कोरोना और कॉलेज छात्राओं की घर वापसी
तकरीबन डेढ़ साल का समय हो चला है जिसमें देश की आबादी घरों में क़ैद होकर रह गई है। ये घर वापसी उन तबकों के लिये भयानक है जिन्हें “नॉर्मल” समय में भी घर से बाहर निकलने की अनुमति नहीं थी।
पिछले कुछ दशकों में कॉलेज़ और विश्वविद्यालयों में युवा लड़कियों की संख्या बढ़ी है। हालांकि अनुपात के हिसाब से ये अभी भी कम है। कॉलेज़ के हवाले से इन लड़कियों को एक मोहलत मिली, खुद का निजी समय मिला, खुद के अर्जित दोस्त मिले, सामाजिककरण हुआ, पार्टियां हुईं, सोलो ट्रिप भी हुई होंगी और सहेलियों के साथ पहाड़ों पर ट्रेकिंग भी। सांस्कृतिक महोत्सवों में हिस्सेदारी भी हुई होंगी और कॉलेज़ के टूर भी। कॉलेज़ लाइफ ने सीमित ही सही, लेकिन एक महत्वपूर्ण मोहलत पितृसत्ता से छीनकर इन लड़कियों को दे दी। मां-बाप की टोका-टाकी, रसोई की बेगारी और घर की पवित्र दहलीज़ से बाहर ये लड़कियां पब्लिक स्पेस का इस्तेमाल और व्यैक्तिकता को एक्सरसाइज़ कर पाईं। लेकिन महामारी ने जैसे सब चौपट कर दिया।
खुद का समय और सामाजिकरण चुरा पाई ये लड़कियां आखिर फिल्हाल घरों में किस तरह रह रही हैं, क्या सोच रही हैं, क्या कशमकश इनके दिमागों में चल रही है? ये सवाल लगातार दिमाग में घूमता रहा है। इसी सवाल का जवाब तलाशने के लिए हमने दिल्ली विश्वविद्यालय की कुछ लड़कियों से अपना अनुभव सांझा करने का आग्रह किया। इन दिनों वे जो महसूस कर रही हैं वो उन्ही की ज़ुबानी आप यहां पढ़ पाएंगे। इसमें दिल्ली की लड़कियों के अनुभव भी हैं और दूसरे राज्यों की ग्रामीण लड़कियों के अनुभव भी शामिल हैं।
एक छात्रा ने अपना नाम जहिर ना करते हुए कहा “वैसे तो कोरोना से पहले भी बाहर देर तक घूमने की आज़ादी नहीं थी। अब तो मां-बाप और खुश हो गए हैं कि झंझट ही ख़त्म। मुझे बाहर घूमना है, ट्रिप पर जाना है, पार्टी करनी है। लेकिन इसकी आज़ादी ना मुझे तब थी और अब तो सवाल ही नहीं उठता। और तो और घर में हिंसा और दूसरे क्राइम और बढ़ रहे हैं। आवाज़ उठाएं भी तो कैसे, ये शोषण करने वाले भी तो अपने ही हैं।”
गौरतलब है कि लॉकडाउन के दौरान घरेलू हिंसा में जबरदस्त बढ़ौतरी हुई। लॉकडाउन से पहले घर के मर्द दफ्तर या काम-काज के लिए दिन में बाहर चले जाते थे। इस दौरान घर की औरतों को थोड़ी सांस मिल जाती थी। लेकिन लॉकडाउन ने सभी को घर में क़ैद कर दिया है। पुरूष भी तनाव और मानसिक परेशानियों से जूझ रहे हैं। परिवारों में कलह बढ़ी है, तनाव बढ़ा है और घरेलू हिंसा और यौन हिंसा बढ़ी है। छात्रा का अनुभव इसी तरह तरफ इशारा कर रहा है।
