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बनारस: अस्तित्व के संकट से जूझ रही ‘स्टोन कार्विंग’ कला?

“डीज़ल की महंगाई के चलते पत्थरों की ढुलाई का ख़र्च बढ़ गया। कच्चे माल की कमी, महंगी बिजली और कद्रदानों की कमी के चलते बड़े पैमाने पर बनारस में स्टोन कार्विग के कारखानें बंद हैं।”
Stone Carving art

बनारस के खोजवां बाज़ार में 66 साल के शिवपूजन जायसवाल की आंखों में उदासी है। साल 1980 से वह 'स्टोन कार्विंग' जाली वर्क कर रहे हैं। आपको बता दें नरम पत्थरों को तराशकर जालीदार ख़ूबसूरत कलाकृतियां बनाने को अंग्रेज़ी में ‘स्टोन कार्विंग जाली वर्क’ कहते हैं। वक्त की मार पड़ी तो इनका कारखाना बंद हो गया। उन मशीनों की धड़कन भी बंद हो गई है जिनसे वो मुलायम पत्थरों पर ख़ूबसूरत कलाकृतियां उकेरा करते थे। अब इनकी बूढ़ी आंखें भी साथ नहीं देतीं। वह निराशा और मायूसी भरे लहजे में कहते हैं, "पत्थरों को तराश कर बेहतरीन कलाकृतियां बनाने वाले बनारस के फनकार भुखमरी की कगार पर हैं। कोई रिक्शा चला रहा है तो कोई ठेले पर सब्जी बेच रहा है। शिल्पी कार्ड तो है, लेकिन सुविधाएं नदारद हैं। यह ऐसा कार्ड है जिससे शिल्पियों का न इलाज होता है और न ही उन्हें दवाएं मिलती हैं।"

शिल्पकार शिवपूजन कहते हैं कि वह कई साल से स्टोन कार्विंग कारोबार की मुश्किलों को झेलते आ रहे हैं। वह कहते हैं, "हम अपने बच्चों को इस काम में नहीं उतारना चाहते। संकुलधारा स्थित लक्ष्मी मंदिर के हम सेवइत हैं। फिलहाल दान-पुण्य के पैसे से जिंदा हैं। एक वक्त वो भी था जब हमारे कारखाने में 70 लोग काम करते थे, लेकिन अब कोई नहीं है। हमारे हिस्से में अगर कुछ है तो सिर्फ मायूसी और ज़िंदगी की जद्दोजहद। कारखाने में सालों पहले लगे पत्थर कटर, खराद और कार्विंग की मशीनें जंग खा रही हैं। स्टोन जाली वर्क की कलाकृतियों के लिए कोई बाज़ार नहीं है। विपणन की मुश्किलों के चलते तमाम कारोबारियों और शिल्पकारों ने इस पेशे से तौबा कर लिया है।"

शिवपूजन जायसवाल

"स्टोन कार्विंग कारोबार को पहला झटका तब लगा जब सरकार ने खदानों से सॉफ्ट पत्थरों की निकासी बंद करा दी। डीजल की महंगाई के चलते पत्थरों की ढुलाई का खर्च बढ़ गया। समझ में यह नहीं रहा है कि क्या बनाएं, क्या बेचें, क्या कमाएं और क्या खाएं? कच्चे माल की कमी, महंगी बिजली और कद्रदानों की कमी के चलते बनारस के 90 फीसदी स्टोन कार्विग के कारखानें बंद हैं। कुछ गिने-चुने शिल्पकार ही बचे हैं, लेकिन उनके हालात भी ठीक नहीं हैं।"

