‘उठो ऐ मेरे देश’: जन संस्कृति कर्मियों ने निकाली ‘सांस्कृतिक-यात्रा’
देश की आज़ादी के 75 वर्ष पूरे होने के नाम पर केंद्र सरकार, “अमृत महोत्सव” कार्यक्रमों के बहाने एक बार फिर ‘हिन्दू राष्ट निर्माण’ के साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण एजेंडे को स्थापित करने की कोशिशें सबने देखीं। जिसके बरख़िलाफ़ देश के कई हिस्सों में जगह जगह अपने स्तर से कई कार्यक्रम कर सत्ता सियासत के खतरनाक मंसूबों का प्रतिकार किया गया।
बिहार के बदले हुए सियासी हालात में बिहार के जन संस्कृतिकर्मियों द्वारा सरकारी अमृत-महोत्सव के समानांतर ‘उठो ऐ मेरे देश’ का ज़मीनी सांस्कृतिक अभियान, समय संदर्भ के अनुसार एक अच्छी पहल कही जायेगी। जिसके माध्यम से सत्ता संचालित ‘नफ़रत और उन्माद की संस्कृति’ के ख़िलाफ़ अमन और एकता की साझी-संस्कृति साझी विरासत के पैगाम को जन जन तक पहुंचाने के लिए जन कलाकारों ने 15 से 20 अगस्त तक की ‘सांस्कृतिक यात्रा’ निकाली। जिसके जरिये जनता से सीधे तौर पर जुड़े सक्रिय सांस्कृतिक गतिविधियों में आये विगत कई वर्षों के ठहराव को भी तोड़ने की कोशिश की गयी।
सांस्कृतिक-यात्रा की शुरुआत 15 अगस्त को जन आन्दोलनों की धरती भोजपुर के जिला मुख्यालय आरा स्थित 1857 के नायक वीर कुंवर सिंह व शहीद भगत सिंह के स्मारक पर माल्यार्पण से की गयी। वरिष्ठ कम्युनिष्ट नेता व भाकपा माले के पोलित ब्यूरो सदस्य स्वदेश भट्टाचार्य ने इस यात्रा को तिरंगा दिखाकर रवाना किया। इस अवसर पर अपने संबोधन में कहा कि- अंग्रेजों का साथ देनेवालों, माफ़ी माँगनेवाले और आज़ादी के लड़कों के ख़िलाफ़ मुखबिरी करनेवालों को राष्ट्र नायक बनाने की ‘अमृत महोत्सवी मुहिम’ के खिलाफ लोगों को जागरूक बनाने के लिए ऐसे सांस्कृतिक अभियानों की बेहद ज़रूरत है।
यात्रा का पहला कार्यक्रम आरा से सटे अगियाँव क्षेत्र के पवना बाज़ार में जनगीत व नुक्कड़ नाट्य प्रस्तुति से हुआ। उपस्थित दर्शकों को संबोधित करते हुए जसम बिहार के अध्यक्ष व वरिष्ठ साहित्यकार जीतेंद्र कुमार ने भोजपुर की गौरवशाली संघर्ष की परम्परा की चर्चा करते हुए कहा कि यहाँ की मिट्टी में साझी-संस्कृति साझी विरासत की मजबूत परम्परा रही है। वीर कुंवर सिंह ने जब कुछ दिनों के लिए पूरे शाहाबाद अंचल से अंग्रेजों को खदेड़ कर उनसे मुक्त करा लिया था तो तत्कालीन स्थानीय प्रशासक एक मुस्लिम को बनाकर साझी एकता को स्थापित किया था।
इसी दिन आरा स्थित जेपी स्मारक परिसर में स्थानीय लेखक-कलाकारों द्वारा आयोजित सांस्कृतिक कार्यक्रम के जरिये यात्रा के कलाकारों के साथ एकजुटता दर्शायी गयी। प्रलेस बिहार के अध्यक्ष व जनपथ पत्रिका के संपादक समेत कई वरिष्ठ साहित्यकारों ने आयोजन को सम्बोधित करते हुए देश में बढ़ते सांप्रदायिक फासीवाद के खिलाफ एकजुट सांस्कृतिक प्रतिरोध बढ़ाने पर जोर दिया। इस अवसर पर युवा कवयित्री अर्चना प्रतिज्ञा समेत कई रचनाकरों ने अपना काव्यपाठ भी किया।
