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बीएचयू: 2017 के ऐतिहासिक आंदोलन के बाद आज भी स्थिति जस की तस

छात्राओं के आंदोलन की सबसे बड़ी मांग GSCASH को लेकर आज भी प्रशासन चुप्पी साधे हुए है। आलम ये है कि बीएचयू धीरे-धीरे यौन शोषण का अड्डा बनता जा रहा है।
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बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी यानी बीएचयू एक बार फिर यौन शोषण को लेकर सुर्खियों में है। छात्र-छात्राओं के कड़े विरोध और कई दिनों के प्रदर्शन के बावजूद अभी तक आरोपी पुलिस की गिरफ्त से बाहर हैं और प्रशासन का रवैया इन घटनाओं के प्रति लगातार असंवेदनशील बना हुआ है। हालांकि शासन-प्रशासन की ये अनदेखी पहली बार देखने को नहीं मिली, इससे पहले भी तमाम मामलों में बड़े प्रदर्शनों के बावजूद स्थिति जस की तस बनी रही।

बता दें कि बीएचयू में 2017 में हुए लड़कियों के ऐतिहासिक आंदोलन की सबसे बड़ी मांग विश्वविद्यालय में जेंडर सेंसिटाइजेशन कमेटी अगेंस्ट सेक्सुअल हैरेसमेंट (GSCASH) को लागू करना था। इसके बाद भी यौन शोषण को लेकर हुए कई बड़े प्रदर्शनों में छात्रों ने सुरक्षा व्यवस्था के पुख्ता इंतजाम के साथ ही GSCASH की मांग रखी लेकिन प्रशासन ने आज भी करीब पांच साल बीत जाने के बाद भी इस पर कोई सुनवाई नहीं की। इसके उलट लड़कियों पर हॉस्टल में तमाम पाबंदियां लगाने की कोशिश की गई। छात्रों को प्रदर्शन में भाग न लेने का नोटिस निकाल दिया गया और बात-बात पर लड़कियों को कैंपस के अंदर ही 'कैरेक्टर-सर्टिफिकेट' बांटे जाने लगे।

न्यूज़क्लिक ने इस संबंध में बीते कुछ सालों में बीएचयू में हुए बड़े आंदोलनों में भाग लेने वाले छात्र-छात्राओं ने बातचीत कर विश्वविद्यालय की स्थिति और प्रशासन की कार्यवाही की गंभीरता को जानने की कोशिश की।

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बीएचयू में 2013 से पढ़ रहे छात्र अनुपम, जो फिलहाल यूनिवर्सिटी के फिलॉसफी डिपार्टमेंट से पीएचडी कर रहे हैं, न्यूज़क्लिक को बताते हैं कि 2017 में जो ऐतिहासिक आंदोलन हुआ उसका यही हासिल था कि पहले प्रशासन जो यौन शोषण के मामलों को सिरे से ही नज़रअंदाज कर देता था, उसे इस आंदोलन के बाद सुनने और नोटिस में लेने के लिए मजबूर होना पड़ा। इससे पहले सारा ठिकरा लड़की पर ही फोड़ दिया जाता था, उसे ही दोषी की तरह ट्रीट किया जाता था। लेकिन 2017 के बाद इस रवैए में थोड़ा बदलाव आया। कैंपस में महिला गार्ड्स को लगाया गया, लाइट्स लगीं, बैरिकेडिंग हुई, थोड़ी संवेदनशीलता दिखाने का प्रयास किया गया। लेकिन ये सब सिर्फ दिखावे तक ही सीमित रहा। आरोपी कभी पकड़ा नहीं जाता, अगर पकड़ भी लिया जाता तो हफ्तेभर में उसकी रिहाई हो जाती थी।

अभी तक एक भी मामले में नहीं हुई सज़ा

अनुपम आगे कहते हैं, “कैंपस के जितने भी यौन शोषण-उत्पीड़न के मामले अब तक दर्ज हुए हैं उनमें से एक में भी अभी तक सज़ा नहीं हुई है। सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइंस और छात्रों के बार-बार आंदोलन के बावजूद GSCASH अभी तक लागू नहीं हुआ है। सुरक्षा के नाम पर सिर्फ लाइटें और सीसीटीवी लागा दी जाती हैं, जिनमें से ज्यादातर खराब हैं। लड़कियों के हॉस्टल में अंदर आने का निश्चित समय है, इंटर हॉस्टल भी लॉक कर दिया जाता है। लेकिन लड़के पूरी रात में कभी भी बाहर-अंदर आ जा सकते हैं, उन पर कोई पाबंदी नहीं है।

