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बंगाल: बांकुरा में भड़की जंगल की आग के लिए कौन है जिम्मेदार?

स्थानीय लोग जंगल महल में आग लगने के एक पैटर्न की ओर इशारा करते हैं, जिसके कारण पेड़ ख़त्म हो रहे हैं और विभिन्न पशु प्रजातियां बड़े पैमाने पर नष्ट हो रही हैं।
fire forest

जंगल महल के बांकुरा के जंगल में आग भड़की हुई थी, हवा के दबाव के कारण लपटें तेजी से फैल रही थीं। जंगल का खौफनाक सन्नाटा अक्सर विभिन्न पक्षियों की मधुर लेकिन दयनीय आवाजों से टूट रहा था, जो अपनी जान बचाने की कोशिश कर रहे थे। आग की गर्मी और धुएं के गुबार के बीच खरगोश, हिरण, साही, जंगली सूअर और सांपों की विभिन्न प्रजातियों को आग से बचने के लिए अपनी जान बचाते हुए भागते हुए देखे जा सकता था। लेकिन, उन्हें आश्रय कहां मिलेगा?

काफी देर तक इंतजार करने के बाद आखिरकार फायर ब्रिगेड का अलार्म बजा। आग बुझाने में उन्हें 10-15 घंटे लग गए। आग बुझाने के बाद, घने धुएं के बीच झुलसी हुई जमीन पर मृत साही, पक्षी, सांप, खरगोश, जंगली सूअर और लोमड़ी मिली। कीड़े जल कर राख हो गए थे।

जंगल में लगी आग का यह भयावह मंज़र बांकुरा जिले के जंगल महल इलाके में फैल चुका है। स्थानीय लोगों का कहना है कि हर साल आग लगने की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। लेकिन ऐसा क्यों हो रहा है? इसका जवाब जंगल महल में आग बुझने के बाद हुई घटनाओं के क्रम में छिपा है। प्रशासन, वन विभाग, स्थानीय पंचायत और विधानसभा तथा संसद स्तर पर निर्वाचित प्रतिनिधि, सभी इस स्थिति से वाकिफ हैं, लेकिन वे मूकदर्शक बने हुए हैं।

बांकुरा का वन क्षेत्र और उसका हरियाली भरा इतिहास

बांकुरा का वर्तमान वन क्षेत्र और कैसे एक बार नष्ट हो चुका जंगल हरा-भरा हो गया था, यह समाचारों में रहा है। इसका दस्तावेजीकरण बड़े अच्छे से हुआ है कि 1970 के दशक के अंत तक, बांकुरा जिला पश्चिम बंगाल के सबसे आर्थिक रूप से पिछड़े जिलों में से एक था। हजारों हेक्टेयर भूमि बंजर पड़ी थी; सिंचाई की कोई सुविधा नहीं थी। चावल और आलू सहित कृषि उत्पादन अपने सबसे निचले स्तर पर पहुंच गया था, और वह भी लंबे समय तक ऐसा रहा।

बांकुरा जिले में कोई उद्योग नहीं था। इस भयावह आर्थिक स्थित के कारण, गरीब और वंचित तबकों के पास कोई काम नहीं था और वे काले बाजार से ऊंचे दामों पर चावल खरीदने में असमर्थ थे। बांकुरा जिला परिषद के एक वरिष्ठ नागरिक और पूर्व सभाधिपति (प्रमुख) ज्ञानशंकर मित्रा ने इस लेखक को बताया कि जिले की लगभग 70 फीसदी आबादी को भोजन की कमी का सामना करना पड़ता था। गांवों और कस्बों के गरीब और बेरोजगार लोग अक्सर ब्लॉक विकास कार्यालयों में विरोध प्रदर्शन करते थे, जिसमें मात्र 2 किलोग्राम गेहूं या चावल की मांग की जाती थी। लोग अत्यधिक कुपोषण से पीड़ित थे। उस दौर के गवाह कई लोगों ने एक कहावत को याद किया, "कंगाली भोजन" (गरीब व्यक्ति का दोपहर का भोजन), यह दर्शाता है कि अमीर परिवारों के घरों में त्योहारों के दौरान, गरीब लोग भोजन पाने के लिए दौड़ पड़ते थे।

