विमर्श : रंगकर्म के नाम पर जारी “रंगबिरंगे कर्म”
हाल के समयों में जैसे देश की राजनीति से लेकर सामाजिक जीवन में कई तरह की “विडंबनायें” इस क़दर “काबिज़” हुई हैं कि कोई भी क्षेत्र उसके क़हर से अछूता नहीं रहा गया है। जाहिर है कला-संस्कृति और रंगकर्म के क्षेत्र में भी उसका प्रत्यक्ष “मनोवैज्ञानिक-भौतिक नियंत्रण” साफ़ नज़र आता है।
लेकिन उपरोक्त आलेख के शीर्षक में वर्णित “शब्द-विशेष” की फ़िलहाल चर्चा नहीं हो पाती, यदि देश के लोकप्रिय नाटककार हबीब तनवीर जी के जन्मशती-वर्ष को देश की “स्थापित नाट्य धारा” ने सायास खामोशी से नहीं गुजर जाने दिया होता। जो इस ओर भी साफ़ तौर से इशारा कर रहा है कि आनेवाले दिनों में ‘नाट्यकर्म और रंगमंचीय दुनिया’ की “दशा-दिशा” कैसी होनी है! यानी अब रंगकर्म कि जगह “रंगबिरंगे कर्म” की ही चलती होनी है।
इसपर पटना में आयोजित ‘हबीब तनवीर होने का मतलब’ नाट्य विमर्श आयोजन में काफी गंभीर चर्चा हुई।
हिंदी-रंगमंच के चर्चित नाट्य केंद्र ‘पटना रंगमंच’ की अपनी विशिष्ट पहचान रही है। समय समय पर यहाँ कई तरह के उतार-चढ़ाव आते-जाते रहे हैं लेकिन हाल के समयों में यहाँ का पूरा रंग परिदृश्य ही अजीबो-गरीब सा बना दिया गया। जिसमें नाटक तो हो ही रहे हैं, लेकिन अब यहाँ रंगकर्म के नाम पर “रंगबिरंगे कर्म” का बोलबाला सा होता जा रहा है। जिसके लिए “दिल्ली रिटर्न” कुछेक एनएसडी प्रशिक्षित नाट्य-आईएएस मार्का “रंग-महारथियों” इत्यादि ने ऐसा “नया नाट्य कला-दर्शन” फैलाने की संस्थाबद्ध मुहिम चला रखी है कि “नवसिखुवा रंगकर्मी” भी चढ़कर बोलता है कि- “नाटक करने से हमको कितना पैसा मिलेगा?”
अभी का ताज़ा “नाट्य जुगाड़ फंडा” है कि केन्द्र सरकार की कला-संस्कृति मंत्रालय की अनुदान-अनुकम्पा से “पल-चल” रही नाट्य संस्थायें और उनके रंगकर्मियों द्वारा ख़ुशी ख़ुशी “तिरंगा फहराओ, सेल्फी लगाओ” का “रंगबिरंगे कर्म” किया गया।
देश के प्रख्यात नाटककार हबीब तनवीर जी का पटना के रंग-जगत से गहरा रिश्ता रहा है। यहाँ की कई नाट्य संस्थाओं ने उनके लिखे नाटकों का खूब मंचन किया है। वहीं खुद हबीब तनवीर जी कई बार अपनी नाट्य मंडली लेकर यहाँ आते रहे और ‘चरनदास चोर’ से लेकर कई चर्चित नाटकों का भव्य मंचन किया। यहाँ के रंगकर्मियों के साथ अपने नाट्य अनुभवों को साझा करते हुए आत्मीय प्रशिक्षण देने का भी कार्य किया।
लेकिन बीते 1 सितम्बर को हबीब तनवीर जी की ‘जन्मशतवार्षिकी’ दिवस चुपचाप गुजर जाना, पटना रंगमंच के लिए एक दुर्भाग्य जैसा ही कहा जाएगा। जबकि इनदिनों एक से बढ़कर एक धुरंधर नाट्य संस्थाएं और नाट्य महारथी गण साक्षात् उपस्थित हैं। लेकिन किसी ने हबीब तनवीर जी के जन्मशती वर्ष पर एक छोटा सा भी आयोजन करने की ज़रूरत नहीं समझी।
प्रलेस की पटना इकाई और अभियान रंग-संस्था द्वारा आयोजित ‘हबीब तनवीर होने का मतलब’ रंग-परिचर्चा ने पटना रंगमंच को शर्मसार होने से बचा लिया।
8 सितम्बर को ‘प्रेमचन्द रंगशाला’ परिसर में आयोजित इस रंग-परिचर्चा में कई वरिष्ठ जन नाट्यकर्मियों एवं वरिष्ठ कवि-साहित्यकारों के अलावे सुधि नाट्य प्रेमियों ने अपनी सक्रिय भागीदारी निभायी।
विमर्श कार्यक्रम में हबीब तनवीर जी की नाट्य विशेषताओं को रेखांकित करते हुए मौजूदा समय की नाट्य-चुनौतियों विशेषकर रंगकर्म के नाम पर जारी “रंगबिरंगे कर्म” की विशेष चर्चा हुई।
अध्यक्षता करते हुए चर्चित वरिष्ठ कवि आलोक धन्वा ने हबीब तनवीर को याद करते हुए कहा कि- उनके जैसे रंगकर्मी सदियों में आते हैं। उनका प्रसिद्ध नाटक ‘जिन्या लाहौर नहीं देख्या’ देखकर मैं फूट-फूटकर रोया था। उन्होंने रांघेय राघव की कृतियों का प्रभावपूर्ण मंचन किया। पटना शहर में भी इतना कुछ किया गया है कि उन सब चीजों को याद करना चाहिए। इन दिनों जो भी अभी भारत में हो रहा है वह भी स्थायी नहीं है।
