विमर्श: चोर चोर चचेरे भाई क्यों नहीं होते!
आज फिर एक बार महिलाओं पर हिंसा का मुद्दा सरगर्म है। उनके उत्पीड़न और शोषण पर बहस हो रही है। बलात्कार को लेकर पूरे देश में उबाल है। लेकिन हमने कभी ग़ौर किया कि महिला विरोधी सोच हमारे पूरे समाज में किस तरह रच-बस गई है। भाषा से लेकर विचार के स्तर तक हर जगह महिलाओं पर हिंसा की जा रही है। और उसमें हम सब शामिल हैं लेकिन इस ओर हमारा ध्यान कम ही जाता है।
हमारे समाज ख़ासकर हिंदी समाज में गालियां तो घोषित तौर पर महिला विरोधी हैं ही, लेकिन हमारे मुहावरें–कहावतें, चुटकुले और गाने भी कम महिला विरोधी नहीं हैं, जिन पर हम कभी ग़ौर नहीं करते।
हमारे ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक समाज की रचना इस चतुराई से की गई है कि महिलाएं दोयम दर्जे की नागरिक बना दी गई हैं। मनुवादी वर्ण व्यवस्था में समाज का वर्गीकरण कर जातियां तो बनाईं गईं लेकिन इन सभी जातियों में भी महिलाओं को निम्न स्थान दिया गया। यानी महिलाएं दलितों में भी दलित हैं।
पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं को उनके मनुष्य और नागरिक होने के अधिकारों से तो वंचित किया ही गया है, उनकी स्वतंत्रता को तो नष्ट किया ही गया है, उनके मान-सम्मान और आत्मविश्वास को भी रौंदने के लिए मिथक, किस्से-कहानियां, तीज-त्योहार और यहां तक कि भाषा-बोली के स्तर पर इस तरह की संरचना या व्यवस्था की गई है कि वह ख़ुद को ही हीन समझने लगें। और यह सब मिलकर हमारे सामान्य व्यवहार और सभ्यता-संस्कृति का हिस्सा बन जाता है।
भाषा और समाज विज्ञान के जानकार जानते होंगे कि आमतौर पर भाषा का निर्माण यानी उसकी संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण और क्रिया सभी जेंडर बायस्ड रही हैं। और यह केवल हिंदी में नहीं अंग्रेज़ी और अन्य भाषाओं का भी हाल है। हालांकि अब अंग्रेज़ी में जेंडर न्यूट्रल भाषा के प्रयोग पर ज़ोर है। लेकिन हम इस लेख में अभी हिंदी और हिंदी समाज की बात करेंगे।
जैसे आप सब जानते हैं कि जिस तरह नीति वचन, प्रवचन, उपदेश हमारी भाषा का हिस्सा हैं उसी तरह गालियां भी हमारे समाज का हिस्सा हैं। हमारी सारी गालियां महिलाओं को संबोधित करके उनके विरोध में ही हैं। पुरुष भी एक दूसरे को अपमानित करने के लिए महिलाओं से जुड़ी गाली ही देते हैं। लड़ाई करते हुए दो मर्द एक-दूसरे की बजाय उनके घर की मां–बहन–बेटी पर ही हमला करते हैं, उनके नाम की ही गाली देते हैं। बड़ा अजीब दृश्य होता है जब दो आदमी आपस में इस बात पर लड़ते हैं कि तूने मां की गाली कैसे दी और यह कहते हुए वो दूसरे को मां-बहन की सौ गाली दे देते हैं।
