दांडी मार्च और वेब मिलर : एक विदेशी युद्ध संवाददाता जिसने दिखाई दुनिया को अहिंसा की ताकत
आज जब भारत के किसान आंदोलन को कवर करने और उस पर टिप्पणी करने के बारे में देशी और विदेशी का भेद और विवाद खड़ा किया जा रहा है, तब यह याद दिलाना जरूरी है कि किस तरह एक विदेशी संवाददाता ने महात्मा गांधी के नमक सत्याग्रह को पूरी दुनिया के फलक पर प्रस्तुत करके भारत की आजादी की लड़ाई को नैतिक सम्मान दिलाया। इस संवाददाता का नाम था वेब मिलर जो अमेरिका का मशहूर युद्ध संवाददाता था।
वेब मिलर का स्मरण आज इसलिए भी जरूरी है कि भारत सरकार आजादी के अमृत महोत्सव की तैयारी में 12 मार्च को दांडी मार्च के 91 साल पूरे होने पर उसके स्मरण में कई कार्यक्रम शुरू कर रही है। ऐसे मौके पर उस व्यक्ति का नाम याद करना जरूरी है जिसने उस आंदोलन में प्रकट हुई भारतीयों की अहिंसक शक्ति और अंग्रेजों की अनैतिक और पाशविक शक्ति का अंतर पूरी दुनिया को स्पष्ट किया।
यह वेब मिलर की कवरेज का ही कमाल था कि दुनिया के तमाम राष्ट्राध्यक्षों और राजनेताओं की राय अंग्रेजी साम्राज्य के बारे में बदलने लगी और भारत की आजादी के प्रति उनके मन में सहानुभूति उत्पन्न होने लगी।
जिसने भी 1982 में आई रिचर्ड एटनबरो की गांधी फिल्म देखी है, उसे उस फिल्म में दिखाए गए विन्स वाकर नामक संवाददाता का चरित्र याद है। उस संवादादाता ने बंबई के बाहर स्थित धरसाड़ा के नमक कारखाने के बाहर सरोजिनी नायडू के नेतृत्व में हुए नमक सत्याग्रह की रिपोर्टिंग की थी। फिल्म में खबर भेजते समय वह फोन पर कहता भी है कि अंग्रेजी राज का संयम टूट गया है, लेकिन उनका संयम बना हुआ है।
फिल्म में उस भयानक दृश्य को बेहद मार्मिक ढंग से फिल्माया गया है। वह सारा दृश्य दरअसल वेब मिलर की रिपोर्ट पर ही आधारित है। बाद में थामस वेबर ने 1997 में आन द साल्ट मार्च नामक चर्चित पुस्तक लिखी उसमें भी वेब मिलर की रपटों का ही हवाला है। दरअसल नमक सत्याग्रह के दौरान ब्रिटिश साम्राज्य की क्रूरता का अध्ययन तब तक नहीं किया जा सकता, जब तक वेब मिलर की रपट न देखी जाए।
गांधी के दांडी मार्च के दौरान कई देशी विदेशी संवाददाता थे लेकिन धरसाड़ा सत्याग्रह का जो जीवंत वर्णन वेब मिलर ने किया है, वह कोई और शायद ही कर पाएगा। वजह यह भी है कि उस समय वे वहां मौजूद अकेले विदेशी संवाददाता थे। अन्याय और अत्याचार को उजागर करने में और सत्य को दुनिया की आंखों में उंगली डालकर दिखाने में विदेशी संवाददाताओं का क्या योगदान होता है यह अगर समझना हो भारत की आजादी की लड़ाई को कवर करने आए लुई फिशर, वेब मिलर, विलियम शरर, विन्सेंट सीन और मारग्रेट बर्क ह्वाइट जैसे संवाददाताओँ के कामों को समझना बहुत जरूरी है।
वेब मिलर ऐसे अमेरिकी युद्ध संवाददाता थे, जिनके काम का दुनिया भर के पत्रकार लोहा मानते थे। वे यूनाइटेड प्रेस के संवाददाता थे। उन्होंने महज 49 साल की उम्र में अमेरिकी सेना का पंचो विला अभियान, प्रथम विश्व युद्ध, स्पेन का गृह युद्ध, इथियोपिया पर इटली का हमला, रूस-फ्रांस युद्ध की रिपोर्टिंग की। उन्होंने हिटलर और मुसोलिनी का इंटरव्यू लिया और एक बार अगवा भी किए गए।