तन्वी मोहंती कहती हैं “कोविड से पहले मैं उस पंछी की तरह थी जो बंदिशों को पार कर अपनी ज़िंदगी जीना जानती थी। मुझे अब फिर से पिंजरे में क़ैद पंछी जैसा लगना शुरु हो गया है। ऐसे लगता है जैसे खुद की कोई आवाज़ नहीं है। एक जगह बंध कर रह गई हूं। निकलना चाहूं तो भी नहीं निकल पा रही। मानो पूरी ज़िंदगी अब बंध कर रहना पड़ेगा। इसे आदत बनाना होगा लेकिन मेरा मन राजी नहीं है।”
अमिता व्यास एक सामाजिक तौर पर सक्रिय लड़की थी। तनाव ने अब उसे घेर लिया है। अमिता का कहना है कि वो शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, भावनात्मक सभी प्रकार की समस्याओं से गुजर रही है। आमतौर पर मुखर और सोशल रहने वाली अमिता अब बातें करते हुए झिझकती है और उसे लगता है अब वो सोशल होने में असहज हो गई है। अमिता ने कहा अब सिर्फ टेंशन बढ़ रही है। घर में क़ैद होने और सोशल लाइफ खत्म हो जाने से अमिता के लिये सबकुछ बदल गया है।
स्वाती गोगोइ अपनी रोज़मर्रा की दिनचर्या मसलन सुबह उठना, कॉलेज़ जाना, परिक्षाओं की तैयारी के लिए रातभर जगना और कॉलेज़ के दोस्तों को मिस कर रही है। उसे अहसास हो रहा है कि ये सब अनमोल था। कुछ और न सही दोस्तों की उतरी हुई शक्लें देखने में ही मज़ा आ जाता था। स्वाती अब उन कामों में भी कमतर महसूस कर रही हैं जो उसकी पहचान से जुड़े थे। लगातार कमतर होने का अहसास हो रहा है।
स्वाती की ही तरह काफी लड़कियों ने कहा कि वो कमतर महसूस कर रही हैं, कांफिडेंस कम हुआ है आदि। गौरतलब है कि लड़कियों ने जो आत्मविश्वास हासिल किया है उसमें सामाजिक जीवन और आवाजाही का बड़ा हाथ है। मेट्रों से आना-जाना, हॉस्टल पीजी में अकेले रहना, सिनेमा जाना, प्रशासनिक कार्य करवाना, ड्राइविंग करना, रेस्टोरेंट में खाना, दोस्तों के साथ शॉपिंग करना, कैंटिन में मैगी खाना, धरने-प्रदर्शनों में हिस्सेदारी करना आदि ने लड़कियों के कांफिडेंस को बहाल करने में बड़ी भूमिका अदा की थी। लड़कियों की घर वापसी का उनके कांफिडेंस पर असर पड़ना समझ में आने वाली बात है। घर की चारदीवारी ने लड़कियों के व्यक्तित्व के साथ सदियों तक क्या किया है वो किसी से छिपा नहीं है। अब फिर से लड़कियां महामारी की वजह से घरों में बंद हो रही हैं।
तान्या गुप्ता को कोविड से पहले ज़िंदगी एक फास्ट ट्रेन की तरह लगती थी जिसमें छोटे-छोटे स्टेशन नोटिस ही नहीं हो रहे थे और ऐसे गुजर रहे थे जैसे उनका कोई आस्तित्व ही न हो। अब तान्या को लगता है जैसे ज़िंदगी की ट्रेन किसी छोटे से स्टेशन पर आकर अटक गई है। वो छोटी-छोटी चीज़े जो कभी अहमियत नहीं रखती थी आज वो तान्या की मुख्य कार्यसूचि का हिस्सा हैं। जिन छोटी-छोटी चीज़ों को वो पहले नज़रअंदाज़ कर देती थी आज उसकी “बकेट लिस्ट” का हिस्सा हैं।
मुस्कान मेहुल को लगता है कि कॉलेज़ लाइफ जिसे ज़िंदगी का एक सुनहरा दौर कहा जाता है बस कमरे की चारदिवारी में सिमट कर बीत जाएगा। लगता है कमरे से आसमान तकते सालों गुजर रहे हैं। उन लोगों से मिले तकरीबन दो साल हो गये जिन्हें कुछ सप्ताह बाद मिलने का वायदा किया था।