वेंटिलेटर पर स्टोन कार्विंग

स्टोन कार्विंग की कला हमेशा के लिए छोड़ चुके शिवपूजन जायसवाल अब खोजवां के शंकुलधारा पोखरे के दक्षिणी छोर पर स्थित लक्ष्मी मंदिर में श्रद्धालुओं को दर्शन-पूजन कराते हैं। हमे मुलाकात में उन्होंने मुश्किलों की एक लंबी फेहरिश्त गिना डाली। डबल इंजन की सरकार की नीतियों से आहत शिवपूजन कहते हैं, "गोरे पत्थरों पर कलाकृतियां उकेरते अपनी ज़िंदगी के कई दशक गुजार दिए। अब हमारे पास कोई काम नहीं है। खोजवा इलाके के नामी शिल्पकार गुरु प्रसाद, बबलू, अशोक ने इस कला से मुंह मोड़ लिया है। सरकार ने सॉफ्ट पत्थरों की आपूर्ति के लिए बनारस में डिपो खोलने का वादा कई बार किया, लेकिन वो कोरे साबित हुए। खोरई के खदान वाला सॉफ्ट स्टोन मिल नहीं रहा है। नतीजा, बनारस की बेहद लोकप्रिय कला वेंटीलेटर पर चली गई है। सरकार ने प्रश्रय नहीं दिया तो वह जल्द ही दम तोड़ देगी।"

उत्तर प्रदेश का ऐतिहासिक शहर बनारस बेजान पत्थरों में जान फूंकने का महारथी रहा है। इस शहर ने स्टोन कार्विंग की कला से दुनिया में अनूठी पहचान बनाई है, लेकिन अब अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रही है। इससे जुड़े कामगारों का आरोप है कि "इस शिल्प कला पर पहले नोटबंदी की मार पड़ी और बाद में जीएसटी ने दिवाला पीट दिया। नौकरशाही की अनदेखी और बिचौलियों ने समूचे कारोबार को निचोड़ लिया है। अब यह काम आखिरी सांसें गिन रहा है।"

 

स्टेट अवार्डी शिल्पकार अभय नारायण वर्मा कहते हैं, "स्टोन कार्विंग जाली वर्क को नया जीवन देने के दावे तो बड़े-बड़े किए जाते हैं, लेकिन नतीजा वही निकला-‘ढाक के तीन पात’। बनारस के कई शिल्पकार पलायन कर गए हैं। इस धंधे से ज़्यादा कमाई ई-रिक्शा चलाने से हो जाती है। हमारे उत्पादों पर भारी-भरकम जीएसटी स्टोन कार्विंग कला को लीलती जा रही है। अचरज की बात यह है कि सरकार ने शिल्पकारों की मजूरी तीन सौ रुपये तय की है, जबकि हम उन्हें छह सौ रुपये दे रहे हैं। हमने कई बार यह मांग उठाई कि सरकार सस्ती बिजली नहीं दे सकती तो दो किलोवाट का सोलर पैनल ही मुहैया करा दे, ताकि शिल्पियों को उबरने का अवसर मिल सके।"

वर्मा कहते हैं, "पहले शिवपुरी के खोरई खदानों से निकलने वाले नरम पत्थरों पर ख़ूबसूरत कलाकृतियां बनाई जाती थीं। ये पत्थर मध्य प्रदेश के शिवपुरी और यूपी के महोबा से आते थे। दोनों जगहों पर स्टोन की खदानें बंद हो गई हैं। इसका सीधा असर बनारस के स्टोन कार्विंग कारोबार पर पड़ा है। लगातार काम न मिलने की वजह से शिल्पकार परेशान हैं और वे इस पारंपरिक धंधे को छोड़ते जा रहे हैं। यूपी सरकार की ओर शिल्पियों को जो टूल किट बांटे गए, वो भी किसी काम के नहीं हैं।"