विडंबना यह भी है कि हम सिर्फ़ गुस्से में ही महिलाओं के विरुद्ध गाली या अभद्र भाषा का प्रयोग नहीं करते, बल्कि हंसी-मज़ाक और आम बातचीत में भी महिलाओं के प्रति इसी भाषा शैली का प्रयोग करते हैं जो हमारे नज़रिये को बताता है।
‘साला या साली’ शब्द तो अब इतना आम हो चुका है कि हमारे एक वाक्य में कम से कम दो-चार बार तो यह शब्द आ ही जाता है। और हम इसे गाली भी नहीं मानते।
साला-साली, पत्नी के भाई-बहन के लिए संबोधन है, ये शब्द कैसे और किन अर्थों में बने इस बारे में तो पता नहीं लेकिन यह सच है कि यह शब्द हमारी आम बोलचाल में गाली की तरह ही प्रयोग होते हैं। और वो इसीलिए क्योंकि यह पत्नी पक्ष से जुड़े रिश्तों के नाम हैं।
…तिया शब्द का प्रयोग तो हंसते-बोलते समय बहुत ही सहज ढंग से किया जाता है। यह भी महिलाओं से जुड़ा शब्द है जिसे अपमानित करने के लिए प्रयोग किया जाता है।
हालांकि आज भी हम इन्हें लिखने और सभा में खुले तौर पर बोलने से परहेज़ करते हैं। इन्हें असंसदीय कहा जाता है, कई कहावतें भी सीधे तौर पर महिला विरोधी हैं लेकिन आपने कभी ग़ौर किया कि ऐसी कई कहावतें और मुहावरें हैं जिन्हें असंसदीय नहीं कहा जाता, और हम आप इन्हें खुले तौर पर प्रयोग करते हैं। आम जन ही नहीं प्रबुद्ध जन भी भरी सभा में मंच से इन्हें बेझिझक दोहराते हैं। यानी इन्हें इतनी बारीकी से गढ़ा गया है कि संवेदनशील और कई बार तो महिलावादी लोग भी इन्हें धड़ल्ले से प्रयोग कर लेते हैं।
‘चोर चोर मौसेरे भाई’ इसी कहावत पर ग़ौर करते समय मुझे यह विचार आया कि ‘चोर चोर चचेरे भाई’ क्यों नहीं होते। चोर चोर मौसरे भाई कहावत को चोरी-बेईमानी, भ्रष्टाचार के संदर्भ में प्रयोग किया जाता है। लेकिन ध्यान से देखिए कि यह भी मां के पक्ष यानी महिला के पक्ष से ही जुड़ा है। मां की बहन को मौसी कहा जाता है और चोरी-बेईमानी के संदर्भ में इसी रिश्ते को गाली दी जाती है। कभी पिता के पक्ष यानी पिता के भाइयों के बच्चों को लेकर इस गाली या तंज़ का प्रयोग नहीं किया जाता।
इसी तरह हमारे यहां एक कहावत है– ‘बीच में भांजी मार दी’। इसका अर्थ है कि किसी काम में अड़ंगा डाल दिया। कोई काम होते होते रह गया तो कहा जाता है कि यार फलां आदमी ने बीच में भांजी मार दी। अब अगर ग़ौर कीजिए तो भांजी भी मां के पक्ष से जुड़ी है। मां की बहन यानी मौसी की लड़की को भांजी कहा जाता है। यहां भी हम यह कहावत प्रयोग नहीं करते कि ‘बीच में भतीजी मार दी’। हालांकि भांजी या भतीजी भी महिलाएं ही हैं, लेकिन भतीजी पिता-पति (पुरुष) के पक्ष से आती है। भाई की बेटी को भतीजी कहा जाता है। यानी महिलाओं के ख़िलाफ़ तो गालियां हैं ही उनमें भी मायके पक्ष को ज़्यादा अपमानित करने की व्यवस्था की गई है।
