अक्क महादेवी: एक युगान्तकारी स्वाधीन स्त्री
स्त्रियों का स्वर्णकाल क्या कभी संभव था, या कपोल कल्पना है। जी, एक समय था जब ऐसा हुआ कि स्त्रियां अपने पतियों के साथ या पतियों को अस्वीकार करके पुरुषों के साथ बैठकर समान अधिकार से विचार विमर्श करती थीं। वे वचन (कविता) रच रहीं थीं और समाज का नेतृत्व कर रहीं थीं। क्या यह सोचा जा सकता है कि यह उद्घोषित कर दिया गया हो कि स्त्री वस्तु नहीं है। उसे समान अधिकार है, वह सवाल कर सकती है, वह प्रेम कर सकती है और प्रेम को नकार भी सकती है। क्या यह संभव है कि यह मान लिया गया हो कि शारीरिक भिन्नता के कारण स्त्री की बुद्धि, विवेक, साहस और उनकी चिन्तन की क्षमता को नकारा नहीं जा सकता है। जी यह संभव हुआ था, कर्नाटक के अनुभव मण्डप में जहां वीर शैव आंदोलन में सामाजिक परिवर्तन का उजाला आया था, जिससे स्त्रियों और शूद्रों के जीवन में महाबदलाव आया। समाज के सभी तबकों में यह बात समझी गई कि आत्मा न स्त्री है और न पुरुष तो फिर स्त्री पुरुष में समानता क्यों नहीं हो सकती है।
दिगंबर विद्रोहिणी अक्क महादेवी। इस किताब के लेखक सुभाष राय हैं जो सुधी कवि लेखक और जनसंदेश टाइम्स के प्रधान सम्पादक हैं। उन्होंने जिस लगन और लम्बे तथ्यपरक शोध के बाद इस किताब को लिखा है, इसकी कीर्ति अभूतपूर्व है।
अक्क महादेवी कर्नाटक की प्रसिद्ध वीर शैव संत और अनूठी कवयित्री थीं। उनका जीवन विलक्षण और लेखन बदलाव की आहट लिए हुए था। वे प्रेम भक्ति और आत्मोत्सर्ग के वचन कह रही थीं। दक्षिण भारत में विस्फोटक रूप से भक्ति आंदोलन हुआ जिससे काफी उथल-पुथल मची। लगभग दसवीं से बारहवीं शताब्दी के बीच भारी संख्या में स्त्रियों ने भागीदारी की। इस आंदोलन ने सामाजिक जड़ता की दीवारें ढहा दीं और समाज में व्याप्त जातिगत भेदभाव की सभी सरणियों को तोड़ दिया। उन्होंने वीर शैव सैद्धांतिकी की स्थापना करते हुए श्रम के महत्व को सर्वोपरि रखा। अक्क महादेवी के व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक तथा स्त्री स्वतंत्रता के प्रतीक के रूप में उनका जो विद्रोही रूप लेखक ने रखा है, यह एक बड़ा काम है जिसके लिए उन्हें साधुवाद।
महादेवी अत्यंत रूपवती थीं, उनका विवाह कन्नड़ क्षेत्र के राजा कौशिक से हुआ था। महादेवी अपने आराध्य देव शिव के प्रति समर्पित थीं। आध्यात्मिक मुक्ति के मार्ग पर चलते हुए उन्होंने शरीर के वस्त्र त्याग दिए और सम्पूर्ण रूप से आत्मा के स्वतंत्रता की खोज की।
वे स्वयं कहती हैं कि -
‘’अगर मुझे भूख लगेगी/तो मांगकर खा लूंगी/प्यास लगेगी तो/नदियों से पानी पी लूंगी/नग्न दिखूंगी/तो कथरी पहन लूंगी।‘’ उनकी इस बेफिक्री और नग्नता को पुरुष वर्चस्व के विरुद्ध एक स्त्री के आक्रोश के रूप में देखा गया। इस प्रकार अक्क महादेवी ने पितृसत्ता और पुरुष वर्चस्व को जबरदस्त चुनौती दी। उन्होंने इस विचार का मूलोच्छेदन कर दिया जिसमें कहा गया और समझा गया था कि स्त्री भोग की वस्तु है।
महादेवी के वचनों में जो राग बजता है वह आज की प्रगतिशीलता के तत्व- स्वाधीनता, समानता और बंधुत्व को परिभाषित करता है। उन्हें धार्मिक कहना उनके साथ अन्याय होगा। अक्क महादेवी कठिन से कठिन परिस्थिति में भी विचलित नहीं होती थीं यही उनका सामाजिक सरोकार है, और मनुष्यता पर अखंड विश्वास। इसी आधार पर वे भक्त और भगवान, राजा और प्रजा, मालिक और नौकर के अविच्छिन्न रिश्ते की बात करती हैं।