वरिष्ठ नाटककार कुणाल ने कहा कि- भारतीय रंगमंच नाम का कोई रंगमंच नहीं है। छोटे-छोटे गाँव और कस्बों का रंगमंच है। जिसमें सबने मिलकर रंगमंच की बड़ी फुलवारी बनायी है। हबीब तनवीर ने इसी बात को समझा था। लोक के नाम पर बहुत किस्म का “अलोक” करके बहुत बड़े रंग-समुदाय को बाहर कर दिया गया है। हबीब तनवीर ने इतने विविध रचनाएं की कि कल्पना भी नहीं की जा सकती। उन्हें जानने का मतलब है अपनी जड़ों को जनना।
जनसंस्कृति कर्मी अनिल अंशुमन ने कहा कि आज जिस प्रेमचन्द रंगशाला के परिसर में हम प्रिय नाटककार हबीब तनवीर जी को याद कर रहें हैं, विगत समय में ‘प्रतिबद्ध रंगकर्म धारा’ की नाट्य संस्थाओं और रंगकर्मियों ने एक लम्बी लड़ाई लड़कर इस रंगशाला को “पुलिस-संस्कृति” के क़ब्ज़े से मुक्त कराया था। विडंबना है कि आज यहाँ “रंगबिरंगे कर्म” वाली नाट्य-धारा का क़ब्ज़ा सा हो गया है।
हबीब तनवीर की जनपक्षीय नाट्य परम्परा को रखांकित करते हुए कहा कि यदि वे आज के समय में नाटक करते होते तो अब तक उनपर भी “देशद्रोह” के तहत यूएपीए की धारा लगा दी जाती। क्योंकि उन्होंने आम जन के सरोकारों से जुड़े आमजन के लिए नाटक किया। नाटक को आम जनता के बीच लोकप्रिय बनाने के लिए लोकजीवन से कला के तत्व हासिल करते हुए हुए उन्हीं के बीच से आला दर्जे के कलाकारों को खड़ा किया। आज लोकतत्वों को नाटक के लिए सस्ता-मसाला के रूप में इस्तेमाल कर लोकनाटक का होलसेलर बना जा रहा है। देश में नाट्य विधा को उत्कृष्ट बनाने के नाम पर स्थापित एनएसडी से अब थियेटर के आईएएस पैदा किये जा रहें हैं जो कलाकारों को सत्ता का चाटुकार और भाड़े पर कलाकर्म करनेवाले ‘बैंड मास्टर” की भूमिका में खड़ा कर रहे हैं। लेकिन हबीब तनवीर सरीखे जनलोकप्रिय नाट्य धारा हर हाल में सक्रीय होकर आगे बढ़ती रहेगी।
एक्टिविस्ट संस्कृतिकर्मी अनीश अंकुर ने हबीब तनवीर के विशद नाट्यकर्म की चर्चा करते हुए कहा कि उनके नाटकों के कलाकार समाज के सबसे दबे कुचले समुदायों से आते थे और यह सबसे बड़ी विशेषता कही जायेगी। इन्हीं कलाकरों से उन्होंने संस्कृत के क्लासिकल नाटककारों- भास्, शूद्रक, भवभूति, विशाखदत्त इत्यादि के प्रसिद्ध नाटकों को सहजता के साथ मंचित किया। साथ ही शेक्सपियर और ब्रेख्त सरीखे विश्व नाटककारों के नाटक भी लोकप्रिय अंदाज़ में किया। उनका एक अहम् योगदान यह भी है कि उन्होंने संस्कृत नाटकों को भी समझने की नयी दृष्टि दी। विश्व के कई देशों का दौरा व वहां से प्रशिक्षण लेते हुए जब ब्रेख्त के पास गए, तब तक ब्रेख्त की मृत्यु हो चुकी थी। लेकिन उन्होंने ब्रेख्त के सभी नाटकों को गंभीरता से देखा और ब्रेख्त के रंगकर्म से गहरे प्रभावित हुए। उन्होंने देखा कि ऐसा ही तो लगभग भारत के लोकनाटकों में भी होता है, बस भारत आकर वे इसी पर अपने केन्द्रित कर लिया, चरनदास चोर नाटक उसी की महान उपलब्धि बनकर उभरा।
बेहद क्षोभ के साथ यह भी बताया कि किस तरह से देश के राज्य सभा का सदस्य और कई बड़े राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित इस महान कलाकार से मध्य प्रदेश की भाजपा सरकार ने उनसे उनका घर तक छीन लिया। नाटक ‘पोंगापंथ’ पर बैन लगा दिया।
कार्यक्रम का संचालन करते हुए युवा रंगकर्मी जयप्रकाश ने कहा की मौजूदा समय में रंगकर्म की वास्तविक गरिमा को फिर से स्थापित करने का एक मात्र रास्ता है, हबीब तनवीर की जन नाट्य परम्परा को फिर से बुलंद करते हुए आज के समय में जनता के बीच नाटक को ले जाना।
कार्यक्रम को रंगकर्मी रमेश सिंह, अरुण शाद्वल व बौद्धिक एक्टिविस्ट अभय पाण्डेय के अलावा कई अन्य संस्कृतिकर्मियों ने भी संबोधित किया।
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