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लेज़र के ज़रिये फ़्यूज़न : नयी खोज और न्यूक्लियर बम से उसका रिश्ता

अमेरिका के ऊर्जा विभाग और नेशनल न्यूक्लिअर सीक्योरिटी एडमिनिस्ट्रेशन ने जो संयुक्त प्रैस नोट जारी किया है, उसमें कहा गया है कि यह प्रयोग, ‘...राष्ट्रीय प्रतिरक्षा और स्वच्छ ऊर्जा के भविष्य की प्रगति का रास्ता बनाएगा।’ दूसरे शब्दों में यह कि फ़्यूज़न के इस प्रयोग का एक शस्त्र घटक भी था। प्रतिरक्षा विभाग का अर्थ है, युद्ध विभाग।
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फ़ोटो साभार: AP

लॉरेंस लिवरमोर लैबोरेटरी ने लेज़र किरणों का प्रयोग कर, फ़्यूज़न ऊर्जा हासिल करने में जो प्रगति की है, उसे दुनिया भर में एक जबर्दस्त कामयाबी के तौर पर पेश किया जा रहा है। लेकिन, वाकई यह किस चीज में कामयाबी है? इस सिलसिले में अमेरिका के ऊर्जा विभाग और नेशनल न्यूक्लिअर सीक्योरिटी एडमिनिस्ट्रेशन ने जो संयुक्त प्रैस नोट जारी किया है, उसमें कहा गया है कि यह प्रयोग, ‘...राष्ट्रीय प्रतिरक्षा और स्वच्छ ऊर्जा के भविष्य की प्रगति का रास्ता बनाएगा।’  दूसरे शब्दों में यह कि फ़्यूज़न के इस प्रयोग का एक  शस्त्र घटक भी था। प्रतिरक्षा विभाग का अर्थ है, युद्ध विभाग।

ऊर्जा के पहलू से उपलब्धि अभी दूर

बहरहाल, प्रोफेसर रिचर्ड रोज़नर ने, जो यूनिवर्सिटी ऑफ शिकागो के प्रोफेसर हैं तथा एरगोने नेशनल लैबोरेटरी के निर्देशक रह चुके हैं, बुलेटिन आफ एटमिक साइंटिस्ट्स से बातचीत करते हुए (‘इनर्जी डिपार्टमेंट्स फ़्यूज़न बे्रक थ्रू: इट इज़ नॉट रिअली अबाउट जेनरेटिंग इलैक्ट्रिसिटी’, जॉन मैक्लिन, 16 दिसंबर 2022) कहा कि इस प्रयोग का असली मकसद तो नाभिकीय शस्त्रों का जो जखीरा जमा कर लिया गया है, उसके स्वास्थ्य की इस तरह से जांच करना ही था कि इसके लिए, वास्तव में विस्फोट करने की जरूरत नहीं पड़े।

नियंत्रित फ़्यूज़न का यह प्रयोग लेज़र प्रणाली का एक रीयल लाइफ परीक्षण ही था। इस प्रयोग ने यह दिखाया है कि लेज़र किरणों का इस्तेमाल कर के, हाइड्रोजन को तोड़ा जा सकता है (इस तजुर्बे में इसके लिए हाइड्रोजन के आइसोटोपों, ड्यूटेरियम तथा ट्रिटियम का प्रयोग किया गया था)। इस तजुर्बे के अंत में, लेज़र द्वारा दी जा रही ऊर्जा से थोड़ी ज्यादा ऊर्जा मिलती है और कुल मिलाकर ऊर्जा की कुछ प्राप्ति होती है। बहरहाल, अगर इसमें 192 लेज़र बीम बनाने में लगी ऊर्जा को भी जोड़ लिया जाए तो, खेदपूर्वक यही कहना पड़ेगा कि कुल मिलाकर इस तजुर्बे के जरिए फालतू ऊर्जा हासिल करने से हम अभी काफी दूर हैं। इस तरह, लेज़र किरणों का प्रयोग कर फ़्यूज़न के जरिए, व्यावहारिक तरीके से ऊर्जा उत्पादन अभी कम से कम कुछ दशक दूर तो जरूर ही है। करीब-करीब यही कहना है कि हम नहीं जानते कि यह कब तक हो पाएगा या हो भी पाएगा या नहीं!