सांस्कृतिक यात्रा का दूसरा और अहम पड़ाव पटना जिला के फुलवारी शरीफ में डाला गया। जहां पिछले दिनों भाजपा के इशारे पर मिडिया द्वारा फुलवारी शरीफ को “आतंक की फुलवारी , आतंक की पाठशाला” जैसे संबोधनों से बदनाम किया गया। आरोप है कि यहाँ आतंकी साजिश किये जाने की अफवाह फैलाकर एनआईए के जरिये कई बेगुनाह मुसलमानों को फर्जी मुकदमे में फंसा कर पूरे इलाके के लोगों को सांप्रदायिक दहशत में जीने को मजबूर कर दिया गया था। इसोपुर मुहल्ला समेत कई प्रमुख मुस्लिम इलाकों में वहाँ के निवासियों के सहयोग से आयोजित यात्रा के सांस्कृतिक जत्थे की प्रस्तुतियों को देखने भारी संख्या में लोग उमड़ पड़े।
जत्थे का नेतृत्व कर रहे वरिष्ठ एक्तिविष्ट बुद्धिजीवी जनाब ग़ालिब ने लोगों को भाजपाई सांप्रदायिक साजिश को नाकाम करने के लिए आभार प्रकट करते हुए कहा कि- कलाकार का धर्म होता है कि वो हर दौर में सच्ची बात करे।
इसी दिन राजधानी पटना स्थित कारगिल चौक व अंजुमन इस्लामिया हॉल परिसर अदि स्थानों पर भी नुक्कड़ प्रस्तुतियों की गयीं।
यात्रा का तीसरा पड़ाव बेगुसराय में हुआ। जहां आन्दोलनकारी गाँव नौला व बलिया के अलावा शहर के दिनकर कला भवन के मुख्य द्वार पर नुक्कड़ कार्यक्रम हुआ। इस दौरान स्थानीय जन चित्रकारों के कविता पोस्टर भी प्रदर्शित किये गए। सभी आयोजनों में भाकपा माले समेत अन्य वामपंथी दलों के नेताओं ने यात्रा का स्वागत करते हुए सांप्रदायिक फासीवादी राजनीति के खिलाफ बिहार में जारी संघर्षों को रेखांकित करते हुए कहा कि बिहार की राजनीति नया रास्ता दिखा रही है।
18 अगस्त को यात्रा समस्तीपुर से होते हुए मिथिलांचल के इलाके में पहुंची। समस्तीपुर में आइसा के छात्रों ने यात्रा की प्रस्तुतियों में बढ़ चढ़कर सक्रियता दिखाई तथा स्थानीय साहित्यकार बुद्धिजिवियों ने भी भागीदारी निभायी।
19 अगस्त को दरभंगा स्थित बाबा नागर्जुन के गाँव स्थित उनके स्मारक पर पुष्प अर्पित करने के पश्चात् मिथिलांचल के कई अन्य शहीदों के स्मारकों पर भी माल्यार्पण कर संकल्प लिया गया।
दरभंगा में आयोजित कार्यक्रमों को जसम के वरिष्ठ साहित्यकार सुरेन्द्र सुमन समेत कई अन्य वरिष्ठ साहित्यिकारों तथा वाम दलों के नेताओं ने संबोधित किया। शहर के कई प्रमुख नुक्कड़ों के अलावा तरालाही, काकरघाटी व कर्पूरी चौक में यात्रा के जत्थे ने अपनी प्रतुतियाँ दीं।
जन जागृति के व्यापक सन्देश को लेकर निकली सांस्कृतिक यात्रा का अंतिम पड़ाव 20 अगस्त को इस मधुबनी जिले में डाला गया। जहां के कई गांवों व शहर में सांस्कृतिक प्रस्तुतियां के जरिये यात्रा का समापन किया गया।
पूरी यात्रा के दौरान कई स्थानों पर जत्थे के कलाकारों को मालाएं पहनाकर व अंगवस्त्र देकर सम्मानित किया गया। शहर के आयोजनों में जहां छात्रों-युवाओं की अधिक उपस्थिति रही वहीं ग्रामीण क्षेत्रों के रात्रि आयोजनों में किसानों, बच्चों व महिलाओं की अच्छी उपस्थिति देखी गयी।
