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शिक्षा, रोज़गार, लोकतंत्र: देश की युवा पीढ़ी चौतरफ़ा संकट में

देश की युवा पीढ़ी के सामने आज जो चौतरफ़ा संकट है, उसे समझने के लिए इलाहाबाद एक टेस्ट केस जैसा है।
Allahabad University
इलाहाबाद विश्वविद्यालय। फ़ोटो साभार : IANS

सतह पर कोई बड़ी हलचल न दिखने के बावजूद देश की युवा पीढ़ी आज कितने गहरे संकट में है, यह 20 अक्टूबर के एक प्रतिष्ठित दैनिक समाचार पत्र के ऑनलाइन संस्करण की इस खबर से समझा जा सकता है जिसके अनुसार पिछले 6 महीने में 16 प्रतियोगी छात्रों ने प्रयागराज में खुदकशी की है।

बेरोजगारी के अवसाद का यह हाल उस इलाहाबाद का है जो एक जमाने में उत्तर भारत का शिक्षा और नौकरियों का सबसे बड़ा केंद्र था, जहाँ पहुंच जाना ही तब नौकरी, वह भी अच्छी और सम्मानजनक नौकरी, की गारंटी माना जाता था। आज वहां पर बेरोजगारी का दंश झेलते युवाओं की खुदकशी का यह आंकड़ा संवेदनशील लोगों को भले चौंकाये, पर सरकारों के कान पर इससे जूं भी नहीं रेंगती,  उनके लिए यह कोई मुद्दा ही नहीं है। मुख्यमंत्री जी कह चुके हैं कि UP में नौकरियों की कमी नहीं है, युवाओं में योग्यता की कमी है !

देश की युवा पीढ़ी के सामने आज जो चौतरफा संकट है, उसे समझने के लिए इलाहाबाद एक टेस्ट केस जैसा है।

शिक्षा का हाल वहां यह है कि कभी उत्तर भारत का सर्वप्रमुख शिक्षा केन्द्र रहा इलाहाबाद विश्वविद्यालय लगातार 5वें साल NIRF की रैंकिंग से बाहर है। इस रैंकिंग में वह देश के top 100 संस्थानों में स्थान नहीं बना पाया, यहां तक कि 200 से भी बाहर हो गया है।

विश्वविद्यालय तथा शिक्षा-जगत से जुड़े लोगों के लिए यह जानना बेहद पीड़ादायी है कि NIRF रैंकिंग में 2016 में, जब यह रैंकिंग पहली बार शुरू हुई, इलाहाबाद 68वें स्थान पर था, 2017 में 95वें, 2018 में  गिरकर 144 वें स्थान पर पहुंच गया और 2019 से 2023 तक लगातार 5वें साल में यह 200 रैंक से नीचे  बना हुआ है।

ज्ञातव्य है कि पहले निजी एजेंसियों द्वारा की जाने वाली रैंकिंग के विपरीत 2016 से NIRF रैंकिंग UGC द्वारा की जाती है। यह रैंकिंग मूलतः performance तथा इंफ्रास्ट्रक्चर आदि के आधार पर होती है, जिसमें  छात्रों का नौकरियों के लिए होने वाला प्लेसमेंट, तमाम विभागों से प्रकाशित रिसर्च पेपर, छात्र-शिक्षक अनुपात, बजट का  उपयोग, विश्वविद्यालय के बारे में विशेषज्ञों, पुराने छात्रों के परसेप्शन जैसे तमाम मानक शामिल हैं।

विश्वविद्यालय की इस बदहाली और प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए अनुकूल माहौल के अभाव में छात्र तथा प्रतियोगी परीक्षार्थी दिल्ली की ओर पलायन कर रहे हैं और बेहद कठिन स्थितियों में मुखर्जी नगर, लक्ष्मी नगर जैसे इलाकों में रहते हुए कैरियर की चुनौतियों से जूझ रहे हैं।

आखिर रोजगार के गहराते संकट और शिक्षा की गुणवत्ता में भयावह गिरावट के लिए जिम्मेदार कौन है ? इसका समाधान क्या है ?