एटमी बमों की जांच के लिए बहरहाल, जैसाकि अमरीकी प्रतिरक्षा संस्थान की प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया है, उसकी राष्ट्रीय प्रतिरक्षा की प्रगति के लिए, ऐसे तजुर्बे की क्या जरूरत थी?

सम्पूर्ण परीक्षण प्रतिबंध संधि (सीटीबीटी) के पीछे मूल कल्पना यह थी कि उसे पूर्ण निरस्त्रीकरण की दिशा में जाने वाला फौरी कदम बनना है। ताप-नाभिकीय एटमी बम एक जटिल उपकरण होता है और शुरू में इनका रख-रखाव करने के लिए, त्रुटिपूर्ण हिस्सों की जगह पर, खोल कर पुर्जा-पुर्जा कर दिए गए बमों के पुर्जे लगा दिए जाते थे। बेशक, इस रास्ते पर अब भी चलता रहा जा सकता है, बशर्ते खोल दिए गए बमों के सभी पुर्जों को इन्वेंटरी में रखा जा रहा हो या चंद हिस्सों को ही बनाने के जरिए काम चलाया जा सकता है, हालांकि इसकी लागत ज्यादा बैठेगी। लेकिन, यह सवाल तो फिर भी रहता ही है कि बम में बंद विखंडनीय नाभिकीय सामग्री की दशा या स्वास्थ्य की जांच का क्या? यह कैसे जाना जाए कि यह सामग्री भी स्थिर तथा इसके लिए उपयोग के लायक बनी हुई है या नहीं?

अमरीकी राष्ट्रीय नाभिकीय सुरक्षा प्रशासन के ‘‘स्टॉकपाइल स्टीवर्डशिप’’ कार्यक्रम का काम यही था कि बमों पर भौतिक परीक्षण किए बिना ही, बमों का ‘स्वस्थ’ होना सुनिश्चित किया जाए। लॉरेंस लिवरमोर लैबोरेटरीज ने हाल ही में जो बड़ा टेस्ट किया है, इसकी तस्दीक कर सकता है कि नाभिकीय सामग्री अब भी पुरअसर बनी हुई है। जमा किए गए बमों में से कुछ नमूने लिए जा सकते हैं और लॉरेंस लिवरमोर लैबोरेटरीज द्वारा जिस 192 लेज़र प्रणाली का निर्माण किया गया है, इसका सहारा लेकर इन नमूनों में नाभिकीय प्रक्रिया को जगाया जा सकता है और इसकी जांच की जा सकती है कि इस प्रक्रिया के नतीजे, आशानुरूप हैं या नहीं। अगर नतीजे आशानुरूप हों तो इसका मतलब यह कि बमों के जखीरे के हाइड्रोजन बम अब भी काम के हैं या स्वस्थ हैं। इसलिए, कोई प्रत्यक्ष भौतिक परीक्षण करने की जरूरत नहीं है और उस प्रकार के परीक्षण के बिना ही इसकी तस्दीक ही जा सकती है कि अमरीकी शस्त्रों के ये मुकुट रत्न--कॉलिन पावेल ने नाभिकीय बमों को यही नाम दिया था--अब भी पहले की तरह ही कारगर बने हुए हैं! और यह इस बात को भी सुनिश्चित करता है कि इस तरह के जटिल परीक्षण करने वाले लोग, वाकई इसे समझते हैं कि वे क्या कर रहे हैं?

अमरीकी सरकार के राष्ट्रीय नाभिकीय सुरक्षा प्रशासन ने ही इस लेज़र परियोजना पर काम करने वाली टीम को पैसा दिया था। लॉरेंस लिवरमोर लैबोरेटरी तो खुद ही और लॉस एलामोस लैबोरेटरी, अमेरिका की दो सबसे बड़ी शस्त्र अनुसंधान प्रयोगशालाएं हैं। इस खास मामले में फंडिंग आयी है, अमेरिका के राष्ट्रीय नाभिकीय सुरक्षा प्रशासन के स्टीवर्डशिप कार्यक्रम से, जिसके कंधों पर अमेरिका के नाभिकीय जखीरे के स्वास्थ्य की देखभाल का जिम्मा है।