मृदुला वर्मा पर ये साल कहर बनकर आए। कोरोना ने मृदुला से उसके पिता को छीन लिया। मृदुला का कहना है “कोरोना के दौरान मैंने अपने पिता को खोया। इससे बुरा कोई क्या ही उम्मीद कर सकता है। पिता के न होने से जीवन संघर्ष से भर चुका है। मेरे जीवन का ऐसा समय चल रहा है जिसके बारे में कोई सोच भी नहीं सकता है।” मृदुला टूटा हुआ महसूस करती है और कहती हैं “अब चाहे कोरोना रहे या ना रहे, जिसे रहना चाहिये था वो नहीं रहे।” गौरतलब है कि मृदुला मात्र अकेली नहीं है, बल्कि इस दौरान बहुत सी छात्राओं ने अपने प्रियजनों को खोया होगा।
सोनम का कहना है कि “ज़िंदगी रुक सी गई है और मानसिक स्वास्थ्य पर प्रभाव डालने लगी है। डर, चिंता, अकेलापन घेर रहा है। एक कमरे में बंद भविष्य के बारे में सोचकर मानसिक दिक्कतें बढ़ रही हैं।” मानसिक परेशानियों से जूझ रही सोनम पहाड़ों में निकल जाना चाहती हैं जहां गये उन्हें एक अरसा हो गया है।
आनंदिता बिष्ट जवानी में बुजुर्गों की तरह दार्शनिक बातें कर रही हैं “इस मिट्टी से बने हैं और इस मिट्टी में ही मिल जाना है।” आनंदिता कहती हैं “समय रेत की तरह मुठ्ठी से फिसलता जा रहा है। जिन दोस्तों के साथ सुख-दुख सांझा करके मन हल्का हो जाता था अब उन दोस्तों से मिलना भी संभव हो पाएगा नहीं लग रहा।”
ख्याति शर्मा खुद के बारे में बताती हैं “कोरोना से पहले शायद मैं खुद को जानती थी, पहचानती थी। लगता था खुद से जुड़ी हुई थी। बाहर घूमना, दोस्तों से मिलना, बातचीत करना अच्छा लगता था। मैं एक सोशल पर्सन थी। अब लगता है खुद से बिछड़ गई हूं। दिन, रात, शाम, सवेरा किसी चीज का होश ही नहीं है।”
गौरतलब है कि लड़कियां तनाव और मानसिक परेशानियों से गुजर रही हैं। एक तरफ आत्मविश्वास में कमी और कमतर महसूस कर रही हैं तो दूसरी तरफ सामाजीकरण से दुराव महसूस कर रही हैं। घरों में लॉकडाउन के दौरान बढ़ी हिंसा ने हालात और चिंताजनक किये हैं। साथ ही ये तथ्य भी याद रखना चाहिये कि लड़कियों के खिलाफ होने वाले यौन अपराधों में ज्यादातर वो लोग संलिप्त होते हैं जो उनके करीबी हैं।
हमारे साथ बात करने वाली सभी लड़कियों ने महामारी को पूरी मानवता पर संकट की तरह देखा है जिसमें वे खुद भी शामिल हैं। उन्होंने खुद के अनुभव बताते हुए अन्य लोगों और तबकों के अनुभव और दुख-तकलीफों को भी रेखांकित किया। उन्होंने ये उम्मीद जाहिर की है कि ये दुख भरी रात कट जाएगी।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं ट्रेनर हैं। वे सरकारी योजनाओं से संबंधित दावों और वायरल संदेशों की पड़ताल भी करते हैं।)
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