्रेरित पूर्णिमा बनर्जी उत्तर प्रदेश में आज़ादी की लड़ाई के लिए बने महिला समूह की सदस्य थीं। वो इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस कमेटी की सचिव भी रहीं थी। 1930 के दशक के अंत में पूर्णिमा बनर्जी स्वतंत्रता आंदोलन में सबसे आगे की क़तार में थीं। उन्हें सत्याग्रह और भारत छोड़ो आंदोलन में भागीदारी के लिए गिरफ्तार किया गया था।

सुचेता कृपलानी

सुचेता कृपलानी को भारत की पहली महिला मुख्यमंत्री होने का भी गौरव हासिल है। उनका जन्म हरियाणा के अंबाला शहर में साल 1908 में हुआ था। सुचेता की शुरुआती शिक्षा कई स्कूलों से हुई लेकिन आगे की पढ़ाई के लिए उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के सेंट स्टीफेंस कॉलेज को चुना और यहां से इतिहास में एमए किया। साल 1940 में सुचेता कृपलानी ने कांग्रेस पार्टी की महिला विंग की स्थापना की।

साल 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में उन्होंने सक्रिय भूमिका निभाई और उस दौरान जेल भी गईं। 1946 में वो संविधान सभा की सदस्य के रूप में चुनी गईं। आज़ादी के बाद, 1962 में कृपलानी ने उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव लड़ा और कानपुर से चुनी गईं। उन्हें श्रम, सामुदायिक विकास और उद्योग विभाग का कैबिनेट मंत्री बनाया गया। इसके बाद साल 1963 में वो भारत की पहली महिला मुख्यमंत्री चुनी गईं। कृपलानी उन चंद महिलाओं में से हैं, जिन्होंने महात्मा गांधी के साथ देश की आज़ादी की नींव रखी।

 राजकुमारी अमृत कौर

आज़ाद भारत की पहली हेल्थ मिनिस्टर थीं राजकुमारी अमृत कौर। उनका जन्म 2 फरवरी 1889 को लखनऊ में हुआ था। क्योंकि उनके पिता राजा हरनाम सिंह पंजाब के कपूरथला राज्य के राजसी परिवार से थे इसलिए विरासत में उन्हें राजकुमारी की उपाधि मिली। अमृत कौर की स्कूली शिक्षा इंग्लैंड में हुई और उसके बाद आगे की पढ़ाई के लिए वो ऑक्सफ़ोर्ड चली गईं।

 साल 1918 में जब अमृत कौर देश लौटीं तो उन्हें यहां आज़ादी के संघर्ष ने बेहद प्रभावित किया। जलियांवाला बाग़ हत्याकांड के बाद राजकुमारी अमृत कौर ने ठान लिया कि राजनीति में आगे बढ़ेंगी। साल 1927 में मार्गरेट कजिन्स के साथ मिलकर उन्होंने ऑल इंडिया विमेंस कांफ्रेंस की शुरुआत की, बाद में इसकी प्रेसिडेंट भी बनीं। जब देश आज़ाद हुआ, तब उन्होंने यूनाइटेड प्रोविंस के मंडी से कांग्रेस पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ा और जीत हासिल की। बतौर स्वास्थ्य मंत्री अमृत कौर ने ऑल इंडिया इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंसेज़ यानी एम्स की स्थापना की जो आज देश के सबसे महत्वपूर्ण अस्पतालों में से एक है।

अम्मू स्वामीनाथन

अम्मू स्वामीनाथन का जन्म केरल के पालघाट जिले के अनाकारा में ऊपरी जाति के हिंदू परिवार में हुआ था। बावजूद इसके अम्मू को दमनकारी जाति व्यवस्था के ख़िलाफ़ मोर्चा बुलंद करने और बाबा साहेब अम्बेडकर के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने के लिए याद किया जाता है। उन्होंने साल 1917 में मद्रास में एनी बेसेंट, मार्गरेट, मालथी पटवर्धन, श्रीमती दादाभाय और श्रीमती अंबुजमल के साथ महिला भारत संघ का गठन किया। ह साल 1946 में मद्रास निर्वाचन क्षेत्र से संविधान सभा का हिस्सा बन गईं। साल 1952 में पहले लोकसभा के लिए और फिर साल 1954 में राज्यसभा के लिए वे चुनी गईं। उन्होंने भारत स्काउट्स एंड गाइड (1960-65) और सेंसर बोर्ड की भी अध्यक्षता की।