आय का कोई वैकल्पिक स्रोत न होने के कारण ये गरीब ग्रामीण जंगल पर निर्भर हो गए। वे जंगल के संसाधन इकट्ठा करके बेचते थे और पेड़ों की टहनियां और पेड़ भी काटते थे। बेईमान लकड़ी के व्यापारियों ने उनकी गरीबी का फ़ायदा उठाया और उन्हें इस काम के लिए कम मज़दूरी दी। वन विभाग इसे रोकने में असमर्थ था और सरकार इस पर कोई ध्यान नहीं देती थी। नतीजतन, बांकुरा के जंगल तेज़ी से नष्ट हो गए। 1977 के अंत तक, जिले का वन क्षेत्र सिकुड़कर केवल 12 फीसदी रह गया था।

ओंडा जंगल से पत्तियां इकट्ठा करती महिलाएं

1977 में जब बंगाल में वाम मोर्चा सरकार सत्ता में आई उसके बाद भूमि सुधार अधिनियम लागू किया गया। अधिनियम के अनुसार, सीमा से ज़्यादा ज़मीन राज्य सरकार के भूमि विभाग को हस्तांतरित कर दी जानी थी। इस ज़मीन का ज़्यादातर हिस्सा जमींदारों के पास उनके परिवार के सदस्यों और दूसरे लोगों के नाम पर था, जिस पर खेती नहीं होती थी।

इन ज़मीनों को कानूनी तौर पर वापस लेने के बाद वाम मोर्चा सरकार ने उन्हें गरीब भूमिहीन लोगों में पट्टे (भूमि का स्थायी बंदोबस्त) के रूप में वितरित किया। तीन-स्तरीय पंचायत प्रणाली बनाई गई। पंचायत और विभिन्न सरकारी विभागों ने गरीब भूमिधारकों की मदद के लिए कई योजनाएं शुरू कीं। तीन साल के भीतर कृषि उत्पादन में वृद्धि हुई और गरीबी का स्तर कम होने लगा।

भूमि सुधार के साथ-साथ 'सामाजिक वानिकी' के नाम पर जिले के जंगलों को फिर से बसाने की पहल की गई। बांकुड़ा के वन क्षेत्र में सागौन, आकाशमणि, यूकलिप्टस, चंदन और बरगद समेत कई प्रजातियों के पेड़ लगाए गए। जिले में कई जगहों पर बीज की नर्सरी बनाई गई। पंचायत, वन विभाग और बागवानी विभाग ने मिलकर यह काम किया।

“बांकुरा पंचेत वन प्रभाग के सेवानिवृत्त रेंजर सुब्रत गोस्वामी ने कहा, "उस समय यह हमारे लिए एक बड़ी चुनौती थी, लेकिन हम फिर से हरियाली लाने के लिए प्रतिबद्ध थे।"

रानीबांध के सुतन गांव के निवासी 75 वर्षीय नयन हांसदा उस दौर को याद करते हुए बताते हैं कि चार से पांच साल में उजड़ा जंगल हरा-भरा हो गया था। जोयपुर, पतरासायर, सोनामुखी, बरजोरा, तालडांगरा, बिष्णुपुर, सारेंगा समेत कई इलाकों में हरियाली फैल गई। उन्होंने बताया कि वन विभाग की मंजूरी से वन सुरक्षा समिति (एफपीसी) बनाई गई। जंगल से सटे इलाकों की महिलाओं और पुरुषों को इन समितियों का सदस्य बनाया गया। बिट और रेंज अफसरों समेत वन कर्मचारियों की हर महीने इनके साथ बैठक होती थी। पंचायत भी संपर्क बनाए रखती थी। गांव के लोग जंगल के फल, फूल, पत्ते और गिरी हुई टहनियां एकत्र कर सकते थे। साथ ही, जंगल की रक्षा के लिए पुराने पेड़ों को काटने पर समिति के सदस्यों को बिक्री मूल्य का 25 फीसदी मिलता था।

बरजोरा रेंज के सेवानिवृत्त रेंज अधिकारी सुनील बसुली ने बताया, "वन विभाग ने गांवों के लिए सामुदायिक केंद्र, कुएं, खेल के मैदान और स्कूल भवन बनाए। सदस्यों को छाते और सर्दियों के कपड़े दिए गए।"

उन्होंने याद करते हुए कहा कि, "वन कर्मचारियों और एफपीसी सदस्यों के बीच पारिवारिक संबंध विकसित हो गए थे। उनकी 24 घंटे की सतर्कता के परिणामस्वरूप, जंगल को कोई नुकसान नहीं हुआ। यह तेजी से बढ़ा और घना हो गया। मोर, हिरण, खरगोश और विभिन्न प्रकार के सांप देखे जा सकते थे। 1984 में दलमा से हाथियों के झुंड बांकुरा जंगल में आने लगे।"

उपग्रह से किए विश्लेषण के अनुसार, बांकुरा जिले का कुल वन क्षेत्र, जिसमें तीन प्रभाग - बांकुरा (उत्तर), बांकुरा (दक्षिण) और पंचेत प्रभाग शामिल हैं - लगभग 1,463.56 वर्ग किमी का है, जो जिले की कुल भूमि क्षेत्र का 21.27 फीसदी है, जबकि बंगाल का कुल वन कवरेज 18.96 फीसदी है।

क्या जंगलों की हरियाली धीरे-धीरे कम हो रही है?

