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देश-दुनिया: बर्बरता की खाई में छलांग

विश्व मेहनतकश समूह, जो पहले ही वैश्विक रूप से एकजुट अंतर्राष्ट्रीय पूंजी का शिकार बना हुआ था, उसे अब बेरोज़गारी के जरिए और भी पीटा जा रहा है और यह नयी व्यवस्था के ख़िलाफ़ ख़तरे को और भी गंभीर बना देता है।
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प्रतीकात्मक तस्वीर। PTI

रोजा लक्जमबर्ग ने 1915 में जेल से लिखे गए अपने द जूनियस पेंफलेट में कहा था कि मानवता के सामने एक ही विकल्प है--बर्बरता या समाजवाद। उदारपंथी मत के लोग इससे असहमत होंगे। वे यह दलील देंगे कि जिस बर्बरता से दो विश्व युद्धों की और उनके बीच के दौर की पहचान होती है, उसका पूंजीवाद से कुछ लेना-देना ही नहीं था। वे यह दावा करेंगे कि इसके विपरीत, पूंजीवाद के अंतर्गत जो उदारपंथी प्रवृत्ति उभरकर सामने आती है, उसने तो उस दौर की बर्बरता के खिलाफ संघर्ष किया था। वे यह दावा करेंगे कि पूंजीवाद की पहचान तो एक अभूतपूर्व हद तक मानवीय मूल्यों के उभार से होती है, जिसका सबूत युद्धोत्तर वर्षों ने दिया है।

पूंजीवाद का साम्राज्यवादी रूप और असीम बर्बरता

बहरहाल, पूंजीवाद के अंतर्गत मानवीय मूल्यों के उभर कर सामने आने की बातें करना, साम्राज्यवाद की परिघटना को ही पूरी तरह से अनदेखा करना है। ब्रिटिश राज में भारत को अकाल के दौर में झोंके जाने की बात सभी जानते हैं। इस राज की शुरुआत 1770 में बंगाल में अकाल से हुई थी, जिसमें इस राज की राजस्व उगाही के लुटेरेपन के चलते, एक करोड़ लोग मारे गए थे यानी इस प्रांत की कुल आबादी के तिहाई हिस्से के बराबर। इस राज के अंतिम छोर पर, 1943 में बंगाल में एक और अकाल पड़ा था, जो इस सरकार द्वारा अपनायी गयी बहुत ही क्रूर युद्ध-वित्त पोषण नीति का नतीजा था। इस बार भी अकाल में कम से कम 30 लाख लोग मारे गए थे। वर्तमान नामीबिया में जर्मन शासन ने मौत के शिविरों की शुरुआत की थी, जिन्होंने बड़ी संख्या में आदिवासी आबादी का सफाया किया था। इन्हीं शिविरों ने उन्नीस सौ तीस के दशक के हिटलर के यातना-सह मृत्यु शिविरों के लिए ‘‘मॉडल’’ का काम किया था। कांगो में, लियोपॉल्ड के शासन में बेल्जियम के अत्याचार, जिनमें इंसानों के अंग-भंग पर जोर था, इतने जघन्य तथा कुख्यात थे कि उनकी याद दिलाए जाने की जरूरत नहीं है। और दुनिया के सम-शीतोष्ण क्षेत्रों में यूरोपीय सैटलर उपनिवेशवाद ने बड़े पैमाने पर स्थानीय आबादियों का सफाया किया था, फिर भी जो बचे रहे थे उन्हें रिजर्वेशन्स में हांक दिया था और उनकी जमीनों तथा बसाहटों को छीन लिया था। हम अंतहीन तरीके से इन क्रूरताओं की सूची प्रस्तुत करते रह सकते हैं। महत्वपूर्ण यह है कि इन क्रूरताओं के पीछे मकसद, शुद्ध भौतिक फायदा था, और यह तो पूंजीवाद की पहचान कराने वाली विशेषता ही है।