टूट रही फ़नकारों की आस

जिस कला को बनारस ने दशकों साल से आगे बढ़ाया, उस काम को अब कोई नहीं करना चाहता है। कोरोना संकट के बाद से पत्थरों पर नक्काशी करने वाले शिल्पी परेशान हैं। बनारस के रामनगर, लक्सा, कश्मीरीगंज, खोजवां, रानीपुर, छित्तूपुर, मंडुआडीह, हरहुआ, लहरतारा, भीटी, सुल्तानपुर, सिगड़ी आदि स्थानों पर कुछ शिल्पी छिटपुट काम कर रहे हैं। पत्थरों पर जालादार नक्काशी उकेरने की कला सिर्फ़ इसलिए ज़िंदा है, क्योंकि कुछ शिल्पकार दम तोड़ रही इस हस्तशिल्प कला से आज भी आस बांधे हुए हैं। ये शिल्पी गणेश, बुद्ध, शंकर समेत कई देवी-देवताओं की मूर्तियां, हाथी, उल्लू, विशालकाय अंडे की आकृतियां और शानदार लैंप बना रहे हैं।

स्टोन कार्विंग वह कला है जिसमें जाली अथवा फ्रेटवर्क को नरम पत्थर पर जटिल रूप से उकेरा जाता है। इसके लिए चिनाई और डिजाइन बनाने में निपुणता जरूरी है। वाराणसी में सॉफ्ट स्टोन पर जाली का काम उच्च कौशल और शिल्प कौशल की बेहतर गुणवत्ता का प्रतीक है। गोरे पत्थरों पर बारीक ढंग से तराशी गई और जड़ाई के काम से सजी नक्काशीदार जालियां इसके दीवानों को अपनी तरफ खींचती हैं। वाराणसी में जाली शिल्प का काम किलों, जमींदारों के घरों, पूजा स्थलों और प्राचीन स्मारकों पर देखा जा सकता है, जो इसकी प्राचीनता के प्रमाण हैं। धार्मिक महत्व की मूर्तियां भी इसी तकनीक से बनाई जाती रही हैं। इन मूर्तियों की सुंदरता में चार-चांद लगाने के लिए इनमें कीमती पत्थरों और सीपियों का काम किया जाता है।

पत्थरों को तराशने की बनारस की कला की दुनिया भर में अलग पहचान रही है। खासियत यह है कि पत्थरों को बिना तोड़े-जोड़े उसके अंदर दूसरी और दूसरी के भीतर तीसरी कलाकृति बना दी जाती है। बनारस के स्टोन कार्विंग की कारीगरी शुरू से ही दिलकश रही है। इनका हुनर भी ऐसा निराला है कि दूर-दराज़ के कद्रदानों ने इसे सराहा और इसकी बदौलत सैकड़ों घरों के लोगों को रोज़गार मिला। बनारस के स्टोन कार्विंग जाली वर्क से पहले पांच हज़ार कारीगर जुड़े थे, जिनकी तादाद सिमटकर सौ-दो के आसपास ही रह गई है। जो शिल्पी बचे हैं, वो आज भी पत्थरों को ऐसा आकार देते हैं कि देखने वाले की नज़र ठहर जाती हैं।

स्टोन कार्विंग जाली वर्क का कारोबार पहले सॉफ्ट स्टोन तक सीमित था, लेकिन पत्थरों की कमी के चलते बनारस के शिल्पी अब राजस्थान के सेलम और काले पत्थर पर अपनी कला उकेर रहे हैं। इटली के एलाबस्टर पत्थरों पर भी जाली कटिंग से आकर्षक कलाकृतियां बनाई जा रही हैं। बनारसी शिल्पकारों के इस हुनर की तारीफ़ जापान के तत्कालीन प्रधानमंत्री शिंजो आबो भी कर चुके हैं। बनारसी स्टोन शिल्प का कारोबार यूरोप और अमेरिका के अलावा, आस्ट्रेलिया, जर्मनी, कैलिफोर्निया, स्पेन, स्विटजरलैंड, नेपाल, थाईलैंड, जापान, कोरिया समेत दक्षिण पूर्वी देशों में फैला हुआ है।

"सरकारें बदलीं, पर हालात नहीं"

