विश्वविद्यालयों मे व्याप्त जातिगत भेदभाव को 'अदृश्य' करने की कवायद
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) विवादास्पद कारणों से लगातार सुर्खियों में बना हुआ है। यूजीसी ने हाल ही में जो नए नियम अधिसूचित किए हैं जिनके बारे मे बताया गया है कि वे छात्रों की शिकायतों को दूर करने वाले नियम हैं, जिनमें अन्य शिकायतों के साथ जातिगत भेदभाव के मुद्दों को भी शामिल किया गया है। कुछ हफ़्ते पहले, यूजीसी ने इस बात की इजाज़त देने का फैसला किया है देश में अब विदेशी विश्वविद्यालय अपने कैंपस खोल पाएंगे, और इसके साथ ही इसने विश्वविद्यालयों के रजिस्ट्रारों से यह भी पूछा कि क्या "किसी ऐसे पाकिस्तानी लेखक" के बारे में पढ़ाया जा रहा है जो भारतीय हितों का विरोध करता है, यदि हां तो इसके खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई की धमकी दी गई है।
छात्र शिकायतों से संबंधित बनाए गए नियमों ने शिक्षाविदों और कार्यकर्ताओं दोनों को परेशान कर दिया है। यूजीसी यह जताना चाहती है कि वह उच्च शिक्षा की गुणवत्ता को बनाए रखने वाला एक स्थापित वैधानिक निकाय है, जिसका अर्थ है कि इसे परिसरों में एक गैर-भेदभावपूर्ण वातावरण को बनाना चाहिए, जो अब तक जाति और पहचान-आधारित भेदभाव के प्रति उदासीन रहा है और जो भेदभाव उच्च शिक्षा के शिक्षण संस्थानों में व्याप्त है। यहां तक कि अब तक आईआईटी मुंबई और आईआईटी मद्रास में कई युवा स्कोलर्स आत्महत्याएं कर चुके हैं, लेकिन यूजीसी अभी भी उन त्रासदियों से बेखबर नज़र आ रही है।
इससे भी अधिक झकझोरने वाली बात यह है कि भेदभाव का मुकाबला करने के लिए विशेषज्ञों की राय पर आधारित उचित ढांचा होना चाहिए था जो नहीं है। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में जातिगत भेदभाव की जांच करने वाली एक जांच समिति, जिसकी अगुवाई प्रोफेसर सुखदेव थोराट ने की थी, उस जांच समिति की बदौलत समान अवसर वाले प्रकोष्ठ भी बनाए गए हैं। फिर नए नियमों का मसौदा तैयार करने की तत्काल जरूरत क्यों आन पड़ी?
ऐसे माहौल में यूजीसी द्वारा नए नियमों की अधिसूचना जारी करना गलत है क्योंकि परिसरों में रहने और पढ़ने वाले वंचित समुदायों के छात्रों को सुरक्षा प्रदान करने के लिए निर्भया अधिनियम की तर्ज पर रोहित अधिनियम लागू करने की मांग बढ़ रही है। इस कानून की मांग पहली बार 2016 में हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के एक छात्र रोहित वेमुला की दुखद आत्महत्या के बाद उठाई गई थी। यह एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन के बाद उठाई गई एक सामूहिक मांग थी, जो जातिगत भेदभाव की आलोचना तो करती है साथ ही यह 'सूक्ष्म' या 'अदृश्य' बहिष्करण और अभावों में जी रहे छात्रों के मुद्दों को सामने लाती है। बावजूद इसके ऐसा कोई कानून नहीं बना, जो उच्च शिक्षण संस्थानों में आत्महत्याओं की घटनाओं को कम कर सके, जिसमें वंचित तबकों और जाति समूहों के छात्र भी शामिल हैं।