BHUसाल 2017 के आंदोलन में भागीदार रहीं विश्वविद्यालय की पूर्व छात्रा एकता शर्मा बताती हैं, “साल 2017 में विश्वविद्यालय की एक छात्रा के साथ यौन शोषण का मामला सामने आया था। जिसके बाद मजबूरन लड़कियों को कई दिनों तक धरना-प्रदर्शन करना पड़ा था। क्योंकि तब हमारे सब्र का बांध टूट गया था। आए दिन छेड़खानी और उत्पीड़न की घटनाओं से लड़कियां परेशान हो गई थीं। उस आंदोलन में छात्राओं ने पुलिस की लाठियां भी खाईं थी। छात्रों को तितर-बितर करने के लिए पुलिस को आंसू गैस के गोलों तक का इस्तेमाल करना पड़ा था। इस आंदोलन का न कोई नेता था और न कोई राजनीतिक विचारधारा हावी थी। मुद्दा सिर्फ एक था, छात्राओं के लिए परिसर पूरी तरह सुरक्षित हो। छात्राओं की सुरक्षा संबंधी मांगों पर उनके समर्थन में कई अन्य विश्वविद्यालय के छात्र भी आए और ये एक ऐतिहासिक आंदोलन बन गया।

पीएम मोदी ने नहीं सुनी छात्राओं की पीड़ा

एकता आगे कहती हैं कि 'ये इस आंदोलन का ही परिणाम था कि विश्वविद्यालय का प्रॉक्टोरियल बोर्ड भंग कर दिया गया और चीफ प्रॉक्टर को इस्तीफा देना पड़ा। विश्वविद्यालय के इतिहास में पहली बार महिला चीफ प्रॉक्टर तैनात की गईं। अरसे बाद महिला आयोग, मानवाधिकार आयोग, मंडलायुक्त और मजिस्ट्रेट, न्यायिक आयोग के सामने छात्राओं को अपनी बात कहने का मौका मिला। लेकिन दुख ये जरूर हुआ कि उस दौरान पीएम मोदी, जो यहीं से सांसद हैं, बनारस आए थे और हम छात्राओं की पीड़ा सुने बिना ही रास्ता बदलकर चले गए थे। आज सवाल है कि जब 6 साल बाद भी कुछ वैसी ही दर्दनाक घटना सामने आती है, तो वास्तव में जमीन पर क्या बदला है। लड़कियां न तब सुरक्षित थीं न अब सुरक्षित हैं।'

विश्वविद्यालय में एक बड़ा आंदोलन साल 2019 में भी देखने को मिला था। जब बीएचयू में यौन शोषण के आरोपी जंतु विज्ञान विभाग के प्रोफ़ेसर शैल कुमार चौबे की बहाली के विरोध में छात्र-छात्राओं ने एकजुट होकर यूनिवर्सीटी के लंका गेट को जाम कर दिया था। इस दौरान कई छात्र GSCASH की मांग को लेकर भूख हड़ताल पर भी बैठे थे। ये इनके संघर्ष का ही नतीज़ा था कि बीएचयू कार्यकारिणी परिषद को यौन शोषण के आरोपी प्रोफ़ेसर शैल कुमार चौबे को समय-पूर्व सेवानिवृत्त करने का फ़ैसला करना पड़ा।

तब भूख हड़ताल पर बैठी एक छात्रा ने कहा कि प्रशासन का रवैया उदासीन तब भी छात्राओं की सुरक्षा के प्रति उदासीन था और आज भी ये उदासीन ही नज़र आता है। उस समय प्रोफ़ेसर के संबंध में जो निर्णय लिया गया था उससे छात्राएं पूरी तरह संतुष्ट नही थीं। उनकी मांग थी कि प्रोफ़ेसर के ख़िलाफ़ क़ानूनी कार्रवाई हो और यूनिवर्सीटी में GSCASH को लागू किया जाए। आंतरिक शिकायत समिति में छात्राओं का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित हो। साथ ही छात्राओं के साथ परिसर में हो रहे भेदभाव भी खत्म हो। लेकिन दुर्भाग्यवश न तब प्रशासन की ऐसी कुछ करने की नीयत थी और न अब है। 