संविधान सभा की महिलाओं की आवाज़ सशक्त करते हुए बहस में उन्होंने कहा था, "बाहर के लोग कह रहे हैं कि भारत ने अपनी महिलाओं को बराबर अधिकार नहीं दिए हैं। हम ये ऐतबार से कह सकते हैं कि जब भारतीय लोग स्वयं अपने संविधान को तैयार करते हैं तो उन्होंने देश के हर नागरिक के बराबर महिलाओं को अधिकार दिए हैं।"

सरोजिनी नायडू

सरोजिनी नायडू जिन्हें ‘नाइटिंगेल ऑफ इंडिया’ भी कहा जाता है वो देश की पहली महिला हैं जिन्हें भारतीय नेशनल कांग्रेस की अध्यक्ष बनने का गौरव प्राप्त है। उन्हें भारतीय राज्य गवर्नर भी नियुक्त किया गया था। सरोजिनी नायडू एक प्रगतिशील महिला थीं और महात्मा गांधी से प्रभावित होने के कारण उनके कई आंदोलनों से जुड़ी भी रही थीं। सरोजिनी को उनकी साहित्यिक शक्ति के लिए भी जाना जाता था।

सरोजिनी नायडू का जन्म हैदराबाद में 13 फरवरी 1879 को हुआ था। उन्होंने मात्र 12 साल की उम्र में ही मैट्रिक की परीक्षा पास कर ली थी और फिर मद्रास प्रेसीडेंसी में पहला स्थान हासिल कर आगे की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड चली गईं। वहां पहले उन्होंने किंग्स कॉलेज लंदन में दाख़िला लिया और बाद में कैम्ब्रिज के गिरटन कॉलेज में अध्ययन किया था। साल 1924 में उन्होंने भारतीयों के हित में अफ्रीका की यात्रा की और उत्तरी अमेरिका का दौरा किया| भारत वापस आने के बाद उनकी ब्रिटिश विरोधी गतिविधियों के चलते उन्हें कई बार जेल भी जाना पड़ा| उन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन समेत कई राष्ट्रीय आंदोलनों का नेतृत्व भी किया।

 

दक्षिणायनी वेलायुधन

दक्षिणायनी वेलायुधन संविधान समिति की सबसे कम उम्र की सदस्य और इकलौती दलित महिला थीं। वेलायुधन का जन्म 1912 में कोचीन के बोलगट्टी में हुआ था। वह पुलाया समुदाय से आती थीं और अपने समुदाय की पहली महिला थीं जो पढ़ी लिखी थीं और आधुनिक कपड़े पहना करती थीं। 1945 में दक्षिणयानी कोचीन लेजिस्लेटिव काउंसिल के लिए नामित की गईं थी। दक्षिणायनी 20वीं सदी की शुरुआत में केरल समाज में हुई सामाजिक-राजनैतिक उथल-पुथल से काफी प्रभावित हुईं और उन्होंने बाबा साहेब अम्बेडकर के साथ संविधान सभा की बहसों में जाति संबंधी कई मुद्दों को बहस का प्रमुख हिस्सा बनाया था। वो शोषित वर्गों की नेता कहलाती थी।

 बेगम एजाज़ रसूल

संविधान सभा की एकमात्र मुस्लिम महिला सदस्य थीं बेगम एजाज रसूल। मालरकोटला के रियासत परिवार में पैदा हुईं रसूल अवध (यूपी) के प्रभावशाली तालुकदारों के परिवार से आने वाली, उन कुछ महिलाओं में से एक थीं, जिन्होंने एक गैर-आरक्षित सीट से चुनाव लड़ा और यूपी विधानसभा के लिए चुनी गईं। साल 1950 में, भारत में मुस्लिम लीग भंग होने के बाद वह कांग्रेस में शामिल हो गईं।