बेशक, यह कहा जा सकता है कि लूट-पाट के मकसद से युद्ध और विजयों का सिलसिला तो और पीछे तक जाता है, पूंजीवाद के अस्तित्व में आने से भी बहुत पहले तक। तब इस सब में पूंजीवाद को क्यों घसीटा जाए? इसका जवाब द्विस्तरीय है। पहली बात तो यह कि इसका मतलब यह हुआ कि पूंजीवाद के मानवीय मूल्यों को आगे बढ़ाने की सारी बतकही, सिर्फ अतिरंजना का मामला है। ज्यादा से ज्यादा हम पूंजीवाद के संबंध में यही कह सकते हैं कि वह, इससे पहले आयी व्यवस्थाओं जैसा ही था, उनसे बुरा नहीं। दूसरे, पहले के दौरों की लूट-पाट, पूंजीवाद के अंतर्गत जो कुछ होता है, उससे बहुत ही भिन्न थी। पहले की लूटों में फिर भी, लुटने वालों के लिए कुछ न कुछ बचा रह जाता था या उन्हें इस लूट से हुए अपने नुकसान की भरपाई करने की कुछ मोहलत मिल जाती थी, हालांकि इसके बाद फिर से उन्हें लूट का निशाना बनाया जा सकता था। लेकिन, पूंजीवाद के अंतर्गत तो उत्पीडि़तों को स्थायी रूप से ही हड़प कर लिया जाता है।

युद्धोत्तर दौर के विभ्रम चूर-चूर हुए

पूंजीवाद ने युद्धोत्तर दौर में अपने बारे में एक ऐसी मानवीय शक्ति की छवि पेश की थी, जो सभी बर्बर प्रवृत्तियों से लड़ती है। खासतौर पर हॉलीवुड की फिल्मों का सहारा लेकर, उसने यह छवि बनाने की कोशिश की थी कि दूसरा विश्व युद्ध, मूलत: पश्चिमी उदारवादी जनतंत्र और फासीवाद के बीच का युद्ध था और इस युद्ध में सोवियत संघ की भूमिका घटाकर दिखाई गई। इसका नतीजा यह हुआ कि युद्ध के बाद दुनिया भर में, जिसमें पश्चिम भी शामिल था, सोवियत संघ के प्रति जो जबर्दस्त हमदर्दी मौजूद थी, उसे विकसित पूंजीवादी देशों की जनता के बीच व्यवस्थित तरीके से कमजोर किया गया। इन लोगों के बीच यह छवि बनायी गयी कि वे एक ऐसी मानवीय व्यवस्था में रह रहे थे, जिसके जैसी व्यवस्था पहले तो कभी हुई ही नहीं थी। रोजा लक्जमबर्ग की उक्त टिप्पणी को इस तरह के पेश किया गया, जैसे उसकी कोई प्रासंगिकता ही नहीं हो। और यह दूसरे विश्व युद्ध के बाद के दौर की पहचान करने वाले वियतनाम के तथा अन्य युद्धों के बावजूद किया जा रहा था, फिर दुनिया भर में सीआइए की करतूतों का तो कहना ही क्या, जो इस दौर में दुनिया भर में सत्ता परिवर्तन कराता और आतंकी करतूतों को अंजाम देता फिरता था।

बहरहाल, पूंजीवाद के एक मानवीय शक्ति होने का यह भ्रम अब टूट चुका है। पूंजीवाद की बर्बरता आज जैसे स्वत:स्पष्ट है, इससे पहले कभी नहीं थी। और इसका सबसे हृदय विदारक और सबसे अविश्वनीय रूप से क्रूर उदाहरण है फिलिस्तीनियों का नरसंहार, जो आज तमाम विकसित देशों के संयुक्त आशीर्वाद से हो रहा है। अब तक कम से कम 28,000 नागरिक मारे जा चुके हैं, जिनमें करीब 70 फीसद हिस्सा महिलाओं और बच्चों का है। वास्तव में, एक लाख से ज्यादा लोग लापता हैं, जिनमें से भी खासी बड़ी संख्या के मर चुके होने का अनुमान है और इस तरह मरने वालों का वास्तविक आंकड़ा 28,000 से बहुत ज्यादा हो जाता है। अधिकांश आबादी को बमबारी कर के अपने घरों को छोडऩे के लिए मजबूर कर दिया गया है और राहत की गतिविधियों तक को क्षति पहुंची है क्योंकि पूंजीवादी शक्तियों ने यूएनआरडब्ल्यूए की फंडिंग को निलंबित कर दिया है। संयुक्त राष्ट्र की संस्था, द इकॉनमिक एंड सोशल कमीशन फॉर वैस्ट एशिया ने गज़ा में जो हो रहा है उसे ‘इक्कीसवीं सदी के सबसे ज्यादा खूनी 100 दिन’ करार दिया है। संक्षेप में हम मानवीय सर्वनाश देख रहे हैं और इसे घोर अमानवीय तथा आक्रामक यहूदीवादी निजाम द्वारा बड़ी पूंजीवादी ताकतों के सक्रिय समर्थन से ढहाया जा रहा है।