बनारस में स्टोन कार्विंग के जिस हुनर को देखकर लोग हैरान रह जाते हैं और जिसे बनाने में कारीगर बहुत मेहनत करते हैं, उनका कहना है कि वो बेहाल हैं और उन्हें मेहनत के लिए चंद रुपये मिलते हैं, जबकि बड़े कारोबारी इसी धंधे से करोड़ों रुपये में खेल रहे हैं। ‘बनारस स्टोन कार्विंग जाली वर्क’ के नाम से मशहूर कलाकृतियां इस शहर की शान हैं, लेकिन नई पीढ़ी इस काम से दूर भाग रही है। शिल्पकार भी अब इस कारोबार में नई जान फूंकने के लिए तैयार नहीं हैं।

रामनगर के शिल्पकार पप्पू बघेल अब किराये पर ज़मीन लेकर धान-गेहूं और सिंघाड़े की खेती करते हैं। साल 1994-95 में उन्होंने स्टोन कार्विंग की शुरुआत की और कारोबार में जान नहीं रह गई तो साल 2015 में दुखी होकर उन्होंने काम छोड़ दिया।

‘न्यूज़क्लिक’ से बातचीत में पप्पू कहते हैं, "बनारस की स्टोन कार्विंग कला देश भर में अपनी पहचान रखती थी। हमें विश्वनाथ गली की वो दुकानें याद आ जाती हैं जहां लाइन से पत्थरों की जालीदार कलाकृतियां सजाकर रखी गई होती थीं। हमारी कलाकृतियां अब अजायबघर की वस्तु सरीखी हो गई हैं। इनके लिए न कोई बाज़ार में है और न ही नौकरशाही प्रत्साहन दे रही है। कोरोना महामारी में बुरी तरह टूट चुके बनारसी शिल्पकारों की कारीगरी को फिर से जिंदा करना आसान नहीं था। हाल के दिनों में मोदी सरकार ने थोड़ा प्रोत्साहन दिया तो शिल्पियों ने दम-खम दिखाया, लेकिन इस कारोबार को वो रफ्तार नहीं मिली जो मिलनी चाहिए। सरकार की दोषपूर्ण नीतियों के बावजूद कई फनकार अपने अद्भुत कौशल से पत्थरों पर अनूठी कलाकृतियां उकेर रहे हैं। इन हस्त शिल्पकारों की कलाकृतियां दुनिया भर में बिक रही हैं, लेकिन पहले जैसी बात नहीं है।"

शिल्पकारों की ज़िंदगी बदरंग

रामनगर के हुनरमंद कमलेश कन्नौजिया ने अब स्टोन कार्विंग जाली वर्क छोड़ दिया है। अब वो बिजली वायरिंग का काम करते हैं। वह कहते हैं, "दिन-रात मेहनत करने के बाद भी बच्चों की अच्छी परवरिश करने के लिए पैसे नसीब नहीं होते। हमें पता है कि जितनी मेहनत हम इसपर लगाएंगे, उस हिसाब से हमें मेहनताना नहीं मिलेगा। प्रतिस्पर्धा के दौर में इस कला का महत्व नहीं रह गया है। दशकों से स्टोन कार्विंग का बारीक काम करने की वजह से अब आंखों की रौशनी ने भी तमाम कलाकारों का साथ छोड़ दिया है। असंगठित क्षेत्र के शिल्पकारों के हक़ की बात तो कई बार कई मंचों पर उठीं, लेकिन सियासी गलियारों तक पहुंचने से पहले ही मौन हो गईं। दोषपूर्ण नीतियों के चलते बनारस के इस कुटीर उद्योग की हस्ती मिटती जा रही है।"