पिछले पांच सालों में फरवरी के मध्य से मई के अंत तक, बदमाश बांकुरा के जंगल के विभिन्न हिस्सों में आग लगाते रहे हैं। इन आग का पैटर्न जानबूझकर और समन्वित प्रयास का संकेत देता है, क्योंकि आग साल, सागौन और आकाशमणि जैसे मूल्यवान पेड़ों से भरे घनी आबादी वाले क्षेत्रों में लगाई जाती है। आग बुझने के बाद, जले हुए पेड़ एक सप्ताह के भीतर रहस्यमय तरीके से गायब हो जाते हैं। ये मूल्यवान पेड़ कहां जा रहे हैं? इन आग के बारे में जानने के बावजूद, संबंधित रेंज अधिकारी किसी भी पुलिस स्टेशन में एफआईआर दर्ज नहीं कर रहे हैं। क्यों?

कुछ दिन पहले बांकुड़ा जिले के सबसे बड़े वन क्षेत्र रानीबांध के बरोमिल जंगल में आग लगी थी। रानीबांध से झिलिमिली जाने वाले रास्ते पर स्थित इस इलाके में पिछले पांच सालों से एक ही समय पर आग लगती रही है। आग की लपटें सड़क किनारे से बरोमिल जंगल में फैल गई थीं। फायर ब्रिगेड की कोशिशों के बावजूद आग 24 घंटे तक जलती रही।

पंद्रह दिन पहले बरजोरा जंगल में भी ऐसी ही आग लगी थी, जहां बांकुरा और दुर्गापुर से आई चार दमकल गाड़ियों ने आग बुझाने की कोशिश की थी। जंगल में पेड़ खड़े रह गए, काले पड़ गए और झुलस गए। जिले के प्रमुख वन क्षेत्रों जोयपुर, पतरासायर, बिष्णुपुर, बसुदेवपुर, कंचनपुर, सोनामुखी, बेलियाटोर, गंगाजलघाटी, मनकनाली, तलडांगरा और सारेंगा जंगलों में भी ऐसी ही घटनाएं सामने आई हैं।

इसके अलावा, कई छोटे और मध्यम आकार के प्राकृतिक और लगाए नए गए जंगलों में आग लगा दी गई। कोई भी वन क्षेत्र ऐसी आग से बचा नहीं है। यहां तक कि बंगाल में एक प्रमुख पर्वतारोहण केंद्र सुसुनिया हिल और रानीबांध की प्राचीन बामनीसिनी पहाड़ियां भी इससे अछूती नहीं रहीं। 400 मीटर ऊंची इन पहाड़ियों पर कई सालों से लगातार आग लग रही है, क्योंकि यहां के कीमती पेड़ आग की भेंट चढ़ गए हैं। स्थानीय लोगों का आरोप है कि इनमें से ज़्यादातर पेड़ों को जला दिया गया और लूट लिया गया है।

जलती हुई सुसुनिया पहाड़ी बांकुरा

बांकुरा फायर स्टेशन के एक अधिकारी खालिद अंसारी ने बताया कि, "पिछले पांच महीनों से लगभग हर दिन कई जंगलों में आग लग रही है। बांकुरा जिले में केवल छह फायर स्टेशन हैं, जिनमें सीमित संख्या में कर्मचारी हैं और कोई नई भर्ती नहीं हुई है। कई बार हमें उन जगहों पर पहुंचने में देर हो जाती है।" उन्होंने आगे कहा कि अगर एक साथ 10 जगहों से आग लगने की खबर आती है, तो उन सभी तक पहुंचना असंभव है।

जब पूछा गया कि इन चार महीनों के दौरान जंगल में लगातार आग क्यों लग रही है, तो बांकुरा उत्तर के प्रभागीय वन अधिकारी (डीएफओ) उमर इमाम और बांकुरा दक्षिण के प्रदीप बाउरी ने कहा कि सटीक कारण स्पष्ट नहीं हैं। हालांकि, कई अनजान यात्री या स्थानीय लोग जंगल में धूम्रपान करते हैं और लापरवाही से जलती हुई सिगरेट और बीड़ी फेंक देते हैं, जिससे सूखे जंगल में आग लग जाती है। उन्होंने यह भी बताया कि कुछ लोग मनोरंजन के लिए आग लगाते हैं। वन विभाग ऐसी हरकतों को रोकने के लिए जागरूकता बढ़ा रहा है और इस मामले पर नज़र रख रहा है।