बेगम एजाज़ रसूल जीवन भर राजनीतिक परिदृश्य में सक्रिय रहीं। ऐसे समय में जब सांप्रदायिक तनाव लगातार बढ़ रहा था, एजाज़ रसूल ने 'लीग' से हट कर बात की। उन्होंने मुसलमानों के लिए 'सेपरेट इलेक्टोरेट्स' का मुखर विरोध किया और कहा कि इलेक्टोरेट्स केवल मेजॉरिटी और माइनॉरिटी के बीच तनाव बढ़ाएंगे। वह साल 1952 में राज्यसभा के लिए चुनी गयी थी और साल 1969 से साल 1990 तक उत्तर प्रदेश विधानसभा की सदस्य रही। साथ ही, साल 1969 से साल 1971 के बीच, वह सामाजिक कल्याण और अल्पसंख्यक मंत्री भी रही। इसके बाद साल 2000 में, उन्हें सामाजिक कार्य में उनके योगदान के लिए पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था।

कमला चौधरी
लखनऊ के एक संपन्न परिवार में जन्मी कमला चौधरी को अपनी शिक्षा जारी रखने के लिए कड़ा संघर्ष करना पड़ा था। परिवार से बग़ावत कर उन्होंने शाही सरकार के खिलाफ राष्ट्रवादियों को चुना। साल 1930 में महात्मा गांधी द्वारा शुरू किए गए नॉन कॉपरेशन मूवमेंट में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कमला एक प्रसिद्ध कथा लेखिका थीं और उनकी कहानियां आमतौर पर महिलाओं की आंतरिक दुनिया और भारत के एक आधुनिक राष्ट्र के रूप में उभरने से संबंधित होती थीं। वे अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के 54वें सत्र में उपाध्यक्ष बनीं और सत्तर के दशक के अंत में लोकसभा के सदस्य के रूप में चुनी गईं।

इसे भी पढ़ेंआज़ादी के 75 सालकब महिलाओं को मिलेगा राजनीति में 50 प्रतिशत आरक्षण का अधिकार?

दुर्गाबाई देशमुख

दुर्गाबाई देशमुख एक स्वतंत्रता सेनानी, वकील, सामाजिक कार्यकर्ता और राजनीतिज्ञ थीं। उन्होंने लड़कियों के लिए बड़ी संख्या में सीटें आरक्षित करने की वक़ालत की और कहा लड़कियों की शिक्षा को सबसे ऊपर रखा जाना चाहिए। उन्होंने इस एक ही सत्य पर जोर दिया कि कैसे एक प्रभावी उपाय के बिना एक अधिकार का कोई मतलब नहीं होता। उन्होंने कहा था कि एक ऐसा तंत्र जो हमें अधिकार देता है, उस तक पहुंचने के साधन के बिना, कोई मक़सद पूरा नहीं करता है, न ही ये उस काग़ज़ के लायक है जिस पर ये लिखा गया है।

दुर्गाबाई देशमुख का जन्म 15 जुलाई 1909 को राजमुंदरी में हुआ था। बारह वर्ष की उम्र में उन्होंने गैर-सहभागिता आंदोलन और नमक सत्याग्रह में भाग लिया। साल 1936 में उन्होंने आंध्र महिला सभा की स्थापना की, जो एक दशक के अंदर मद्रास शहर में शिक्षा और सामाजिक कल्याण का एक महान संस्थान बन गया। वह केंद्रीय सामाजिक कल्याण बोर्ड, राष्ट्रीय शिक्षा परिषद और राष्ट्रीय समिति पर लड़कियों और महिलाओं की शिक्षा जैसे कई केंद्रीय संगठनों की अध्यक्ष थीं। वह संसद और योजना आयोग की सदस्य भी थीं। साल 1971 में भारत में साक्षरता के प्रचार में उनके उत्कृष्ट योगदान के लिए दुर्गाबाई को चौथे नेहरू साहित्यिक पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। साल 1975 में, उन्हें पद्म विभूषण से भी सम्मानित किया गया था।