कन्नौजिया कहते हैं, "बड़ा सवाल यह है कि स्टोन कार्विंग कला को हम जिंदा रखें भी तो कैसे? बाज़ार में माल बिक नहीं रहा तो शिल्पकारों को मजूरी कहां से देंगे? देखिए, हमारे साथ काम करने वाले राज सोनी अब टैंपो चला रहे हैं। विजय सेठ और रवि सेठ ने पैसे का जुगाड़ करके आभूषणों की एक छोटी सी दुकान खोल ली है। शिल्पकार रुपेश कुमार अब ठेला लगाते हैं। कितनों का नाम गिनाऊं। शिल्पकारों को दो वक्त की रोटी का इंतजाम करना भारी पड़ रह है। किसी को रेगुलर काम नहीं मिल पा रहा है। पहले पत्थरों पर नक्काशी से जितनी मज़दूरी मिलती थी, उतने में अब समूचा माल बिकता है। ग़ौर कीजिए, ऐसे में ज़िंदगी आखिर कैसे कटेगी?"

रामनगर के राजेश यादव और लक्सा के संदीप मौर्य, महादेव मौर्य, दीना मौर्य, रवि वर्मा और बबलू वर्मा जैसे शिल्पकार पूरे दिन स्टोन कार्विंग के काम में जुटे रहते हैं। रोटी का इंतज़ाम करने में इन्हें हर रोज़ जद्दोजहद करनी पड़ती है। वे कहते हैं, "हमारा हाल मत पूछिए, अन्यथा दिल का गुलार दिल में ही रह जाएगा। कोरोना के बाद से ज़िंदगी बेकार हो गई है। सरकारें बदली, लेकिन हमें मिलने वाले मेहनताने में कोई बढ़ोतरी नहीं हुई। कोरोना के दौर के बाद हालात ऐसे हैं कि हम कम से कम पैसे में भी काम करने पर राज़ी हो जाते हैं। लॉकडाउन के बाद बनारस के बहुत से शिल्पकार बेरोज़गार हो गए हैं। हम अपने बच्चों को यह हुनर नहीं सिखाएंगे। इससे अच्छा तो दिहाड़ी मज़दूरी है।"

सस्ती बिजली व पत्थरों की दरकार

बेजान पत्थरों में जान फूंकने की बिसरती कला को बचाने के लिए काम कर रही एक संस्था है आदर्श सेवा समिति। इस संस्था के सचिव हैं आदर्श कुमार मौर्य। इनके पिता द्वारिका प्रसाद स्टोन कार्विंग बड़े फनकार हैं। यूपी सरकार इन्हें अवार्ड से नवाज़ चुकी है। ये ऐसे शिल्पकार हैं जो बेजान पत्थरों को तराशकर ऐसी ख़ूबसूरत शक्ल बख्शते हैं कि देश-विदेश के कद्रदान फिदा हो जाते हैं। पत्थरों पर नक्काशी उकेरते हुए अपने जीवन के कई दशक गुज़ारने वाले द्वारिका प्रसाद से रामनगर में हमारी मुलाकात हुई तो उन्होंने अपने काम से हमें रुबरु कराया। साथ ही अपना वह कारखाना भी दिखाया जिसमें उनके साथ दर्जन भर कारीगर पूरे दिन पत्थरों में जान फूंकने में जुटे रहते हैं।

द्वारिका कहते हैं, हमने स्टोन कार्विंग की कला सीखी नहीं, क़ुदरत ने यह कला हमें बख्शी है। मुग़ल बादशाहों के बाद अंग्रेज़ी हुकूमत में हमारी कला परवान चढ़ी। स्टोन कार्विंग की तरह स्टोन कार्विंग भी नाज़ुक हाथों से की जाने वाली नक्काशी देखने में ख़ूबसूरत होती है। इसलिए आज भी इसे जो देखता है, सीखने बैठ जाता है। कल का यह शौक आज बहुत से लोगों के लिए रोज़ी-रोटी है। पत्थरों से बुद्ध की मूर्ति, अशोक स्तंभ, पेपरवेट, फूलदान, कलमदान, छड़ी, पाउडर बाक्स, लैंप, चिलम और तमाम जानवरों की आकृतियां बनती हैं। सजावटी सामान भी बनाए जाते हैं।"