जिस प्रकार से बुद्ध और महावीर ने संन्यास के रास्ते में आने वाली आंतरिक कठिनाइयों के कष्ट उठाए उसी प्रकार महादेवी ने भी सहे, पुरुषों द्वारा उत्पन्न बाधाओं को सहज रूप में लिया और सभी कठिनाइयों का डटकर सामना किया। पति राजा द्वारा किए गए तीन वचनों के उल्लंघन के बाद महादेवी ने उन्हें त्याग दिया। सोलह साल की उम्र में वे वस्त्र त्याग कर महल से बाहर निकल जाती हैं और इसी के साथ ही भूख, प्यास और मोह की आसक्ति का भी परित्याग करती हैं। वे ज्यों-ज्यों आगे बढती हैं उनमें निर्भयता आती है। यह अकल्पनीय है कि कल्याण तक की यात्रा उन्होंने कैसे की होगी? सबसे मुश्किल रहा होगा उनका स्त्री होना। अपने रास्ते पर जाती हुई एक नग्न स्त्री के पास जाने का साहस भला किसमें होगा, फिर भी कुछ लोग उनके पीछे-पीछे चलते हैं और परेशान करते हैं। तब वे कहती हैं कि- ‘मैं विवाहिता हूँ चेन्न मल्लिकार्जुन से मेरा विवाह हो चुका है, वे त्याग और प्रार्थना के बल पर आगे बढ़ती गयीं।
बुद्ध और महावीर ने सत्य की खोज में अपने शरीर की रक्षा की। महादेवी ने न सिर्फ शरीर की रक्षा की बल्कि उसके महत्व को प्रमुखता से रखा। उन्होंने अध्यात्म के मार्ग में अपनी स्त्री देह को बाधा नहीं बनने दिया बल्कि वे देह की यौनिकता को एक उत्सव की तरह देखती हैं। उनके लिए देह की सार्थकता आत्म साक्षात्कार होने तक है, उसके बाद उसका कोई मूल्य नहीं। साधना की उच्च अवस्था में वे बसव कल्याण की यात्रा करती हैं। महादेवी बसवण्णा और अल्लम महाप्रभु के बारे में जानती थीं। कर्नाटक के भक्ति आन्दोलन का नेतृत्व इन्हीं के हाथों में था। बसवण्णा एक असाधारण सामाजिक और आध्यात्मिक नेता थे। उच्च कुल में जन्म लेने के बाद भी उन्होंने उन सभी संस्कारों का विरोध किया जो स्त्रियों और दलितों को उपलब्ध नहीं थे। उन्हें कन्नण साहित्य का कालिदास भी कहा जाता है। इसी प्रकार अल्लम महाप्रभु श्रेष्ठ कवि और अनुभव मंडप के अध्यक्ष थे। अल्लम प्रभु महादेवी के बारे जानते थे कि वे साधारण स्त्री नहीं हैं। महादेवी की इस असाधारणता को लोगों तक पहुंचाने और भक्ति आंदोलन को तेज करने के लिए उन्होंने नाटक रचा। अनुभव मण्डप के द्वार पर ही महादेवी की अग्नि परीक्षा लेते हैं। वे हमलावर होकर अनेक प्रकार के चुभते हुए सवाल करते हैं। बसवण्णा और अन्य लोगों को अच्छा नहीं लगता है लेकिन आज अल्लम के सवाल और महादेवी के जवाब एक धरोहर के रूप में विद्यमान है। बोम्मय्या द्वारा उनकी अशिष्ट परीक्षा होती है। वह आपत्तिजनक रूप से उन्हें स्पर्श करता है। उनके शरीर से सिर्फ राख मिलती है। वह भयभीत होकर पीछे हट जाता है। तब महादेवी कहती है-
‘‘मेरी देह चिता पर पड़ी हुई एक लाश की तरह है, एक कठपुतली की तरह जिसकी डोर किसी और के हाथ में है। एक ऐसी बावड़ी की तरह जिसका पानी सूख गया है। चेन्न मल्लिकार्जुन की शरण में आने के बाद मेरी कुछ ऐसी स्थिति है। वहां पूर्व स्मृति कहां रह जाएगी ? वहां काम भी कैसे बच पायेगा? मैं चेन्न मल्लिकार्जुन की देह में रहती हूँ।‘’