ऐसा लगता है कि सरकार और विश्वविद्यालय-प्रशासन के पास इन सारे सवालों का एक ही जवाब है-निरंकुश दमन! वे छात्रों-युवाओं की बेचैनी को law and order की समस्या की तरह treat कर रहे हैं।

प्रशासन की नजर में विश्वविद्यालय के शैक्षिक स्तर में शर्मनाक गिरावट के लिए वे छात्र जिम्मेदार हैं जो अकादमिक बेहतरी के लिए आवाज उठाते हैं, उनके लोकतांत्रिक मंच और उनकी गतिविधियां जिम्मेदार हैं। इसीलिए छात्रों की अभिव्यक्ति का जो सबसे बड़ा मंच था-छात्रसंघ, 2019 में उसे भंग कर दिया गया। तब से निरंकुश ढंग से विश्वविद्यालय का संचालन हो रहा है। छात्रों ने अभूतपूर्व फीस वृद्धि के खिलाफ तथा छात्रसंघ बहाली के लिए जब आवाज उठाई तो उन्हें बर्बर दमन का सामना करना पड़ा। अनेक छात्र आज भी जेल में हैं।

छात्रों की किसी भी लोकतांत्रिक गतिविधि को लेकर प्रशासन के intolerance का आलम यह है कि वहां AISA के प्रदेश उपाध्यक्ष शोध छात्र मनीष कुमार को निलंबित कर दिया गया और उनकी कैम्पस में एंट्री बैन कर दी गई, क्योंकि बकौल प्रॉक्टर  वे "परिसर में छात्रों के बीच घूम घूम कर भ्रम और अराजकता फैलाने वाली तथ्यहीन सूचनाओं से युक्त पर्चा बांट रहे थे"!

इस तरह अब पर्चा बांटने को भी वहां अपराध घोषित कर दिया गया! मनीष के निलंबन के खिलाफ शांतिपूर्ण प्रतिवाद कर रहे  छात्रनेता विवेक कुमार पर प्रॉक्टर द्वारा लाठी से किये गए कथित बर्बर हमले का वायरल वीडियो देख कर लोग स्तब्ध हैं।

शैक्षिक गिरावट के लिए छात्रों को जिम्मेदार ठहराने का प्रशासन का  तर्क खोखला है, क्योंकि अगर छात्रसंघ ही villain था तो उसका चुनाव तो 2017 से बंद हैं, फिर विश्वविद्यालय की रैंकिंग में 2017 के बाद से अकल्पनीय गिरावट क्यों हो रही है-68वें स्थान से गिरकर पिछले 5 साल से वह 200 की लिस्ट से भी बाहर हो गया है !

छात्र राजनीति को सारे संकट का मूल बताने  वालों को याद रखना चाहिए कि academically भी विश्वविद्यालय का स्वर्ण काल तभी रहा है जब परिसर में स्वस्थ लोकतांत्रिक माहौल शिखर पर था-छात्र राजनीति  और छात्रसंघ उसका अभिन्न अंग थे।

उससे कम महत्वपूर्ण यह तथ्य  नहीं है कि स्वतंत्रता-आंदोलन से लेकर लोकतंत्र को बचाने और सामाजिक न्याय तक की लड़ाई में इलाहाबाद विवि, BHU से लेकर पटना विश्वविद्यालय तक की छात्र राजनीति और छात्रसंघों का इतिहास स्वर्णाक्षरों में लिखा है। 

दरअसल, देश के तमाम महत्वपूर्ण विश्वविद्यालयों में छात्रसंघों को सुनियोजित ढंग से खत्म किया गया। JNU में तो छात्रनेताओं के खिलाफ राष्ट्रद्रोह तक का वितण्डा खड़ा किया गया और अंततः हिंसा का सहारा लेकर छात्रसंघ को व्यवहारतः खत्म ही कर दिया गया। BHU में 1997 से और लखनऊ विश्वविद्यालय में 2006 से छात्रसंघ भंग है।