जबकि छात्र और एक्टिविस्ट चाहते हैं कि यूजीसी जाति के मुद्दों से ठीक से निपटे, इसके विपरीत यूजीसी नए नियम, जाति और अन्य शिकायतों को एक ही पायदान पर रखकर देखते हैं, जो लगता है कि ये जाति को मिटाने के मामले में काफी उत्सुक हैं। यह अलग बात है कि ये नए नियम छात्रों की चिंताओं के प्रति वैधानिक संस्था/निकाय बनाने के प्रति असंवेदनशीलता को प्रदर्शित करते हैं - और इस बात से प्रभावी रूप से इनकार करते हैं कि परिसरों में पहचान के आधार पर भेदभाव मौजूद है।
लेकिन इसमें यह भी जोड़ा जाना चाहिए कि हाल के वर्षों में जिसने यूजीसी के कामकाज़ को बारीकी से देखा है और इसके दृष्टिकोण को जांचा है, ऐसा कोई भी व्यक्ति इस बात की पुष्टि कर सकता है कि इन नए नियमों में कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं है। जबकि ये नियम जातिगत भेदभाव के मुद्दों को उठाना मुश्किल बना देंगे या इसे अदृश्य बना देंगे, और नतीजतन हमारे उच्च शिक्षा के संस्थानों में छात्रों की मूल पहचान के आधार पर बहिष्करण और भेदभाव और बढ़ जाएगा।
2017 में, यूजीसी के नियमों ने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय जैसे प्रमुख विश्वविद्यालयों द्वारा विकसित अद्वितीय प्रवेश प्रक्रिया को लगभग समाप्त करने में मदद की थी। यह तब हुआ जब दिल्ली उच्च न्यायालय ने जेएनयू प्रशासन को "वंचित बिंदुओं" (Deprivation Points) के आधार पर प्रवेश रोकने और यूजीसी के 2016 के नियमों का "बिना किसी रोकटोक" के लागू करने को कहा था। लेकिन पूरे देश में गरीब/वंचित छात्रों के लिए शिक्षा को सुलभ बनाने के लिए जेएनयू द्वारा अपनाई गई डेप्रिवेशन पॉइंट-आधारित प्रणाली की व्यापक रूप से सराहना की गई थी। इसका परिणाम यह हुआ कि विश्वविद्यालय में अनुसंधान-स्तर पर प्रवेश के लिए देश भर से सराही जाने वाली एक योजना को बंद कर दिया गया। इसने न केवल अधिक महिलाओं को बल्कि सामाजिक और धार्मिक रूप से हाशिए पर पड़े वर्गों के अधिक छात्रों को विश्वविद्यालय में प्रवेश में मदद की थी, यह एक ऐसी प्रणाली थी जिसे यूजीसी खुद आज भी लागू नहीं कर पाया है। छात्रों और शिक्षकों के लगातार विरोध के कारण, कथित तौर पर जेएनयू प्रशासन ने डेप्रिवेशन पॉइंट-आधारित प्रणाली पर पुनर्विचार करने का आश्वासन दिया है। बेशक, यह देखना बाकी है आखिर इस प्रणाली का अंत में क्या होगा।
यूजीसी के नियमों को दूसरे नज़रिए से भी देखा जा सकता है। यह याद रखा जाना चाहिए कि जारी किए गए नए नियम यूजीसी में मौजूद कुछ नौकरशाहों की सनक का परिणाम नहीं हैं, बल्कि यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसकी राजनीतिक शाखा भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली सत्तारूढ़ व्यवस्था का परिणाम है कि वह जाति और उसके प्रति भेदभाव को कैसे देखती है। उनकी हिंदू एकता की परियोजना, जिसे वे भविष्य के हिंदू राष्ट्र के आधार के रूप में देखते हैं, यदि वे हिंदू धर्म और समाज में आंतरिक विषमताओं और भेदभाव/बहिष्करणों को स्वीकार कर लेते हैं तो उनका हिन्दू राष्ट्र का खवाब लड़खड़ाने लगेगा। इसलिए सामान्य शिकायतों के साथ जातिगत भेदभाव को जोड़ने से ऐसी सभी ऐतिहासिक विषमताओं को ढंकने में मदद मिलती है।