आईसीसी सिर्फ वैचारिक ज्ञान देती है, जस्टिस नहीं

बीएचयू के कई आंदोलनों में हिस्सा लेने वाले एक पूर्व छात्र बताते हैं, “बीएचयू से मेरा संबंध 2015 से है, हमने अपने विश्वविद्यालय में अध्ययन के दौरान 2 प्रमुख आंदोलन में भागीदारी की जो महिलाओं की सुरक्षा से संबंधित रहे। इन आंदोलनों का मुख्य उद्देश्य विश्वविद्यालय में छात्राओं की सुरक्षा सुनिश्चित करना तथा परिसर में GSCASH की स्थापना था। पर आज उन आंदोलनों के 6 सालों के बीत जाने के बाद भी स्थिति जस की तस है। इस विश्वविद्यालय की जो संरचना रही है, वह विद्यार्थियों, ख़ास कर छात्राओं को एक पितृसत्तात्मक ढांचे में ढालने की कोशिश के तौर पर दिखाई देती है। यहां उनके खाने-पीने से लेकर उनके कपड़े, पढ़ाई के विषय, सभी पर निर्णय यहां का प्रशासन करता है। सुरक्षा के नाम पर आपको हर रोज़ मोरल पुलिसिंग करते हुए प्रोक्टर मिल जाएंगे, जो आपको यह ज्ञान देंगे कि शाम 6 बजे के बाद विश्वविद्यालय के इस हिस्से में आपका घूमना सुरक्षित नहीं है, लेट एंट्री पर माता पिता को फोन करने की धमकी तो आम बात है।"

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उन्होंनेे आगे कहा, "यूनिवर्सिटी का आलम ये है कि यहां प्रोफेसर लैंगिक फब्तियां कसते आपको अपने चैम्बर में मिल जाएंगे। यहां लोग यह भूल चुके हैं कि विश्वविद्यालय समाज के लिए आइना होता हैं। यहां छात्रों को समाज के अनुसार ढाला जाता है, समाज बदलने के लिए नहीं।"

औपचारिक रूप में जो आईसीसी बनती है उसके सदस्य आपको वैचारिक ज्ञान से इतर कुछ नहीं दे सकते जस्टिस तो दूर की बात है। आज तक हुए दो प्रमुख आंदोलनों में एक बार यहां के कुलपति को जाना पड़ा है दूसरी बार यहां के एक प्रोफेसर को उसके कार्यभार से मुक्त किया गया है, पर स्थित आज भी वही बनी हुई है। 2017 में हुए आंदोलन में छात्रों पर तो आज भी केस चल रहा है लेकिन तब छेड़छाड़ करने वाले लड़कों का आज भी अता-पता नहीं है। यहां प्रारंभिक जांच के बाद पुलिस वापस से लंका गेट पर वसूली में लग जाती है।"

शिकायत समिति में भयंकर एंटी वूमेन सोच के लोग

मौजूदा समय में बीएचयू का गैंगरेप मामला पूरे देश की सुर्खियों में बना हुआ है। इस खौफनाक घटना के विरोध में भी कई दिनों तक धरना-प्रदर्शन और आंदोलन चला। लेकिन पुलिस के हाथ अभी तक खाली हैं। आंदोलन में शामिल कुछ छात्रों का कहना है कि आरोपी रसूखदार है, इसलिए पुलिस-प्रशासन मामले को दबा रहा है। इस आंदोलन के दौरान भी प्रदर्शन करने वाले कुछ छात्रों को खिलाफ पुलिस में मामला दर्ज हुआ है।

इसी आंदोलन में हिरासत में लिए गए पीएचडी स्कॉलर रौशन पांडेय ने न्यूज़क्लिक को बताया कि बीएचयू में बीते लंबे समय से जेंडर डिस्क्रिमिनेशन और यौन शोषण एक गंभीर मुद्दा बना हुआ है। लेकिन जब कोई बड़ी घटना होती है, तभी मामला सुर्खियों में आता है। लेकिन आए दिन ऐसी घटनाएं यहां होती रहती हैं, जो कई बार किसी के ध्यान में नहीं आती। क्योंकि शिकायत समिति में भयंकर एंटी वूमेन सोच के लोग बैठे हुए हैं, जो लड़कियों को ही डरा-धमका के चुप करवा देते हैं।

