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कोविड-19 की वैक्सीन भले ही उपलब्ध हो जाए, लेकिन उसके समान वितरण को किस प्रकार से सुनिश्चित किया जाने वाला है?

जहाँ तक अमीर देशों और बड़ी फार्मा कम्पनियों का सवाल है तो वे इस बारे में बेहद सक्रिय हैं, वहीं जिन देशों को इसकी सबसे अधिक ज़रूरत है, वे वैक्सीन तक अपनी पहुँच बना सकने और इसकी कीमतों को लेकर व्यापक आशंकाओं के बीच घिरे हैं।
covid-19

संभवतः इस महामारी को पछाड़ने में एक प्रभावी और सुरक्षित टीका ही सबसे आसान रास्ता हो सकता है। लेकिन आम लोगों तक इस वैक्सीन के पहुँचने में काफी वक्त लग सकता है। यह हमें जल्दी भी मिल सकता है और नहीं भी। लेकिन हैरानी की बात यह है कि टीका अभी लोगों तक पहुँचा भी नहीं, लेकिन इसको लेकर आशंकाओं का बाजार चारों ओर व्याप्त हो चुका है, एक ऐसा भय जो दुनिया में गैर-बराबरी की लगातार चौड़ी होती जाती खाई के चलते उपजता है।

एक पुर्वानुमान के अनुसार, धनी देश पहले से ही इन वैक्सीन निर्माताओं के साथ किसी न किसी प्रकार की सौदेबाजी में जा रहे हैं। जबकि इस टीके के क्लिनिकल परीक्षणों के सभी चरण पूरे होने अभी शेष हैं। क्या वाकई में दुनिया में एक ऐसी भी स्थिति आने वाली है, जिसमें कुछेक देश इन वैक्सीन के अधिकाधिक खुराक की अपने यहाँ जमाखोरी करके रख लेंगे, लेकिन जिन गरीब मुल्कों को वास्तव में इसकी सख्त जरूरत होगी, उन्हें इसके लिए लंबा इन्तजार करना होगा? कुल मिलाकर देखें तो इसी बात की संभावना ज्यादा नजर आ रही है।

आइये इस मोर्चे पर कुछ नवीनतम घटनाओं के बारे में जायजा लेने की कोशिश करते हैं। अमेरिकी सरकार ने इस बीच ताबड़तोड़ गति से पहलकदमी लेते हुए कई वैक्सीन निर्माता कंपनियों के साथ 6 बिलियन डॉलर तक के समझौतों पर पर हस्ताक्षर कर लिए हैं। इसका इरादा अपनी आबादी के लिए 2021 की शुरुआत में ही वैक्सीन मुहैया करा देने का है।

इस मामले में यूरोपीय देश भी पीछे नहीं हैं। जर्मनी, नीदरलैंड और इटली के समावेशी वैक्सीन गठबंधन ने यूरोपीय संघ के सदस्य देशों के इस्तेमाल के लिए एस्ट्रा जेनेका नामक बहुराष्ट्रीय कंपनी के साथ 40 करोड़ खुराक की खरीद के लिए समझौते पर हस्ताक्षर कर दिए हैं। इसी प्रकार यूनाइटेड किंगडम ने भी एस्ट्रा ज़ेनेका और अन्य फार्मा दिग्गजों से अपने लिए सौदेबाजी कर रखी है। चीन भी अपने खुद के वैक्सीन निर्माण में तेजी से आगे बढ़ रहा है।

यहाँ इस बात का जिक्र करना सर्वथा उचित रहेगा कि विभिन्न देशों में वर्तमान में तकरीबन 200 से अधिक उम्मीदवार टीके के निर्माण की प्रकिया के विभिन्न चरणों में चल रहे हैं। इनमें से जिन तीन टीका निर्माण में लगे उम्मीदवारों ने अभी तक अच्छे परिणाम दिखाए हैं, वे यूके से (ऑक्सफ़ोर्ड और एस्ट्रा जेनेका), अमेरिकी (मोडरना) और चीन की (सिनोवैक) प्रमुख हैं। ऐसे में बड़े देश वैक्सीन निर्माण के क्षेत्र में बाकियों से आगे निकलते दिख रहे हैं, और उनमें से कुछ ने तो इसको लेकर पहले से ही अपनी डील भी पक्की कर ली है। ऐसे में इस बात की प्रबल संभावना नजर आ रही है कि कुछ साधन सम्पन्न देश जहाँ अधिकतम लाभ की स्थिति में होंगे, वहीं बहुमत इससे बाहर रहने वाला है।