इस्राइली बर्बरता में तमाम बड़ी पूंजीवादी ताकतें शामिल

यहूदीवादी राज्य की आक्रामकता इतनी नंगईपूर्ण है कि उसने दक्षिण अफ्रीका के विदेश मंत्री को, उसके और उसके परिवार के लिए खतरनाक नतीजों की धमकी तक दे डाली थी क्योंकि दक्षिण अफ्रीका ने इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस में, इस्राइल पर नरसंहार करने का आरोप लगाया था। इस अदालत ने दक्षिण अफ्रीका के आरोपों को सही पाया है और इस्राइल से नरसंहारकारी करतूतों से बाज आने के लिए कहा है, हालांकि वह इस्राइल को गज़ा में अपना युद्ध फौरन बंद करने का आदेश देने की हद तक नहीं गयी। ध्यान खींचने वाली बात यह थी कि फिर भी सभी विकसित पूंजीवादी ताकतों ने इस्राइल का समर्थन किया। अमेरिका ने कानूनी कार्रवाई को ‘औचित्यहीन’ करार दे दिया और फ्रांस तथा जर्मनी ने यह दलील पेश की कि इस्राइल पर नरसंहार का आरोप लगाना तो एक ‘नैतिक दहलीज’ को लांघना है।

ध्यान खींचने वाली बात यह है कि जैसा कि 1915 में था, जब रोजा लक्जमबर्ग ने उक्त पंक्तियां लिखी थीं, उसी तरह आज भी विकसित देशों की बर्बरता में, सोशल डेमोक्रेसी पूरी तरह से शामिल है। जहां दुनिया भर में हर जगह, साधारण लोगों ने बड़ी तथा प्रभावशाली संख्या में, इस्राइली आक्रामकता के खिलाफ प्रदर्शनों में शिरकत की है, पश्चिम का पूरा का पूरा राजनीतिक प्रतिष्ठान , जिसमें धुर दक्षिणपंथ से लेकर सोशल डेमोक्रेसी व ग्रीन्स तक तथा यहां तक कि सोशल डेमोक्रेसी से बाएं बाजू में पडऩे वाला एक संस्तर भी शामिल है (मिसाल के तौर पर जर्मनी में डाइ लिन्के ), साम्राज्यवाद और उसके आश्रित, इस्राइली सैटलर उपनिवेशवाद के पीछे जा खड़े हुए हैं।

यहां फौरन दो सवाल उठते हैं। साम्राज्यवाद के इतने हौसले कैसे हो गए हैं कि उसने अपना बर्बर चेहरा उघाड़ दिया है और इसके बावजूद उघाड़ दिया है कि इस बर्बरता के प्रति विश्व जनमत ने और खासतौर पर विकासशील दुनिया में जनमत ने, बड़ी हिकारत का प्रदर्शन किया है? और साम्राज्यवाद अचानक इतना बदहवास क्यों हो गया है कि उसे अपनी बर्बर प्रकृति का प्रदर्शन करने की जरूरत पड़ गयी है।

इस सवाल का जवाब अन्य चीजों के अलावा सोवियत संघ और आम तौर पर समाजवाद की चुनौती के पराभव में छुपा हुआ है। जब तक सोवियत संघ कायम था, कम से कम दूसरे विश्व युद्ध के बाद के वर्षों में उसने, विकासशील दुनिया के प्रति साम्राज्यवाद की बर्बरता के खिलाफ एक अंकुश लगाने वाले प्रभाव का काम किया था। दूसरे शब्दों में समाजवाद के डर ने साम्राज्यवाद की बर्बरता पर अंकुश लगाया था और इस तरह से एक अर्थ में परोक्ष रूप से रोजा लक्जमबर्ग के उक्त दावे (एक ही विकल्प है--समाजवाद या बर्बरता) की ही पुष्टि की थी। बहरहाल, वह अंकुश अब खत्म हो गया है।