रेणुका रे

रेणुका ने साल 1934 में एआईडब्ल्यूसी के कानूनी सचिव के रूप में ‘भारत में महिलाओं की कानूनी विकलांगता’ नामक एक दस्तावेज़ प्रस्तुत किया| रेणुका ने एक समान व्यक्तिगत कानून कोड के लिए तर्क दिया और कहा कि भारतीय महिलाओं की स्थिति दुनिया में सबसे अन्यायपूर्ण में से एक थी। साल 1943 से साल 1946 तक वह केन्द्रीय विधान सभा, संविधान सभा और संसद की सदस्य थी। साल 1952 से 1957 में उन्होंने पश्चिम बंगाल विधानसभा में राहत और पुनर्वास के मंत्री के रूप में कार्य किया। इसके साथ ही वह साल 1957 में और फिर 1962 में वह लोकसभा में मालदा की सदस्य थीं। उन्होंने अखिल बंगाल महिला संघ और महिला समन्वयक परिषद की स्थापना भी की थी।

विजया लक्ष्मी पंडित

विजया लक्ष्मी पंडित को सिर्फ जवाहरलाल नेहरू की बहन के तौर पर देखना, राजनीति में उनके योगदान को बहुत कम करके आंकना है। विजयलक्ष्मी 1937 में ही ब्रिटिश इंडिया के यूनाइटेड प्रोविन्सेस में कैबिनेट मंत्री बनी थीं। ये पहली बार था जब एक भारतीय महिला कैबिनेट मंत्री बनी थी। इलाहाबाद से पढ़ी विजया, गांधी और नेहरू के साथ स्वतंत्रता संग्राम में लड़ीं। पहले पिता मोतीलाल नेहरू और बाद में भाई जवाहरलाल नेहरू के साथ राजनीति में सक्रिय रहीं। साल 1932 से 1933, साल 1940 और साल 1942 से 1943 तक अंग्रेजों ने उन्हें तीन अलग-अलग जेल में कैद किया था।

साल 1946 में जब उन्हें संविधान सभा के लिए चुना गया तो उन्होंने औरतों की बराबरी से जुड़े मुद्दों पर अपनी राय बेबाकी से रखी। 1953 में वह यूएन जनरल असेंबली की प्रेसिडेंट रहीं। ये भी पहली बार था जब कोई भारतीय महिला, वहां तक पहुंची हो।

हंसा जीवराज मेहता

हंसा जीवराज मेहता महिला अधिकारों की प्रबल पक्षधर थीं। देश की आज़ादी के समय 15 अगस्त, 1947 को हंसा ने महिलाओं की ओर से स्वतंत्र भारत का पहला राष्ट्रीय ध्वज प्रस्तुत किया था। संयुक्त राष्ट्र के 'मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा' में कथन 'सभी पुरुष स्वतंत्र और समान पैदा होते हैं।' को संशोधित करके 'सभी मनुष्य स्वतंत्र और समान पैदा होते हैं।' लिखा गया और इसका श्रेय हंसा जीवराज मेहता की प्रगतिशील सोच को जाता है।

हंसा ने राजकुमारी अमृत कौर के साथ मिलकर भारतीय महिला अधिकार और कर्तव्यों का चार्टर तैयार किया था। विजयलक्ष्मी पंडित के साथ उन्होंने संयुक्त राष्ट्र में महिलाओं की समानता और मानवाधिकारों पर काम किया था। वो देश में मौलिक अधिकार उप-समिति, सलाहकार समिति और प्रांतीय संवैधानिक समिति की सदस्य भी रहीं थीं।