द्वारिका के मुताबिक़, "साल 2018 में स्टोन कार्विंग जाली वर्क को जीआई कैटेगरी में पंजीकृत किया गया। दुनिया के जो बाज़ार पहले बनारसी कारीगरों की कलाकृतियों से पटे रहते थे, उस पर अब चीन ने कब्जा कर लिया है। चीन स्टोन पाउडर, डाई और मशीनों से सस्ती कलाकृतियां बना रहा है। नतीजा, हमारे हाथ का हुनर पिछड़ने लगा है। वैश्विक स्तर पर स्टोन कार्विंग का बाज़ार सिर्फ 10 से 12 करोड़ ही रह गया है। ऐसे में समझा जा सकता है कि हमारे जैसे शिल्पियों के सामने कितनी तगड़ी चुनौतियां हैं?"

स्टोन कार्विंग जाली वर्क को जिंदा रखने की जी-तोड़ कोशिश कर रहे शिल्पकार द्वारिका प्रसाद को मोदी-योगी सरकार पर बहुत भरोसा है। वह चाहते हैं कि सरकार स्टोन कार्विंग कला को जिंदा रखने के लिए शिल्पियों को जरूरी सुविधाएं मुहैया कराए। वह कहते हैं, "बनारस में अब गिने-चुने फनकार बचे हैं और निर्यात भी नाम मात्र का है। बनारसी साड़ी बनाने वाले बुनकरों को सस्ती बिजली मिलती है, लेकिन हमें नहीं। जीएसटी कानून बना तो स्टोन कार्विंग वाले उत्पादों पर भी 12 फीसदी टैक्स थोप दिया गया। जिन पत्थरों पर शिल्पकार अपना हुनर गढ़ते थे उनकी निकासी ही रोक दी गई। यह स्थिति तब है जब उम्दा कारीगरी वाला छह से आठ इंच का हाथी तैयार करने में एक सप्ताह लग जाता है।"

"स्टोन कार्विंग की अच्छी कलाकृतियों की आज भी ज़बरदस्त डिमांड तो है, लेकिन कई बरस से अच्छी क्वालिटी का अंगूरी पत्थर नहीं मिल पा रहा है। बिजली की समस्या, बाज़ार न होने और दूसरी समस्याओं के चलते ज़्यादातर शिल्पियों ने काम छोड़ दिया है। नई पीढ़ी इस काम को करने के लिए कतई तैयार नहीं है, क्योंकि इसमें मेहनत ही नहीं, बल्कि पेशेंस (धैर्य) की  ज़्यादा ज़रूरत पड़ती है। हमारी ख्वाहिश है कि सरकार इस ऐतिहासिक धरोहर बचाने के लिए आगे आए और इस शिल्प कला को फिर से खड़ा करने में मदद करे। बनारस की पहचान रहे स्टोन कार्विंग जाली वर्क को सुविधाएं मयस्सर नहीं हुई तो यह शिल्प कला जल्द ही इतिहास के पन्नों में दफन हो जाएगी।"

"वोकल फॉर लोकल का नारा बेअसर"

इस खत्म होती कला को लेकर बनारस का हर प्रबुद्ध चिंतित है। वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप कुमार कहते हैं, "डबल इंजन की सरकार सिर्फ सूबसूरत नारे गढ़ना जानती है। कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए पीएम नरेंद्र मोदी ने कुछ बरस पहले बेहद ख़ूबसूरत नारा उछाला था, ‘वोकल फॉर लोकल’। सरकार के दूसरे नारों की तरह यह भी कोई कमाल नहीं दिखा सका। पत्थरों पर कलाकृतियां उकेरने वाले शिल्पकारों की स्थिति बेहद दयनीय है और स्टोन कार्विंग जाली वर्क दम तोड़ता जा रहा है। इसके संवद्धन के लिए शासन और प्रशासन के स्तर पर जो सुविधाएं मुहैया कराई जानी चाहिए, उनका दूर-दूर तक अता-पता नहीं है। अगर सही अर्थों में ‘वोकल फॉर लोकल’ के नारे पर अमल गया होता तो यह कला दुनिया में अपनी बेजोड़ पहचान कायम कर सकती थी।"