अभी हाल ही में कोरियाई महिला कथाकार हानकांग के उपन्यास- ‘द वेजिटेरियन’ को नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया है। उपन्यास में आहार की बात नहीं बल्कि एक स्त्री के प्रतिरोध की बात है। साधारण सी दिखने वाली स्त्री एक दिन घोषणा करती है कि- वह वेजिटेरियन है उसे अपने पुरुष के शरीर से मांस की गंध आती है और वह उसके साथ सोने से इंकार कर देती है। पति बलात्कार का नियम बना लेता है। वह विक्षिप्त हो जाती है। उसका जीजा उसके सम्पर्क में आता है। उसे पता चलता है कि इस स्त्री के शरीर से पेड़ पौधों और वनस्पतियों की गंध आ रही है।
यह स्त्री का राख हो जाना, स्त्री का वनस्पति हो जाना पुरुष वर्चस्व पर जबरदस्त चोट करता हुआ उसके अहंकार को चूर-चूर कर देता है। स्त्री अपने सम्पूर्ण वैभव में उपस्थित होती है। महादेवी की कविताओं में अदम्य साहस और शिव के प्रति अनन्य भक्ति है -
‘’बिजली अगर गिरी समझूंगी, भूख प्यास मिट गयी देह की।
आसमान फट पड़ा कभी तो स्नान हुआ पूरा समझूंगी।‘’
उनकी कविताओं में जटिल भावों की निश्छल अभिव्यक्ति है। अतिक्रमण करते लोलुप पुरुषों को कितनी बार उन्होंने समझाया है, भगाया है। वे लिखती हैं -
‘’मुग्ध होकर इस युवा सौंदर्य से/खुले मांसल स्तनों के मोह में/तुम चले आये खिंचे भाई/न स्त्री हूं न वारांगना कोई’’ आज की हान कांग की नायिका कहती है-
‘’मेरे स्तन मेरे शरीर का सबसे अहिंसक हिस्सा हैं। वे किसी की जान नहीं ले सकतेI’’
अल्लम ने महादेवी से तीखे चुभते प्रश्नों के बौछार करते हुए पूछा- ‘ माना कि आपकी आत्मा पवित्र है, आपने अपने वस्त्र उतार फेके हैं तब आपने अपने अंगों को लंबे केशों से क्यों ढंक रखा है ? ’
तब महादेवी ने उत्तर दिया कि- मेरे निर्वस्त्र शरीर को देख कर कोई विचलित न हो, इसलिए उसे ढंक कर आई हूं। वे समझाती हैं कि यह तो आप भी जानते हैं कि जब तक फल भीतर से पका न हो, बाहर का छिलका आसानी से हटता नहीं। मुझे मालूम है, सभी इतने परिपक्व नहीं होते। इसीलिए मैंने देह को ढंक रखा है।
महादेवी जैसी युगान्तकारी व्यक्तित्व के कारण स्त्रियों के लिए अनुभव मंडप के दरवाजे खोल दिए गए। लेखक ने महादेवी के माध्यम से अनेक स्त्री वचनकारों के बारे में लिखा है। ये स्त्री वचनकार राजकुमारी से लेकर दलित, श्रमिक और मेहनतकश वर्ग की भी थीं। ऐसा लगता था जैसे सबके लिए मुक्ति के दरवाजे खुल गए हैं। उस समय झाड़ू लगाने वाली, सूत कातने वाली, रस्सी बटने वाली, टोकरी बनाने वाली, धान पीटने वाली,जमादार वर्ग से आने वाली, वेश्या और घृणित समझे जाने वाले कार्य करने वाली स्त्रियों ने भी श्रेष्ठ वचनकार के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई।
आज जब हम पीछे मुड़ कर देखते हैं स्त्रियों के अनादर के सहस्त्रों-सहस्त्र वर्ष को, तब क्षोभ उठता है कि क्या कारण रहा होगा। दरअसल पुरुष वर्चस्व और जाति पर आधारित व्यवस्था ने स्त्रियों की स्वतंत्र सत्ता को कभी स्वीकार नहीं किया। बुद्ध चिन्तित रहे कि स्त्रियों को शामिल करने के बाद संघ की उम्र कम हो जाएगी। उसी बात को महादेवी ने अपने कर्म और वचन दोनों से सिद्ध कर दिया कि काम की भावना स्त्री देह में नहीं पुरुष की दृष्टि में होती है। महादेवी की कविताओं में जनजीवन से लिए गए बिम्ब, उपमा, रूपक के साथ गहरी पीड़ा और छपटाहट की भावना मिलती है। इस प्रकार वे एक युगान्तकारी कवि, स्वाधीन स्त्री और बड़ी बहन के रूप में जनमानस के हृदय में विद्यमान रहेंगी।
पुस्तक-दिगम्बर विद्रोहिणी अक्क महादेवी
लेखक- सुभाष राय
प्रकाशन- सेतु प्रकाशन
प्रथम संस्करण- 2024
मूल्य-449
(इस आलेख की लेखक कवि-कहानीकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।