लेकिन जब उन्हें भारत में चल रहे नमक सत्याग्रह की रिपोर्टिंग के लिए कहा गया तो सिर्फ एक दिन का समय लेकर तैयार हो गए। वे 16,000 मील की यात्रा करके 15 दिन में भारत पहुंचे। इस बीच फारस की खाड़ी के ऊपर उड़ते हुए उनका विमान इतना गर्म हो गया कि उसके काकपिट में धुंआ भरने लगा। विमान की इमरजेंसी लैंडिंग हुई। लेकिन किसी तरह बचते बचाते वे भारत पहुंच ही गए। भारत में भी उनकी खबर को बाहर भेजे जाने में तमाम बाधाएं डाली गईं लेकिन आखिर कर वे लड़े और खबर बाहर गई और उसने पूरी दुनिया में तहलका मचाया।
वेब मिलर जब भारत पहुंचे तब तक महात्मा गांधी गिरफ्तार हो चुके थे। क्योंकि गांधी ने धरसाड़ा के नमक डिपो पर धावा बोलने की घोषणा की थी। गांधी को दांडी से पांच मील दूरी पर स्थित कराडी की झोपड़ी से पांच मई की सुबह गिरफ्तार किया गया। वे वहां से वायसराय लार्ड इरविन को पत्र लिखने की तैयारी कर रहे थे। गांधी की गिरफ्तारी की खबर से वेब मिलर बहुत निराश हुए। उन्होंने सोचा कि आंदोलन के जिस नायक को कवर करने आए थे, वह तो गिरफ्तार हो गया अब कैसे खबर बनेगी। लेकिन तभी उनसे एक सत्याग्रही ने बताया कि 21 मई(1930) को बंबई के पास स्थित धरसाड़ा के नमक कारखाने पर सत्याग्रह का कार्यक्रम है। सत्याग्रही रस्से लेकर जाएंगे और कारखाने के बाहर लगे कंटीले तारों को उखाड़ देंगे।
वेब मिलर के लिए यह सुनहरा अवसर था और उन्होंने अपनी रिपोर्टिंग से उसे विश्व इतिहास का एक अध्याय बना दिया। विलियम शरर लिखते हैं कि हालांकि वेब मिलर रिपोर्टिंग के समय अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखे हुए थे लेकिन उनकी खबरों ने पूरी दुनिया को झकझोर दिया।
धरसाड़ा सत्याग्रह की रिपोर्टिंग करते हुए मिलर ने लिखा " मैने 18 सालों में 22 देशों में रिपोर्टिंग की है। इस दौरान मैंने तमाम जनविद्रोह, दंगे और सैन्य विद्रोह देखे लेकिन ऐसे भयानक दृश्य मैंने कभी नहीं देखे जो यहां देखा। पश्चिमी दिमाग जो कि हिंसा के बदले हिंसा देखने का अभ्यस्त है, उसके लिए यह सब चौंकाने वाली घटना थी। वह सब देखकर मेरी भावनाओं को लग रहा था जैसे कोई बेजुबान जानवरों को पीट रहा हो। मैं आधा क्रोध और आधे अपमान से भर गया। कभी कभी तो दृश्य इतना दर्दनाक था कि मेरे भीतर उसे देखने का साहस नहीं बचा और मैंने मुंह फेर लिया।’’
उस घटना का वर्णन करते हुए मिलर ने 21 मई 1930 के अपने डिस्पैच में लिखा है कि सरोजिनी नायडू भाषण दे रही थीं और 2500 लोगों को नमक के डिपो पर धावा बोलने के लिए प्रेरित कर रही थीं। वे कह रही थीं कि गांधी का शरीर जेल में है लेकिन उनकी आत्मा हमारे साथ है। प्रदर्शनकारी आधा मील चल कर आए थे। थोड़ी दूर पर प्राथमिक चिकित्सा के लिए कैंप लगा हुआ था। सामने 400 पुलिस वाले लाठी लिए तैयार थे और उनके अलावा 25 राइफल धारी पुलिस वाले भी थे।