अमेरिका को नाभिकीय हथियारों के इस पुराने होते जखीरे पर कितना खर्चा करना पड़ता है? डेनियल  ग्रोस इस विषय पर साइंसहिस्ट्री.ऑर्ग पर 28 मई 2016 को प्रकाशित अपने लेख, ‘एन एजिंग आर्मी’ में बताते हैं कि नाभिकीय बमों के जखीरे के रख-रखाव के लिए--उसके भंडारण, सुरक्षा तथा रख-रखाव--के लिए करीब 20 अरब डालर सालाना की जरूरत पड़ती है यानी अमरीकी की नेशनल साइंस फाउंडेशन के कुल बजट से तीन गुने की।

जलवायु परिवर्तन समस्या का समाधान यह नहीं है

माना कि लॉरेंस लिवरमोर लैबोरेटरीज के लेज़र किरणों से संबंधी प्रयोग का मुख्य मकसद, हाइड्रोजन बमों के जखीरे के स्वस्थ होने की जांच करना था, लेकिन क्या फ़्यूज़न ऊर्जा के रूप में उसका एक  बड़ा गौण उपयोग भी हाथ नहीं आ रहा है? आखिरकार, अतीत में भी ऐसे अनेक मामले रहे हैं जिनमें प्रौद्योगिकी सैन्य ऊपयोग से शुरू हुई है, लेकिन अंतत: असैनिक उपयोग के लिए उपलब्ध हो गयी है। तो इस प्रयोग के परिणामों से खासी अच्छी मात्रा में फ़्यूज़न ऊर्जा का रास्ता क्यों नहीं खुल रहा हो सकता है? अगर ऐसा रास्ता खुल सकता है तो इस तरह जीवाश्म ईंधन के उपयोग तथा इस तरह ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के चलते पृथ्वी का ताप बढऩे की समस्या से बचने का भी रास्ता मिल जाएगा। लेकिन, इस मामले में सबसे पहले तो समय का कारक ही सबसे महत्वपूर्ण है। अगर अगले 10-20 साल में हमने अपने कार्बन उत्सर्जनों में भारी कटौती नहीं की तो, विश्व ताप की वृद्घि को 2 डिग्री तक ही रोकने के लिए, ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को घटाने की जो हमारी मोहलत है, वह इससे पहले ही खत्म हो जाएगी। हमारे पास अब ज्यादा समय नहीं रह गया है। इसलिए, कोई भी प्रौद्योगिकी जो कम से कम दो दशक दूर जरूर है, विश्व ताप की वृद्घि को ज्यादा बढऩे से रोकने के मकसद के लिए किसी काम की नहीं है।

इसलिए, फ़्यूज़न से मिलने वाली ऊर्जा के संबंध में वैश्विक ताप वृद्घि के समाधान की बात तो हमें भूल ही जानी चाहिए। सवाल यह रहता है कि क्या फ़्यूज़न से मिलने वाली ऊर्जा, वैश्विक ताप वृद्घि को रोकने या कम करने की बात अगर हम छोड़ भी दें तो भी, ऊर्जा के दीर्घावधि तथा एक बड़े स्रोत के रूप में, बिजली ग्रिडों के लिए ऊर्जा का स्रोत बन सकती है?

ऊर्जा का स्रोत: तकनीकी दृष्टि से

इस सवाल के आसान उत्तर को हम पहले ही अलग कर सकते हैं। फ़्यूज़न से निकलने वाली ऊर्जा का तो हम पहले ही उपयोग करते आ रहे हैं--सूर्य से मिलने वाली ऊर्जा, वास्तव में सूर्य में हो रहे फ़्यूज़न से निकलने वाली ऊर्जा ही तो है। इसलिए, हां यह ग्रिड के लिए ऊर्जा एक स्रोत तो हो सकता है। बहरहाल, इस संबंध में हमें दो सवालों का जवाब खोजना होगा। पहला सवाल, विज्ञान-प्रौद्योगिकी का सवाल है, कि हम किन प्रक्रियाओं का उपयोग करेंगे जिससे, लागत के तौर पर जितनी ऊर्जा हम लगाते हैं, उससे ज्यादा ऊर्जा उत्पाद के तौर पर हमें मिल रही होगी। दूसरा सवाल है, इसकी लागत कितनी आएगी? तकनीकविदों को हमेशा ही इस दूसरे सवाल का जवाब देना होता है, प्रौद्योगिकी काम तो करती है, पर उससे लागत कितनी बैठती है? इसकी लागत, अन्य प्रौद्योगिकियों के मुकाबले कम या कम से कम उनसे तुलनीय तो है या नहीं?

