अम्बेडकर और सावरकर: भारतीय राजनीति के विपरीत ध्रुव
इंडियन एक्सप्रेस (3 दिसंबर 2022) में प्रकाशित अपने लेख ‘नो योर हिस्ट्री’ में आरएसएस नेता राम माधव लिखते हैं कि राहुल गांधी, अम्बेडकर और सावरकर को नहीं समझते. वे राहुल गांधी द्वारा मध्यप्रदेश के महू में दिए गए भाषण की भी आलोचना करते हैं. अम्बेडकर की जन्मस्थली महू में बोलते हुए राहुल ने कहा था कि आरएसएस अम्बेडकर के प्रति नकली और झूठा सम्मान दिखा रहा है और असल में तो उसने अम्बेडकर की पीठ में छुरा भोंका था. राहुल गांधी को गलत बताते हुए राम माधव, अम्बेडकर के पत्रों और लेखों आदि के हवाले से बताते हैं कि दरअसल गांधी, नेहरू और पटेल जैसे कांग्रेस नेता, अम्बेडकर के विरोधी थे. राम माधव ने लिखा कि राहुल गांधी के दावे के विपरीत कांग्रेस ने अम्बेडकर की छाती में चाकू भोंका था. राम माधव ने अपने लेख की शुरूआत संसद में नेहरू के उस भाषण के हिस्सों से की जिसमें वे अम्बेडकर को श्रद्धांजलि दे रहे हैं और इस आधार पर यह दावा किया कि नेहरू अम्बेडकर के प्रति तनिक भी सम्मान का भाव नहीं रखते थे.
माधव ने जानबूझकर नेहरू के भाषण के उन हिस्सों को छोड़ दिया है जिनमें वे अम्बेडकर की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं. जिस भाग को माधव ने छोड़ दिया है उसमें नेहरू कहते हैं, ‘‘...परंतु वे एक घनीभूत भावना का प्रतिनिधित्व करते थे. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि वे उन दमित वर्गों की भावनाओं के प्रतीक थे जिन वर्गों को हमारे देश की पुरानी सामाजिक प्रणालियों के कारण बहुत कष्ट भोगने पड़े. हमें यह स्वीकार करना ही होगा कि यह एक ऐसा बोझा है जिसे हमें ढ़ोना होगा और हमेशा याद रखना होगा...परंतु मुझे नहीं लगता कि भाषा और अभिव्यक्ति के तरीके के अतिरिक्त उनकी भावनाओं की सच्चाई को कोई भी चुनौती दे सकता है. हम सबको इस भावना को समझना और अनुभव करना चाहिए और शायद इसकी जरूरत उन लोगों को ज्यादा है जो उन समूहों और वर्गों में नहीं थे जिनका दमन हुआ.” इससे यह साफ है कि नेहरू भारत में सामाजिक परिवर्तन के मसीहा अम्बेडकर का कितना सम्मान करते थे.
गांधीजी और अम्बेडकर के बीच हुए पूना पैक्ट को अक्सर कांग्रेस और अम्बेडकर के बीच कटु संबंध होने के प्रमाण के रूप में उद्धत किया जाता है. जहां अंग्रेज ‘बांटो और राज करो’ की नीति के अंतर्गत अछूतों को 71 पृथक निर्वाचन मंडल देना चाहते थे वहीं पूना पैक्ट के अंतर्गत उनके लिए 148 सीटें आरक्षित की गईं. यरवदा जेल, जहां अम्बेडकर महात्मा गांधी से मिलने गए थे, वहां दोनों के बीच संवाद उनके मन में एक-दूसरे के प्रति सम्मान के भाव को प्रदर्शित करता है. महात्मा गांधी ने कहा, ‘‘डॉक्टर, मेरी तुम से पूरी सहानुभूति है और तुम जो कह रहे हो उसमें मैं तुम्हारे साथ हूं.” इसके जवाब में अम्बेडकर ने कहा, ‘‘हां महात्मा जी, अगर आप मेरे लोगों के लिए अपना सब कुछ दे देंगे तो आप सभी के महान नायक बन जाएंगे.”
गोलमेज सम्मेलन के पहले अम्बेडकर ने महाड चावदार तालाब आंदोलन किया. इस आंदोलन को ‘सत्याग्रह’ कहा गया जो कि प्रतिरोध का महात्मा गांधी का तरीका था. मंच पर केवल एक फोटो थी जो कि महात्मा गांधी की थी. यहीं पर मनुस्मृति की प्रति भी जलाई गई. यह वही मनुस्मृति है जिसकी प्रशंसा में सावरकर और गोलवलकर ने जमीन-आसमान एक कर दिया था. सावरकर और गोलवलकर, माधव के विचारधारात्मक पूर्वज हैं. मनुस्मृति के बारे में सावरकर ने लिखा ‘‘मनुस्मृति एक ऐसा ग्रंथ है जो वेदों के बाद हमारे हिन्दू राष्ट्र के लिए सर्वाधिक पूजनीय है. यह ग्रंथ प्राचीनकाल से ही हमारी संस्कृति और परंपरा तथा आचार-व्यवहार का आधार रहा है. यह पुस्तक सदियों से हमारे देश के आध्यात्मिक जीवन की नियंता रही है. आज भी करोड़ों हिन्दुओं द्वारा अपने जीवन और व्यवहार में जिन नियमों का पालन किया जाता है, वे मनुस्मृति पर ही आधारित हैं. आज भी मनुस्मृति हिन्दू विधि है. यह बुनियादी बात है.”