लीला रॉय

महिला अधिकारों के लिए शुरू से ही आवाज़ बुलंद करने वाली लीला, गांधी जी के साथ कई आंदोलनों में जुड़ने के बाद 1937 में उन्होंने कांग्रेस पार्टी में शामिल हुईं। लीला रॉय सुभाष चंद्र बोस की महिला सब-कमेटी की सदस्य भी रहीं और जब 1940 में सुभाष चंद्र बोस जेल गए तब वह फॉरवर्ड ब्लॉक वीकली की संपादक भी बनीं। साल 1946 में लीला रॉय संविधान सभा में शामिल हुईं तो उन्होंने संविधान निर्माण में महिलाओं के अधिकारों की बात जमकर उठाई, अनेक बहसों में सक्रिय रूप से भाग लिया। उन्होंने हिंदू कोड बिल के तहत महिलाओं को संपत्ति का अधिकार, न्यायपालिका की स्वतंत्रता जैसे मामलों की ज़बरदस्त पैरवी की थी।

इन महिलाओं के अलावा केरल की पहली महिला सांसद एनी मास्कारेन और सत्याग्रह आंदोलन में प्रमुख भूमिका निभाने वाली मालती चौधरी भी संविधान सभा की सदस्य थीं। इनका योगदान भी देश में महिलाओं की प्रगति को प्रशस्त करता है। ये महिलाएं उस दौर की थीं, जिस समय महिलाओं में साक्षरता दर बेहद कम थी, औरतें घर की चारदीवारी से बाहर निकलने के लिए भी सोचती थीं। अब यदि सात दशक बाद महिलाओं की स्थिति को देखें, तो हमारे सामने सबसे बेहतरीन उदाहरण शाहीन बाग नज़र आता है, जहां महिलाओं ने असल मायने में संविधान को अंगीकृत करने के सही मायने तलाशने की कोशिश की है।

 

शाहीन बाग़: महिलाओं ने असल मायने में संविधान के मायने तलाशे

नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए और एनआरसी के विरोध में सौ दिन से अधिक चले इस आंदोलन ने देश में विरोध-प्रदर्शन की परिभाषा बदल दी। शाहीन बाग में संविधान की प्रस्तावना पढ़ती, तिरंगा लहराती और तमाम तरह के क्रांतिकारी गानों को गाती महिलाओं ने हाड़ कंपा देने वाली ठंड में जमीन पर बैठकर अपने शांतिपूर्ण और गांधीवादी प्रदर्शन से सत्ता की नींद उड़ा दी थी। शाहीन बाग़ में औरतों की हुंकार किसी एक भौगोलिक सीमा में सिमट कर नहीं रह सकी और देश के कोने-कोने में फैल गई। देशभर की शाहीनें अलग-अलग शाहीन बाग़ों में अपने मुल्क और जम्हूरियत को बचाने सड़कों पर उतरी थीं।

शाहीन बाग़ ने देश की महिलाओं के जीवित होने का एहसास पूरे देश को कराया। दिसंबर 2019 में शुरू हुए इस आंदोलन को बेइंतहा मोहब्बत के साथ कई गुना नफ़रत भी मिली। महिलाओं के इस संघर्ष को बदनाम करने की खूब कोशिशें हुई। तरह-तरह के फ़ेक फ़ोटो और झूठे दावों के साथ इन महिलाओं का चरित्र-हनन किया गया। कई मुख्यमंत्रियों और बड़े नेताओं द्वारा महिलाओं को अपशब्द कहे गए। लेकिन धरने पर डटी औरतों का हौसला कम नहीं हुआ। वो और उत्साह से इस आंदोलन में शिरकत करने लगीं। टीवी चैनलों के डिबेट से लेकर न्यूज़ एंकरों के सवालों तक सबका बेबाकी से जवाब देने लगीं। आज़ाद भारत में ऐसा पहली बार हुआ जब इतनी बड़ी संख्या में मुस्लिम औरतें अपने हक के लिए सड़कों पर उतरीं और उन्होंने संविधान को इस मज़बूती से अपने हाथों में पकड़ा कि देखने वाले हैरत में रह गए कि संविधान का इस तरह अपने हक़-हक़ूक की लड़ाई में प्रयोग भी हो सकता है। शायद यही हमारे लोकतंत्र-गणतंत्र की सच्ची ताकत भी है।

इसे भी पढ़ेंशाहीन बाग़लोकतंत्र की नई करवटएक किताबताकि सालों-साल सनद रहे महिलाओं का संघर्ष

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest