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एआई, रोबोट व ऑटोमेशन नहीं, बढ़ती बेरोज़गारी की वजह पूंजीवाद है

इतिहास बताता है कि यंत्रीकरण और स्वचालन के बावजूद उद्योगों में काम करने वाले श्रमिकों की ज़रूरत घटने के बजाय बढ़ती गई है।
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फ़ोटो साभार: The Hans India

बढ़ते ऑटोमेशन से भारी बेरोजगारी फैलने की चर्चा फिर से जोरों पर है। कुछ साल पहले 'विशेषज्ञ' कह रहे थे कि श्रमिकों के लिए काम ही नहीं रहेगा, सब काम रोबोट करेंगे और सरकार ख़ैरात के तौर पर 'न्यूनतम आमदनी' देने पर विचार करेगी। जब से लार्ज लैंग्वेज मॉडल अलगोरिथ्म आधारित चैटजीपीटी जैसे आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस सॉफ्टवेयर बाजार में आए हैं, तब फिर से हल्ला शुरू हुआ है कि भविष्य में बहुत से काम एआई करेगा और करोड़ों रोजगार खत्म हो जाएंगे। असल में जैसे-जैसे छंटनी और बेरोजगारी के काले बादल वैश्विक व भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था के विभिन्न सेक्‍टरों पर मंडरा रहे हैं, वैसे-वैसे शासक वर्ग के बुद्धिजीवी यह समझाने में अपनी पूरी बौद्धिक ऊर्जा झोंक रहे हैं कि ऐसी गंभीर परिस्थिति के लिए मुख्‍य रूप से रोबोट और आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस की प्रौद्योगिकी जिम्मेदार हैं।

गोल्डमैन सैक्स ने भविष्यवाणी की है कि उच्च वेतन व गैर शारीरिक श्रम वाले 30 करोड़ रोजगार एआई से समाप्त हो जाएंगे। गोल्डमैन के प्रधान अर्थशास्त्री जान हैटजिएस कहते हैं, "अमेरिका और यूरोप दोनों में व्यावसायिक कार्यों संबंधी डेटा से हम पाते हैं कि लगभग दो-तिहाई वर्तमान नौकरियां कुछ हद तक एआई स्वचालन के दायरे में हैं, और जेनेरेटिव एआई वर्तमान कार्य के एक-चौथाई तक को स्थानापन्न कर सकता है। हमारे अनुमानों का विश्व स्तर पर विस्तार करने से जेनेरेटिव एआई 30 करोड़ पूर्णकालिक नौकरियों को ऑटोमेशन से खतरा पैदा कर सकता है" क्योंकि "दो तिहाई कामों को एआई द्वारा आंशिक रूप से स्वचालित किया जा सकता है।"

हालांकि इसमें दो राय नहीं है कि आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस, मशीन लर्निंग, इंटरनेट ऑफ थिंग्स, डेटा ड्रिवन डिसिजन मेकिंग, इंटेलिजेंट ट्रांसपोर्टेशन जैसी तकनीकों में हाल में हुई पथप्रदर्शक खोजों में उत्‍पादन की प्रक्रिया में रूपांतरण की संभावना निहित है, जिसके परिणामस्‍वरूप बड़ी संख्‍या में पुराने कौशल की कोई ज़रूरत नहीं रह जाएगी। निश्चित रूप से इससे बहुत से पुराने रोजगार समाप्त होंगे। इसी के आधार पर बड़ी संख्या में बेरोजगारी के लिए इन तकनीकों को जिम्मेदार बताया जा रहा है। किंतु क्या यही पूरी सच्चाई है?

दो सदी पहले शुरू हुई औद्योगिक क्रांति और यंत्रीकरण के आरंभिक दौर से ही मशीनों की वजह से बड़े पैमाने पर रोजगार समाप्त होने व श्रमिकों के बेरोजगार होने का यह हौव्वा खड़ा किया जाता रहा है। तब से लेकर मशीनीकरण के इसी डर की वजह से इसे बड़ी बुराई मानकर इसके विरोध का भी एक इतिहास रहा है। 1820 के दशक के ब्रिटेन में तो लुड्डाइट कहा जाने वाला एक आंदोलन ही चला जिसमें मजदूर कारखानों पर हमला कर मशीनों को तोड़ देते थे। भारत में भी कंप्यूटरीकरण के खिलाफ यूनियनों ने आंदोलन चलाया था।

गौरतलब है कि एआई जैसी तकनीकें भी एक प्रकार की मशीनें ही हैं जो शारीरिक के बजाय दोहराई जा सकने वाली मानसिक क्रियाओं का स्वचालन करती हैं। अतः इनके संभावित प्रभाव का अध्ययन भी यंत्रीकरण के प्रभाव अनुसार ही करना चाहिए। क्या यंत्रीकरण का इतिहास यह सिद्ध करता है कि इसकी वजह से बेरोजगारी बढ़ी है? और अगर यंत्रीकरण व स्वचालन बेरोजगारी के लिए जिम्मेदार नहीं हैं तो फिर बढ़ती बेरोजगारी के लिए वास्तविक जिम्मेदार कारण क्या है? साथ ही यह भी समझना चाहिए कि बार-बार यह बेरोजगारी का हौव्वा क्यों खड़ा किया जाता है।

इतिहास बताता है कि यंत्रीकरण और स्वचालन के बावजूद उद्योगों में काम करने वाले श्रमिकों की जरूरत घटने के बजाय बढ़ती गई है और इस जरूरत को पूरा करने हेतु बहुत विशाल पैमाने पर आबादी ने ग्रामीण कृषि व दस्तकारी से शहरी औद्योगिक इलाकों में प्रवास किया है। दरअसल यह बात तो सही है कि ऑटोमेशन के बाद उतने ही उत्पादन या सेवा के लिए जरूरी श्रमिकों की कम संख्या की जरूरत होती है। लेकिन यहां ध्यान देने की बात है - 'उतने ही उत्पादन' के लिए। किंतु मशीनों और तकनीक का विकास न सिर्फ उत्पादन के नए क्षेत्र ही सृजित करता है बल्कि समाज की आवश्यकताओं में भी विस्तार करता है। अतः सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु उत्पादन के स्तर को बढ़ाने की जरूरत होती है। इससे पुराने रोजगार समाप्त हो नए रोजगार सृजित होते रहते हैं। कुल मिलाकर काम करने वालों की जरूरत घटती नहीं, बढ़ती ही जाती है।

सवाल उठता है कि क्या सामाजिक मानवीय जरूरतों की वस्तुओं/सेवाओं का उत्पादन इतना बढ़ चुका है और उनकी उपलब्धता इस स्तर तक पहुंच चुकी है कि अब उनके उत्पादन के विस्तार की कोई आवश्यकता नहीं बची है? दूसरे, यह भी देखना होगा कि क्या कामगारों पर काम का बोझ इतना कम हो चुका है कि वे फालतू हो चुके हैं? अगर उपरोक्त दोनों शर्तें पूरी होती हैं तब तो यह सही है कि एआई एवं अन्य ऐसी उन्नत तकनीकों के आने से मौजूदा उत्पादन के लिए जितनी श्रम शक्ति सरप्लस हो जाएगी उसके लिए कोई अन्य रोजगार उपलब्ध नहीं होगा। क्या कोई मानेगा कि यह शर्तें पूरी हो चुकी हैं?

