विशेष: कौन लौटाएगा अब्दुल सुब्हान के आठ साल, कौन लौटाएगा वो पहली सी ज़िंदगी
मेवात में एक गांव का नाम गुमट बिहारी है। गांव के नाम की कहानी बाद में, पहले अब्दुल सुब्हान के बारे में जानते हैं।
गांव में अब्दुल सुब्हान का दो कमरों का एक घर है। घर क्या है! बस सर छिपाने का एक आसरा है। बारिश, धूप, सर्दी से बचने के लिये छत के नाम पर सीमेंट की शैड पड़ी हुई है। मई की चिल-चिलाती धूप में सीमेंट की शैड सूरज की तपिश से इतनी गर्म हो जाती है कि इसके नीचे बैठना मुश्किल हो जाता है। लेकिन यह तपिश भी अब्दुल सुब्हान को सुकून दे रही है, क्योंकि यह घर है, क़ैद खाना नहीं।
अब्दुल सुब्हान वही शख्स हैं जिन्होंने अपनी ज़िंदगी के बेशकीमती आठ साल आतंकवाद के आरोप में दिल्ली की तिहाड़ जेल में बिताए हैं। 10 मई 2022 को वे आतंकवाद के आरोपों से बरी होकर अपने गांव पहुंचे हैं। आठ साल पहले उनकी गिरफ्तारी के वक्त उनके घर के सामने मीडिया चैनल्स का जमावड़ा लगा था, मीडिया ने स्पेशल सेल द्वारा गढ़ी गईं ‘कहानी’ को मिर्च-मसाला लगाकर प्रसारित करके बताया था कि अब्दुल सुब्हान आतंकवादी हैं।
दिल्ली की पटियाला हाउस कोर्ट ने नौ मई को अब्दुल सुब्हान के साथ-साथ मोहम्मद शाहिद, मोहम्मद राशिद, असबुद्दीन, और अरशद खान को आतंकवाद के आरोप से बरी कर दिया। इन पांचों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 120बी और गैर कानूनी गतिविधि (निषेध) अधिनियम UAPA की धारा 18, 18बी और 20 के तहत एफआईआर दर्ज की गई थी।
हरियाणा के मेवात क्षेत्र के शहर नूंह से तक़रीबन 25 किलो मीटर की दूरी पर गुमट बिहारी गांव है। गांव में एक ऐतिहासिक मकबरा है, यह मकबरा किसका है? इस बारे में गांव के लोगों को कोई जानकारी नहीं है। गांव के लोग बस इतना ही बता पाते हैं, कि इस मकबरे की देखरेख करने वाले माली का नाम बिहारी था, इसलिये गांव का नाम गुमट बिहारी रख दिया गया। मीडिया चैनल किस तरह कहानी गढ़ते हैं, इस बाबत अब्दुल सुब्हान के बेटे मोहम्मद आलम बताते हैं कि, “अब्बू की गिरफ्तारी के वक़्त कई मीडिया चैनल ने बताया कि अब्दुल सुब्हान बिहार में विस्फोट करना चाहता था।” आलम के मुताबिक़ मीडिया ने ऐसा सिर्फ इसलिये किया क्योंकि उनके गांव के नाम में बिहारी शब्द जुड़ा है। अब्दुल सुब्हान तक़रीबन आठ साल बाद आतंकवाद के तमाम आरोपों से बरी होकर अपने गांव गुमट बिहारी पहुंचे हैं। उन पर और उनके परिवार पर ये आठ साल कैसे गुज़रे हैं यह किसी त्रासदी से कम नहीं है।
पुलिस की कहानी और मीडिया ट्रायल
अब्दुल सुब्हान की गिरफ्तारी के वक़्त कहानी गढ़ी गई कि वह 2011 में, राजस्थान के भरतपुर जिले के गोपाल गढ़ और 2013 में उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में हुए दंगों का बदला लेने के लिये देश में विस्फोट करना चाहता था। साथ ही बताया गया कि अब्दुल सुब्हान प्रतिबंधित आतंकवादी संगठन, लश्करे तैयबा (एलईटी) का सदस्य था, उक्त दंगों ने जिहाद के लिए उसके जुनून को जगा दिया। उसने अपनी यह योजना मोहम्मद राशिद को बताई, राशिद ने जिहाद के लिए धन जुटाने के लिए एक व्यापारी का