विज्ञान संबंधी घटक का जवाब देना कहीं आसान है। जैसाकि प्रोफेसर रिचर्ड रोज़नर ने, बुलेटिन ऑफ एटमिक साइंटिस्ट्स  में अपनी साक्षात्कार में कहा है, इस समस्या का हल तो हमने बहुत पहले ही खोज लिया था। हाइड्रोजन बम में हम पलीते के तौर पर एक फ़्यूज़न उपकरण (एक अतिलघु एटम बम) का ही तो उपयोग करते हैं, और इससे इस पलीते को घेरे हुए हाइड्रोजन के खोल में फ़्यूज़न होता है और नाभिकीय फ़्यूज़न चल पड़ता है। रोज़नर को उद्यृत करें तो - ‘इसलिए, हम लंबे समय से यह जानते हैं कि कैसे हाइड्रोजन में विखंडन शुरू कराया जाए और इस प्रक्रिया में ऊर्जा हासिल की जाए। 1952 में हमने पहले ताप-नाभिकीय उपकरण में विस्फोट किया था, जिसका विस्फोट मुख्यत: हाइड्रोजन के फ़्यूज़न का नतीजा था। इसलिए, हम बहुत लंबे समय से यह जानते हैं कि यह कैसे कर सकते हैं।’ इस प्रयोग में जो चीज अलग है वह यह कि इसमें नियंत्रित हालात में फ़्यूज़न किया गया है।

ऊर्जा उत्पादन की वहनीयता अभी दूर

लेकिन, क्या यह नियंत्रित हालात में फ़्यूज़न का भी पहला ही उदाहरण है? नहीं, इससे पहले ऐसा अन्य प्रयोगशालाओं में भी किया जा चुका है। इन उदाहरणों में टोकामैक के नाम से पहचाने जाने वाले उपकरणों में हाइडोजन के विद्युत-चुम्बकीय (इलैक्ट्रो-मैग्नेटिक) संघनन के जरिए यह किया गया है। और कुछ मामलों में तो फ़्यूज़न कहीं लंबे समय तक चलता रहा है। लॉरेंस लिवरमोर लैबोरेटरीज के प्रयोग में नया यह है कि इसमें इसमें लेज़रों के जरिए जितनी ऊर्जा लगायी गयी थी, उससे ज्यादा ऊर्जा पैदा की जा सकी है। इसीलिए, इस मामले में ऊर्जा लाभ या प्राप्ति की संज्ञा का प्रयोग किया गया है। लेकिन, अगर हम इस प्रयोग के लिए, डियूटेरियम तथा ट्रिटियम के मिश्रण के छोटे से कैप्सूल का संघनन करने के लिए, 192 लेज़र बमों को पैदा करने में लगने वाली ऊर्जा का हिसाब लगाएं तो, लेज़रों से कैप्सूल में डाली जाने वाली ऊर्जा से, करीब सौ गुनी ऊर्जा हमें उत्पाद के तौर पर मिलती है।

लेज़रों को फायर करने में लगने वाली ऊर्जा को हम गणना से बाहर ही छोड़ देते हैं। तब भी लेज़र से हाइड्रोजन का फ़्यूज़न करने ऊर्जा का वहनीय स्रोत बनाने के लिए, हमें इसके लिए किस तरह के पैमाने की जरूरत होगी? इस सवाल का जवाब वाकई काफी निराश करने वाला है। पुन: रोज़नर को ही उद्यृत करें तो, इस तरह की प्रक्रिया को वहनीय मानने के स्तर पर पहुंचने के लिए हमें, प्रतिदिन दस लाख छर्रों/ कैप्सूलों पर, प्रति सैकेंड दस बार की रफ्तार से, ऐसी लेज़र किरणों को फायर करना होगा! और यह तो तब है जबकि हम दूसरे बुनियादी सवाल को तो हिसाब में ही नहीं ले रहे हैं कि इसकी लागत कितनी होगी और इसलिए क्या यह प्रक्रिया आर्थिक रूप से वहनीय होगी।