रौशन के मुताबिक इस बार भी जब यौन हिंसा, गैंगरेप की घटना के बाद लड़कियों ने जस्टिस मार्च का कॉल दिया तो 3 नवंबर को वार्डन उन्हें हॉस्टल से बाहर निकलने से रोक रही थीं। महिला महाविद्यालय की लड़कियों को धमकियां तक दी गई हैं। उन्हें प्रदर्शन में नहीं शामिल होने दिया जा रहा था। और ये सब एबीवीपी के लोगों के बोलने पर हो रहा था। एबीवीपी की लड़कियां प्रोटेस्ट कर रही लड़कियों को भी रोक रही थीं। इसके बाद 4 तारीख को फिर एबीवीपी के लोगों ने प्रोटेस्ट साइट पर डराने-धमकाने का काम किया, जिसके खिलाफ प्रोक्टोरियल बोर्ड में शिकायत भी की गई। लेकिन कुछ नहीं हुआ। अगले दिन 5 तारीख को प्रोटेस्टर्स पर फिर हमला करने की कोशिश की गई लेकिन पुलिस और प्रशासन मूक दर्शक बनी रही। इसके बाद उल्टा शांती से प्रोटेस्ट कर रहे छात्रों पर ही मामला दर्ज करवा दिया गया और एबीवीपी के लोग पूरी रात कैंपस में आराम से घूमते रहे ताकि कोई प्रोटेस्ट न हो सके। छात्रों के बीच डर और तनाव का माहौल बनाने की कोशिश की गई।

न्याय मांग रहे छात्रों पर ही मुकदमा दर्ज

रौशन कहते हैं कि उन्हें इस पूरी घटना के पहले ही पुलिस हिरासत में ले चुकी थी। मार-पीट उसके बाद हुई। बावजूद इसके एफआईआर में उनका नाम है, जबकि वो वहां मौजूद भी नहीं थे। इस पूरे घटनाक्रम के जरिए यौन हिंसा के मामले से लोगों के ध्यान को भटका कर दूसरा एंगल देने का प्रयास किया गया। इतने गंभीर मुद्दे को एक दीवार तक सीमित कर छात्रों को उसमें उलझा दिया गया। जबकि पूरा मुद्दा ही सुरक्षा और GSCASH का था।

अनुपम बताते हैं कि विश्वविद्यालय की ओर से दिखावे के लिए सिर्फ सुरक्षा और चौकसी बढ़ाने, लाइट, कैमरे लगाने की बात कही गई है। GSCASH के प्रावधानों को पढ़कर उस पर कुछ अमल करने की बात का आश्वासन दिया गया है। जबकि GSCASH पर चुप्पी है और इसका कोई उचित कारण प्रशासन के पास नहीं है। कुल-मिलाकर बाकी मामलों की तरह ही इस मामले की भी लीपा-पोती जारी है।

गौरतलब है कि GSCASH यौन उत्पीड़न के मुद्दों और शिकायतों को संबोधित करने और उनके निवारण की सिफारिश करने के लिए विश्वविद्यालय का एक प्रमुख साधन है। यह भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के अनुरूप है जो प्रत्येक व्यक्ति को शोषण से मुक्त होकर मानवीय गरिमा के साथ जीने का अधिकार सुनिश्चित करता है। इस समिति में छात्र प्रतिनिधि भी शामिल होते हैं, जो छात्रों के मुद्दे को प्रमुखता से रखते हैं। लेकिन बीएचयू प्रशासन इसके लिए तैयार नहीं है। और इसकी एक बड़ी वजह छात्र पितृसत्तात्मक सोच को बताते हैं, जो यहां के ज्यादातर स्टाफ के व्यवहार में दिखाई देता है। ये भी हैरानी की बात है कि इतने पड़े विश्वविद्यालय में जेंडर सेंसटाइजेशन और जागरूकता पर कोई सेमिनार या कार्यक्रम प्रशासन की ओर से नहीं करवाया जाता। उलटा लड़कियों को घूमने-फिरने, कपड़े पहनने जैसी पर्सनल चीज़ों पर टोका टाकी की जाती है।
 

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