जाति और सामाजिक उत्पत्ति के अन्य कारकों के आधार पर अलग-अलग भेदभावों को स्वीकार करने से यूजीसी का इनकार, प्रभावी रूप से स्थिति की गंभीरता को नकारता है। यह गुजरात राज्य के उन प्रयासों की याद दिलाता है, तब नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री थे, और नवसर्जन ट्रस्ट, एक जाति-विरोधी भेदभाव संगठन, ने ग्रामीण गुजरात में सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों में अस्पृश्यता के व्यापक प्रसार को ठोस आंकड़ों के साथ प्रदर्शित किया था। जनवरी 2010 में प्रकाशित इसकी रिपोर्ट के अनुसार, अस्पृश्यता ने अनुसूचित जातियों (एससी) और गैर-अनुसूचित जातियों के सदस्यों और अनुसूचित जातियों के सदस्यों के बीच बातचीत में प्रवेश किया।
इस रिपोर्ट में गुजरात के लगभग 1,589 गांवों को शामिल किया गया था, जिसमें कुछ महत्वपूर्ण मापदंडों के आधार पर सर्वेक्षण किया गया था, जिसमें मंदिरों तक पहुंच और प्रवेश करने के अधिकार से लेकर साझा कुएं के इस्तेमाल और इसी तरह के अन्य कारक शामिल थे। नवसर्जन के अनुसार, 2009 में जिन गांवों का सर्वेक्षण किया गया उनमें से 98 प्रतिशत में अभी भी किसी न किसी रूप में अस्पृश्यता मौजूद है।
यह देखते हुए कि नवसर्जन की रिपोर्ट के निष्कर्षों ने "समरस गुजरात" की सुसंस्कृत छवि को चुनौती दी, तो गुजरात सरकार ने "समान अवसरों पर जातिगत भेदभाव और भेदभाव का प्रभाव: गुजरात का एक अध्ययन" शीर्षक से एक स्टडी प्रायोजित की थी। इसे सेंटर फॉर एनवायरनमेंट प्लानिंग एंड टेक्नोलॉजी यूनिवर्सिटी (सीईपीटी) विश्वविद्यालय के स्कोलर्स और प्रोफेसरों द्वारा किया गया था और रपट में यह निष्कर्ष निकाला गया कि जातिगत भेदभाव "धारणाओं" का मसला है।
वयोवृद्ध पत्रकार राजीव शाह ने लगभग 300 पन्नों की गुजरात सरकार द्वारा प्रायोजित रिपोर्ट के बारे में कहा कि "'अस्पृश्यता को समझने' की समीक्षा से कहीं अधिक, यह कुप्रथा को सही ठहराने का एक प्रयास है।"
राज्य सरकार खुद को क्लीन चिट देने के लिए इतनी उत्सुक दिख रही थी कि उसने खुद को जिस असहज स्थिति में पाया, उससे निपटने के लिए उसने दो तरफा रुख अपनाया। रिपोर्ट को लागू करने के अलावा, इसने रिपोर्ट के निष्कर्षों का खंडन करने के लिए तत्कालीन सामाजिक न्याय मंत्री फकीर भाई वाघेला और विभिन्न विभागों के सचिवों की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया। इसने अपने अधिकारियों को अस्पृश्यता के गैर-अस्तित्व के संबंध में अनुसूचित जाति के गांव के निवासियों से हलफनामा हासिल करने का भी निर्देश दिया। उच्च शिक्षा में आज जो कुछ हो रहा है, उसे सत्ता में शासन के आंतरिक रवैये के विस्तार के रूप में देखा जा सकता है- इसे जातिगत भेदभाव के प्रति अपने या यूजीसी के दृष्टिकोण को बदलने की कोई आवश्यकता नहीं दिखती है।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित ख़बर को पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें :
How to Make Caste Discrimination Disappear From Universities
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