ऊर्जा के लिए मौजूद हैं दूसरे बेहतर विकल्प

क्या फ़्यूज़न ऊर्जा पैदा करने के लेज़र बीमों का प्रयोग करने से बेहतर विकल्प भी हैं? टोकामैक इस तरह का विकल्प हैं, जिनमें हाइड्रोजन के विभिन्न आइसोटोपों का ईंधन के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है और इलैक्ट्रो-मैग्नेटिक बलों का प्रयोग कर उनका संघनन किया जाता है, जो फ़्यूज़न पैदा करता है। विभिन्न संस्थाओं में इनकी आइमाइश की जा चुकी है। फिलहाल इस मामले में चीनी टोकामैक आगे है, जिसे ईस्ट (ईएएसटी) का नाम दिया गया है। इसके बाद योरपीय टोकामैक का नंबर आता है, जिसे जैट (जेईटी) का नाम दिया गया है। आइटीईआर टोकामैक, जो कि एक अंतर्राष्ट्रीय परियोजना है, जिसमें भारत भी साझीदार है, 2025 तक चालू हो जाने वाली है। लेकिन, इस योजना से डियूटेरियम तथा ट्रिटियम का उपयोग कर, फ़्यूज़न के जरिए सतत तरीके से ऊर्जा का उत्पादन, 2035 तक ही शुरू हो पाने की योजना है और इस पर इसमें जितनी ऊर्जा लगायी जाएगी, उससे दस गुनी ऊर्जा का ही उत्पादन हो रहा होगा। फिर भी, इससे बिजली पैदा नहीं की जाएगी क्योंकि यह एक सुपरिचित प्रौद्योगिकी है, जिसमें नये शोध का तो कोई घटक है ही नहीं।

लेकिन, हमारे लिए फ़्यूज़न से ऊर्जा पैदा करना इतना मुश्किल क्यों है जबकि सभी सितारे, जिनमें हमारा सूर्य भी शामिल है, इतनी आसानी से फ़्यूज़न से ही ऊर्जा पैदा कर रहे हैं? इस सवाल का जवाब, सूर्य की भीमकाय गुरुत्वाकर्षण शक्ति में छुपा है। इसीलिए सूर्य, जो कि  एक सितारा है, हमारी तुलना में बहुत आसानी से हाइड्रोजन को संघनित कर पाता है। ऐसी जबर्दस्त गुरुत्वाकर्षण शक्ति के बिना, हमारी पृथ्वी पर हाइड्रोजन के आइसोटोपों को संघनित करना, एक समस्या है। इसीलिए, जो काम सितारों पर गुरुत्वाकर्षण शक्ति कहीं आसानी से कर देती हैं, उसे ही करने के लिए हमें पृथ्वी पर लेज़र किरणों तथा विद्युत-चुंबकीय शक्ति की जरूरत पड़ती है।

लेकिन, हमें जीवाश्म ऊर्जा के विकल्पों की आज और अभी जरूरत है। जैसाकि इसी स्तंभ में हमने पहले भी लिखा है, सूर्य जैसे स्रोतों से हासिल होने वाली नवीकरणीय ऊर्जा के ग्रिडों में उपयोग के लिए ऊर्जा के संचयन की चुनौती का समाधान निकालने और जन-सार्वजनिक परिवहन की ओर मुडऩे की तत्काल जरूरत है, ताकि ऊर्जा संक्रमण संभव हो। पृथ्वी पर छोटे-छोटे सूर्य पैदा करने जैसे, मुश्किल समस्याओं के कहीं कठिन समाधानों के पीछे भागने का यह समय नहीं है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल ख़बर को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें :

Nuclear Bomb Connection in United States Fusion Breakthrough

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