अपहरण करने के अपने इरादे के बारे में बताया और कहा कि दुबई में जावेद बलूची की मदद से हवाला चैनलों के माध्यम से धन प्राप्त किया जाएगा। उसने मोहम्मद जावेद बलूची से बात करने के लिए राशिद को फर्जी पहचान पर मोबाइल फोन कनेक्शन/सिम कार्ड की व्यवस्था करने के लिए कहा। अब्दुल सुब्हान ने मेवात के रहने वाले जावेद और शब्बीर को भी जोड़ने और प्रेरित करने की कोशिश की लेकिन वे उससे नहीं जुड़े। जावेद और शब्बीर ही वही दो शख्स हैं जिन्हें पुलिस द्वारा अब्दुल सुब्हान के ख़िलाफ गवाह बनाया गया था।
कोरे काग़ज़ पर हस्ताक्षर
इस संवाददाता से बात करते हुए अब्दुल सुब्हान मामले में गवाह बनाए गए जावेद ने बताया कि उसे पुलिस द्वारा डराया गया था, और कहा गया था कि गवाह बन जाइए वरना बीस साल के लिये जेल भेज दिए जाओगे। जिसके बाद वह गवाह बनने के लिये राज़ी हो गया। जावेद बताते हैं कि, “मुझसे कोरे काग़ज़ पर हस्ताक्षर कराए गए।” जावेद बताते हैं कि उस वक्त तो मैंने डरकर गवाह बनना स्वीकार कर लिया, लेकिन मेरा ज़मीर मुझे कोस रहा था, कि मैं एक निर्दोष शख्स के ख़िलाफ झूठी गवाही कैसे दे सकता हूं। जिसके बाद मैंने अदालत को सच बता दिया। अब्दुल सुब्हान भी बताते हैं कि मुझसे भी कोरे कागज़ पर हस्ताक्षर कराए गए थे, और उसके बाद उन हस्ताक्षर के आधार पर मनघड़ंत बयान लिखकर उसे मेरा इक़बालिया जुर्म करार दे दिया गया। इसके बाद अब्दुल सुब्हान तक़रीबन आठ साल जेल में रहे, आठ साल में वे सिर्फ दो बार 6-6 घंटे की पैरोल पर अपने घर आए। यह पैरोल भी उन्हें अपनी बेटी की शादी में शिरकत और अपने एक क़रीबी रिश्तेदार के अंतिम संस्कार में शामिल होने के लिये मिल पाई।
अपने हुए पराए
अब्दुल सुब्हान के जेल जाने के बाद उनके परिवार ने जिस त्रासदी का सामना किया है वह मानवीय संवेदानाओं को झकझोर कर रख देती है। अब्दुल सुब्हान के बड़े बेटे मोहम्मद आलम की उम्र उस वक्त 20 वर्ष थी। आलम बताते हैं कि “अब्बू के जेल में जाने के बाद हम लोग बुरी तरह टूट गए, जितने भी हमारे ख़ानदान वाले थे, सबने हमसे दूरी बना ली। गांव में लोग हमसे बात करते हुए भी डरते थे, तमाम रिश्तेदारों ने हमसे दूरी बना ली।” आलम बताते हैं कि, “रिश्तेदारों का दूरी बना लेना स्वभाविक था, क्योंकि हमारे अब्बू पर आरोप ही ऐसा लगा था, हमें कुछ सुझाई नहीं दे रहा था कि हम क्या करें? कैसे पैरवी करें? कहां जाएं। एक तो हमें कोई जानकारी नहीं थी, दूसरा हमारी आर्थिक हालात भी बहुत खराब थी।”
आलम बताते हैं कि अब्बू की गिरफ्तारी के वक़्त तमाम मीडिया चैनल हमारे घर आते थे, हमसे तरह-तरह के सवाल करते। फिर अपनी ओर से झूठी रिपोर्टस चलाते। आलम कहते हैं कि, “मीडिया ने अदालत के फैसले से पहले ही मेरे पिता को आतंकवादी साबित कर दिया था।” आलम बताते हैं कि मीडिया अक्सर उनके पिता को निशाना बनाता रहता था। लेकिन फिर ऐसा भी हुआ कि जब मीडिया ने मुझे भी निशाना बनाना शुरू कर दिया। आलम ने जनवरी 2021 में किसान आंदोलन शिरकत की थी, जिसकी तस्वीरें उसने अपने सोशल मीडिया अकाउंट पर पोस्ट कीं। यह वह समय था जब मीडिया द्वारा किसान आंदोलन को बदनाम करने के लिये फेक न्यूज़ फैलाई जा रही थीं। एक चैनल ने आलम की तस्वीरों को आधार बनाकर एक रिपोर्ट लिखी, जिसका शीर्षक था “किसान आंदोलन में पाक आतंकी संगठन लश्कर ए तैयबा से संबंध रखने वाले संदिग्ध भी शामिल हो गए, इंटेलिजेंस सतर्क।” हालांकि जब आलम ने इसकी शिकायत की तो चैनल ने रिपोर्ट को अपनी वेबसाइट से तो हटा लिया, लेकिन अपने सोशल मीडिया अकाउंटस से इस पोस्ट को नहीं हटाया गया।