जब आंदोलनकारियों का एक जत्था रस्सी और कटर लेकर आगे बढ़ा तो पुलिस वालों ने लोहबंद वाली लाठियों से मारकर उनके सिर फोड़ दिए। लेकिन किसी ने हाथ नहीं उठाया। स्वयं सेवक स्ट्रेचर लेकर आए और घायलों को लिटा कर ले गए। स्ट्रेचर पर बिछे कंबल उनके खून से लथपथ हो रहे थे। इस तरह कई जत्थे घायल हुए और उन्हें उठाकर चिकित्सा शिविरों में ले जाकर मरहम पट्टी की गई। लेकिन पुलिस की लाठियां खाकर जमीन पर गिरने वाले लोग न तो चीख रहे थे और न ही अपना बचाव करने की कोशिश कर रहे थे। उनमें ज्यादातर गुजरात के कालेज के विद्यार्थी और क्लार्क थे। वे अंग्रेजी बोल रहे थे। मुझसे भी उन्होंने अंग्रेजी में बात की। धरसाड़ा में मैं अकेला विदेशी संवाददाता था। लेकिन मुझे अपनी गाड़ी में ले जाने के लिए कोई स्थानीय ड्राइवर तैयार नहीं हुआ। क्योंकि मैंने विदेशी कपड़े पहने थे और भारत में विदेशी कपड़ों के बायकाट का आंदोलन चल रहा था।’’
मिलर ने इस तरह 2000 शब्दों की स्टोरी बनाई। उसे अमेरिका टेलीग्राम करने के लिए दिया। लेकिन उनके पास एक छोटे से कागज पर पेंसिल से लिखी एक अज्ञात व्यक्ति की परची आई कि वह स्टोरी टेलीग्राम नहीं की गई। वेब मिलर इस रुकावट से नाराज हुए और वे दफ्तर गए। वहां उन्होंने कहा कि यह खबर गांधी के विद्रोह की सबसे बड़ी खबर है। मैं इसे पूरी दुनिया में अच्छी तरह बताऊंगा भले ही मेरे फिर भारत आने पर रोक लगा दी जाए। आखिरकार उनकी रिपोर्ट गई और दुनिया के एक हजार अखबारों में छपी। उस रिपोर्ट को अमेरिकी कांग्रेस में भी पढ़ा गया। उसे अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने भी कवर किया।
उसे पढ़कर भारत की आजादी और महात्मा गांधी के जबरदस्त विरोधी अनुदार नेता विन्सटन चर्चिल ने कहा," नमक सत्याग्रह ने(हमारे राज के विरुद्ध) इतनी अवमानना और अवज्ञा उत्पन्न की है, जितनी एशिया की धरती पर कदम रखने के बाद हमने कभी नहीं महसूस की।
मिलर की रिपोर्ट पढ़कर दुनिया के राजनेताओं और बौद्धिकों ने यह महसूस किया कि जो अंग्रेजी साम्राज्य अपने को सभ्य बताता है वह कितना क्रूर और असभ्य है। इस तरह भारत की आजादी की लड़ाई का पूरी दुनिया में नैतिक परचम लहरा गया। गांधी विश्व स्तर के नेता बन गए और नमक सत्याग्रह से ही प्रेरित होकर अमेरिका के काले लोगों के नेता मार्टिन लूथर किंग ने भी अपने आंदोलन की योजना बनाई।
वेब मिलर का निधन 1940 में हो गया लेकिन एक निर्भीक संवाददाता ने अपनी खबर से दुनिया को बता दिया कि भारत की आजादी की लड़ाई का क्या मतलब है। ऐसे में जब हम भारत की आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं तो क्या पत्रकारिता के स्तर पर देशी और विदेशी का विभाजन करना उचित है?
जब भी हम इस तरह का विभेद करते हैं तो न सिर्फ पत्रकारिता की उस महान परंपरा को नकारते हैं जो हमारी आजादी के साथ खड़ी थी बल्कि इस दौर में भी सत्य को देखे और दिखाए जाने की संभावना को अवरुद्ध करते हैं। वेब मिलर की मृत्यु 1940 में 49 साल की उम्र में हो गई। उन्हें अपनी श्रेष्ठ पत्रकारिता के लिए पुलित्जर पुरस्कार भी मिला। क्या आज भारत उनका स्मरण करके उन्हें सम्मानित करेगा?
(लेखक वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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