सांस्कृतिक यात्रा में जन आंदोलनों के चर्चित जन गायक निर्मोही जी, निर्मल नयन, प्रमोद यादव के अलावा युवा जन गायक राजू रंजन व पुनीत पाठक के जन गीतों को लोगों ने काफी पसंद किया। साथ ही महिलाओं की टीम ‘कोरस’ की समता, रुनझुन व रिया के जनगीतों को भी काफी सराहा गया।
पूरी यात्रा में हारमोनियम, ढोलक, डफ, डफली व मजीरा की ताल पर प्रस्तुत जन कवि रमता जी लिखित- हमनी देसवा के नया रचविया हंई जा... , मिलल कईसन आज़ादी जहां पानी ना मिले... , नोकरी मिलतो न सरकारी जाके बेचो तरकारी... गीत काफी लोकप्रिय हुए। इसके अलावा फ़ैज़, गोरख पाण्डेय, महेश्वर तथा विजेंद्र अनिल के लोकप्रिय जनगीतों की प्रस्तुतियां की गयीं। यात्रा के कलाकारों द्वारा सामूहिक रूप से तैयार किया गया होली तर्ज़ का गीत- ई राजा के राज अलबेला हो भइया... बेहद चर्चित रहा। ‘रंगनायक बेगुसराय के नाट्यकर्मियों द्वारा प्रस्तुत रंगकर्मी दीपक सिन्हा लिखित नुक्कड़ नाटक- ‘उठो मेरे देश’ की प्रभावपूर्ण प्रस्तुतियों ने हर जगह के दर्शकों को आकर्षित किया।
कुल मिलाकर जन संस्कृति मंच की बिहार इकाई के संयोजकत्व में निकाला गयी ‘सांस्कृतिक यात्रा’ की जीवंत सांस्कृतिक प्रस्तुतियों ने एक बार फिर से संस्कृतिकर्म और जनता के बिच के जीवंत संवाद प्रक्रिया में दर्शकों के मानस में एक नयी ताज़गी भरने का काम किया है। जिसे देश व समाज के ज्वलंत मुद्दों को लेकर सांस्कृतिक जगत में व्याप्त सायास ख़ामोशी को तोड़ने की अच्छी शुरुआत कही जा सकती है।
सनद रहे कि बिहार की धरती पर हमेशा से जन राजनीतिक-सामाजिक मुद्दों को लेकर लेखक, कवि-कलाकर एवं एक्टिविस्ट बुद्धिजीवियों द्वारा सीधे जनता के बीच सांस्कृतिक सक्रियता की लम्बी परम्परा रही है। बताया जाता है कि बाबा नागार्जुन और फणीश्वर नाथ रेणु जैसी साहित्यिक विभूतियों ने भी सत्ता की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ सड़कों पर आवाज़ बुलंद की थी।
बाद के समयों में सत्ता-सियासत द्वारा सरकारी अनुदान पोषित सांस्कृति की धारा को प्रभावी बनाकर जन पक्षधर संस्कृतिकर्म को वाम राजनीति का प्रचारक होने का जुमला बना दिया गया। कलाकारों की अभावग्रस्तता और साधनहीनता का भरपूर इस्तेमाल करते हुए अनगिनत सांस्कृतिक मंडलियों व कालाकारों को सामाजिक सरोकारों से ही विमुख बनाकर ‘भगवा सांस्कृतिक धारा’ ने अधिकांश को अपने एजेंडे का प्रचार भोंपू में तब्दील कर डाला है।
जसम से जुड़े संस्कृतिकर्मियों का कहना है कि मौजूदा राजनीति से लेकर संस्कृति तक की संकटपूर्ण चुनौतियों के मुकबले के लिए बेहद ज़रूरी हो गया है कि ‘कला जीवन और बदलाव के लिए’ को पूरी शिद्दत के साथ स्थापित किया जाय।
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