हालिया इतिहास भी इस बारे में कुछ खास उत्साह वर्धक नहीं रहा है। एचआईवी के खिलाफ तैयार किये गए एंटीवायरल दवाओं के विकास का फायदा भी पश्चिम ने ही उठाया था। यह 1996 के समय की बात है। लेकिन अफ्रीका महाद्वीप जो इसका सबसे भयानक भुक्तभोगी था, उसके क्षेत्र में इस दवा को पहुँचने में सात वर्षों तक लंबा वक्त लग गया था। इसके बेहद भयावह परिणाम देखने को मिले थे।

अभी हाल के वर्षों में 2009 के एच1एन1 इन्फ्लुएंजा महामारी के दौरान अमेरिका और कई यूरोपीय देशों ने सबसे पहले अपनी आबादी के लिए पर्याप्त मात्रा में खुराक जमा करके रखने का काम किया था। और जब उनके पास इसकी पर्याप्त संख्या हो गई तो उन्होंने उसमें से कुछ मात्रा गरीब देशों में दान में देने का पाखंड किया था। स्थिति यह थी कि कई देशों को बेहद कम मात्रा में इस दवा के लिए काफी लम्बे वक्त तक इन्तजार करना पड़ा था।

इसलिए हमें यह सवाल पूछने की आज सख्त आवश्यकता है कि यदि कोविड-19 पर वैक्सीन वास्तव में बनकर तैयार हो गई तो इसकी पहली खुराक किसे दी जानी चाहिए।

विशेषज्ञों के अनुसार पहली प्राथमिकता विश्व भर में कार्यरत स्वास्थ्य कर्मियों को इसे दिए जाने की है, इसके बाद जो लोग गंभीर बीमारी के चलते गंभीर हालत में हैं को दिए जाने की जरूरत है। इसके बाद उन लोगों को जो उन इलाकों में रह रहे हैं जहाँ वर्तमान में यह बीमारी तेजी से फ़ैल रही है और तत्पश्चात बाकियों को इसे दिए जाने की आवश्यकता है।

यदि वैज्ञानिक नजरिये से देखें और दुनिया से इस बीमारी का नामोनिशान मिटाने का यदि वाकई जज्बा हो तो इस बारे में स्पष्ट तौर पर वर्गीकरण किये जाने की जरूरत है, वर्ना महामारी को कभी भी परास्त नहीं किया जा सकता है।

डच वकील और सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यकर्त्ता एलेन होइन के कहे को उधृत करें तो “यह बेहद मूर्खतापूर्ण होगा यदि अमीर देशों के कम-जोखिम में फंसे लोगों को वैक्सीन पहले मुहैया करा दी जाती है, जबकि दक्षिण अफ्रीका में कार्यरत स्वास्थ्य कर्मियों के लिए इसे मुहैया नहीं कराया जाता है।”

इतिहास के उदाहरणों और अमीर देशों के हाल के दिनों की कारगुजारियों को देखते हुए यह संदेह उठना लाजिमी है कि करोड़ों वैक्सीन की खुराक इनके द्वारा अपने नाम कर ली जायेगी, और नतीजतन जो गरीब हैं वे और भी गर्त में डूबते चले जाने के लिए अभिशप्त हैं।

इसके अलावा वैक्सीन की कीमत को लेकर भी एक बड़ा सवालिया निशान बना हुआ है। बड़ी फार्मा कम्पनियाँ वैक्सीन के शोध के काम पर निवेश कर रही हैं। इस बात की पूरी-पूरी उम्मीद है कि वे अपने मुनाफे को अधिक से अधिक करने की कोशिशों में रहेंगे और ऐसे में वैक्सीन की कीमत उम्मीद से कहीं काफी अधिक रहने वाली हैं। अमेरिकी कम्पनी मॉडरना अपने स्वयं के अनुसंधान एवं विकास के बल पर वैक्सीन की ईजाद में जुटी है, लेकिन एस्ट्रा ज़ेनेका ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय के नाम पर दाँव खेल रही है। बाकी की यूरोपीय कम्पनियाँ भी इसी राह हैं। इस वैश्विक स्वास्थ्य आपदा से निपटने के लिए एक सच्चे वैश्विक आपसी सहयोग के प्रयास समय की माँग है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डबल्यूएचओ) ने कमजोर देशों में वैक्सीन को डेवेलप करने के मकसद से वैश्विक सहयोग के प्रयासों की शुरुआत की है, जिसमें महत्वपूर्ण तथ्य वैक्सीन उत्पादन के बाद इसके समान वैश्विक वितरण का मुद्दा है। इसके लिए डबल्यूएचओ ने गावी के साथ मिलजुलकर काम किया है, जिसे वैक्सीन अलायन्स, सीईपीआई (द कोएलिशन फॉर एपिडेमिक प्रेपरेडनेस इनोवेशन्स) और कोवेक्स (द कोविड-19 वैक्सीन ग्लोबल एक्सेस) की पहल शुरू की है।