‘लड़की पराया धन है’ यह ऐसी बात या कहावत है कि यह धारणा के तौर पर हमारे समाज में रच-बस गई है। बेटी-बेटे को बराबर कहने वाले भी गाहे-बगाहे इसे सहज ढंग से इस्तेमाल कर लेते हैं।
‘औरत ही औरत की दुश्मन है’ यह जुमला भी एक धारणा बन गया है। और विडंबना यह कि महिलाएं भी इसे न केवल अपनी बातचीत में इस्तेमाल करती हैं, बल्कि इसे दृढ़ता से मानती भी हैं।
इसी संदर्भ में मैंने बहुत पहले एक छोटी सी कविता लिखी थी, जिसमें इसके पीछे की पुरुषवादी रणनीति या साज़िश को उजागर करने की कोशिश की थी–
“सास बहू ने सुबह पढ़ी रामायण
और शाम को रचा महाभारत का प्रसंग
मैं बना कृष्ण
एक पक्ष को सौंपी अपनी सेना
और दूसरे को– स्वयं
युद्ध शुरू हो चुका है
और रणभूमि में गूंज रहा है
मेरा संदेश–
अह्म ब्रह्मास्मि”
इसके अलावा ऐसी तो तमाम कहावतें या लोकोक्तियां हैं जो सीधे तौर पर महिला विरोधी हैं, बॉडी शेम करती हैं और साफ़-साफ़ नज़र भी आती हैं जैसे ‘कानी के ब्याह को सो जोखो’, ‘आ पड़ोसन लड़ें’, ‘शक्ल चुड़ैल की, मिज़ाज परियों का’, ‘महिलाओं के पास बुद्धि नहीं होती’ या ‘महिलाओं का दिमाग़ घुटनों या चोटी में होता है’, ‘औरत पांव की जूती है, पांव में ही अच्छी लगती है’, ‘लड़की को पालना पड़ोसी के पेड़ में पानी देने के बराबर है’, ‘लड़के की लात भी भली’, ‘भाग्यवान की बेटी मरे, अभागे का घोड़ा’, ‘कुंआरी मर जाए तो कुल तर जाए’ आदि।
‘खोदा पहाड़ निकली चुहिया’ तक जैसी कहावत में जेंडर का एंगल है। इस कहावत का अर्थ है कि बहुत मेहनत के बाद भी उसका वैसा फल नहीं मिला जैसा सोचा था यानी मेहनत की अपेक्षा बहुत कम फल मिलना। लेकिन देखिए इसमें भी चूहे की जगह चुहिया शब्द का प्रयोग किया गया है। जबकि हम बोलचाल में चूहे और चुहिया में अंतर नहीं करते। हमें सामान्यतया पहचान भी नहीं होती कौन चूहा है कौन चुहिया। हम तो दोनों को चूहा ही बोलते हैं। जैसे चिड़िया हमारे लिए चिड़िया ही है हम नर-मादा में फ़र्क़ नहीं कर पाते। कुत्ता कुत्ता है। जैसे हम कहावत कहते हैं– ‘खिसयानी बिल्ली खंभा नोचे’। क्योंकि हम बिल्ली और बिल्ले को बिल्ली ही कहते हैं। इसलिए कहावत में इसे उलट कर नहीं कहते लेकिन चूहे के मामले में ऐसा नहीं करते। कहने का अर्थ यह कि जिस शब्द को हम पुल्लिंग में प्रयोग करते हैं उसे भी कहावत में स्त्रीलिंग में प्रयोग करते हैं। क्यों…सोचिएगा…!