पूर्व रेंज अधिकारी सुनील बसुली ने कहा कि, "वाम मोर्चे के समय में जंगल में मामूली सी भी आग लगने की घटना पर संबंधित बिट या रेंज अधिकारी द्वारा स्थानीय पुलिस स्टेशन में एफआईआर दर्ज कराई जाती थी और एफआईआर की एक प्रति वन विभाग मुख्यालय को भेजी जाती थी। मुझे नहीं पता कि अब ऐसा होता है या नहीं।"

उन्होंने कहा कि पहले एफपीसी के सदस्य जंगल की सुरक्षा करते थे। पदाधिकारियों का चुनाव करने के लिए वे सालाना आम बैठक करते थे, लेकिन पिछले कई सालों से ऐसी बैठकें नहीं हुई हैं। एफपीसी के सदस्यों का वन विभाग से संपर्क टूट गया है।

तालडांगरा ब्लॉक के अंतर्गत दालंगोरा के एक एफपीसी सदस्य जदुनाथ सरेन ने कहा कि समिति आधिकारिक तौर पर सक्रिय थी, लेकिन व्यावहारिक रूप से इसका कोई अस्तित्व नहीं था। जिले भर के कई एफपीसी सदस्यों का आरोप है कि सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने इस पर कब्ज़ा कर लिया है, जिससे स्थानीय लोगों में निराशा है और वे जंगल को बचाने के लिए अपनी जान जोखिम में डालने से कतराते हैं।

रानीबांध के एक वन कर्मचारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि, "12 साल से कोई नई नियुक्ति नहीं हुई है। दो वन कर्मचारी इतने बड़े इलाके की निगरानी कैसे कर सकते हैं?" नतीजतन, आग लगने के बाद और सामान्य परिस्थितियों में भी पेड़ों की अंधाधुंध लूट हो रही है। वनों की कटाई के कारण कई औषधीय पौधे मर रहे हैं और सुसुनिया पहाड़ी पर कई साही मर चुके हैं। हिरण, सांप, जंगली सूअर और खरगोश समेत कई जानवर मर रहे हैं। उन्होंने बताया कि कुछ दिन पहले रानीबांध के बैरोमाइल जंगल में लगी आग में तीन हिरण मर गए थे।

रानीबांध बरोमाइल जंगल क्षेत्र के निवासी।

मानसून के अंत में, जंगल में पेड़ों के तल के आसपास मशरूम की कई प्रजातियां पैदा होती हैं, जो अपने स्वाद और बाजार मूल्य के कारण बहुत मांग में रहती हैं। स्थानीय महिलाएं इन मशरूम को बाजार में बेचने के लिए इकट्ठा करती हैं। जिले के वन क्षेत्रों की कई महिलाओं ने बताया है कि मिट्टी के जलने के कारण मशरूम का उत्पादन कम हो रहा है, जिससे उनकी आजीविका पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है।

बांकुरा सम्मिलानी कॉलेज में प्राणीशास्त्र विभाग के पूर्व प्रमुख प्रोफेसर आशीष भट्टाचार्य ने बताया कि जंगल की आग जैव विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान पहुंचा रही है। औषधीय पौधों के फल खाने वाले कई पक्षी मल त्याग के माध्यम से उनके बीज फैलाकर उन पौधों को पुनर्जीवित करने में मदद करते हैं। ये पक्षी आग में मर रहे हैं, जिससे नए पौधों की वृद्धि रुक रही है। इसके अलावा, आग से हवा में बढ़े कार्बन से स्थानीय निवासियों में सांस और त्वचा संबंधी रोग हो सकते हैं।

बांकुरा के लोगों द्वारा बनाए गए इन घने जंगलों की वजह से इस जिले को बंगाल में ‘जंगल महल’ के नाम से जाना है। हालांकि, अगर जंगलों का इसी तरह विनाश होता रहा, तो क्या बांकुरा को तब भी जंगल महल के नाम से जाना जाएगा?

लेखक पश्चिम बंगाल में बंगाली दैनिक ‘गणशक्ति’ के लिए जंगल महल क्षेत्र को कवर करते हैं।

चित्र सौजन्य: मधु सुदन चटर्जी

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:

Bengal: Who’s Responsible For Raging Forest Fires in Bankura?

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