साम्राज्यवाद का नया संकट और उसकी नंगी बर्बरता

दूसरे सवाल का जवाब इस तथ्य में छुपा हुआ है कि जो सामराजी व्यवस्था पहले अस्थिर हो गयी थी और जिसे निरुपनिवेशीकरण तथा तीसरी दुनिया में नियंत्रणात्मक व्यवस्था के सामने झुकना पड़ा था, उसने आगे चलकर नवउदारवादी व्यवस्था के थोपे जाने के जरिए खुद को पुनर्संगठित कर लिया। बहरहाल, अब एक बार फिर उसके लिए घातक खतरा पैदा हो गया है। और पहले की व्यवस्था तथा वर्तमान व्यवस्था में एक महत्वपूर्ण अंतर है, वह यह कि जहां दूसरे विश्व युद्ध से पहले की सामराजी व्यवस्था की पहचान साम्राज्यवादी ताकतों की आपसी होड़ से होती थी, वर्तमान सामराजी व्यवस्था की पहचान उन प्रतिद्वंद्विताओं के शमन से और सामराजी ताकतों के बीच अभूतपूर्व एकता से होती है क्योंकि उसकी बागडोर अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के हाथों में है, जो नहीं चाहती है कि दुनिया में विभाजन हो। इसलिए, वर्तमान सामराजी व्यवस्था ने दुनिया भर के मेहनतकशों का सामना करने के लिए वैश्विक पूंजी को एकजुट कर दिया है और इसमें वे सिर्फ विकसित पूंजीवादी देशों के मजदूरों का का ही सामना नहीं कर रहे हैं बल्कि विकासशील दुनिया में मजदूरों तथा किसानों का भी सामना कर रहे हैं, जो सभी इस नयी सामराजी व्यवस्था के शिकार हैं।

विश्व के मेहनतकशों के उसके इस तरह शिकार बनाने ने ही, इस सामराजी व्यवस्था के लिए एक संकट पैदा कर दिया है क्योंकि इसने विश्व अर्थव्यवस्था में उपभोग को दबाए रखा है और इस तरह बाजारों की वृद्धि पर अंकुश लगाया है और अधि-उत्पादन का संकट पैदा कर दिया है। खुद नवउदारवादी निजाम के दायरे में इस संकट का कोई समाधान है ही नहीं क्योंकि राज्य का सक्रिय भूमिका संभालना (मिसाल के तौर पर राज्य के खर्च में राजकोषीय घाटे से वित्त पोषित बढ़ोतरी किया जाना) नवउदारवाद के लिए के लिए जो जैसे अभिशाप ही है। इसका मतलब यह है कि विश्व मेहनतकश समूह, जो पहले ही वैश्विक रूप से एकजुट अंतर्राष्ट्रीय पूंजी का शिकार बना हुआ था, उसे अब बेरोजगारी के जरिए और भी पीटा जा रहा है और यह नयी व्यवस्था के खिलाफ खतरे को और भी गंभीर बना देता है।

इसी संकट ने अनेक देशों में फासीवादी निजाम पैदा किए हैं। लेकिन, वह बहुत ही ज्यादा दमनकारी वैश्विक व्यवस्था भी पैदा कर रहा है, जहां देश में तथा देश के बाहर भी, दोनों ही जगह मेहनतकशों को दबाने के लिए, फासीवादी तथा गैर-फासीवादी, सभी पूंजीवादी ताकतें एकजुट हो गयी हैं। इस दमन में किसी नैतिकता की कोई गुंजाइश ही नहीं बची है। बर्बरता का खुलकर प्रदर्शन किया जा रहा है और पूंजीवादी ताकतें इस बर्बरता की हिमायत में एकजुट हैं, उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि आखिर कौन सी ताकत है, जो यह बर्बरता बरपा कर रही है।

(लेखक प्रसिद्ध अर्थशास्त्री हैं।)

मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित ख़बर को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:

Capitalism’s Barbarity is on the Rise

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