प्रदीप कहते हैं, "मोदी सरकार ने विश्वनाथ कॉरिडोर बनवाया, लेकिन बनारस के शिल्पियों को कोई काम नहीं दिया। सारा ठेका बाहरी कंपनियों को मिला। कॉरिडोर के स्थापत्य कला को देखिए, क्या उसमें कहीं काशी की झलक दिखती है। यह बात और है कि कॉरिडोर काशी में है और बनारस के पारंपरिक स्टोन कार्विंग शिल्पकला का कहीं अता-पता नहीं है। नारों के भरोसे इवेंट परोसने वाली सरकार ने एक बड़ा अवसर खो दिया है। कोई भी नारा मजबूत इच्छा शक्ति और कुशल योजना के अभाव में मूर्त रूप नहीं ले सकता। यही वजह है कि बेजान पत्थरों पर अपनी पारंपरिक कलाकृतियों को उकेरने वाले तबाही की कगार पर पहुंच गए हैं।"

उत्साहित हैं दर्जनों फनकार

तमाम मुश्किलों के बावजूद दर्जनों शिल्पकार स्टोन कार्विंग को लेकर खासे उत्साहित हैं। बनारस में स्टोन हस्तकला से जुड़े अनिल कुमार आर्य इस बात से खुश हैं कि विश्वनाथ धाम बनने के बाद उनकी मुश्किलें आसान हुई हैं। बनारस के लक्सा पर इनका विश्वनाथ मूर्ति भंडार है। वह कहते हैं, "विदेशों से भले ही इसके कम आर्डर आ रहे हैं, हमारे शिवलिंग की साउथ में डिमांड बहुत अधिक हो गई है। हम शिवलिंग और नंदी ही नहीं, हम हाथी, घोड़ा, कछुआ, उल्लू, चेस गेम, अरोमा लैंप, सॉफ्ट ट्रे, थाली, ग्लास, कटोरी समेत ढेरों सामान बना रहे हैं। सारा काम हैंडमेड है। हमारा मुकाबला चीन से है। हम कलाकृतियां हाथ से बनाते हैं और वो मारबल के पाउडरों से कलाकृतियों को सांचे में ढालते हैं। हालांकि उन्होंने हमारे बहुत से सामानों की कापी कर ली है। उनके उत्पाद देखने में अच्छे लगते हैं, लेकिन वो होते नहीं, क्योंकि बनारस के कारीगर ओरिजनल स्टोन से कलाकृतियां बनाते हैं।"

अनिल दावा करते हैं, "बनारस में स्टोन कार्विंग की कला कभी मर नहीं सकती। इस कला को मेरे दादा लक्ष्मण प्रसाद आर्य ने ईजाद किया था। करीब सौ बरस से बनारस में गोरे पत्थरों पर कलाकृतियां उकेरी जा रही हैं। बनारस में इसका चलन इसलिए तेजी से बढ़ा क्योंकि बनारस की विधवाएं पहले पत्थर के बर्तनों में खाना खाती थीं। पूजा–पाठ के लिए पत्थर के बर्तनों का इस्तेमाल किया जाता था। इन बर्तनों का आज भी बंगाल में चलन बरकरार है। हम इस कला को आगे बढ़ाने के लिए दम लगा रहे हैं। हर साल हमें 20-25 लाख का आर्डर मिल जाता है।"