हम यहां दो उदाहरण लेते हैं कि यंत्रीकरण अर्थव्यवस्था व रोजगार पर कैसे प्रभाव डालता है। एक, कंप्यूटरीकरण से जहां बड़े पैमाने पर बेरोजगारी की आशंका थी, वहीं देखें तो इसकी वजह से इनफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी का विशाल उद्योग ही स्थापित हो गया जिसमें आज भारत में ही बहुत बड़ी तादाद में रोजगार उपलब्ध हैं। दूसरे, आज से 30-40 साल पहले घरेलू उपयोग वाले फुटकर बर्फ बिक्री एक बड़ा काम था और लगभग हर गली में इसकी दुकानें थीं। बहुत से श्रमिक इसके कारखानों और ढुलाई में लगे हुए थे। जब घरेलू उपभोग का बर्फ बनाने का काम स्वचालित हो गया तो ये काम खत्म हो गए। लेकिन स्वचालित होते ही यह स्वतंत्र उद्योग के रूप में समाप्त हो फ्रीज़र व रेफरीजरेटर बनाने के नए उद्योग का अंग बन गया, जिसने नए रोजगार पैदा कर दिए। ऐसे ही हम देख सकते हैं कि बहुत बड़ी तादाद में ऐसे उद्योग आज हैं जो आधी सदी पहले नहीं थे। बहुत बड़े पैमाने पर यंत्रीकरण से पुराने काम खत्म हुए लेकिन नए उद्योगों में सृजित नवीन रोजगारों ने उनकी जगह ले ली और श्रमिकों की तादाद घटने के बजाय बढ़ गई है।

अतः यह कमजोर 'तर्क' है कि ऑटोमेशन और तकनीक की वजह से काम कम होने से रोजगार खत्म हो गए। यह पूंजीपतियों के शोषण पर पर्दा डालने वालों का कुतर्क है। अगर उन्नत तकनीक की वजह से काम ही नहीं बचा है तो उद्योग, दफ्तर, दुकान, बैंकिंग, आईटी, स्कूल-कॉलेज - हर सेक्टर में काम के घंटे बढ़ा कर 10-12 तक कैसे पहुंच गए हैं? 8 घंटे के बजाय 12 घंटे के कार्य दिवस को कानूनी करने की कोशिश क्यों की जा रही है? भोजन और शौचालय तक के ब्रेक में कटौती क्यों की जा रही है? हर तरह से मजदूरों को काम की गति तेज करने के लिए विवश क्यों किया जा रहा है? हर जगह ऑटोमेशन के बाद काम कम और आसान होने के बजाय काम का दबाव बढ़ क्यों रहा है?

शासक वर्ग के मीडिया व बुद्धिजीवियों की बात मानी जाए तो काम तो मशीन करती है। किंतु वास्तविकता है कि 19वीं सदी से शुरू हुए श्रमिक संघर्षों ने 8 घंटे काम, 8 घंटे आराम, 8 घंटे मनोरंजन के जिस सिद्धांत को स्थापित किया था, उसके विपरीत आज अधिकांश कामगार इससे बहुत ज़्यादा 12-14 घंटे तक भी काम करने के लिए मजबूर हैं। खुद को मजदूर न मानने वाले सफेद कॉलर वाले बैंक, आईटी, प्रबंधन, आदि वाले तो सबसे ज्यादा.घंटे काम करने के लिए विवश हैं! तकनीकी रूप से अत्यंत उन्नत व विकसित माना जाने वाले दक्षिण कोरिया में तो 69 घंटे के कार्य सप्ताह का कानून प्रस्तावित है। फिर श्रमिक फालतू कैसे हो गए, जैसा कि कहा जा रहा है कि आगे काम ही नहीं रहेगा?

अतः उन्नत तकनीक व मशीनीकरण के यथार्थ के एक ही पहलू पर जोर देते समय अक्‍सर यह सच्‍चाई पर्दे के पीछे छिपा दी जाती है कि ऐसा केवल पूंजीवादी उत्‍पादन संबंधों के तहत होता है कि ऑटोमेशन की वजह से लोगों की आजीविका खतरे में पड़ जाती है। इसलिए ऑटोमेशन पर दोष मढ़ने की बजाय हमारे निशाने पर पूंजीवादी व्‍यवस्‍था होनी चाहिए। पूंजीवाद के न होने की परिस्थिति में रोबोटिक्‍स और आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के क्षेत्र में हुई तकनीकी प्रगति से काम के घंटे कम हो जाएंगे और लोगों का जीवन और उनकी आजीविका कठिन होने की बजाय पहले से सुगम हो जाएंगे।