कोवेक्स के पीछे विचार यह है कि 12 वैक्सीन के निर्माण में लगे उम्मीदवारों पर निवेश किया जाए और जब ये उपलब्ध हो जाएँ तो उन्हें जल्द हासिल किया जा सके। इसका लक्ष्य 2021 के अंत तक दो अरब खुराक के उत्पादन की है, जिसमें 95 करोड़ उच्च और उच्च-मध्यम आय वाले देशों के लिए, 95 करोड़ निम्न एवं निम्न-मध्यम आय के देशों के लिए और 10 करोड़ “मानवीय परिस्थितियों और प्रकोपों में घिरे लोगों के लिए जहाँ स्थिति नियन्त्रण से बाहर जा रही हो” को मदद पहुँचाने में इस्तेमाल की जा सके।

डब्ल्यूएचओ की ओर से 15 जुलाई को जारी प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार कुलमिलाकर 75 देशों ने अपनी सहमति व्यक्त की है। ये देश अपने खुद के बजट से इसका वित्तपोषण करेंगे और अन्य 90 निम्न आय वाले देशों के साथ कोवाक्स एडवांस मार्किट कमिटमेंट (एएमसी) के जरिये साझेदारी निभाएंगे। ये 165 देश दुनिया की कुल आबादी का 60% हिस्सा होते हैं।

इस हिसाब से जिन अमीर देशों ने इस पर हस्ताक्षर किये हैं, उन्हें कोवाक्स से राहत मिलने जा रही है। यदि इन देशों में से किसी देश ने वैक्सीन की कोशिश में लगे उम्मीदवार पर निवेश कर रखा है, जोकि बाद में इसे विकसित कर पाने में अक्षम साबित होता है और उसे उत्पादन का लाइसेंस नहीं मिलता है, तब भी उसे कोवाक्स के माध्यम से वैक्सीन हासिल हो सकती है। लेकिन यह सिर्फ उसके 20% आबादी के हिसाब से ही उसे मिल सकेगी। अपने साझीदारों के माध्यम से कोवाक्स की कोशिश है कि निवेश को आकर्षित किया जाये और इस फण्ड से इसका दावा है कि वह जरुरतमन्द देशों में वैक्सीन के विकास और उत्पादन के बाद वितरण के क्षेत्र में मदद करेगा।

इसके बावजूद कोवाक्स को लेकर कुछ आशंकाएं बनी हुई हैं। उल्लेखनीय है कि कोवाक्स ने एस्ट्रा ज़ेनेका के साथ 4 जून को एक 75 करोड़ डॉलर के सौदे पर हस्ताक्षर किये हैं। डॉक्टर विथआउट बॉर्डर्स से सम्बद्ध वैक्सीन विशेषज्ञ, केट एल्डर के अनुसार: “वे कैसे एस्ट्रा ज़ेनेका का चुनाव कर सकते हैं? समझौते में एस्ट्रा जेनेका के साथ वे कौन सी शर्तें हैं, जिनके आधार पर वे उसे बाध्य कर सकते हैं यदि कंपनी अपने उत्पादन लक्ष्य के वायदे को पूरा करने में असफल साबित होती है? ऐसी किसी भी शर्तों का उल्लेख नहीं नजर आता।”

अफ्रीकन सेंटर फॉर डिजीज कण्ट्रोल एंड प्रिवेंशन के निदेशक जॉन न्केंगासोंग के अनुसार अफ्रीका को दूसरे विकल्पों की ओर भी देखने की जरूरत है। “हम कोवाक्स सुविधा के बंदोबस्त का स्वागत करते हैं लेकिन हम सिर्फ जिनेवा में इसके बारे में चर्चा के लिए ही इन्तजार नहीं करते रह सकते” वे बोल पड़ते हैं। उनके अनुसार अफ़्रीकी सरकारों ने पहले से ही बड़ी फार्मा कम्पनियों से डील करने के लिए वित्तीय मदद के लिए बैंकों से सम्पर्क साधना शुरू कर दिया है।

कमजोर राष्ट्रों की आकांक्षाओं और अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए कोवाक्स को चाहिए कि वह वित्तीय निवेश के आवंटन तंत्र को सच्चे अर्थों में उचित और न्यायसंगत पहुँच को सुनिश्चित करने पर सारा जोर लगाये।

मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित आलेख को पढ़ने के लिए आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर सकते हैं-

COVID-19 Vaccine May Come, but What About Equitable Distribution?

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