बनारस के कश्मीरीगंज के शिल्पकार अशोक कुमार सिंह की संस्था शिल्पांचल कुटीर उद्योग में चालीस बरस से उच्च गुणवत्ता वाली कृतियां बनाती हैं। वो अपना उत्पाद बनारस बीड्स के अलावा कोलकाता के एक एनजीओ को निर्यात के लिए देते हैं, जिनमें मुख्य रूप से कैंडल स्टैंड, डिनर कैंडल स्टैंड, लैंप, अगरबत्ती स्टैंड, पेपर वेट, लायन, मोर, हाथी, तोता आदि कलाकृतियां होती हैं। वह कहते हैं, "स्टोन कार्विंग करने वाले शिल्पियों के साथ बहुत अधिक ज्यादती हो रही है। जब व्यापार कर और वैट था तो हमारा उत्पाद टैक्स फ्री था। जब जीएसटी आया तो 12 फीसदी टैक्स थोप दिया। हमारी कमाई चीन लूट रहा है। बनारस के ढेरों कारखाने बंद हो गए और शिल्पकारों के सामने भूखों मरने की नौबत है। रामनगर में गिनती के शिल्पकार बचे हैं। नई पीढ़ी इस कला को सीखने के लिए तैयार नहीं है।"

जीआई टैग से मिली नई पहचान

वाराणसी में हस्त शिल्पकला के असिस्टेंट डायरेक्टर अब्दुल्ला कहते हैं, "स्टोन कार्विंग के कारीगरों को सरकार की तरफ़ से ट्रेनिंग और काम बढ़ाने के लिए ऋण भी दिया जाता है। जागरूकता की कमी की वजह से सरकार की योजनाओं का लाभ कारीगरों तक नहीं पहुंच पाता है। स्टोन कार्विंग असंगठित क्षेत्र है। तमाम कारीगर किसी और के लिए काम कर रहे होते हैं, ऐसे में न्यूनतम मेहनताना तय करना मुश्किल होता है। शिल्पकारों का आयुष्मान कार्ड बनवाया जा रहा है, ताकि उन्हें मुफ़्त इलाज मिल सके। पीएम के लोकल फॉर वोकल के नारे का मकसद उन विशिष्ट शिल्प कलाओं और उत्पादों को प्रोत्साहित करना है जो देश में कहीं और उपलब्ध नहीं हैं, उन्हें बढ़ावा दिया जाए। स्टोन कार्विंग जीआई टैग यानी जिओग्राफिकल इंडिकेशन (भौगोलिक पहचान पट्टिका) धारक हैं। यह वह उत्पाद हैं जिनसे किसी जगह की पहचान होती है।"

जीआई विशेषज्ञ और पद्मश्री डॉ. रजनीकांत कहते हैं, " स्टोन कार्विंग जीआई टैग (ग्राफिकल इंडीकेशन) के चलते अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार का लाभ मिलना तय है। स्टोन कार्विंग उत्पाद से मुनाफ़ा कमाना है तो मेलों और प्रदर्शनियों में अपने प्रोडक्ट्स को ले जाना पड़ेगा। मोदी सरकार ने हस्तशिल्पियों के उत्पादों पर 40 लाख रुपये की जीएसटी छूट दे रखी है। स्टोन कार्विंग के अच्छे कलाकार अच्छी कमाई कर रहे हैं। थाईलैंड, जापान, कोरिया, जर्मनी में बनारसी स्टोन जाली क्राफ्ट की ज़बरदस्त डिमांड है। यूरोप, खाड़ी देश, जापान और अमेरिका के बाज़ारों में इस कला के प्रति दीवानगी बढ़ गई है और कारीगरों को नए ऑर्डर भी मिलने लगे हैं। देश-विदेशों से जो भी बनारस आता है वो इसे अपने साथ याद के तौर पर ले जाना चाहता है।"

नोट: ख़बर में इस्तेमाल की गई कलाकृतियों की सभी तस्वीरें बनारस के प्रख्यात शिल्पकार द्वारिका प्रसाद और अनिल कुमार आर्य की हैं।

(लेखक बनारस स्थित वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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