यह सही है कि अम्बेडकर ने पतित पावन मंदिर के दरवाजे सभी के लिए खोलने और अंतरजातीय सहभोजों को प्रोत्साहन देने के लिए सावरकर की प्रशंसा की थी. परंतु इसे मनुस्मृति के प्रति सावरकर की पूर्ण प्रतिबद्धता के संदर्भ में देखा जाना चाहिए. सावरकर के ये दो सुधार उनके व्यक्तिगत प्रयास थे. उनके सचिव ए. एस. भिड़े ने अपनी पुस्तक ‘विनायक दामोदर सावरकर्स वर्लविंड प्रोपेगेंडा’ में लिखा है कि सावरकर ने इस बात की पुष्टि की थी कि उन्होंने ये काम अपनी निजी हैसियत से किए हैं और वे इनमें हिन्दू महासभा को शामिल नहीं करेंगे. जहां तक मंदिरों में अछूतों के प्रवेश का प्रश्न था, उसके बारे में लिखते हुए सावरकर ने 1939 में कहा कि ‘‘हम पुराने मंदिरों में अछूतों इत्यादि को आवश्यक रूप से प्रवेश की इजाजत देने से संबंधित किसी कानून का न तो प्रस्ताव करेंगे और ना ही उसका समर्थन करेंगे. अछूतों को वर्तमान परंपरा के अनुरूप उस सीमा तक ही प्रवेश की इजाजत दी जा सकती है जिस सीमा तक गैर-हिन्दू प्रवेश कर सकते हैं.’’ माधव को शायद याद नहीं है कि अम्बेडकर ने सावरकर और जिन्ना की तुलना करते हुए लिखा था कि ‘‘यह अजीब लग सकता है परंतु सच यही है कि एक राष्ट्र बनाम दो राष्ट्र के मुद्दें पर एक-दूसरे के विरोधी होते हुए भी दरअसल मिस्टर सावरकर और मिस्टर जिन्ना इस मुद्दे पर पूर्णतः एकमत हैं. वे न केवल एकमत हैं वरन् जोर देकर कहते हैं कि भारत में दो राष्ट्र हैं - हिन्दू राष्ट्र और मुस्लिम राष्ट्र.”
जहां तक अम्बेडकर को देश की पहली केबिनेट में शामिल किए जाने का प्रश्न है, माधव का कहना है कि जगजीवनराम के जोर देने पर अम्बेडकर को मंत्रिमंडल में शामिल किया गया था. सच यह है कि नेहरू और गांधी दोनों का यह दृढ़ मत था कि आजादी कांग्रेस को नहीं वरन् पूरे देश को मिली है और इसलिए पांच गैर-कांग्रेसियों को मंत्रिमंडल में शामिल किया गया था. गांधीजी न केवल चाहते थे कि अम्बेडकर केबिनेट का हिस्सा बनें वरन् वे यह भी चाहते थे कि अम्बेडकर संविधानसभा की मसविदा समिति के मुखिया हों.
माधव के पितृ संगठन आरएसएस ने नए संविधान की कड़ी आलोचना की थी. संविधान पर तीखा हमला बोलते हुए संघ के मुखपत्र ‘आर्गनाईजर’ के 30 नवंबर 1949 के अंक में प्रकाशित संपादकीय में कहा गया था ‘‘परंतु हमारे संविधान में प्राचीन भारत की अद्वितीय संवैधानिक विकास यात्रा की चर्चा ही नहीं है. स्पार्टा के लाइकरर्जस और फारस के सोलन से काफी पहले मनु का कानून लिखा जा चुका था. आज भी दुनिया मनुस्मृति की तारीफ करती है और वह सर्वमान्य व सहज स्वीकार्य है. परंतु हमारे संविधान के पंडितों के लिए इसका कोई अर्थ ही नहीं है.”
अम्बेडकर को उनके द्वारा तैयार किए गए हिन्दू कोड बिल को कमजोर किए जाने से गहरी चोट पहुंची थी. कांग्रेस के भी कुछ तत्व इसके खिलाफ थे परंतु मुख्यतः आरएसएस के विरोध के कारण हिन्दू कोड बिल के प्रावधानों को कमजोर और हल्का किया गया. इससे इस महान समाजसुधारक को गहन पीड़ा हुई और अंततः उन्होंने इसी मुद्दे पर मंत्रिपरिषद से इस्तीफा दे दिया.
अम्बेडकर को यह स्पष्ट एहसास था कि हिन्दू धर्म के आसपास बुना हुआ राष्ट्रवाद प्रतिगामी ही होगा. भारत के विभाजन पर अपनी पुस्तक के दूसरे संस्करण में वे लिखते हैं ‘‘अगर हिन्दू राज यथार्थ बनता है तो इसमें कोई संदेह नहीं कि वह भारत के लिए सबसे बड़ी विपदा होगी. हिन्दू धर्म स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के लिए खतरा है और इसी कारण वह प्रजातंत्र से असंगत है. हिन्दू राज को किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए.” अम्बेडकर जाति के विनाश के हामी थे जबकि आरएसएस ने विभिन्न जातियों के बीच समरसता को प्रोत्साहन देने के लिए सामाजिक समरसता मंच की स्थापना की है. आज राम माधव की संस्था भले ही अम्बेडकर की मूर्तियों पर माल्यार्पण कर रही हो परंतु राहुल गांधी ने जो कहा है वह तार्किक है. हमें इतिहास का अध्ययन तर्क और तथ्यों के आधार पर और सभी परिस्थितियों व स्थितियों को समग्र रूप से देखते हुए करना चाहिए. इतिहास के कुछ चुनिंदा हिस्सों के आधार पर और मूलभूत तथ्यों को नजरअंदाज कर हम किसी का भला नहीं करेंगे.
(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)
साभार : सबरंग
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