यह साफ है कि छात्रसंघों को खत्म करने के सारे तर्क मूलतः छात्रों की लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति को दबाने का बहाना मात्र हैं।

राजस्थान में कुलपतियों के एक सम्मेलन में तो बाकायदा यह तर्क दिया गया और प्रस्ताव पास किया गया कि नई शिक्षानीति (NEP 2020) को लागू करना है, इसलिए छात्रसंघ भंग होने चाहिए।

नवउदारवादी नीतियों के दौर में होने वाले शैक्षिक बदलावों के अनुरूप पिछले दो-तीन दशकों में सचेत ढंग से campus democracy और academic autonomy को ध्वस्त किया गया। मोदी राज के एक दशक में यह प्रक्रिया अपने चरम पर पहुंच गई। 

संघ-भाजपा के फासीवादी विज़न के अनुरूप शिक्षा-क्षेत्र में गुणात्मक बदलाव किये जा रहे हैं। परिसरों को संघी विचारधारा के अभ्यारण्य में बदला जा रहा है। शिक्षा-व्यवस्था को ध्वस्त किया जा रहा है, अंधाधुंध निजीकरण और फीसवृद्धि द्वारा इसे आम छात्रों की पहुंच से बाहर किया जा रहा है।

जाहिर है छात्रसंघ, छात्रों के प्रगतिशील मंच, छात्रों की तमाम सृजनात्मक लोकतांत्रिक गतिविधियां इसके रास्ते में सबसे बड़ी बाधा हैं। इसलिए इस दौर में ये सब सत्ता और  प्रशासन के निशाने पर हैं।

फासीवाद के गम्भीर अध्येता प्रो. स्टेनली ने फासीवाद की 10 मूलभूत विशेषताओं में "anti-intellectualism" की संस्कृति को बढावा देना और "propaganda" के इस्तेमाल को भी माना है।

परिसर में शिक्षा के अधिकार के लिए लड़ते छात्रों के दमन का ही विस्तार है परिसर के बाहर रोजगार और नौकरियों के लिए लड़ते युवाओं का दमन।

युवा मंच के संयोजक राजेश सचान ने एक बयान में कहा है, "17 सितंबर 2020 के रोजगार आंदोलन में, जिसके दबाव में सरकार को नौकरी में संविदा का प्रस्ताव वापस लेना पड़ा था, हाल में पता चला कि युवा मंच पदाधिकारियों पर संगीन धाराओं में मुकदमा दर्ज कर न्यायालय में चार्जशीट दाखिल की गई है। ...एनटीपीसी आंदोलन में तो पहले से ही गंभीर धाराएं लगी हैं। ...24 फरवरी 2021 को पत्थर गिरजाघर में हुए रोजगार आंदोलन में युवाओं को जेल भेजा गया था। इसमें भी कब तक चार्जशीट दाखिल होगी, धाराएं कैसी लगेंगी, उसका अभी इंतज़ार है।"

आज छात्र-युवाओं पर दमन भले ही स्थानीय और विकेन्द्रित है, पर हमला केंद्रीकृत है और उनके सामने एजेंडा national है। इसलिये सभी छात्र-युवा संगठनों को एक मंच पर आकर विनाशकारी शिक्षा-नीति की वापसी,रोजगार के संवैधानिक अधिकार तथा सभी परिसरों में छात्रसंघ की बहाली को राष्ट्रीय मुद्दा बनाना होगा।

विपक्षी INDIA गठबंधन युवा पीढ़ी के इन मूलभूत सवालों को अपने साझा कार्यक्रम का हिस्सा बनाकर ही 2024 में भाजपा के विरुद्ध उनकी लामबंदी सुनिश्चित कर सकता है।

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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