‘मर्द को दर्द नहीं होता’, ‘औरतों की तरह क्यों रो रहा है’, ‘कुछ कर नहीं सकते तो चूड़ियां पहन लो’। हमारी सारी शब्दावली ही मिसोजनिस्ट यानी स्त्रीद्वेषी है तो फिर विचारों में कैसे समानता परिलक्षित होगी। और विडंबना यह है कि हमारे समाज की कंडीशनिंग ही ऐसी है कि कई महिलाएं भी इन प्रतीकों, विशेषणों का धड़ल्ले से इस्तेमाल करती हैं।
यही भाषा-बोली की राजनीति है, जो हमारे विचारों को गढ़ती है और एक ऐसा समाज बनाती है जहां महिलाओं के प्रति दोयम दर्जा, हिंसा और घृणा रची-बसी है।
सौतेली मां, सौतन भी ऐसे ही शब्द हैं जिन्हें हम महिलाओं के अपमान के लिए इस्तेमाल करते हैं। सौतेली मां हमारे समाज में एक विलेन के रूप में है। आपने कभी सौतेले बाप को लेकर ऐसा नहीं सुना होगा। इसकी एक वजह ये भी है कि शायद ही कोई पुरुष बच्चे वाली औरत से विवाह करता होगा। जबकि महिलाओं को पहले से ही बच्चों वाले पुरुष से ब्याहना हमारे समाज में आम है।
डायन तो ऐसा शब्द है जिसे लेकर आज भी तमाम औरतों को मार दिया जाता है। और हम इसे ज़रा-ज़रा सी बात में इस्तेमाल कर लेते हैं।
वेश्या शब्द को भी एक गाली की तरह ही प्रयोग किया जाता है। हमारे बड़े लेखक-साहित्यकार तक इसे एक गाली की तरह इस्तेमाल करते रहे हैं। हमारे एक बड़े साहित्यकार ने तो महिला रचनाकारों तक को इन्हीं अर्थों में छिनाल कह दिया था। इन्हीं अर्थों में कुल्टा शब्द का प्रयोग किया जाता है।
जबकि कहा जाता है कि कोई स्त्री तब तक चरित्रहीन नहीं हो सकती, जब तक पुरुष चरित्रहीन नहीं होता है। हालांकि मैं वेश्या को भी चरित्रहीन नहीं मानता। ये उसका काम है या मजबूरी। लेकिन पुरुष के लिए उसके पास जाना उसका शौक है, अय्याशी है और अपनी मर्दानगी दिखाने का तरीका।
ऐसे ही अर्थों और संदर्भों को लेकर हमारे साहित्य में औरतों की बेवफाई पर इतना लिखा गया है कि कुछ कहते नहीं बनता। बहुतेरे शायर तो हर ग़ज़ल का चौथा शे’र औरत की बेवफाई या धोखे पर लिखकर वाह-वाही लूटते हैं। यानी प्रेम के विफल होने का सारा दोष औरतों के सिर मढ़कर बहुत विरह गीत गाए जाते हैं और यह काम कोई चलताऊ कवि-शायरों ने नहीं किया बल्कि बहुत जाने-माने कवि-शायरों के यहां भी ऐसी बहुत सी रचनाएं मिल जाएंगी।
और हमारी फ़िल्में और उसके गाने तो महिला विरोध से भरे पड़े हैं। यहां मैं श्लील और अश्लील की बहस नहीं कर रहा हूं बल्कि जहां औरतों की ना को भी ना नहीं समझा जाता। कहा जाता है कि औरत की ना में भी हां हैं। हंसी तो फंसी। और यह कोई केवल नई फ़िल्मों और गानों की बात नहीं है, बल्कि पुरानी और अच्छी समझी जाने वाली फ़िल्मों की भी बात है। अब तो कई फ़िल्में बनी हैं जिसमें ज़ोर देकर कहा गया है कि नो मीन्स नो यानी ना का मतलब ना।
फ़िल्मों और ख़ासकर उसके गीतों में किस तरह महिला विरोधी माहौल बनाया है और उसकी मर्ज़ी को अहमियत नहीं दी है, इसके लिए एक अलग और विस्तृत लेख की ज़रूरत है। इसी तरह हमारे चुटकुले किस तरह स्त्री विरोधी हैं वो भी एक अलग लेख की मांग करता है। आजकल तो ये चुटकुले व्हाट्सऐप से लेकर टीवी पर आने वाले कॉमेडी शो तक भरे पड़े हैं।
कुल मिलाकर कहने का अर्थ यह है कि एक तरफ़ नैतिकता के नाम पर औरतों को बेड़ियां पहनाईं गईं हैं। उनके चारों तरफ़ एक ‘लक्ष्मण रेखा’ खींच दी गई है। उसे महान और देवी कहकर उसकी स्वतंत्रता और मनुष्य होने का दर्जा छीन लिया गया है और दूसरी तरफ़ इतनी मौखिक हिंसा है, घृणा है जो औरतों के प्रति एक सम्मानजनक, गरिमामयी और बराबरी का माहौल या समाज नहीं बनने देती और अंतत: शारीरिक हिंसा और यहां तक कि बलात्कार और हत्या तक का सबब बनती है।
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)
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