किसान आंदोलन में पाक आतंकी संगठन लश्कर ए तैयबा से संबंध रखने वाले संदिग्ध भी शामिल हो गए, इंटेलिजेंस सतर्क
— Deepak Chaurasia (@DChaurasia2312) December 30, 2020
अदालत में क्यों नहीं टिक पाया अब्दुल सुब्हान का मुक़दमा
अब्दुल सुब्हान पर यूएपीए लगाया गया था। स्पेशल सेल द्वारा जो कहानियां गढ़ीं गईं थीं वे एक-एक कर अदालत के सामने झूठी साबित होती चली गईं। स्पेशल सेल की ओर से पेश किए गए गवाह पहले ही अदालत को बता चुके थे कि उन्होंने डर दिखाकर गवाह बनाया गया। इसके अलावा स्पेशल सेल ने अब्दुल सुब्हान का पाकिस्तान के आतंकी जावेद बलूची से जो संबंध जोड़ा था, वह अदालत में साबित नहीं हो सका। पटियाला हाउस कोर्ट के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश धर्मेंद्र राणा ने कहा, “अभियोजन पक्ष जावेद बलूची की पहचान साबित करने में असमर्थ रहा है, इस आरोप को छोड़कर कि वह एक खूंखार आतंकवादी है।”
इसके अलावा पटियाला हाउस कोर्ट के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश धर्मेंद्र राणा अपने फैसले में कहा, “मुझे विश्वास है कि अभियोजन पक्ष यह साबित करने में बुरी तरह विफल रहा है कि आरोपी व्यक्ति प्रतिबंधित आतंकवादी संगठन लश्करे तैयबा के सदस्य थे और तदनुसार वे यूएपीए की धारा 20 के तहत दंडनीय अपराध के आरोप से बरी होने के योग्य हैं।” अब्दुल सुब्हान पर आरोप था कि वह पाकिस्तान में बात करता है। इस कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि "केवल एक-दूसरे से बातचीत करने या पाकिस्तानी नंबर से बातचीत करने के लिए इस्तेमाल किए गए मोबाइल फोन और सिम कार्ड की बरामदगी किसी भी साजिश को साबित करने के लिए पर्याप्त नहीं है।" कोर्ट ने कहा कि ऐसा लगता है अभियोजन का मामला किसी भी विश्वसनीय साक्ष्य के बजाय अनुमानों पर आधारित है।
यह पहली बार नहीं है जब कोई मुसलमान बेगुनाह साबित हुआ हो और उस पर आतंकवाद का झूठा आरोप न लगा हो। ये तो अब ऐसा हो गया है कि पीड़ित ही साबित करे की सिस्टम झूठा नहीं है। बेगुनाह साबित हो जाने के बाद इतने बरस की पीड़ा, त्रासदी, विपन्नता और इज़्ज़त तो अदालत भी नहीं दिलवा सकता, मगर इतना किया जा सकता है कि जिन पुलिस अफसरों ने साज़िश की हो, उन पर कानून को गुमराह करने का मुक़दमा चले और इस दौरान वह अधिकारी सस्पेंड रहेंगे। अगर रिटायर हो गए हों तो पेंशन रुकेगी। खाकी को खाक में मिलने वाला भी साबित करे कि संविधान हर नागरिक को बराबर समझता है। पुलिस सुधार से ही समाज सुधार होगा।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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