वास्तव में देखें तो अनाज, दाल, फल-सब्ज़ी, दूध, मामस, आदि खाद्य पदार्थों से लेकर वस्त्र, जूते, आवास, रोजमर्रा के जरूरी सामान हों या सफ़ाई, पानी, बिजली, सिंचाई, यातायात से लेकर स्कूल-कॉलेज, अस्पताल, अन्य सांस्कृतिक आवश्यकतायें हों, आज मुश्किल से 10% ही अपनी आवश्यकता पूरी कर पाते हैं। अगर सभी नागरिकों की जरूरतें पूरा करने की योजना बनाई जाये तो उत्पादन/सेवाओं के प्रचंड विस्तार के लिए श्रमिकों की कमी पड़ेगी। तब सभी स्त्री-पुरुषों के लिए श्रम करना अनिवार्य कर देने के बाद भी जरुरत पूरी नहीं होगी। असल में सोचना होगा कि तकनीक का और भी विकास तथा ऑटोमेशन किया जाये। सड़क पर कोई इंसान झाड़ू क्यों लगाता रहे, मशीन क्यों नहीं जो जल्दी से सफाई कर सके? ऐसे सब काम हेतु जाति जैसी निकृष्ट अमानवीय व्यवस्था क्यों अस्तित्व में रहे? खेत, खान में आदमी पशुवत दिन-रात क्यों खटता रहे? उसके लिए इतना यंत्रीकरण क्यों न किया जाये ताकि सभी स्त्री-पुरुष सब समान रूप से इन कामों की जिम्मेदारी संभाल सकें।

अतः न सिर्फ पर्याप्त काम है बल्कि उसके विस्तार की अपार संभावनाएं भी हैं। बाधा है कि वर्तमान सामाजिक व्यवस्था में पूरे समाज के सामूहिक श्रम से पैदा इन उत्पादन के साधनों पर कुछ लोगों का स्वामित्व और बाकी के लिए उन्हें अपनी श्रमशक्ति बेचने की विवशता है। श्रमशक्ति से उत्पादित मूल्य का चुरा लिया गया हिस्सा ही उनका मुनाफा है जिसको एकत्र कर ये पूंजी के मालिक बने हैं। जितनी कम श्रम शक्ति का उपयोग कर ये उत्पादन कर सकें, उतना ही अधिक मुनाफा इन्हें नजर आता है। लेकिन यह उत्पादन बिके कहां? श्रमिकों की क्रय शक्ति कम है। जरूरत होते हुए भी वे खरीद नहीं सकते। खुद पूंजीपतियों के लिए पहले ही चारों ओर सरप्लस अंबार लगा है, वे खाते खाते अफरा रहे हैं। इसलिए 'अति-उत्पादन' की स्थिति है। उद्योग 60-70% क्षमता पर चल रहे हैं। नया निवेश हो नहीं रहा है। इस व्यवस्था में मुनाफे के लिए उत्पादन बढ़ाना नहीं बल्कि कम श्रमिकों से कराना मुख्य मकसद बन गया है। इसलिए ऑटोमेशन का नतीजा छंटनी और बेरोजगारी होता है, इसलिए नहीं कि काम की कमी है।

यही आज के समाज का मूल अंतर्विरोध है जिसका समाधान सरकार द्वारा दी गई न्यूनतम आय वाली खैरात नहीं, उत्पादन के समस्त साधनों पर समाज का सामूहिक स्वामित्व है। इससे समाज के सभी सदस्यों की बुनियादी जरूरतों की पूर्ति के लिए उत्पादन की योजना बनाने से न सिर्फ चाहने वालों हेतु रोजगार होगा, बल्कि सबके लिए काम करना अनिवार्य करना होगा। कोई निठल्ले बैठकर नहीं रह सकेगा। बेरोजगारी की वजह है मुनाफे के लिए उत्पादन की व्यवस्था। अगर सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए, सबके लिए आवश्यक सेवाओं की व्यवस्था के लिए उत्पादन को संगठित किया जाए तो काम करने वालों की कमी पड़ेगी, तकनीक को और भी अधिक उन्नत करना होगा।

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